गुरुवार, 25 जून 2020

आपातकाल: 25 और 26 जून की वो दरम्यानी रात और मेरे बचपन की स्मृत‍ियां

मेरे बचपन  की स्मृत‍ियों में आज भी छपी है 25 और 26 जून की वो दरम्यानी रात
25.‍06.1975 के दिन लोकतंत्र पर लगे दाग को ढोते हुए हमें 45 साल हो गये मगर मेरे बचपन की वो स्‍मृतियां आज भी ज़हन में बराबर कौंध रही हैं कि किस तरह से प्रभावशाली लोग भी घरों में छुपने को विवश हुए जा रहे थे। चारों तरफ अफरातफरी मची थी।

तब छोटी सी उम्र में मैं अपने आसपास होने वाली हलचलों को सिर्फ देख सकती थी मगर तब मैं इतनी छोटी थी कि उसे महसूस कर पाना मेरे दिमाग के पार था। बस घर की बालकनी में बैठी गली में पुलिस को देखकर भागती भीड़, दौड़ते लोगों में से कुछेक को पकड़ कर ले जाते पुलिसवाले अंकल...मां की किसी को कुछ ना बताने की पक्‍की हिदायत के संग ऊपर से झांकती मैं भी पुलिस को देखकर नीचे को झुक जाती, छुप जाती...।

कभी ये छुपनछुपाई वाला खेल लगता तो कभी बड़ा अजीब सा ...कि हम घर में...कैद से ये कौन सा खेल खेल रहे हैं।

रात को जो एकाध बल्‍व रोशनी के लिए जलाकर छोड़ दिया जाता था, उसे भी मां नहीं जलाती थीं।

'क्‍यों नहीं जलाती हो वो आंगन के बाहर वाला बल्‍व, पूछने पर वो हरबार एक ही बात कहतीं कि तेरे 'ताऊ जी' को कुछ डाकू ढूढ़ रहे हैं, जिन्‍होंने पुलिस की वर्दी पहनी हुई है, वो घर घर जाकर पूछ रहे हैं कि ताऊ जी कहां हैं, अगर वो रोशनी देखेंगे तो ताऊ जी को पकड़ ले जायेंगे ना, इसीलिए बल्‍व अभी नहीं जलायेंगे।'

जब बड़ी हुई तो जाना कि जिस घर में हम रहते थे वो जनसंघियों का घर था जिसके मालिक बड़े ताऊ जी थे, जिन्‍होंने मेरे पिता के व्‍यवहार से खुश होकर रहने को दिया था। आरएसएस से जुड़े लोगों को अधिक परेशान किए जाने के स्पष्ट निर्देश सरकार की ओर से दिए गए थे।

पापा सरकारी डॉक्‍टर थे बरेली के पचपेड़ा हॉस्‍पीटल में, अब इससे ज्‍यादा तो याद नहीं आ रहा और कुछ। कुछ भूली सी स्‍मृतियां हैं , उनमें एक है क‍ि एक नदी बहती थी घर के पास में जिसको पहले नाव से पार करते थे, फिर हॅस्‍पीटल आता था, बड़ी खूबसूरत सी जगह थी, फिल्‍मी सेट की तरह लगने वाली...बड़ा सा कंपाउंड जिसमें घुसते ही बाईं ओर बहुत ही सुंदर नन्‍हीं सी चारदीवारी से सजा हुआ सा एक कुंआ था जिसमें हल्‍की गिरारी वाली बाल्‍टी झूलती रहती थी।

कंपाउंड के दाईं ओर हॉस्‍पीटल के लिए तीन कमरे दिए गये थे। कंपाउंड के ठीक बीच में बेहद खूबसूरत मंदिर था, मंदिर में कौन से भगवान विराजे थे... अब ये भी ठीक ठीक याद नहीं मगर उसकी घंटियों से मुझे लटकना अच्‍छा लगता था। हम वहां कुल डेढ़ साल ही रह पाये और इसी दौरान वो घटनायें घटीं जिन्‍हें अब हम इमरजेंसी या आपातकाल के नाम से जानते हैं, उनकी भयावहता की बात करते हैं क्‍योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसी घटनायें एक दाग होती हैं ...बस।

उन दिनों की स्‍मृतियों में तैर जाते हैं वो दिन कि कैसे पुलिस से बचने के लिए मां के द्वारा वो अटपटी सी हरकतें किया जाना बिल्‍कुल भी अच्‍छा नहीं लगता था मुझे। ये भी अच्‍छा नहीं लगता था कि मेरे डॉक्‍टर पिता रात रात भर हॉस्‍पीटल में रहें। मां बताती थीं कि पापा को सीएमओ से आदेश मिला था कि कम से कम डेढ़ सौ केस तो हर रोज करने ही हैं। ''केस'' का मतलब लोगों की नसबंदी कर देना था जो तब हम बच्‍चों की समझ से परे था कि बिना बीमारी के ऑपरेशन क्‍यों किये जा रहे हैं सबके।

