शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

…आख‍िर ये भी तो कानून का मजाक उड़ाना ही है


भतृहर‍ि ने कहा था- क्षत‍ि क्या है= समय पर चूकना… और हम ये क्षत‍ि बहुत पहले से करते आ रहे हैं, खासकर न्याय व्यवस्था में। आवश्यक न्याय‍िक सुधारों को लेकर समय पर चूकना आज हमें ऐसे दलदल में फंसा चुका है ज‍िससे न‍िकलने के आसार कहीं द‍िखाई नहीं दे रहे। आजादी के बाद से न्याय प्रदान करने वाली जो संस्थाएं देश की रीढ़ बनीं, वे ही अपने कर्तव्यों से चूकती गईं। वे सुधार कर सकती थीं परंतु समय पर न‍िर्णय ना ले सकीं नतीजतन देश में न्याय व्यवस्था का आलम ये हो गया है क‍ि आजकल न‍िचली कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी ऐसा अंधा कुंआं बन कर रह गई हैं ज‍िनके पेट में ”वादी व प्रत‍िवादी” दोनों पक्षों का बेशुमार पैसा, समय, शक्त‍ि… सब समाता जा रहा है और इतना ” खाकर” भी इनकी दुर्दशा जस की तस है।
सरकारी स्तर पर क्या होना चाह‍िए, क्या नहीं हुआ … आज इस पर बात नहीं, बल्क‍ि बात इस पर है क‍ि कॉमन सेंस भी यद‍ि इस्तेमाल क‍िया जाए तो जो साढ़े तीन करोड़ मुकद्दमों का बोझ ”सुरसा” बनता जा रहा है, उसे न‍िपटाया जा सकता है। बहुत छोटे-छोटे मामलों का न‍िपटारा करके मुकद्दमों का बोझ कम क‍िया जा सकता है। न्‍यायिक जांचों के नाम पर मामले लटकाना न्यायालयों की कार्यशैली का ह‍िस्सा बन गया है, इससे बचा जा सकता है परंतु ऐसा करे कौन, ज‍िन्हें करना है वे न्याय‍िक-भ्रष्टाचार के मोहरे हैं।
अफरशाही की जकड़न इतनी है क‍ि पहले तो पुल‍िस अपराध‍ियों से जूझे, फ‍िर अदालतों के अंतहीन झमेले से। क‍िसी अपराधी के एनकाउंटर के बाद ”उसी एनकाउंटर की ही फ‍िर से जांच” के नाम पर बनाई गई जांच सम‍ित‍ियां आख‍िर क्या हैं। ये तो न्याय व्यवस्था पर अत‍िर‍िक्त बोझ के स‍िवाय कुछ और है ही नहीं। ये अत‍िर‍िक्त बोझ स‍िर्फ मामले को लटकाए रखने, जांच आयोगों के अध्यक्षों पर बेवजह धन जाया करने का माध्यम है, और कुछ नहीं। जांच आयोग के अध्यक्ष अध‍िकांशत: र‍िटायर्ड अध‍िकारी होते हैं, पेंशन पाते हैं फ‍िर भी ये कोई अवैतन‍िक काम नहीं करते, बल्क‍ि हर अध्यक्ष को प्रत‍ि सुनवाई 1.50 लाख और आयोग के अन्य सदस्यों को 1 – 1 लाख रुपये प्रत‍ि सुनवाई भुगतान क‍िया जाता है। इतना आर्थ‍िक बोझ…वो भी स‍िर्फ जांच के नाम पर ?
कानून एक सा, कानून की पढ़ाई एक सी, कानून के ओहदेदारों की समझ (जैसा क‍ि समझा जाता है) एक सी, तो फ‍िर एक ही कानून में क्यों न‍िचली अदालतों के न‍िर्णय हाईकोर्ट नहीं मानते, हाई कोर्ट के न‍िर्णय सुप्रीम कोर्ट में रद्द कर द‍िए जाते हैं… आख‍िर ये भी तो कानून का मजाक उड़ाना ही है।
व‍िकास दुबे एनकाउंटर मामला हो या हैदराबाद रेप‍िस्ट एनकाउंटर, दोनों ही मामलों में जांच आयोग बैठाना कहां तक उच‍ित है। न‍िश्च‍ित रूप से ये सही है क‍ि क‍िसी न‍िर्दोष के साथ अन्याय नहीं होना चाह‍िए परंतु जो सरेआम अपराध करते रहे, उनके ”अंजाम” पर संदेह कर जांच आयोग बैठाना कहां तक उचि‍त है। ये क्या कम था क‍ि अब हैदराबाद रेप‍िस्ट एनकाउंटर मामले की जांच सम‍ित‍ि का कार्यकाल 6 महीने बढ़ा द‍िया गया ”कोरोना के कारण जांचकार्य में देरी” के नाम पर। ये सीधा सीधा आर्थ‍िक दोहन और न्याय‍िक-भ्रष्टाचार का स्पष्ट उदाहरण है। तभी तो सोच कर देख‍िए क‍ि आख‍िर जांच आयोगों की जांच कभी समय पर पूरी क्यों नहीं होती, अदालती अफरसरशाही का कुचक्र है ही ऐसा क‍ि क‍िसी मामले की जांच को लटकाए रखने के ल‍िए जब प्रत‍ि सुनवाई लाख से डेढ़ लाख तक म‍िलते हों तो ये ”कानूनी अफसर” क्योंकर चाहेंगे क‍ि जांच कभी पूरी भी हो।
सुप्रीम कोर्ट चाहे तो इन बेवजह के दांवपेंचों से अदालतों का बोझ कम कर सकता है, मुकद्दमों में कमी तो आएगी ही, अदालतों पर जाया हो रहे धन की बरबादी भी रोकी जा सकेगी परंतु ये बात तो हम कह सकते हैं, वे ”जस्ट‍िस” करने वाले वे न्यायिक अध‍िकारी ऐसा नहीं करेंगे क्योंक‍ि आगे कोई जांच आयोग उनका भी तो इंतज़ार कर रहा होगा।
- अलकनंदा स‍िंह 

