देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। चारों ओर समाज के विभिन्न तबकों के सशक्तीकरण की बात हो रही है, ऐसे में महिला सशक्तीकरण की बात ना हो, ऐसा हो नहीं सकता। हालांकि इस सशक्तीकरण की बात करते करते हम कर्तव्यों को किस बेदर्दी से तिलांजलि देते जा रहे हैं, इसके कुछ उदाहरण जो मेरे सामने आए उन्होंने मुझे व्यथित कर दिया... कि क्या सच में हमने इसी आधुनिकता और सभ्य समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिए महिलाओं के अधिकारों की बात कर कर के उन्हें सशक्त बनाने का बीड़ा उठाया था।
ये वो उदाहरण हैं जो समाज में महिलाओं को ''बेचारी'' के टैग से तो बाहर निकाल रहे हैं परंतु साथ ही साथ अपराधी भी बना रहे हैं, एक ऐसा अपराधी जो समाज को हिलाकर रख दे।
जो मां शब्द को ही अपमानित कर दे, जो रिश्तों को इस तरह घायल करे कि फिर कोई पुरुष किसी महिला पर, मां पर, बेटी और बहू पर विश्वास ही ना कर सके। इतना ही नहीं तमाम मानसिक विकारों को जन्म दे दे।
अभी तक आपने ऐसी दुल्हनों के बारे में सुना होगा जो शादी कर ठगी करती रहीं, परंतु ऐसी विवाहिताओं के बारे में नहीं सुना होगा जो अपनी प्रेगनेंसी को ही ठगने का हथियार बना लें। इसके अलावा ऐसे भी केस हैं जिनमें तलाक के बहाने पुरुषों से अच्छा खासा धन ऐंठा गया। ये तो विवाह के बाद आने वाले मामले हैं, जबकि विवाह से पहले भी लड़कियां फेक रेप, सेक्सुअल एक्सटॉर्शन, शादी के बहाने रेप जैसे ब्लैकमेलिंग के ऐसे हथकंडे अपनाने लगी हैं जिनसे सिर्फ और सिर्फ आम महिलाओं को ही नुकसान उठाना पड़ेगा।
आधुनिकता और सशक्तीकरण के नाम पर जिस तरह समाज की सांस को ही घोट देने का कुचक्र रचा जा चुका है, उसने हमारे बीच से ही कुपुत्रियों, कुमाताओं और पत्नी होने का बाजार सजाए बैठी महिलाओं के कुत्सित प्रयासों द्वारा अपराध की एक पूरी दुनिया बना दी गई है।
चलिए अब सुनाती हूं वे मामले जिन्होंने मुझे ये सब लिखने को बाध्य किया।
एक महिला वकील द्वारा दिए तथ्यों के बाद इन मामलों को आपके समक्ष ला रही हूं।
केस नं. एक-
दो साल की शादी के बाद जब महिला गर्भवती हुई तो इसके तुरंत बाद उसके माता-पिता ने पति यानि दामाद पर दबाव डाला कि वह अपनी सारी प्रॉपर्टी गर्भवती पत्नी के नाम कर दे , शर्त ये थी ऐसा ना करने पर वह उस बच्चे को पैदा नहीं करेगी। परंतु ऐसा हो ना सका, अबॉर्शन कराने की धमकी ने पति के कान खड़े कर दिए और उसने अपनी प्रॉपर्टी पत्नी के नाम नहीं की। नतीजतन महिला ने अबॉर्शन करा दिया। साथ ही माता पिता के साथ जाकर उस पति के खिलाफ दहेज के लिए उत्पीड़न और घरेलू हिंसा की धाराओं में केस दर्ज करा दिया। अब पति अपनी नौकरी, माता पिता की देखभाल के साथ साथ कोर्ट की तारीखें अटेंड कर रहा है।
केस नं. दो-
महिला वकील केस नं. एक को लेकर हतप्रभ थीं कि एक अन्य मामले में एक और महिला ने ऐसी ही कहानी के साथ उनसे संपर्क किया। उस महिला ने बताया कि उसके भाई की पत्नी ने शर्त रखी है कि जब वह अपने माता-पिता को छोड़ देगा, संपत्ति उसके नाम पर स्थानांतरित कर देगा और उसकी तलाकशुदा बहन का नाम वसीयत से हटा दिया जाएगा, उसके बाद ही वह उसके बच्चे को जन्म देगी। इनकी भी शादी को मात्र डेढ़ साल ही हुए हैं। उनका भाई इकलौता है और एकमात्र कमाने वाला। माता पिता वृद्धावस्था पेंशन तो ले रहे हैं परंतु शारीरिक रूप से असहाय है, ऐसे में घर का हाल क्या होगा, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।
केस नं. तीन-