मां-पापा की बातें बताती हैं जीप जब गांव में चक्कर लगाती थी और नसबंदी के ल‍िए पकड़ कर ले जाती थी। रात को लोग अपने घर में सोने की बजाय फसलों के बीच में सो जाया करते थे। रिश्तेदारियों में लोगों का आना-जाना तक बिल्कुल छूट गया था। इस कारण उस दौरान गली-मौहल्लों में आपातकाल के सिर्फ एक ही फैसले की चर्चा सबसे ज्यादा थी और वह भी नसबंदी। सिर्फ टारगेट पूरा करने के लिए गांव में आने वाले टीम जबरदस्ती करती थी, उस दौरान ना तो युवाओं को छोड़ा गया और ना ही बुजुर्गों को।

खैर... धरपकड़ के इसी माहौल में मंदिर के पुजारी बाबा को भी पकड़ लिया गया। बाद में घर में सब कानाफूसी कर रहे थे कि बाबा की भी नसबंदी करा दी गई। पापा मां को बता रहे थे कि हम क्‍या करें पुलिस का पहरा रहता है, वो ही पकड़ कर लाते हैं और हमें तो हर हाल में ऑपरेशन करना होता है। छोटी सी बच्‍ची मैं नहीं जानती थी कि क्‍यों पूरा लगभग डेढ़ साल से ज्‍यादा का वक्‍त पापा का ऐसे बीता, ये तब ही जाना जब बड़ी हुई कि पापा जैसे और भी लोग थे जो सरकारी आदेशों को मानने के आगे विवश थे।

बहरहाल अब कह सकती हूं कि पता नहीं वो कैसे कैसे दिन थे और कैसी कैसी जागती सी रातें कि आज भी हम उन काली स्‍मृतियों को भुला नहीं पा रहे हैं।
आज इतने साल बाद भी मुझे वो सारे सीन याद हैं जस की तस।

- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 16 जून 2020

कुआँ खोदने वाले को.... एक रोज़ प्यास निगल जाती है...