बुधवार, 22 जुलाई 2020

श‍िद्दत से सक्र‍िय हैं जड़ों से द्रोह करने वाले


आज दो मुद्दे मेरे सामने हैं … एक तो राम और दूसरी ह‍िंदी । दोनों ही अपनी व्यापकता के पश्चात भी नकारे गए और समय समय पर व‍िरोधी अभ‍ियानों से घ‍िरे रहे। इसे मैं सनातन संस्कृत‍ि और भाषा के प्रत‍ि उन लोगों का ”भय” ही कहूंगी जो बेहद नकारात्मकता के साथ अपनी ही जड़ों से द्रोह करते रहे और जो अपनी जड़ों से द्रोह करता है उसे समाज बहुत द‍िनों तक नहीं ढोता।
यही दशा आजकल उन राजनैत‍िक, सामाज‍िक व बौद्ध‍िक संस्थाओं की हो रही है जो देश में कथ‍ितरूप से लोकतंत्र , आजादी, अभ‍िव्यक्त‍ि की बात कर रही हैं। जो यहीं पनपीं और यहीं के संस्कारों को गर‍ियाती रहीं, उन्हें पराई पत्तर का भात ज्यादा स्वाद‍िष्ट लगता रहा है इसील‍िए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम काल्पन‍िक लगते ही हैं, उन्हें ह‍िंदी भी व‍िमर्श की भाषा तो लगती है परंतु उसे सर्वग्राह्य बनने नहीं देते। वे ह‍िंदी की रोजी पर पल रहे हैं परंतु तलवे ह‍िंदी व‍िरोध‍ियों के चाटते हैं।
राम से द्रोह कर उन्हें काल्पन‍िक बताने वाले न कभी जानेंगे और ना ही जानने का प्रयास भी करेंगे क‍ि आख‍िर राम को जन जन का बनाने वाली वाल्म‍िकी रामायण का आरंभ कैसे हुआ, वे कौन से प्रश्न थे ज‍िनसे वाल्म‍िकी प्रेर‍ित हुए राम कथा ल‍िखने को। वाल्म‍िकी रामायण के बालकांड के प्रथम सर्ग इसका प्रमाण है क‍ि वाल्म‍िकी ने जब नारद मुन‍ि से पूछा क‍ि संसार में ऐसा कौन है जो इस समय इस लोक में गुणवान, शक्ति‍शाली, धर्मज्ञाता, कृतज्ञ, सत्यभाषी, चर‍ित्रवान, सब प्राण‍ियों की भलाई चाहने वाला, क्रोधहीन व ओजस्वी है। तब नारद मुन‍ि ने कहा क‍ि वे इच्छवाकु वंश में पैदा हुए हैं, उनका नाम राम है, ज‍िस प्रकार नद‍ियां सागर के पास जाती हैं, उसी प्रकार सज्जन पुरुष राम के पास जाते हैं।
इस उत्तर के बाद ही राम की कथा का प्रारंभ हुआ और ये कल्पना नहीं बल्क‍ि वाल्म‍िकी ने एक नायक के सर्वोत्कृष्ट गुणों को आमजन के समक्ष इसील‍िए रखा क‍ि वो अपने आचरण में इन्हें सम्मि‍लि‍त कर सके और रामराज्य जैसी व्यवस्था का सुख ले सके। वो रामराज्य… ज‍िसमें व‍िपरीत सोच वाले को भी बराबरी का अध‍िकार म‍िला। तो क्या ये रामद्रोही वाल्म‍िकी रामायण के बालकांड के प्रथम सर्ग को पढ़ेंगे, नहीं… ब‍िल्कुल भी नहीं। पढ़ लेंगे तो फ‍िर राम से द्रोह कैसे कर पाएंगे।
वाल्म‍िकी के राम की पूजा तो इनके वश की नहीं परंतु ये द्रोहकारी लोग तो जानबूझकर भारतीय धर्म और दर्शन की भी उपेक्षा करते हैं। तभी तो उन्हें अपने कथ‍ित ”बौद्ध‍िक व‍िमर्श” में समुद्र मंथन पर दाराश‍िकोह के ल‍िखे मज्मउल बहरैन द‍िखाई नहीं देता, वे अलबरूनी,अब्दुर्रहीम खानखाना, मल‍िक मोहम्मद जायसी, नजीर अकबराबादी की रचनाओं और व‍िचारों को भी बड़ी चालाकी से छुपा जाते हैं। ये वे लोग हैं जो कुरान और बाइब‍ि‍ल सुनकर उसकी तारीफ में झुक ही नहीं जाते बल्क‍ि इन पर कभी बहस करने की ह‍िम्मत भी नहीं करते परंतु हां, वेद-पुराण का कोई जिक्र करे तो फौरन उसे सांप्रदायवादी, पोंगापंथी कहकर कुतर्क करने से भी बाज नहीं आते। उन्हें तो तीन युगों को पार कर आने वाला आज का समृद्ध ”सनातन धर्म” में भी आद‍िकालीन मनु द‍िखते हैं। इसी तरह उन्हें वैद‍िक शोधों से एलर्जी है।
ये द्रोहकारी प्रवृत्त‍ि क‍िसी एक जाति, धर्म, संप्रदाय में नहीं बल्क‍ि ये तो एक खास वर्ग है जो कलुष‍ित मानस‍िकता वाला है ज‍िसे न‍िज भाषा, न‍िज धर्म, न‍िज देश और न‍िज माटी को लेकर हीनताबोध है, यह प्रवृत्त‍ि उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी।
– अलकनंदा स‍िंह

