शारदीय दुर्गा नवरात्रि के समाप्त होते ही शरद ऋतु का स्वागत उत्सव यानि शरदोत्सव मनाने का क्रम शुरू हो चुका है।
शरद पूर्णिमा को उत्सव व परंपरा के रूप में ढालने वाले सबसे पहले थे कृष्ण, जिन्हें संभवत: तभी से एक और नाम मिल गया- रासाचारी कृष्ण का। आज इस रासाचारी शब्द को भले ही अन्यथा संदर्भों में देखा जाता है परंतु द्वापर काल में कृष्ण ने जिस तरह से इस उत्सव को पूरे आनंद के साथ मनाने के लिए अपनी साथी गोपियों को भी बाध्य कर दिया और एक नई परंपरा की नींव डाली, वह सब सिर्फ कृष्ण के ही वश में था।
संभवत: इसीलिए महाभारत में शरद पूर्णिमा पर महारास को देखकर कृष्ण और राधा की आराधना में कहा गया है-
'तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीड़ामनुव्रतै।
स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्ध बाहुभिः।।'
श्लोक के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक दूसरे की बाँह में बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री रत्नों के साथ यमुना के किनारे पर भगवान ने अपनी रासक्रीड़ा प्रारंभ की। श्लोक स्पष्ट करता है कि सामान्य गोपियों से अलग एक गोपी भगवान की परम प्रेयसी भी थी। अनुमान है कि वह राधा के अलावा और कौन हो सकती है।
भागवत पुराण के अनुसार तो कृष्ण का महारास संपूर्ण प्रकृति के लिए एक ऐसी अनूठी घटना थी, जो न कभी घटी और न घटेगी। मगर आज इस पूरे प्रसंग को तार्किक कसौटी पर कसा जाने लगा है। संभवत: कृष्ण और उनकी सभी क्रियाओं को लेकर युवा पीढ़ी में एक कौतूहल है क्योंकि वह आंख बंद करके भरोसा करना नहीं चाहती।
यूं तो समाज के स्थापित नियमों को नया रूप देने में कृष्ण सदैव आगे ही रहे और इसीलिए कृष्ण तथा उनके उठाये हुये कदम हमेशा शोध का विषय बने। कृष्ण ने तत्कालीन समाज के स्थापित नियमों को इस तरह बदला कि वह गूढ़ होते हुए सहज बने रहे...स्वीकार्य रहे।
यहां यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि आखिर इतनी सहजता से इतना कुछ कैसे कर पाये...श्रीकृष्ण ।
आज के समाज में भी नियमों को बदलना और समाज के विरुद्ध जाना बहुत मुश्किल होता है, कई बार तो खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है। फिर कृष्ण ने कैसे सबका मुकाबला किया होगा?
परंतु जीवन के हर क्षण को उत्सव बनाकर यदि स्वस्थ परंपराओं का प्रतिपादन किया जाये तो सामाजिक ताने-बाने की दृढ़ता निश्चित है। कृष्ण जानते थे कि बदलते समय की चुनौतियों का सामना करने की बजाय यदि उन्हें जिया जाये, उनका स्वागत किया जाये तो जीवन सहज व सरल हो जायेगा और सहजता के साथ जीवन का उत्सव ही तो था शरद पूर्णिमा पर किया गया महारास।
आज भी ये रहस्य ही बना हुआ है कि कृष्ण रासाचारी होते हुये भी ब्रह्मचारी क्यों कहलाये। हर गोपी को वे अपने साथ नृत्य करते दिखे और सिर्फ नृत्य ही नहीं, स्वयं में एकाकार होते भी दिखाई दिए। ऐसा कैसे संभव था कि एक ही समय में हर गोपी का अलग-अलग शैली व भंगिमा वाला नृत्य फिर भी कृष्ण उसके साथ उसी की नृत्य मुद्रा में नृत्य करते हैं, एकाकार हैं...क्या शारीरिक रूप से किसी व्यक्ति द्वारा ऐसा किया जाना संभव है? नहीं, परंतु वही सब कृष्ण के लिए संभव है। असंभव को संभव कर दिखाना और उसे प्रतिस्थापित करना ही तो कृष्ण के महारास का अभिप्राय है। इसका अर्थ है कि सहजता से जिया जाने वाला हर क्षण, रास है। मेटाफिजिकली देखें तो 'रास' हर समय हमारे आसपास घटने वाले क्षण हैं जो सिर्फ और सिर्फ परस्पर विरोधी गुणों, रंगों और व्यवहारों के सम्मिश्रण से जन्म लेते हैं।
आधुनिक अर्थों में कहा जाये तो रास एक कॉस्मिक इफेक्ट है प्रकृति का... मनुष्य के ऊपर। इसे व्यक्तिवादी मानना भूल हो सकती है क्योंकि यह किसी एक पुरुष का अनेक स्त्रियों के साथ नृत्य मात्र नहीं हैं। प्रकृति और पुरुष तत्व के सम्मिलन का माध्यम बनता है नृत्य, और इस तरह गढ़ा जाता है महारास...नृत्य को भी माध्यम महज इसकी सर्वग्राह्यता के कारण बनाया श्री कृष्ण ने। वे कृष्ण जो सब की सोचते हैं..सबको गुनते हैं और सब के हित साधते हैं। ऐसे ही हैं कृष्ण... और जैसे कृष्ण हैं वैसा ही है उनका महारास, एकदम पूर्ण... बिल्कुल शरद के स्वागत को अधीर सोलह कलाओं से पूर्ण चंद्रमा की भांति।