कुछ दुःख बहुत भारी होते हैं, इतने भारी क‍ि सीने में उतर आएँ तो जीवन की नदी के बीचों बीच जाकर नैया सहित डुबो देते हैं….और दुख का ”कारण” अगर स्वयं की अपेक्षाएं बन जायें तो उनका इलाज कर पाना आसान नहीं होता। पहले सफलता पाने का दबाव, फिर सफल बने रहने का दबाव, स्वार्थ से लबालब न‍िजी संबंध, अपनों से दूरी जैसी आमफ़हम बातों के अलावा स्वयं से पाली गई बेतहाशा उम्मीदें, ज‍िंदगी न‍िगलने के ल‍िए काफी होती हैं।
यही संदेश दे रहा है सुशांत स‍िंह राजपूत द्वारा आत्महत्या करना क‍ि अपेक्षाएं जब खुद से बड़ी हो जाएं और उन्हें पूरा करने की जद्दोजहद में आत्मघात सबसे आसान तरीका लगने लगे तो सोचना जरूरी है क‍ि आख‍िर बॉलीवुड की चकाचौंध भरी ज‍िंदगी नवागतों या कलाकारों के ल‍िए अब मौत का कुआं क्यों बन गई है, ये अभी और क‍ितने सुशांतों को न‍िगलेगी, कहा नहीं जा सकता।
हममें से हर एक...  अपने भीतर... चुपचाप...  सुख के नीर की खोज में कुआँ खोदता एक मजदूर हैं... कभी कभी लाख कोशिशों के बाद भी भीतर की ज़मीन पानी  नहीं उलीचती... कुआँ खोदने वाले को.... एक रोज़ प्यास निगल जाती है... 
बॉलीवुड में लगातार हो रही आत्महत्याओं को देखें तो इस चकाचौंध का स्याह पक्ष ये है क‍ि इतनी बड़ी कीमत देकर हास‍िल की गई सफलता आख‍िर क‍िसे खुशी देगी क्योंक‍ि आज जो बॉलीवुड है उसमें कला का स्थान ”सेट‍िंग-गेट‍िंग” के बाद में आता है। प्रोफेशनल‍िज्म के नाम पर वो सब-कुछ होता है वहां जो आज की प्रैक्ट‍िकल लाइफ के ह‍िसाब से भी नाजायज है। ये जो आम से कलाकार रातों-रात स‍ितारा ”बना द‍िए” जाते हैं, वे क्या क्या दांव पर लगाकर ये मुकाम हास‍िल करते हैं, स्वयं बॉलीवुड की पेजथ्री, डर्टी प‍िक्चर जैसी कई फ‍िल्में इसे बखूबी द‍िखा चुकी हैं।
सुशांत के जाने के बाद प‍िछले दो द‍िनों से मीड‍िया से लेकर व‍िश्लेषक तक सुशांत की आत्महत्या के बाद वहां स्थाप‍ित ”नेपोट‍िज्म” को दोषी बता रहे हैं परंतु ये तो अपने न‍िर्णयों का दोष क‍िसी दूसरे पर थोपने जैसा है क्योंक‍ि बॉलीवुड व‍िशुद्ध व्यवसाय है, जहां कलाकारों के ”चेहरे” पर ही करोड़ों का सौदा होता है, ऐसा ना होता तो कलाकार ”स‍ितारा” ना कहलाते, और हीरो या हीरोइन की बजाय हम प्रोड्यूसर को जानते, परंतु ऐसा नहीं है। फिर यद‍ि कोई स्थाप‍ित प्रोडक्शन हाउस क‍िसी अपने को आगे बढ़ाता भी है तो इसे खाल‍िस व्यवयाय‍िक दृष्ट‍ि से देखा जाना चाह‍िए।
एक बात और क‍ि नेपोट‍िज्म ही अगर कामयाब कलाकार का पैमाना होती तो ना तो न‍ित‍िन मुकेश, कुमार गौरव, अभ‍िषेक बच्चन, उदय चोपड़ा जैसों की लंबी ल‍िस्ट न बनती और ना ही मनोज वाजपेयी, राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना बॉलीवुड में कहीं ठहर पाते। बॉलीवुड तो भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से। यहां आने वाला कोई भी कलाकार इन सब बातों से अंजान नहीं होता बल्क‍ि वो अपने स्वयं के जमीर और ज‍िंदगी दोनों का दांव खेलता ही इसल‍िए है क‍ि उसे भी ”स‍ितारा” बनना है। वो स‍ितारा बनने की हर कीमत चुकाने को तैयार होता है, इसल‍िए इस कीमत को तय का ज‍िम्मेदार भी वो स्वयं ही होता है। इनकी खुद से खुद की ही अपेक्षाएं इतनी अध‍िक होती हैं क‍ि इनका दबाव जो नहीं झेल पाते वो सुशांत जैसे कदम उठा जाते हैं।
कुल म‍िलाकर बात इतनी सी है क‍ि छोटे शहर से बड़े शहर में जाना, पैसे और पहुंच के बीच अपना स्थान बनाना, संघर्ष में संतोष को ढूंढ़ना, अपनी पहचान स्वयं गढ़ना पर चैन-खुशी-सुकून से मुलाक़ात ना हो पाना… बॉलीवुड में नवागतों के ल‍िए ये एक आम सी पटकथा है ज‍िसमें संवेदना का अभाव है, बस। बॉलीवुड में ऐसी आत्महत्याओं को रोक पाना फ‍िलहाल तो संभव नहीं क्यों क‍ि जो अपेक्षाएं इसकी ज‍िम्मेदार हैं, वे कहीं से भी कम होती नजर नहीं आ रहीं बल्क‍ि र‍िएल‍िटी शो, वेब शो के जर‍िए मां-बाप सह‍ित नन्हे-नन्हे बच्चे भी खपाये जा रहे हैं। इस काले बाजार की यही हकीकत है।
- अलकनंदा स‍िंंह
http://legendnews.in/a-simple-script-filled-with-expectations/

बुधवार, 10 जून 2020

पश्तो भाषा की पहली फिल्‍म कहां बनी थी, क्‍या आप जानते हैं?




