भतृहरि ने कहा था- क्षति क्या है= समय पर चूकना… और हम ये क्षति बहुत पहले से करते आ रहे हैं, खासकर न्याय व्यवस्था में। आवश्यक न्यायिक सुधारों को लेकर समय पर चूकना आज हमें ऐसे दलदल में फंसा चुका है जिससे निकलने के आसार कहीं दिखाई नहीं दे रहे। आजादी के बाद से न्याय प्रदान करने वाली जो संस्थाएं देश की रीढ़ बनीं, वे ही अपने कर्तव्यों से चूकती गईं। वे सुधार कर सकती थीं परंतु समय पर निर्णय ना ले सकीं नतीजतन देश में न्याय व्यवस्था का आलम ये हो गया है कि आजकल निचली कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी ऐसा अंधा कुंआं बन कर रह गई हैं जिनके पेट में ”वादी व प्रतिवादी” दोनों पक्षों का बेशुमार पैसा, समय, शक्ति… सब समाता जा रहा है और इतना ” खाकर” भी इनकी दुर्दशा जस की तस है।
सरकारी स्तर पर क्या होना चाहिए, क्या नहीं हुआ … आज इस पर बात नहीं, बल्कि बात इस पर है कि कॉमन सेंस भी यदि इस्तेमाल किया जाए तो जो साढ़े तीन करोड़ मुकद्दमों का बोझ ”सुरसा” बनता जा रहा है, उसे निपटाया जा सकता है। बहुत छोटे-छोटे मामलों का निपटारा करके मुकद्दमों का बोझ कम किया जा सकता है। न्यायिक जांचों के नाम पर मामले लटकाना न्यायालयों की कार्यशैली का हिस्सा बन गया है, इससे बचा जा सकता है परंतु ऐसा करे कौन, जिन्हें करना है वे न्यायिक-भ्रष्टाचार के मोहरे हैं।
अफरशाही की जकड़न इतनी है कि पहले तो पुलिस अपराधियों से जूझे, फिर अदालतों के अंतहीन झमेले से। किसी अपराधी के एनकाउंटर के बाद ”उसी एनकाउंटर की ही फिर से जांच” के नाम पर बनाई गई जांच समितियां आखिर क्या हैं। ये तो न्याय व्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ के सिवाय कुछ और है ही नहीं। ये अतिरिक्त बोझ सिर्फ मामले को लटकाए रखने, जांच आयोगों के अध्यक्षों पर बेवजह धन जाया करने का माध्यम है, और कुछ नहीं। जांच आयोग के अध्यक्ष अधिकांशत: रिटायर्ड अधिकारी होते हैं, पेंशन पाते हैं फिर भी ये कोई अवैतनिक काम नहीं करते, बल्कि हर अध्यक्ष को प्रति सुनवाई 1.50 लाख और आयोग के अन्य सदस्यों को 1 – 1 लाख रुपये प्रति सुनवाई भुगतान किया जाता है। इतना आर्थिक बोझ…वो भी सिर्फ जांच के नाम पर ?
कानून एक सा, कानून की पढ़ाई एक सी, कानून के ओहदेदारों की समझ (जैसा कि समझा जाता है) एक सी, तो फिर एक ही कानून में क्यों निचली अदालतों के निर्णय हाईकोर्ट नहीं मानते, हाई कोर्ट के निर्णय सुप्रीम कोर्ट में रद्द कर दिए जाते हैं… आखिर ये भी तो कानून का मजाक उड़ाना ही है।
विकास दुबे एनकाउंटर मामला हो या हैदराबाद रेपिस्ट एनकाउंटर, दोनों ही मामलों में जांच आयोग बैठाना कहां तक उचित है। निश्चित रूप से ये सही है कि किसी निर्दोष के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए परंतु जो सरेआम अपराध करते रहे, उनके ”अंजाम” पर संदेह कर जांच आयोग बैठाना कहां तक उचित है। ये क्या कम था कि अब हैदराबाद रेपिस्ट एनकाउंटर मामले की जांच समिति का कार्यकाल 6 महीने बढ़ा दिया गया ”कोरोना के कारण जांचकार्य में देरी” के नाम पर। ये सीधा सीधा आर्थिक दोहन और न्यायिक-भ्रष्टाचार का स्पष्ट उदाहरण है। तभी तो सोच कर देखिए कि आखिर जांच आयोगों की जांच कभी समय पर पूरी क्यों नहीं होती, अदालती अफरसरशाही का कुचक्र है ही ऐसा कि किसी मामले की जांच को लटकाए रखने के लिए जब प्रति सुनवाई लाख से डेढ़ लाख तक मिलते हों तो ये ”कानूनी अफसर” क्योंकर चाहेंगे कि जांच कभी पूरी भी हो।
सुप्रीम कोर्ट चाहे तो इन बेवजह के दांवपेंचों से अदालतों का बोझ कम कर सकता है, मुकद्दमों में कमी तो आएगी ही, अदालतों पर जाया हो रहे धन की बरबादी भी रोकी जा सकेगी परंतु ये बात तो हम कह सकते हैं, वे ”जस्टिस” करने वाले वे न्यायिक अधिकारी ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि आगे कोई जांच आयोग उनका भी तो इंतज़ार कर रहा होगा।
- अलकनंदा सिंह