मंगलवार, 21 जुलाई 2020

ह‍िंदू धर्म को लेकर ही क्यों बेहूदा ट‍िप्पण‍ियां कर रहे हैं स्टैंडअप कॉमेड‍ियंस


क‍िसी व्यक्त‍ि को पंगु बनाना हो तो उसकी रीढ़ पर हमला करो, क‍िसी देश को पंगु बनाना हो तो उसकी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करो और क‍िसी समाज को पंगु बनाना हो तो उसके पर‍िवारों को मूल्यव‍िहीन कर दो। यह क‍िसी भी दुश्मनी को उसके अंजाम तक पहुंचाने की पहली और आख‍िरी शर्त होती है। पर‍िवारों को मूल्यव‍िहीन बनाने के ल‍िए मह‍िलाओं और बच्चों से ज्यादा सॉफ्ट टारगेट और कौन हो सकता है, और ऐसा ही क‍िया जा रहा है उन कथ‍ित कॉमेड‍ियंस द्वारा जो सोशल मीड‍िया के माध्यम से ह‍िंदू धर्म का उपहास उड़ा रहे हैं। हमारे संस्कारों और देवी देवताओं को लेकर बेहूदा ट‍िप्पण‍ियां कर रहे हैं।
कहते हैं बच्चा अपने घर से ही प्रथम संस्कार सीखता है और जैसे संस्कार होते हैं, बच्चा क‍ितना ही बड़ा क्यों ना हो जाए अपने जीवन के हर कदम पर उसके संस्कार उसके व्यवहार में द‍िखाई देते हैं परंतु इन कॉमेड‍ियंस में ऐसा कुछ भी द‍िखाई नहीं देता। सौरव घोष, अतुल खत्री, कुणाल कामरा, हसन म‍िन्हाज, अग्र‍िमा जोशुआ, ऐलन ड‍िजेनेर‍िस जैसे ना जाने क‍ितने नाम हैं जो ख्यात‍ि के लालच में इतना ग‍िरते जा रहे हैं क‍ि अब इनके ख‍िलाफ कानूनी तौर पर कार्यवाही की जा सकती है।
बेशक जितना निंदनीय है किसी धर्म का उपहास उड़ाया जाना, उससे कम निंदनीय नहीं है अपने धर्म का उपहास उड़ाने वालों को लेकर चुप्‍पी साध लेना। आजकल अभ‍िव्यक्त‍ि की आजादी के बहाने स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर यही सब हो रहा है। इनके ल‍िए मैं एक शब्द इस्तेमाल करना चाहूंगी ”पुंगी”, सब जानते हैं क‍ि पुंगी की अपनी कोई आवाज़ नहीं होती, जो इन्हें बजाता है ये उसी के सुर से बजती हैं। तो स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर जो ऐसा कर रहे हैं, ये तो बस पुंगी हैं, इनके पीछे की आवाजें कोई और हैं ज‍िनकी मानस‍िकता ही ह‍िंदू व‍िरोधी है। पुंगी बने ये कथ‍ित कॉमेड‍ियंस आख‍िर ह‍िंदू व‍िरोध का ही सुर क्यों न‍िकाल रहे हैं, कहां से म‍िल रही है इन्हें ये ताकत, ये सोचना होगा। ये कॉमेड‍ियंस ख्यात व कुख्यात होने व रातों रात हजारों लाखों व्यूअर्स हास‍िल करने के ल‍िए हमारे न केवल धर्म के साथ उपहास कर रहे हैं बल्क‍ि ये हमारे सामाज‍िक मूल्यों व संस्कारों पर भी घात कर रहे हैं।