पूरी दुनिया में जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें पश्तो का स्थान बोली जाने वाली आबादी के हिसाब से 31वां आता है. पाकिस्तान में क़रीब 15 फ़ीसदी आबादी पश्तो बोलती है.
पश्तो फ़िल्म इंडस्ट्री पाकिस्तान की तीसरी सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री है.
पाकिस्तान में कम से कम आठ सौ फ़िल्में पश्तो भाषा में अब तक बन चुकी हैं लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि पश्तो की पहली फ़िल्म पेशावर, लाहौर, कराची या फिर काबुल में नहीं बनी, बल्कि बॉम्बे में बनी थी जिसे अब बॉलीवुड कहते हैं.
पहली पश्तो फ़िल्म, इसके बनने की कहानी और इस फ़िल्म में काम करने वालों के बारे में जानने के लिए हमें क़रीब अस्सी साल पीछे जाना होगा. फ़िल्म बनाने का ख्याल सबसे पहले पश्तो के मशहूर शायर अमीर हमज़ा शिनवारी को आया था.
बात साल 1938 की है. वो पश्तो में एक फ़िल्म बनाने की सोच रहे थे. उन्होंने फै़सला किया कि फ़िल्म का नाम लैला-मजनूं रखेंगे.
एक नौजवान शायर के लिए वाक़ई में यह एक महत्वकांक्षी योजना थी. किसे पता था यह नौजवान आगे चलकर पश्तो के सबसे मशहूर शायर के तौर पर जाना जाएगा.
उन्होंने फ़िल्म में पैसा लगाया. उसकी कहानी लिखी. उसके संवाद और गाने लिखे. कुछ दोस्तों की मदद से फ़िल्म के संगीत का भी निर्माण किया. उनके ये दोस्त थे अब्दुल करीम अंदलीब और रफ़ीक़ ग़ज़नवी.
गज़नवी नए ज़माने के दर्शको की दिलचस्पी के हिसाब से संगीत देने में यक़ीन रखते थे. वो पाकिस्तान की मशहूर गायिका और अदाकारा सलमा आग़ा के नाना थे.
लेकिन अब आप यह सोच रहे होंगे कि फ़िल्म का निर्देशन किसने किया था?
शिरवानी ने किस पर भरोसा किया होगा अपने इस सपने को पूरा करने के लिए?
जो उपलब्ध स्रोत हैं, वो यह बताते हैं कि रफ़ीक़ गज़नवी पर उन्होंने भरोसा जताया था लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो यह बताते हैं कि उन्होंने किसी पर भी इस फ़िल्म के निर्देशन को लेकर भरोसा नहीं जताया था और ख़ुद ही इसका निर्देशन किया था.
वास्‍तविकता कुछ भी हो लेकिन फ़िल्म की कास्टिंग से तो यही पता चलता है कि शिनवारी ने अपने दोस्त रफ़ीक़ ग़ज़नवी पर ही भरोसा जताया था. रफ़ीक़ ने फ़िल्म में हीरो की भूमिका भी निभाई थी जबकि फ़िल्म में उनकी हीरोइन बनी थीं हबीब जान काबुली. इसके अलावा सितारा, वज़ीर मोहम्मद और डब्लू एम ख़ान ने अभिनय किया था.
लेकिन ऐसा भी नहीं था कि अमीर हमज़ा शिनवारी ने सिर्फ़ पर्दे के पीछे ही रहकर सिर्फ़ फ़िल्म की बागडोर संभाली थी. फ़िल्म में उन्होंने एक छोटी सी भूमिका भी निभाई थी.
फ़िल्म की एक जो और ख़ास बात थी, वो थे इसके गाने. इसमें शिनवारी के शुरुआत के दिनों में जो काम रहे हैं उसके बारे में पता चलता है.
फ़िल्म में किसी भी मशहूर गायक या गायिका की आवाज़ की बजाए फ़िल्म में काम करने वाले कलाकारों की आवाज़ में ही गाने थे. शिनवारी ने ख़ुद इसमें गाया था. उनके अलावा ग़ज़नवी, हबीब काबुली और डब्लू एम ख़ान ने भी अपनी आवाज़ दी है.
1941 में पूरी हुई यह फ़िल्म पेशावर और क्वेटा में अगले साल रिलीज़ हुई थी. उस समय के मौजूदा साक्ष्यों के मुताबिक़ बॉम्बे में पश्तो बोलने वालों ने इस फ़िल्म को सराहा था. फ़िल्म के गाने और संवाद पश्तो बोलने वालों की ज़ुबान पर चढ़ गए थे. अब आइए आपको तफ़सील से बताते हैं इस फ़िल्म से जुड़ी अहम शख़्सियतों के बारे में.
अमीर हमज़ा शिनवारी
अमीर हमज़ा को आज इसलिए नहीं याद किया जाता कि उन्होंने पश्तो की पहली फ़िल्म बनाई थी. हमज़ा बाबा के नाम से जाने जाने वाले अमीर हमज़ा शिनवारी को बाबा-ए-ग़ज़ल कहा जाता है. उन्हें पश्तो में लिखी जाने वाली ग़ज़लों का मसीहा कहा जाता है.
उनका जन्म लंदी कोटाल के खुगा केहल इलाक़े में हुआ था. यह इलाक़ा आज के पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर पड़ता है. शिनवारी का काम पश्तो भाषा की लगभग हर साहित्यिक शैली में दिखता है. उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ग़ज़ल, शायरी और कहानियों की कई किताबें लिखीं.
