आज का दिन...यानि 2 अक्तूबर... यानि शांति के मसीहा-महात्मा गांधी का जन्मदिन... आज के दिन सियासी गलियारों से लेकर सामाजिक चौखटों तक शांति का दिखावटी राग अलापा जायेगा लेकिन लालबहादुर शास्त्री को शायद ही याद किया जाए जबकि आज शास्त्रीजी का भी जन्मदिन है। दोनों की उन प्रतिमाओं को धोया संवारा भी जायेगा, जहां वर्षभर कबूतरों का सुलभ शौचालय आबाद रहता है। राजघाट से लेकर पब्लिक स्कूलों-मांटसरियों में भी गांधी के स्वदेशीपन को तरह-तरह से कैश किया जायेगा। कहीं उन्हें कांग्रेसी चश्मे से तो कहीं भाजपाई चश्मे से नापा-तोला जायेगा, फिर कल से शुरू होगी इन पार्टियों द्वारा दिये गये बयानों की उधेड़-बुनाई कि फलां ने ये कहा और फलां ने वो....बयानों के इतर इस बीच न गांधी बचेंगे न उनके सिद्धांत।
खैर, ये तो रहे गांधी जयंती समारोह के आफ्टर इफेक्ट्स.. मगर कुछ सवाल जो 1947 में अनुत्तरित रह गये थे, वो आज भी वहीं खड़े हैं। जैसेकि हिंदू-मुसलमानों को स्वयं महात्मा गांधी अपनी दो आंखें कहा करते थे.. और कहते थे कि इनमें से किसी एक के बिछुड़ने से भारत अपूर्ण रहेगा। आज उन्हीं के इस 'पूर्ण देश' में हिंदुओं की बात करने भर से माहौल सांप्रदायिक हो जाता है और मुसलमानों को तो 'मुसलमान' कह कर संबोधित करने तक में आपत्ति है। मुसलमानों के लिए एक शब्द ईज़ाद किया गया ''संप्रदाय विशेष''। देश में कहीं भी यदि हिंदू-मुसलमान के बीच है कोई फसाद हो जाए तो मीडिया रिपोर्टिंग में कहा जाता है.. दो संप्रदायों के बीच ये हुआ... दो संप्रदायों के बीच वो हुआ..आदि-आदि ।
हिंदू का नाम लिया जा सकता मगर मुसलमान का नहीं..क्यों ? क्या मुसलमान इस देश के वाशिंदे नहीं हैं या उन्हें ऐसा 'संप्रदाय विशेष' कहकर ''छेक देने'' की प्रवृत्ति जान-बूझकर पनपाई जा रही है ताकि जरूरत पड़ने पर उनका इस्तेमाल राजनीति के मोहरों बतौर किया जा सके। कहीं भी दंगे हों तो सबसे पहले आवाज उठती है कि संप्रदाय विशेष को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। क्यों भाई..जिन देशों में अकेले मुस्लिम आबादी है तो क्या वहां मारकाट नहीं हो रही। सच तो यह है कि सामाजिक हिंसा के सर्वाधिक मामले विश्व के उन देशों में दिखाई दे रहे हैं जिन्हें इस्लामिक मुल्क कहा जाता है। वहां तो न कांग्रेस है ना बीजेपी.. ना दो ''संप्रदाय'' और ''संप्रदाय विशेष'' जैसे शब्द।
आज गांधी को याद करने की और उनके शब्दों को दोहराने की रस्म अदायगी बखूबी निभाई जायेगी मगर उनकी दोनों आंखों की सेहत और उनका मोल ये तथाकथित गांधीभक्त समझेंगे, ऐसा फिलहाल तो नहीं लगता।
ये देश की कौन सी तस्वीर है हमारे सामने जिसमें राजनीति ने अपने पांसे कुछ इस कदर फेंके हैं कि ना हिंदू, हिंदुस्तानी रह पा रहे हैं ना मुसलमान, भारतीय। भाषाएं तो कब की विभाजित की जा चुकी हैं, अब लिबास भी सियासत के लिए विभाजित किया जा रहा है। तभी तो जरूरतमंदों को साड़ी बांटते-बांटते अखिलेश सरकार सलवार सूट बांटने की बात करने लगी है क्योंकि मुस्लिमों में साड़ी पहनने का रिवाज नहीं है।
सच तो यह है कि सांप्रदायिकता को लेकर सियासत के हमाम में सब नंगे हैं। कोई किसी से कम नहीं।
