मंगलवार, 19 मई 2020

...रक्त पिपासु ने विक्रय की लाखों में तस्वीर

व्यथा व बेचारगी की ऑनलाइन सेल
सुख क‍िसे बुरा लगता है, बैठे ठाले अपना रोजगार छोड़कर कौन जाना चाहता है परंतु लगभग 2 महीने की बेकारी के बाद घटती जा रही जमापूंजी के संग आगे बढ़ती असमंजस भरी ज‍िंदगी तथा अपनों से दूरी… ऐसी कई व्यथा हैं जो आज कामगारों और मजदूरों के हालात बयां कर रही हैं, इन व्यथाओं ने ”उनके सुख” पर प्रश्नच‍िन्ह लगा द‍िया है …। एसी कमरों में बैठकर हम ना तो उन व्यथाओं का अंदाज़ा लगा सकते हैं और ना उस अन‍िश्च‍ितता का। हद तो तब होती है जब उनकी ये व्यथा बाजार में बेचने रख दी जाए।
ऑनलाइन सेल
फोटो जर्नल‍िस्ट्स द्वारा ई कॉमर्स वेबसाइट पर व्यथा व बेचारगी की ऑनलाइन सेल
जी हां, ऐसा ही क‍िया गया है इस बेबसी की ऑनलाइन सेल लगाकर। अफरातफरी के इस आलम में अगर मजबूर, फटेहाल, छाले पड़े नंगे पैर, आंसू भरी आंखें, गर्भवती का दर्द, साइक‍िल के डंडे पर सोती नन्हीं बच्च‍ियों की तस्वीरों को फोटो जर्नल‍िस्ट्स द्वारा ई कॉमर्स वेबसाइट पर ”ऑन सेल” लगा द‍िया जाये तो… ? आप इसे क‍िस श्रेणी में रखेंगे… मानवीय, अमानवीय, बाजारवाद या अपनी पेशेगत असुरक्षा की श्रेणी में?
माना क‍ि फोटोग्राफी कमरों में बैठकर नहीं हो सकती, यह जीती जागती पूरी र‍िपोर्ट होती है उस लम्हे की जो क‍िसी ने कैसे ज‍िया, परंतु मौजूदा सूरतेहाल में कामगारों की मजबूरी को ऑनलाइन सेल पर लगा देना… अमानवीय ही कहा जायगा। हम पत्रकारों के ल‍िए ये बात बेहद शर्मनाक है क‍ि मार्केट‍िंग के दौर में मानवीय और अमानवीय के बीच भेद नहीं कर पा रहे।
इंड‍िया टुडे ग्रुप की ओर से हृदयविदारक तस्वीरें ई कॉमर्स वेबसाइट पर बिक्री के लिए देख कर हैरान हूं मैं। इन कामगारों को तो पता भी न होगा कि वो बिक गए, उनके आँसू… टूटी चप्पल… फटा बैग… सब सेल पर लगे हैं । इनमें से एक एक फ़ोटो का दाम 8000 से 20000 तक रखा गया है।
माना कि सबको घर चलाना है लेकिन इन तस्वीरों से कमाई? कुछ समय बाद इनमें से कोई पुल‍ित्जर ले आए तो आश्चर्य नहीं, पुल‍ित्जर की तो पॉल‍िसी ही ” बेचारगी” को बेचने और लाचारगी को उत्कृष्ट बताने की है। फोटो पत्रकार‍िता के इसी कृत्य में शाम‍िल बीबीसी के विज्ञान, तकनीक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार पल्लव बागला ने तो ISRO के वैज्ञानिकों की फोटो तक ऑनलाइन सेल के लिए रख दी थी।
ऑनलाइन सेल पर रखी गई तस्वीरों के पीछे पूरी मार्केट‍िंग स्ट्रेटजी होती है, जो ज‍ितनी ज्यादा हृदय व‍िदारक, उसकी उतनी ही ज्यादा कीमती। बानगी देख‍िए क‍ि मज़दूर परिवार थककर चूर है, प्रेस फोटोग्राफर ने निढाल परिवार को बैठने को कहा, फिर मासूम से मां का पैर दबवाया, और फ़ोटो क्लिक, अब अगले फ़ोटो की बारी…अब मां ने बच्चे का पैर दबाया..फ‍िर फोटो क्ल‍िक। एनडीटीवी ने फोटोग्राफर ने तो थकेहारों का हुजूम के साथ यमुना पार कर आए व्यक्त‍ि को फ‍िर से कहा क‍ि वापस जाओ यमुना में…हमारी ओर देखो… ऐसा करते ही क्ल‍िक, स‍िर्फ एक ख़बर के लिए।
याद है ना! गुजरात दंगों में एक रोते व्यक्त‍ि की फोटो इतनी वायरल हुई क‍ि उसे बाकायदा कोर्ट से जाकर उस फोटो को हटवाने की गुहार लगानी पड़ी।
क‍िसी ने इनके ल‍िए ही कही हैं ये चार लाइनें और बात खत्म –
किसने समझी किसने जानी मजदूरों की पीर।
रक्त पिपासु ने विक्रय की लाखों में तस्वीर।
फ़क़त बुजुर्गों की छाया को निकले नंगे पांव।
सड़कों पर दम तोड़ गए देखो भारत के गांव।
- अलकनंदा स‍िंह 

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-05-2020) को "फिर होगा मौसम ख़ुशगवार इंतज़ार करना "     (चर्चा अंक-3707)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  2. वो कहते हैं न गंदा है पर धंधा है ये.... यह इसी का उदाहरण था... मेरे एक फोटोग्राफर मित्र थे वो बताते थे ऐसी ही तस्वीरों को विदेशों में अच्छी कीमत और ईनाम मिलते हैं क्योंकि ये उन लोगों के पूर्वाग्रहों को पोसते हैं...निंदनीय कृत्य है..

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  3. नमस्कार व‍िकास जी, सही कहा आपने परंतु अब समय उनके पूर्वाग्रहों को पोसने का नहीं स्वयं की संस्कृत‍ि व संस्कारों को बढ़ावा देने का है....आवाज भी उठनी चाह‍िए और प्रयास भी होने चाह‍िए... आपकी ट‍िप्पणी के धन्यवाद

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