उन्हें मोहम्मद इक़बाल और नहज़ुल बलाग़ा के काम को पश्तो में अनुवाद करने के लिए भी जाना जाता है. उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए पाकिस्तान के सबसे बड़े नागरिक सम्मान सितारा-ए-इम्तियाज़ से भी नवाज़ा जा चुका है.
शिनवारी का अपने पुश्तैनी घर में 18 फ़रवरी, 1994 को इंतक़ाल हो गया था. इसके साथ ही पश्तो शायरी के एक ज़माने का अंत हो गया था. जो उन्हें अपने ज़माने के महान सूफ़ी शायर मानते हैं, उनके लिए उनकी क़ब्र किसी पवित्र स्थल की तरह है जहाँ वो उनके प्रति अपना सम्मान जताने जाते हैं.
रफ़ीक़ ग़ज़नवी
शिनवारी के क़रीब दोस्त रफ़ीक़ ग़ज़नवी जिनको उन्होंने लैला मजनू के निर्देशन की ज़िम्मेदारी दी थी, उनका जन्म 1907 में हुआ था. उन्होंने रावलपिंडी के इस्लामिया कॉलेज से मैट्रिक किया था. इसके बाद वो लाहौर के इस्लामिया कॉलेज में पढ़ने गए फिर यहाँ से पंजाब यूनिवर्सिटी.
उन्होंने हमेशा क्लासिक म्यूज़िक में दिलचस्पी दिखाई. उन्होंने बाक़ायदा उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ ख़ान, उस्ताद मियां क़ादिर बख़्श लाहौरी और उस्ताद आशिक़ अली ख़ान से संगीत सीखा था.
सिनेमा के साथ उनका जुड़ाव 1930 में शुरु हुआ था. उन्होंने एक मूक फ़िल्म में काम किया था. इसके बाद उन्होंने लाहौर में बनी पहली बोलती फ़िल्म हीर रांझा में अभिनय किया. वो इस फ़िल्म के संगीतकार भी थे. फ़िल्म की शूटिंग के दौरान रफ़ीक ग़ज़नवी को अपने साथ काम करने वाली अभिनेत्री अनवरी से मोहब्बत हो गई और दोनों ने फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले ही शादी कर ली थी.
उनकी एक बेटी हुई ज़रीना जो नसरीन नाम से फ़िल्मों में काम करती थीं. ज़रीना की बेटी सलमा आग़ा आगे चलकर भारत और पाकिस्तान की मशहूर गायिका और अभिनेत्री हुई.
हीर रांझा के बाद ग़ज़नवी बॉम्बे चले गए जहाँ उन्होंने कई फ़िल्मों में काम किया. उन्होंने वहाँ के कई फ़िल्मों में संगीत भी दिया. इनमें से कुछ मशहूर फ़िल्में हैं- जवानी-दिवानी, प्रेम-पुजारी धर्म की देवी, प्रेम यात्रा, अपनी नगरिया, तक़दीर, बहू रानी, नौकर और सिकंदर के नाम.
बंटवारे के बाद ग़ज़नवी कराची लौट गए और वहाँ रेडियो पाकिस्तान के साथ जुड़ गए. वो इस दल का भी हिस्सा थे जिन्हें पाकिस्तान के राष्ट्रगान को अंतिम रूप देने की ज़िम्मेदाी दी गई थी.
पाकिस्तान आने के बाद भी उन्होंने फ़िल्मों में संगीत देना जारी रखा और परवाज़, अनोखी बात और मंडी के नाम जैसे फ़िल्मों में संगीत दिया.
अपनी शादियों को लेकर भी रफ़ीक़ चर्चा में रहे. उन्होंने अनवरी के अलावा ज़ाहरा, अनुराधा और क़ैसर बेगम से शादी की थी. उनकी बेटियों में से एक शाहिना ने कुछ पाकिस्तानी फ़िल्मों में काम किया है. उनकी एक और बेटी ने मशहूर फ़िल्म निर्देशक ज़िया सरहदी से शादी की है. उनके दो बेटे ख़य्याम और बिलाल सरहदी शोबीज़ की दुनिया से जुड़े हुए हैं.
रफ़ीक़ ग़ज़नवी की मौत 2 मार्च 1974 को कराची में हुई थी.
वज़ीर मोहम्मद ख़ान
वज़ीर मोहम्मद ख़ान पेशावर के रहने वाले थे लेकिन 1926 में बॉम्बे चले गए थे. यहां उन्होंने कश्मीरा, मनु विजय, दिल फ़रोश और हैमलेट जैसे कुछ मूक फ़िल्मों में काम किया था. हालांकि उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप की पहली बोलती फ़िल्म आलम आरा में काम से पहचान मिली.
फ़िल्म का गाना ‘दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे’ उन्हीं पर फ़िल्माया गया था. यह गाना बोलती फ़िल्म के पहले गाने के तौर पर मशहूर हुआ. इसकी रिकॉर्डिंग की एक असली कॉपी इब्राहिम ज़िया के पास भी है जो पेशावर के एक फ़िल्म का शौक़ रखने वाले अज़ीम शख़्सियत हैं.
आलम आरा की कामयाबी के बाद वज़ीर ने कुछ और फ़िल्मों में भी काम किया. मसलन मैजिक फ्लोट, धनवान, दुल्हन, मेरे लाल, उसने क्या सोचा, रंगीला राजपूत, शेर दिल औरत, दर्द-ए-दिल और दुख़तर-ए-हिंद जैसी फ़िल्मों में.
उनकी मौत बॉम्बे में ही 14 अक्टूबर 1974 को हुई थी.