-अलकनंदा सिंह
शरद पूर्णिमा को उत्सव व परंपरा के रूप में ढालने वाले सबसे पहले थे कृष्ण, जिन्हें संभवत: तभी से एक और नाम मिल गया- रासाचारी कृष्ण का। आज इस रासाचारी शब्द को भले ही अन्यथा संदर्भों में देखा जाता है परंतु द्वापर काल में कृष्ण ने जिस तरह से इस उत्सव को पूरे आनंद के साथ मनाने के लिए अपनी साथी गोपियों को भी बाध्य कर दिया और एक नई परंपरा की नींव डाली, वह सब सिर्फ कृष्ण के ही वश में था।
संभवत: इसीलिए महाभारत में शरद पूर्णिमा पर महारास को देखकर कृष्ण और राधा की आराधना में कहा गया है-
'तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीड़ामनुव्रतै।
स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्ध बाहुभिः।।'
श्लोक के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक दूसरे की बाँह में बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री रत्नों के साथ यमुना के किनारे पर भगवान ने अपनी रासक्रीड़ा प्रारंभ की। श्लोक स्पष्ट करता है कि सामान्य गोपियों से अलग एक गोपी भगवान की परम प्रेयसी भी थी। अनुमान है कि वह राधा के अलावा और कौन हो सकती है।
भागवत पुराण के अनुसार तो कृष्ण का महारास संपूर्ण प्रकृति के लिए एक ऐसी अनूठी घटना थी, जो न कभी घटी और न घटेगी। मगर आज इस पूरे प्रसंग को तार्किक कसौटी पर कसा जाने लगा है। संभवत: कृष्ण और उनकी सभी क्रियाओं को लेकर युवा पीढ़ी में एक कौतूहल है क्योंकि वह आंख बंद करके भरोसा करना नहीं चाहती।
यूं तो समाज के स्थापित नियमों को नया रूप देने में कृष्ण सदैव आगे ही रहे और इसीलिए कृष्ण तथा उनके उठाये हुये कदम हमेशा शोध का विषय बने। कृष्ण ने तत्कालीन समाज के स्थापित नियमों को इस तरह बदला कि वह गूढ़ होते हुए सहज बने रहे...स्वीकार्य रहे।
यहां यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि आखिर इतनी सहजता से इतना कुछ कैसे कर पाये...श्रीकृष्ण ।
आज के समाज में भी नियमों को बदलना और समाज के विरुद्ध जाना बहुत मुश्किल होता है, कई बार तो खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है। फिर कृष्ण ने कैसे सबका मुकाबला किया होगा?
परंतु जीवन के हर क्षण को उत्सव बनाकर यदि स्वस्थ परंपराओं का प्रतिपादन किया जाये तो सामाजिक ताने-बाने की दृढ़ता निश्चित है। कृष्ण जानते थे कि बदलते समय की चुनौतियों का सामना करने की बजाय यदि उन्हें जिया जाये, उनका स्वागत किया जाये तो जीवन सहज व सरल हो जायेगा और सहजता के साथ जीवन का उत्सव ही तो था शरद पूर्णिमा पर किया गया महारास।
आज भी ये रहस्य ही बना हुआ है कि कृष्ण रासाचारी होते हुये भी ब्रह्मचारी क्यों कहलाये। हर गोपी को वे अपने साथ नृत्य करते दिखे और सिर्फ नृत्य ही नहीं, स्वयं में एकाकार होते भी दिखाई दिए। ऐसा कैसे संभव था कि एक ही समय में हर गोपी का अलग-अलग शैली व भंगिमा वाला नृत्य फिर भी कृष्ण उसके साथ उसी की नृत्य मुद्रा में नृत्य करते हैं, एकाकार हैं...क्या शारीरिक रूप से किसी व्यक्ति द्वारा ऐसा किया जाना संभव है? नहीं, परंतु वही सब कृष्ण के लिए संभव है। असंभव को संभव कर दिखाना और उसे प्रतिस्थापित करना ही तो कृष्ण के महारास का अभिप्राय है। इसका अर्थ है कि सहजता से जिया जाने वाला हर क्षण, रास है। मेटाफिजिकली देखें तो 'रास' हर समय हमारे आसपास घटने वाले क्षण हैं जो सिर्फ और सिर्फ परस्पर विरोधी गुणों, रंगों और व्यवहारों के सम्मिश्रण से जन्म लेते हैं।
आधुनिक अर्थों में कहा जाये तो रास एक कॉस्मिक इफेक्ट है प्रकृति का... मनुष्य के ऊपर। इसे व्यक्तिवादी मानना भूल हो सकती है क्योंकि यह किसी एक पुरुष का अनेक स्त्रियों के साथ नृत्य मात्र नहीं हैं। प्रकृति और पुरुष तत्व के सम्मिलन का माध्यम बनता है नृत्य, और इस तरह गढ़ा जाता है महारास...नृत्य को भी माध्यम महज इसकी सर्वग्राह्यता के कारण बनाया श्री कृष्ण ने। वे कृष्ण जो सब की सोचते हैं..सबको गुनते हैं और सब के हित साधते हैं। ऐसे ही हैं कृष्ण... और जैसे कृष्ण हैं वैसा ही है उनका महारास, एकदम पूर्ण... बिल्कुल शरद के स्वागत को अधीर सोलह कलाओं से पूर्ण चंद्रमा की भांति।
-अलकनंदा सिंह
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