इन कॉमेड‍ियन पुंगियों ने किस तरह से हिंदू धर्म, हिंदू परंपरा, हिंदू भगवान, हिंदू अनुष्ठान, हिंदू रीति-रिवाज और हिंदू धार्मिक संस्कारों का उपहास उड़ाया है, उसकी एक बानगी द‍ेख‍िए क‍ि हमारे प्रथम पूज्य गणपत‍ि का मजाक उड़ाते हुए एक स्टैंडअप कॉमेडियन ने तो यहां तक कह द‍िया क‍ि वो नास्तिक ही इसल‍िए बना क्योंक‍ि उसको ब्राह्मण कहलाना पसंद नहीं, और इस तरह ”हास्यास्पद मुद्राओं” से इशारे करके वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आईएसआईएस को एक ही श्रेणी में देता है। ऐसे ही एक अन्य कॉमेडियन भगवान शिव के बारे में ऐसी आपत्तिजनक ट‍िप्पणी करता है कि उसे लिखा नहीं जा सकता। छत्रपत‍ि श‍िवाजी पर हाल ही में एक मह‍िला कॉमेड‍ियन ने ऐसी ही व‍िवाद‍ित ट‍िप्पणी कर दी और श‍िवसेना (राजनैत‍िक कारणों से ही सही ) अगर व‍िरोध ना करती तो वह माफी भी ना मांगती।
ओटीटी पर र‍िलीज होती अनसेंसर्ड फ‍िल्में हों या स्टैंडअप कॉमेडी सभी ने अपने अपने सॉफ्ट टारगेट तलाश कर रखे हैं, हमें अपने और अपने पर‍िवारों को इस सांस्कृत‍िक आतंकवाद से बचाकर रखना होगा वरना देवी देवताओं व महापुरुषों के अपमान से चली ये साज‍िश हमारे संस्कारों, पर‍िवारों से होती हुई पीढ़‍ियों को बरबाद कर देगी, स्टैंडअप कॉमेड‍ी की इन पुंग‍ियों का ये कुत्स‍ित व्यवहार ”अभ‍िव्यक्त‍ि की स्वतंत्रता” की आड़ में नहीं छुप सकता, ये व‍िशुद्ध रूप से सांस्कृत‍िक आतंकवाद है जो घरों में घुस रहा है। अभी तक सह‍िष्णुता ने ही ह‍िंदू धर्म को बचा रखा है और इसी सह‍िष्णुता ने धर्म को व‍िधर्म‍ियों के हवाले कर द‍िया तो… इसलिए अब चुप्पी का नहीं, बोलने का समय है ताक‍ि धर्म पर प्रहार का प्रत‍िउत्तर द‍िया जा सके।
- अलकनंदा स‍िंह 

बुधवार, 15 जुलाई 2020

सावन के महीने का राग है, राग Malhar: कैसे हुआ इस्‍तेमाल?