courtsey -BBC

शनिवार, 6 जून 2020

गोल्ड माइन बना सरकारी श‍िक्षक बनने का लालच

अकसर हम पुल‍िस को या प्रशासन को क‍िसी भी नाइंसाफी के ल‍िए दोष दे देते हैं या क‍िसी नीत‍ि के बेमानी होने पर शासन को कठघरे में ले आते हैं, इससे भी आगे एक झटके में सारे नेताओं को भ्रष्ट, नाकारा और चोर बताने से नहीं ह‍िचकते परंतु जब बात हमारे अपने स्वार्थों पर आती है तो इसी ”नाकारा और चोर तंत्र” से येन केन प्रकारेण कथ‍ित तौर पर ”मदद” लेने से भी नहीं चूकते।
नौकरी लगवाने के ल‍िए हम कौन सी कमी हम छोड़ देते हैं, फर्जी दस्तावेजों से लेकर घूस देने तक का सारा बंदोबस्त हाथोंहाथ हो जाता है, नौकरी पा भी जाते हैं तो फ‍िर वही स‍िस्टम को गर‍ियाने का स‍िलस‍िला बदस्तूर चलता रहता है।
उत्तरप्रदेश के प्राइमरी स्कूलों में श‍िक्षकों का मामला ऐसा ही एक गोल्ड माइन व‍िषय है ज‍िसमें कथ‍ित बेरोजगारों ने स‍िस्टम की कम‍ियों का भरपूर लाभ उठाया है। श‍िक्षक भर्ती से लेकर फर्जी बीएड और ऐसे ही अन्य फर्जी दस्तावेजों से न‍ियुक्त‍ि ”धंधेबाजों” के ल‍िए गोल्ड माइन बन गया।
उत्तरप्रदेश सरकार के गले की हड्डी बना 69000 श‍िक्षक भर्ती मामले में हाई कोर्ट द्वारा फैसला द‍िए जाने के बाद भी बार बार अलग अलग याच‍िकाओं का लगाया जाना और हर बार न‍िर्णय आने के बाद फ‍िर से नई याच‍िका लगाया जाना, कोई साधारण सी बात नहीं है। अंदाजा लगाइये क‍ि यद‍ि ये याच‍िका कर्ता नौकरी के ल‍िए जरूरतमंद हैं, बेरोजगार हैं, बेरोजगारी के कारण आत्महत्या कर रहे हैं तो बार बार याच‍िका के ल‍िए पैसा कहां से लाते हैं। हाईकोर्ट जाने की फीस ही 30-35 हजार से शुरू होती है, इन बेरोजगारों को कौन फंड‍िंग कर रहा है, तमाम ऐसे प्रश्न हैं जो इनकी मंशा पर प्रश्न उठाते हैं। आरक्षण, कटऑफ, गलत प्रश्न, श‍िक्षाम‍त्र-बीएड-बीटीसी का समायोजन … बहाने तो बहुत हैं मगर मंज‍िल एक ही क‍ि कैसे भी हो श‍िक्षक बन जाया जाये।
ये श‍िक्षक बनने का ही तो लालच था क‍ि एक लाख रुपये देकर अनाम‍िका शुक्ला के नाम पर पहले फर्जी दस्तावेज हास‍िल क‍िये, फ‍िर एक साथ 25 कस्तूरबा गांधी व‍िद्यालयों में श‍िक्ष‍िका बन संव‍िदा पर नौकरी करने वाली प्र‍िया कल कासगंज पुल‍िस द्वारा पकड़ी गई। उसने कई राज उगले क‍ि कैसे श‍िक्ष‍िका की नौकरी हास‍िल की। बहरहाल क्राइम कैसे हुआ, इस कॉकस में कौन कौन शाम‍िल हैं , ये सब तो पुल‍िस व व‍िभागीय जांच में सामने आ ही जाएगा परंतु हमारे ल‍िए च‍िंता व शर्म की बात है क‍ि ज‍िनके हाथों में बच्चों का भव‍िष्य दे रहे हैं यद‍ि वे ही र‍िश्वतखोरी, धोखाधड़ी, मक्कार‍ियों करते म‍िलें तो क्या ये बच्चों के भव‍िष्य से ख‍िलवाड़ ना होगा।
दरअसल श‍िक्षा व‍िभाग एक ऐसा अंधा कुंआ बन गया है जहां एक बार न‍ियुक्त‍ि म‍िली नहीं क‍ि फ‍िर कौन देख रहा है क‍ि वहां क्या हो रहा है, सभी ने अपनी अपनी सेट‍िंग कर रखी है, स्कूल के चौकीदार से लेकर अध‍िकार‍ियों तक सबका अपना ” टैक्स” न‍िर्धार‍ित है।
प्रदेश में श‍िक्षा की ये बेहाली श‍िक्षकों की कमी के कारण नहीं बल्क‍ि नाकाब‍िल श‍िक्षकों के कारण है, जो स्वयं 40 प्रत‍िशत कटऑफ पर चुने जायेंगे, उनसे अच्छी श‍िक्षा की उम्मीद बेमानी होगी। श‍िक्षक की अध‍िक भर्ती की नहीं, योग्य श‍िक्षकों की जरूरत है जो श‍िक्षा के साथ साथ संस्कार भी दे सकें ताक‍ि हमारी अगली पीढ़ी स‍िस्टम को गर‍ियाने की बजाय उसके प्रत‍ि जवाबदेह बने।
- अलकनंदा स‍िंंह