रहा सवाल गांधी बाबा का.. तो उनका भी स्मरण सिर्फ और सिर्फ इसलिए किया जाता है ताकि सांप्रदायिकता को लेकर की जा रही सियासत से उनके नाम को कैश किया जा सके।
चूंकि लालबहादुर शास्त्री इस फ्रेम में फिट नहीं बैठते और उनके नाम को सांप्रदायिकता के लिए भुनाया नहीं जा सकता इसलिए वह आउटडेटेड मान लिए गए हैं। संभवत: इसलिए 2 अक्टूबर गांधी जी के नाम आरक्षित है।
- अलकनंदा सिंह
खैर, ये तो रहे गांधी जयंती समारोह के आफ्टर इफेक्ट्स.. मगर कुछ सवाल जो 1947 में अनुत्तरित रह गये थे, वो आज भी वहीं खड़े हैं। जैसेकि हिंदू-मुसलमानों को स्वयं महात्मा गांधी अपनी दो आंखें कहा करते थे.. और कहते थे कि इनमें से किसी एक के बिछुड़ने से भारत अपूर्ण रहेगा। आज उन्हीं के इस 'पूर्ण देश' में हिंदुओं की बात करने भर से माहौल सांप्रदायिक हो जाता है और मुसलमानों को तो 'मुसलमान' कह कर संबोधित करने तक में आपत्ति है। मुसलमानों के लिए एक शब्द ईज़ाद किया गया ''संप्रदाय विशेष''। देश में कहीं भी यदि हिंदू-मुसलमान के बीच है कोई फसाद हो जाए तो मीडिया रिपोर्टिंग में कहा जाता है.. दो संप्रदायों के बीच ये हुआ... दो संप्रदायों के बीच वो हुआ..आदि-आदि ।
हिंदू का नाम लिया जा सकता मगर मुसलमान का नहीं..क्यों ? क्या मुसलमान इस देश के वाशिंदे नहीं हैं या उन्हें ऐसा 'संप्रदाय विशेष' कहकर ''छेक देने'' की प्रवृत्ति जान-बूझकर पनपाई जा रही है ताकि जरूरत पड़ने पर उनका इस्तेमाल राजनीति के मोहरों बतौर किया जा सके। कहीं भी दंगे हों तो सबसे पहले आवाज उठती है कि संप्रदाय विशेष को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। क्यों भाई..जिन देशों में अकेले मुस्लिम आबादी है तो क्या वहां मारकाट नहीं हो रही। सच तो यह है कि सामाजिक हिंसा के सर्वाधिक मामले विश्व के उन देशों में दिखाई दे रहे हैं जिन्हें इस्लामिक मुल्क कहा जाता है। वहां तो न कांग्रेस है ना बीजेपी.. ना दो ''संप्रदाय'' और ''संप्रदाय विशेष'' जैसे शब्द।
आज गांधी को याद करने की और उनके शब्दों को दोहराने की रस्म अदायगी बखूबी निभाई जायेगी मगर उनकी दोनों आंखों की सेहत और उनका मोल ये तथाकथित गांधीभक्त समझेंगे, ऐसा फिलहाल तो नहीं लगता।
ये देश की कौन सी तस्वीर है हमारे सामने जिसमें राजनीति ने अपने पांसे कुछ इस कदर फेंके हैं कि ना हिंदू, हिंदुस्तानी रह पा रहे हैं ना मुसलमान, भारतीय। भाषाएं तो कब की विभाजित की जा चुकी हैं, अब लिबास भी सियासत के लिए विभाजित किया जा रहा है। तभी तो जरूरतमंदों को साड़ी बांटते-बांटते अखिलेश सरकार सलवार सूट बांटने की बात करने लगी है क्योंकि मुस्लिमों में साड़ी पहनने का रिवाज नहीं है।
सच तो यह है कि सांप्रदायिकता को लेकर सियासत के हमाम में सब नंगे हैं। कोई किसी से कम नहीं।
रहा सवाल गांधी बाबा का.. तो उनका भी स्मरण सिर्फ और सिर्फ इसलिए किया जाता है ताकि सांप्रदायिकता को लेकर की जा रही सियासत से उनके नाम को कैश किया जा सके।
चूंकि लालबहादुर शास्त्री इस फ्रेम में फिट नहीं बैठते और उनके नाम को सांप्रदायिकता के लिए भुनाया नहीं जा सकता इसलिए वह आउटडेटेड मान लिए गए हैं। संभवत: इसलिए 2 अक्टूबर गांधी जी के नाम आरक्षित है।
- अलकनंदा सिंह
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