आज दो मुद्दे मेरे सामने हैं … एक तो राम और दूसरी हिंदी । दोनों ही अपनी व्यापकता के पश्चात भी नकारे गए और समय समय पर विरोधी अभियानों से घिरे रहे। इसे मैं सनातन संस्कृति और भाषा के प्रति उन लोगों का ”भय” ही कहूंगी जो बेहद नकारात्मकता के साथ अपनी ही जड़ों से द्रोह करते रहे और जो अपनी जड़ों से द्रोह करता है उसे समाज बहुत दिनों तक नहीं ढोता।
यही दशा आजकल उन राजनैतिक, सामाजिक व बौद्धिक संस्थाओं की हो रही है जो देश में कथितरूप से लोकतंत्र , आजादी, अभिव्यक्ति की बात कर रही हैं। जो यहीं पनपीं और यहीं के संस्कारों को गरियाती रहीं, उन्हें पराई पत्तर का भात ज्यादा स्वादिष्ट लगता रहा है इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम काल्पनिक लगते ही हैं, उन्हें हिंदी भी विमर्श की भाषा तो लगती है परंतु उसे सर्वग्राह्य बनने नहीं देते। वे हिंदी की रोजी पर पल रहे हैं परंतु तलवे हिंदी विरोधियों के चाटते हैं।
राम से द्रोह कर उन्हें काल्पनिक बताने वाले न कभी जानेंगे और ना ही जानने का प्रयास भी करेंगे कि आखिर राम को जन जन का बनाने वाली वाल्मिकी रामायण का आरंभ कैसे हुआ, वे कौन से प्रश्न थे जिनसे वाल्मिकी प्रेरित हुए राम कथा लिखने को। वाल्मिकी रामायण के बालकांड के प्रथम सर्ग इसका प्रमाण है कि वाल्मिकी ने जब नारद मुनि से पूछा कि संसार में ऐसा कौन है जो इस समय इस लोक में गुणवान, शक्तिशाली, धर्मज्ञाता, कृतज्ञ, सत्यभाषी, चरित्रवान, सब प्राणियों की भलाई चाहने वाला, क्रोधहीन व ओजस्वी है। तब नारद मुनि ने कहा कि वे इच्छवाकु वंश में पैदा हुए हैं, उनका नाम राम है, जिस प्रकार नदियां सागर के पास जाती हैं, उसी प्रकार सज्जन पुरुष राम के पास जाते हैं।
इस उत्तर के बाद ही राम की कथा का प्रारंभ हुआ और ये कल्पना नहीं बल्कि वाल्मिकी ने एक नायक के सर्वोत्कृष्ट गुणों को आमजन के समक्ष इसीलिए रखा कि वो अपने आचरण में इन्हें सम्मिलित कर सके और रामराज्य जैसी व्यवस्था का सुख ले सके। वो रामराज्य… जिसमें विपरीत सोच वाले को भी बराबरी का अधिकार मिला। तो क्या ये रामद्रोही वाल्मिकी रामायण के बालकांड के प्रथम सर्ग को पढ़ेंगे, नहीं… बिल्कुल भी नहीं। पढ़ लेंगे तो फिर राम से द्रोह कैसे कर पाएंगे।
वाल्मिकी के राम की पूजा तो इनके वश की नहीं परंतु ये द्रोहकारी लोग तो जानबूझकर भारतीय धर्म और दर्शन की भी उपेक्षा करते हैं। तभी तो उन्हें अपने कथित ”बौद्धिक विमर्श” में समुद्र मंथन पर दाराशिकोह के लिखे मज्मउल बहरैन दिखाई नहीं देता, वे अलबरूनी,अब्दुर्रहीम खानखाना, मलिक मोहम्मद जायसी, नजीर अकबराबादी की रचनाओं और विचारों को भी बड़ी चालाकी से छुपा जाते हैं। ये वे लोग हैं जो कुरान और बाइबिल सुनकर उसकी तारीफ में झुक ही नहीं जाते बल्कि इन पर कभी बहस करने की हिम्मत भी नहीं करते परंतु हां, वेद-पुराण का कोई जिक्र करे तो फौरन उसे सांप्रदायवादी, पोंगापंथी कहकर कुतर्क करने से भी बाज नहीं आते। उन्हें तो तीन युगों को पार कर आने वाला आज का समृद्ध ”सनातन धर्म” में भी आदिकालीन मनु दिखते हैं। इसी तरह उन्हें वैदिक शोधों से एलर्जी है।
ये द्रोहकारी प्रवृत्ति किसी एक जाति, धर्म, संप्रदाय में नहीं बल्कि ये तो एक खास वर्ग है जो कलुषित मानसिकता वाला है जिसे निज भाषा, निज धर्म, निज देश और निज माटी को लेकर हीनताबोध है, यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी।
– अलकनंदा सिंह
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार( 24-07-2020) को "घन गरजे चपला चमके" (चर्चा अंक-3772) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
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"मीना भारद्वाज"
धन्यवाद मीना जी
हटाएंविचारणीय प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
हटाएंलोग ओछी मानसिकता और प्रसिद्धि पाने के लिए सनातन धर्म पर विवाद रचते है और वो ये बखूबी जानते हें के इस तरह की टिप्पणी या हरकत के बाद वे बच जाएंगे
जवाब देंहटाएंसही कहा , हिदीगुरू जी आपने, परंतु यदि हम सततरूप से इन पर अपनी निगाह रखें और ऐसे कुत्सित प्रयासों का विरोध करें तो इनके हौसले पस्त किए जा सकते हैं । धन्यवाद
हटाएं"ये द्रोहकारी प्रवृत्ति किसी एक जाति, धर्म, संप्रदाय में नहीं बल्कि ये तो एक खास वर्ग है जो कलुषित मानसिकता वाला है जिसे निज भाषा, निज धर्म, निज देश और निज माटी को लेकर हीनताबोध है, यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी।"
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और सच्ची बात कही आपने,बेहतरीन सराहनीय लेख,सादर नमन आपको
धन्यवाद कामिनी जी
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहम ये लेख बहुत बार पढ़ चुके हैं किंतु कुछ लिखने से इस भय से परहेज़ करते रहे कि कहीं मेरी टिप्पणी ही लेख का आकार नहीं ले ले!बहुत मुश्किल से अपने पर अंकुश रखते हुए बस इतना कहेंगे कि राम एक प्रतीक हैं, एक संस्कृति हैं, एक मूल्य हैं, एक दर्शन हैं .......सनातन हैं।
जवाब देंहटाएं"जाके प्रिय न राम वैदहि, तज़िये ताही कोटि वैरी सम जदपि परम सनेहि।।"
आपका हृदय से आभार और साधुवाद, आपके इस सत्य-वाचन के लिए। बस यूँ ही लिखते रहिए!!!
धन्यवाद विश्वमोहन जी
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