गुरुवार, 4 जून 2020

कोरोना काल में विशेषज्ञ डॉक्‍टर्स पर कॉमन सेंस पड़ा भारी

हमारे यहां ब्रज चौरासी कोस यात्रा में राजस्थान सीमा पर एक गांव है, यह गांव एक ऐसे हड्डी रोग व‍िशेषज्ञ के ल‍िए प्रस‍िद्ध है जो हड्ड‍ियों से संबंध‍ित क‍िसी भी रोग को अपने व‍िशुद्ध देसी अंदाज़ में ठीक करते हैं। कुछ साल पूर्व वे काफी वृद्ध थे, अब वो जीव‍ित हैं क‍ि नहीं, ये तो मुझे नहीं पता परंतु फ‍िलहाल उनका ये काम उनके बच्चों ने बखूबी संभाल रखा है और इनके देसी इलाज के सामने द‍िल्ली एनसीआर के हड्डी रोग व‍िशेषज्ञ भी फीके हैं।
इलाज का भी इनका अपना ही तरीका है। अपने कॉमन सेंस को इस्तेमाल कर वे पहले रोगी की मनोदशा जानने का प्रयास करते हैं फ‍िर उसके घर-पर‍िवार व समाज-गांव की बात करते हुए ही रोगी की हड्डी को वे कब अपने सधे हाथों से नसों को टटोलते हुए ”सेट” कर देते हैं, पता ही नहीं चलता। एक्यूप्रेशर के संग लंबी कॉटन की धोत‍ियों से बनी पट्ट‍ियां बांधकर वे शहद-चूना के साथ जड़ी-बूटी म‍िलाकर लेप लगा कर 15-15 द‍िन की स‍िट‍िंग के बाद रोगी को भला चंगा कर देते हैं परंतु फ‍िर भी वे ”झोलाछाप” की श्रेणी में आते हैं। दरअसल हम ये अंतर ही नहीं कर पाए क‍ि झोलाछाप कौन है और पारंपर‍िक औषध‍ियों व इलाजों का जानकार कौन। सभी को एक ही पैमाने से नाप ल‍िया।
ये कॉमन सेंस ही है क‍ि रोगी अपने बारे में बात करते हुए ज्यादा दर्द महसूस नहीं करता और उनकी खास बात ये क‍ि इलाज लगभग न‍ि: शुल्क क‍िया जाता है, बस वे स‍िर्फ शहद-चूना और धाेती की पट्ट‍ियों का पैसा ही लेते हैं जो बहुत मामूली होता है। ऐसे में रोगी की खुशी दोगुनी हो जाती है और मानस‍िक तौर आश्वस्त व खुश व्यक्त‍ि जल्दी र‍िकवर करता है।
ये मात्र एक ऐसा उदाहरण है जो मेरी नज़र में आया। इन जैसे क‍ितने ही देसी स्वास्थ्य व‍िशेषज्ञ पूरे देश में ब‍िखरे पड़े हैं। आप आद‍िवासी क्षेत्रों में चले जाइये, ऐसे ही असीम‍ित ज्ञान वाले पूरी की पूरी आबादी की देख-रेख बड़े ही सधे हाथों से कर देते हैं। कोरोना ने हमें ये स‍िखा द‍िया है क‍ि गांव, घर में मौजूद इलाज मामूली नहीं होते। सोचना होगा क‍ि हम आज भी हाइड्रोक्लारोक्वीन