सावन के दूसरे सोमवार को भी बरसने का इंतज़ार है , अभी तक आधा-अधूरा मानसून तो आया परंतु सावन अभी भी दूर है, न तन भीगा, न मन नहाया। धरती की कोख से सौंधी ख़ुशबू भी नहीं फूटी, न मोर नाचे न कोयल कूकी परंतु इस सावन ने उस राग का ध्यान करा द‍िया ज‍िसे राग मल्हार कहते हैं ।
इस मौसम में हम शिव की पूजा करते हैं। क्योंकि शिव काम का शत्रु है। इसीलिए सावन प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों को समझने और उसके निकट जाने का मौका भी देता है।
बहरहाल आज बात राग की करते हैं तो Malhar के बारे में उत्सुकता जागती है। तो आइये जानते हैं क‍ि क्या है राग Malhar और इसी राग का लोकगायकी में कैसे इसका इस्तेमाल क‍िया गया है।
भारत का राष्ट्रीय गीत ‘वन्दे मातरम’ भी मल्हार राग में गाया गया 
मल्हार का मतलब बारिश या वर्षा है और माना जाता है कि मल्हार राग के गानों को गाने से वर्षा होता है। मल्हार राग को कर्नाटिक शैली में मधायामावती बुलाया जाता है। तानसेन और मीरा मल्हार राग में गाने गाने के लिए मशहूर थे। माना जाता है के तानसेन के ‘मियाँ के मल्हार’ गाने से सुखा ग्रस्त प्रदेश में भी बारिश होती थी।
मल्हार राग/ मेघ मल्हार, हिंदुस्तानी व कर्नाटक संगीत में पाया जाता है।
मल्हार राग के प्रसिद्द रचनायें हैं- कारे कारे बदरा, घटा घनघोर , मियाँ की मल्हार
दीपक राग से बुझे हुए दिये जलाने और मेघ मल्हार राग से बारिश करवाने की दंत कथाएँ तो हर पीढ़ी ने अपने बुजुर्गों से सुनी हैं। लेकिन क्या सचमुच ऐसा होता था? आइये समय के गलियारों से गुजरते हुए थोड़ा इतिहास के झरोखों से झांक कर देखें और पता करें की क्या तानसेन राग मल्हार का आलाप कर सच में वर्षा करवा देते थे।
मेघ-मल्हार और वर्षा
भारतीय संगीत की सबसे बड़ी खूबी यह है की इसका हर सुर, राग और हर पल, घड़ी, दिन और मौसम के हिसाब से रचे गए हैं। किस समय किस राग को गाया जाना चाहिए, इसकी जानकारी संगीतज्ञों को होती है। जैसे दीपक राग में दिये जलाने की शक्ति है, यह वैज्ञानिक रूप से सत्य है। इसका कारण, इस राग में सुरों की संरचना इस प्रकार की है की गायक के शरीर में गर्मी उत्पन्न हो जाती है। यही गर्मी वातावरण में भी आ जाती है और ऐसा प्रतीत होता है मानों अनेक दिये जल गए। यही नियम राग मेघ-मल्हार के संबंध में भी है। दरअसल मेघ-मल्हार राग की रचना, दीपक राग की गरम तासीर को कम करने के लिए करी गयी थी। इसलिए जब मेघ-मल्हार राग गाया जाता था तो वातावरण ऐसा हो जाता था, मानों कहीं बरसात हुई है।
तानसेन द्वारा मेघ-मल्हार को गाना और बरसात का होना, मात्र संयोग हो सकता है, जो बार-बार नहीं होता।
यहां सुन‍िए श्री प्रकाश विश्वनाथ रिंगे की राग मेघ मल्हार में  रचना 

शनिवार, 11 जुलाई 2020

अंतिम प्रभा का है हमारा विक्रमी संवत यहाँ...जान‍िए भारत के प्राचीन गणितज्ञ बौधायन के बारे में


अंतिम प्रभा का है हमारा विक्रमी संवत यहाँ, है किन्तु औरों का उदय इतना पुराना भी कहाँ ?
ईसा,मुहम्मद आदि का जग में न था तब भी पता, कब की हमारी सभ्यता है, कौन सकता है बता? 

