कुछ दुःख बहुत भारी होते हैं, इतने भारी कि सीने में उतर आएँ तो जीवन की नदी के बीचों बीच जाकर नैया सहित डुबो देते हैं….और दुख का ”कारण” अगर स्वयं की अपेक्षाएं बन जायें तो उनका इलाज कर पाना आसान नहीं होता। पहले सफलता पाने का दबाव, फिर सफल बने रहने का दबाव, स्वार्थ से लबालब निजी संबंध, अपनों से दूरी जैसी आमफ़हम बातों के अलावा स्वयं से पाली गई बेतहाशा उम्मीदें, जिंदगी निगलने के लिए काफी होती हैं।
यही संदेश दे रहा है सुशांत सिंह राजपूत द्वारा आत्महत्या करना कि अपेक्षाएं जब खुद से बड़ी हो जाएं और उन्हें पूरा करने की जद्दोजहद में आत्मघात सबसे आसान तरीका लगने लगे तो सोचना जरूरी है कि आखिर बॉलीवुड की चकाचौंध भरी जिंदगी नवागतों या कलाकारों के लिए अब मौत का कुआं क्यों बन गई है, ये अभी और कितने सुशांतों को निगलेगी, कहा नहीं जा सकता।
हममें से हर एक... अपने भीतर... चुपचाप... सुख के नीर की खोज में कुआँ खोदता एक मजदूर हैं... कभी कभी लाख कोशिशों के बाद भी भीतर की ज़मीन पानी नहीं उलीचती... कुआँ खोदने वाले को.... एक रोज़ प्यास निगल जाती है...
बॉलीवुड में लगातार हो रही आत्महत्याओं को देखें तो इस चकाचौंध का स्याह पक्ष ये है कि इतनी बड़ी कीमत देकर हासिल की गई सफलता आखिर किसे खुशी देगी क्योंकि आज जो बॉलीवुड है उसमें कला का स्थान ”सेटिंग-गेटिंग” के बाद में आता है। प्रोफेशनलिज्म के नाम पर वो सब-कुछ होता है वहां जो आज की प्रैक्टिकल लाइफ के हिसाब से भी नाजायज है। ये जो आम से कलाकार रातों-रात सितारा ”बना दिए” जाते हैं, वे क्या क्या दांव पर लगाकर ये मुकाम हासिल करते हैं, स्वयं बॉलीवुड की पेजथ्री, डर्टी पिक्चर जैसी कई फिल्में इसे बखूबी दिखा चुकी हैं।
सुशांत के जाने के बाद पिछले दो दिनों से मीडिया से लेकर विश्लेषक तक सुशांत की आत्महत्या के बाद वहां स्थापित ”नेपोटिज्म” को दोषी बता रहे हैं परंतु ये तो अपने निर्णयों का दोष किसी दूसरे पर थोपने जैसा है क्योंकि बॉलीवुड विशुद्ध व्यवसाय है, जहां कलाकारों के ”चेहरे” पर ही करोड़ों का सौदा होता है, ऐसा ना होता तो कलाकार ”सितारा” ना कहलाते, और हीरो या हीरोइन की बजाय हम प्रोड्यूसर को जानते, परंतु ऐसा नहीं है। फिर यदि कोई स्थापित प्रोडक्शन हाउस किसी अपने को आगे बढ़ाता भी है तो इसे खालिस व्यवयायिक दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
एक बात और कि नेपोटिज्म ही अगर कामयाब कलाकार का पैमाना होती तो ना तो नितिन मुकेश, कुमार गौरव, अभिषेक बच्चन, उदय चोपड़ा जैसों की लंबी लिस्ट न बनती और ना ही मनोज वाजपेयी, राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना बॉलीवुड में कहीं ठहर पाते। बॉलीवुड तो भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से। यहां आने वाला कोई भी कलाकार इन सब बातों से अंजान नहीं होता बल्कि वो अपने स्वयं के जमीर और जिंदगी दोनों का दांव खेलता ही इसलिए है कि उसे भी ”सितारा” बनना है। वो सितारा बनने की हर कीमत चुकाने को तैयार होता है, इसलिए इस कीमत को तय का जिम्मेदार भी वो स्वयं ही होता है। इनकी खुद से खुद की ही अपेक्षाएं इतनी अधिक होती हैं कि इनका दबाव जो नहीं झेल पाते वो सुशांत जैसे कदम उठा जाते हैं।
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि छोटे शहर से बड़े शहर में जाना, पैसे और पहुंच के बीच अपना स्थान बनाना, संघर्ष में संतोष को ढूंढ़ना, अपनी पहचान स्वयं गढ़ना पर चैन-खुशी-सुकून से मुलाक़ात ना हो पाना… बॉलीवुड में नवागतों के लिए ये एक आम सी पटकथा है जिसमें संवेदना का अभाव है, बस। बॉलीवुड में ऐसी आत्महत्याओं को रोक पाना फिलहाल तो संभव नहीं क्यों कि जो अपेक्षाएं इसकी जिम्मेदार हैं, वे कहीं से भी कम होती नजर नहीं आ रहीं बल्कि रिएलिटी शो, वेब शो के जरिए मां-बाप सहित नन्हे-नन्हे बच्चे भी खपाये जा रहे हैं। इस काले बाजार की यही हकीकत है।
- अलकनंदा सिंंह
http://legendnews.in/a-simple-script-filled-with-expectations/
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धन्यवाद नवीन जी
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