से ज्यादा नीम, तुलसी, ग‍िलोय, दालचीनी, कालीम‍िर्च के आयुष काढ़े को प्राथम‍िकता क्यों दे रहे हैं। इसल‍िए नहीं क‍ि ये आधुन‍िक च‍िक‍ित्सकों द्वारा प्रमाण‍ित हैं बल्क‍ि इसल‍िए क‍ि सद‍ियों से हम इन्हीं जैसे वात-प‍ित्त और कफ नाशकों के सहारे बहुत ही अच्छा जीवन जीते आए हैं।
हालांक‍ि सरकारी तौर पर ”इन व‍िशेषज्ञों” को मान्यता देने का प्राव‍धान नहीं है क्योंक‍ि वे सरकारी परीक्षा में पास नहीं हुए, सो ये गैरकानूनी ठहरे और इनका पीढ़ीगत ज्ञान अपराध की श्रेणी में आ गया। मैं यहां स‍िर्फ ”झोलाछाप” होने के कारण ना तो उनकी व‍िशेषज्ञता को क‍िसी भी एंग‍िल से कमतर आंक सकती हूं और ना ही ” झोलाछाप ” के गैर कानूनी दर्जे को गलत ठहरा रही हूं।
झोलाछाप गैर कानूनी इसल‍िए हैं क्योंक‍ि तमाम झोलाछापों ने अपनी बुद्ध‍ि हीनता से रोग‍ियों की जान तक ले ली है परंतु अब जब क‍ि सेहत को चुनौती देती व‍िपत्त‍ियां हमारे सामने नए-नए रूप में सामने आ रही हैं तो हमें सोचना होगा क‍ि हम व‍िशेषज्ञता की नई पर‍िभाषा गढ़ें और गांव-खेड़े तक मौजूद पारंपर‍िक व‍िरासतों को फ‍िर से सम्मान दें, साथ ही ठग झोलाछापोंं से सावधान रहें।
जहां तक बात है व‍िशेषज्ञ च‍िक‍ित्सकों की तो वो अपने ही इलाज को लेकर क‍िस हद तक भ्रम‍ित हैं, ये भी कोरोना काल ने बता द‍िया। अरबों रुपये का नया ”शोध कारोबार” शुरू हो ही चुका है, उनमें यही व‍िशेषज्ञ ”अपने अपने दावे” करेंगे और आमजन …??
बहरहाल, ऐसे भ्रम‍ित व‍िशेषज्ञों पर यद‍ि एक अनपढ़ मगर ”मास्टर” व्यक्त‍ि अपनी व‍िशेषज्ञता दर्ज कराता है तो इसमें हर्ज ही क्या है। क्यों ना इसे कानूनी बनाने की ओर कदम उठाया जाए ताक‍ि जो व्यवहार‍िक ज्ञान गुदड़‍ियों में छ‍िपा है वो जगजाह‍िर हो सके और ज्ञानी होने के बाद भी उन्हें सरकारी प्रताड़ना से दो चार ना होना पड़े, साथ ही ”झोलाछापि‍यों” की ऐसी व‍िशेषज्ञता का लाभ सरकार अपनी जन-जन तक जाने वाली योजनाओं में उठा सके क्योंक‍ि आज भी ग्रामीण इनसे आसानी से बेतकल्लुफ हो पाता है बजाय बड़े बड़े व‍िशेषज्ञ डॉक्टरों के।
- अलकनंदा स‍िंंह
http://legendnews.in/eclipse-of-expertise-on-common-sense/