किसी भी अधिकता की प्रवृत्ति उन्मादी होती है। वह हर हाल में नुकसान पहुंचाती है। फिर चाहे वह अधिक मीठा हो, अधिक खारा या अधिक चुप्पी या फिर अधिक वाचाल प्रवृत्ति….। घर में बैठे बुजुर्ग यदि अधिक बोलने लगें तो उनकी ”अच्छी बातें” भी हम ”ये तो बस यूं ही बड़बड़ाते रहते हैं” कहकर अनसुनी कर देते हैं। ऐसे ही अनेक लोग आपको मीडिया, सोशल मीडिया या आस-पड़ोस में मिल जाऐंगे, जो ”हर विषय पर वक्त-बेवक्त ”ज्ञान बघारने” का काम करते रहते हैं।
इस कोरोना संकट के समय पलायन कर रहे प्रवासियों की बात हो या कोरोना से बचाव के उपाय, उपदेशों की अधिकता ने दिमाग चकरा दिया है कि आखिर इन ”कृपा बरसाने वालों” का उपाय क्या है। संभवत: इसी अधिकता से आजिज़ आ गई अदालतों ने भी अब याचिकाकर्ताओं को दोटूक जवाब देना शुरू कर दिया है।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मजदूरों के ट्रेन की पटरियों पर सोने के कारण हुई मृत्यु पर कल अदालत ने एक याचिका रद्द करते हुए याचिकाकर्ता वकील से कहा कि ऐसे प्रवासियों को रोकना असंभव है जो सरकारों द्वारा लगातार किये जा रहे उपायों के बाद भी न केवल पैदल चल रहे हैं बल्कि रेल की पटरियों पर सो कर स्वयं अपनी मौत को आमंत्रण दे रहे हैं। सरकारों को अपना काम करने दें, उन्हें एक्शन लेने दें, किसी को भी अपनी बारी का इंतज़ार तो करना ही होगा, और यही व्यवस्था का मूल है।
हर ऐरे-गैरे विषय पर याचिका दायर करने की अधिकता ना तो सरकारों को काम करने दे रही है और ना ही स्वयं नागरिकों को उनके कर्तव्य का बोध करा रही है। याचिकाएं अब सिर्फ अधिकारों को मांगने का ज़रिया बनकर रह गई हैं, गोया कि अधिकार सिर्फ नागरिकों के होते हैं और कर्तव्य सिर्फ सरकारों के।
जहां तक बात है प्रवासी मजदूरों पर याचिका की तो निश्चित ही उनके लिए ये समय सब्र और बुद्धि से काम लेने का है, ना कि आवेश और गुस्से में आकर मीलों तक पैदल सफर करने का। सरकार द्वारा ट्रेन की व्यवस्था किये जाने व बसों में उनके गंतव्य तक पहुंचाए जाने के बावजूद वे अपनी जेब से भारी भरकम पैसा खर्च कर यदि ट्रकों में ठुंसकर सफर करने पर आमादा हैं तो उन्हें रोकना असंभव है। इसी तरह वे जो रेल की पटरियों पर सो गए, ना तो अबोध थे और ना ही मंदबुद्धि फिर उनके लिए सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जाहिर है कि ना तो हर मृत व्यक्ति ”निर्दोष” होता है और न हर गरीब ”बेचारा”। ये समय सरकारों का साथ देकर व्यवस्थाओं को मानने का है।
प्रवासी मजदूरों के झुंडाें को धूप में पैदल चलते दिखाने वाले फोटो, सूटकेस पर लेटे हुए सफर करते बच्चे का फोटो, बिवांई और छालों के साथ अपने मूल देस लौट रहे लोगों की थकान के फोटो ”लाइक्स” और सरकारों की आलोचना का ”आनंद” भले ही दे दें परंतु इस तरह के विचारों की अधिकता मजदूरों के प्रति सहानुभूति को बहुत देर तक भुनाने नहीं देगी क्योंकि ये अर्धसत्य है प्रवासियों का, कर्मठता और निकृष्टता के बीच मौजूद पूर्णसत्य इससे अभी बहुत दूर है।
बहरहाल पलायन करने वाले प्रवासियों पर वसीम बरेलवी का एक शेर बेहद माकूल बैठता है -
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है
कोई बताये ये उसके ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है
बहुत दुखद स्थिति है।
जवाब देंहटाएंलॉकडाउन करने में यदि 4 घंटे की बजाय 4 दिन की मुहलत दी गयी होती तो शायद यह दिन न देखने पड़ते।
धन्यवाद शास्त्री जी
हटाएंएक पहलू यह भी है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
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