इस मामले में पत्नी दिल की मरीज है लेकिन फिर भी वह अपने नाम पर पति की संपत्ति चाहती है। पत्नी के माता -पिता बेटी की देखभाल के नाम पर उसके साथ ही रहते हैं, और हरसंभव दबाव बनाए हुए हैं, अन्यथा की स्थिति में तलाक और पत्नी की देखभाल में लापरवाही के लिए केस करने की धमकी दे रहे हैं।
केस नं. 4-
महिला ने पति से लगभग दो दशक बाद सिर्फ इसलिए तलाक मांगा है क्योंकि पति उसे उसकी मर्जी के अनुसार अन्य व्यक्तियों के साथ संबंध रखने को मना करता है। इसमें भी महिला का साथ उसके मायके वाले दे रहे हैं, हालांकि सच वो भी जानते हैं परंतु जानते बूझते हुए आत्मघात करने वालों को कोई भला कैसे रोक सकता है।
उक्त सभी केसों में जहांतक बात वकील की है तो वकील तो केस लड़ेगी ही, परंतु वो भी अधिक दुखी इस बात से थी कि ये आधुनिक व युवा महिलाओं द्वारा पति और उसके घरवालों पर इस तरह के मानसिक अत्याचार में उनके अपने माता-पिता ही सहभागी बन रहे हैं। वे एक-एक करके तभी जागेंगे जब उनका कोई अपनों का कोई इस जाल में फंस जाएगा और उनके परिवारों को तकलीफ होने लगेगी। मुझे लगता है कि यह अगले 15-20 वर्षों में काफी हद तक तय हो जाएगा, मगर ये तय है कि हमारी पूरी की पूरी एक पीढ़ी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।
कोरोनाकाल में हमने अच्छी तरह देखा था 'परिवार' नामक संस्था की ताकत को परंतु उक्त केस इसे हर हाल में खाई में ही डालेंगे।
आम बोलचाल की भाषा में ऐसे पीड़क लोगों को गोल्ड डिगर्स कहा जाता है जो मात्र पैसे के लिए सारे रिश्तों का बाजार लगाकर मोलभाव करते हैं। ये हमारी कल्पना से भी परे की बात है। कम से कम उस समाज में तो है ही जो अभी तक महिला को सम्मान देता आया है, उसके अधिकारों के लिए लड़ता आया है। स्थिति और बदतर हो इससे पहले ही दहेज व शोषण विरोधी कानूनों की एक बार फिर समीक्षा होनी चाहिए ताकि न्याय उस पक्ष को भी मिले जिसपर अभी तक शोषक होने का टैग लगा हुआ है और वो इसी टैग का खामियाजा भुगत भी रहा है और महिला-पुरुष के बीच परिवार बनाने वाले तमाम विश्वासों होते देखने की एक बड़ी कीमत चुका रहा है।
-अलकनंदा सिंह
विचारणीय और जरूरी पोस्ट।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद तिवारी जी
हटाएं"कि क्या सच में हमने इसी आधुनिकता और सभ्य समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिए महिलाओं के अधिकारों की बात कर कर के उन्हें सशक्त बनाने का बीड़ा उठाया था। "
जवाब देंहटाएंमैंने सुना है कि अच्छाई और बुराई एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। समाज में जब किसी अच्छाई को बढ़ावा देने के लिए कार्य होता है तो दबे पांव बुराई भी आ ही जाती। किसी भी कार्य की अति बुराई बन ही जाती है। और आज का ये दौर यही है। अगर जल्दी ही इस पर विचार ना किया गया तो पुरी दो पीढ़ी का इतिहास बदल जायेगा। मैं तो अपने आस पास ही ऐसे कई कैसे देख रही हूं। बहुत ही विचारणीय लेख लिखा है आपने अलकनंदा जी 🙏
बहुत बहुत धन्यवाद कामिनी जी, आपकी इस खूबसूरत टिप्पणी के लिए , सही कह रही हैं मगर बात जब निकली है तो आगे इसका उपाय भी हमें ही करना होगा
हटाएंधन्यवाद रवींद्र जी
जवाब देंहटाएंसुखी परिवार की नींव गृहस्वामिनी पर टिकी होती है...इस तरह के विचार परिवार की कल्पना से परे हैं...सचेतक पोस्ट...धन्यवाद...👏👏👏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वाणभट्ट जी
हटाएंगहरी पड़ताल करता विचारणीय आलेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी
हटाएंचिंता का विषय है।
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