-मैथिलिशरण गुप्त

राष्ट्रकव‍ि मैथिलिशरण गुप्त की ये कव‍िता की पंक्त‍ियां हमें अपने गौरवशाली अतीत की याद द‍िलाती हैं और प्रर‍ित करती हैं क‍ि हम जो आज बात बात में अन्य देशों की ओर देखते रहने के आदी हो गए हैं दरअसल और कुछ नहीं अपने अतीत को व‍िस्मृत कर बैठे हैं । इसी अतीत की एक महत्वपूर्ण स्तेंभ थे ऋष‍ि बौधायन।

जी हां, बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता थे । ज्यामिति के विषय में प्रमाणिक मानते हुए सारे विश्व में यूक्लिड की ही ज्यामिति पढ़ाई जाती है। मगर यह स्मरण रखना चाहिए कि महान यूनानी ज्यामितिशास्त्री यूक्लिड से पूर्व ही भारत में कई रेखागणितज्ञ ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज कर चुके थे, उन रेखागणितज्ञों में बौधायन का नाम सर्वोपरि है , भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था ।

बौधायन के सूत्र ग्रन्थ
बौधायन के सूत्र वैदिक संस्कृत में हैं तथा धर्म, दैनिक कर्मकाण्ड, गणित आदि से सम्बन्धित हैं। वे कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय शाखा से सम्बन्धित हैं। सूत्र ग्रन्थों में सम्भवतः ये प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनकी रचना सम्भवतः ८वीं-७वीं शताब्दी ईसापूर्व हुई थी।

बौधायन सूत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित ६ ग्रन्थ आते हैं-

    1. बौधायन श्रौतसूत्र - यह सम्भवतः १९ प्रश्नों के रूप में है।
    2. बौधायन कर्मान्तसूत्र - २१ अध्यायों में
    3. बौधायन द्वैधसूत्र - ४ प्रश्न
    4. बौधायन गृह्यसूत्र - ४ प्रश्न
    5. बौधायन धर्मसूत्र - ४ प्रश्नों में
    6. बौधायन शुल्बसूत्र - ३ अध्यायों में

सबसे बड़ी बात यह है कि बौधायन के शुल्बसूत्रों में आरम्भिक गणित और ज्यामिति के बहुत से परिणाम और प्रमेय हैं, जिनमें २ का वर्गमूल का सन्निकट मान, तथा पाइथागोरस प्रमेय का एक कथन शामिल है।

बौधायन प्रमेय
2 का वर्गमूल
बौधायन श्लोक संख्या i.61-2 (जो आपस्तम्ब i.6 में विस्तारित किया गया है) किसी वर्ग की भुजाओं की लम्बाई दिए होने पर विकर्ण की लम्बाई निकालने की विधि बताता है। दूसरे शब्दों में यह 2 का वर्गमूल निकालने की विधि बताता है।
   
समस्य द्विकर्णि प्रमाणं तृतीयेन वर्धयेत।
 तच् चतुर्थेनात्मचतुस्त्रिंशोनेन सविशेषः ।।

   अर्थ: किसी वर्ग का विकर्ण का मान प्राप्त करने के लिए भुजा में एक-तिहाई जोड़कर, फिर इसका एक-चौथाई जोड़कर, फिर इसका चौतीसवाँ भाग घटाकर जो मिलता है वही लगभग विकर्ण का मान है।

वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वृत्त का निर्माण

   चतुरस्रं मण्डलं चिकीर्षन्न् अक्षयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत् ।
    यदतिशिष्यते तस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत् ।। (I-58)[1]

    Draw half its diagonal about the centre towards the East-West line; then describe a circle together with a third part of that which lies outside the square.
   
अर्थात् यदि वर्ग की भुजा 2a हो तो वृत्त की त्रिज्या r = [a+1/3(√2a – a)] = [1+1/3(√2 – 1)] a


वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वर्ग का निर्माण
   मण्डलं चतुरस्रं चिकीर्षन्विष्कम्भमष्टौ भागान्कृत्वा भागमेकोनत्रिंशधा
    विभाज्याष्टाविंशतिभागानुद्धरेत् भागस्य च षष्ठमष्टमभागोनम् ॥ (I-59))[2]
   
If you wish to turn a circle into a square, divide the diameter into eight parts and one of these parts into twenty-nine parts: of these twenty-nine parts remove twenty-eight and moreover the sixth part (of the one part left) less the eighth part (of the sixth part).

बौधायन के अन्य प्रमेय

बौधायन द्वारा प्रतिपादित कुछ प्रमुख प्रमेय ये हैं-

  -  किसी आयत के विकर्ण एक दूसरे को समद्विभाजित करते हैं।
  -  समचतुर्भुज (रोम्बस) के विकर्ण एक-दूसरे को समकोण पर समद्विभाजित करते हैं
  -  किसी वर्ग की भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से बने वर्ग का क्षेत्रफल मूल वर्ग के क्षेत्रफल का आधा होता है।
  -  किसी आयत की भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से समचतुर्भुज बनता है जिसका क्षेत्रफल मूल आयत के क्षेत्रफल का आधा होता है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि बौधायन ने आयत, वर्ग, समकोण त्रिभुज समचतुर्भुज के गुणों तथा क्षेत्रफलों का विधिवत अध्ययन किया था। यज शायद उस समय यज्ञ के लिए बनायी जाने वाली 'यज्ञ भूमिका' के महत्व के कारण था।

साभार: वैदिक गण‍ितीय संरचना व ज्याम‍ितीय का क‍िताबी स्रोत 

रविवार, 5 जुलाई 2020

गुरू पूर्णिमा- गुरु के वचन प्रतीत न जेहिं, सपनेहुँ सुख सुलभ न तेहिं

गुरु के महात्मय को समझने के लिए ही प्रतिवर्ष आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व  मनाया जाता है। गुरू पूर्णिमा कब से शुरू हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन गुरू पूजन की यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है क्‍योंकि उपनिषदों में भी ऐसा माना गया है कि आत्मस्वरुप का ज्ञान पाने के अपने कर्त्तव्य की याद दिलाने वाला, मन को दैवी गुणों से विभूषित करनेवाला, गुरु के प्रेम और उससे प्राप्‍त ज्ञान की गंगा में बार बार डुबकी लगाने हेतु प्रोत्साहन देनेवाला जो पर्व है – वही है ‘गुरु पूर्णिमा’ ।

इसी पूर्णिमा के दिन ही भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, १८ पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। इसीलिए ये लोक मान्‍यता बनी है कि इस दिन जो शिष्य ब्रह्मवेत्ता गुरु के चरणों में संयम-श्रद्धा-भक्ति से उनका पूजन करता है उसे वर्षभर के पर्व मनाने का फल मिलता है।

ईश्‍वर के लिए गुरू का मार्गदर्शन अत्‍यंत आवश्‍यक माना गया है। गीता में भी श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन  से कहा -
मय्ये व मन आघत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि भय्येव, अत ऊर्ध्व न संशयः ॥8/12

अर्थात् “हे अर्जुन ! तू मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ संशय नहीं है।”

किसी को गुरु से कितना मिला, किसी को अधिक किसी को कम क्यों मिला, इसके मूल में यही कारण है कि जिसने गुरु के बताये आदर्शों में मन व बुद्धि को लगा दिया, संशय मन से निकाल दिया, श्रेष्ठता के प्रति समर्पण कर दिया, उसका सारा जीवन ही बदल गया।

गुरू और शिष्‍य के सुप्रामेंटल रिलेशन्‍स के बारे में दार्शनिक श्री अरविन्द कहते थे “डू नथिंग ट्राइ टू थिंक नथिंग विह्च इज अनवर्थी टू डिवाइन” अर्थात् जो देवत्वधारी सत्ता के योग्य न हो, ऐसा कोई भी कार्य न करो, यहां तक कि ऐसा करने की सोचो भी मत ।

श्री रामकृष्ण परमहंस ने तो और एक कदम आगे बढ़कर यही कहा कि कामिनी काँचन से दूर परमात्म सत्ता में मन-बुद्धि को लगाने पर स्वयं ईश्वर गुरु के रूप में आकर मार्गदर्शन करते हैं। देखा जाये आदर्श शिष्‍य के लिए समर्पण एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति का रूपांतरण कर देती है और जब श्रेष्ठ गुरु के प्रति यही समर्पण होता है तो व्यक्ति तत्सम हो जाता है। उपनिषदों में कहा गया है कि व्‍यक्‍ति को तप करने से सिद्धि तो मिल सकती है, किन्तु भगवान नहीं मिल सकता जबकि समर्पण से गुरु व भगवान दोनों एक साथ मिल जाते हैं।

श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे-”सामान्य गुरु कान फूँकते हैं, अवतारी महापुरुष-सदगुरु प्राण फूँकते हैं।” ऐसे सदगुरु का स्पर्श व कृपा दृष्टि ही पर्याप्त है । परमहंस जी  एक ऐसी ही सत्ता के रूप में हम सबके बीच आए। अनेकों व्यक्तियों ने उनका स्नेह पाया, सामीप्य पाया, पास बैठकर मार्गदर्शन पाया, अनेक प्रकार से उनकी सेवा करने का उन्हें अवसर मिला।

गुरू-शिष्‍य के बीच संबंध और गुरू की महत्‍ता को रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी कुछ यूं कहा है-
गुरु के वचन प्रतीत न जेहिं , सपनेहुँ सुख सुलभ न तेहिं ।

उदाहरण बताते हैं कि इस एक आध्‍यात्‍मिक संबंध की वास्तविकता,  कि समर्पण भाव से गुरु के निर्देशों का परिपालन करने वालों को जी भर कर गुरु के अनुदान भी मिले हैं।

श्रद्धा की परिपक्वता, समर्पण की पूर्णता, शिष्य में अनन्त संभावनाओं के द्वार खोल देती है। उसके सामने देहधारी गुरु की अंत:चेतना की जितनी भी रहस्यमयी परतें होती हैं सब की सब एक एक करके खुलने लगती हैं। शिष्‍य के सामने इनका ठीक-ठीक खुलना शास्त्रीय भाषा में गुरु के परमतत्‍व का प्राकट्य ही तो होता है। गुरु का यह रूप जान लेने पर मौन व्याख्या शुरू हो जाती है। बिल्‍कुल ऐसे जैसे कि हृदय में निःशब्द शक्ति का जन्‍म हो रहा हो । जन्म लेने से पूर्व ही प्रश्‍नों का उत्‍तर मिलने लग जाता है ।

स्वामी विवेकानन्द की दो शिष्याएँ थीं एक नोबुल (निवेदिता), दूसरी क्रिस्टीन (कृष्ण प्रिया)। स्वामी जी से निवेदिता तो तरह तरह के सवाल पूछतीं परन्तु कृष्ण प्रिया चुप रहतीं। स्वामी जी ने उनसे पूछा-”तेरे मन में जिज्ञासाएँ नहीं उठतीं?” उसने कहा-”उठती हैं पर आपके जाज्वल्य समान रूप के समक्ष वे विगलित हो जाती हैं, मेरी जिज्ञासाओं का मुझे अंतःकरण में समाधान मिल जाता है।” लगभग यही स्थिति हम सबकी हो, यदि हम अपनी गुरुसत्ता के शाश्वत रूप व गुरुसत्ता के संस्कृति सत्य को ध्यान में रखें कि “जब तक एक भी शिष्य पूर्णता प्राप्ति से वंचित है, गुरु की चेतना का विसर्जन परमात्मा में नहीं हो सकता।” सूक्ष्म शरीरधारी वह सत्ता अपने शिष्यों, आदर्शोन्मुख संस्कृति साधकों की मुक्ति हेतु सतत् प्रयत्नशील है व रहेगी जब तक कि अंतिम व्यक्ति भी इस पृथ्‍वी पर मुक्त नहीं हो जाता ।

गुरू और शिष्‍य के बीच संबंधों की पवित्रता को लेकर आज की स्थिति बड़ी विषम हो चुकी है। विगत वर्षों में कई गुरुओं के कारनामों ने इस संबंध को तार तार करके रख दिया है।ऐसा लगता है कि चारों ओर नकली ही नकली गुरु भरे हैं।

ये बिल्‍कुल ऐसे ही हैं जैसे कि पानी में रहने वाला सांप, जिसके  मुंह का आकार छोटा मगर चेष्‍टायें बड़ी होती हैं। इन्‍हीं 'चेष्‍टाओं' के कारण वह मेंढक को निगलने की कोशिश में मुँह में तो उसे जकड़ लेता है पर दोनों के लिए मुश्‍किल हो जाती है । पनेले सांप के गले से मेंढक बाहर निकलने को ताकत लगाता है , और वह मेंढक को गले में उतारने के लिए । आज गुरु व शिष्य दोनों की स्थिति ऐसी है। फिर भी सत्‍य और संकल्‍प के साथ सदगुरू की खोज और उसका सानिध्‍य पाने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता और इस गुरू पूर्णिमा पर  हमारा ध्‍येय यही होना चाहिए ।

-अलकनंदा स‍िंंह