बचपन में पढ़े थे सुभाषितानि...हमें संस्कृत पढ़ाने वाले शास्त्री जी कक्षा में एक एक बच्चे को खड़ा करके एक एक श्लोक रटवाते थे, फिर उनके अर्थ और प्रयोग पूछते थे तब हमें ये कतई नहीं पता था कि इनका हमारे जीवन में किस तरह पग पग पर प्रयोग होगा और किस तरह हमें जीवन की अनेक परीक्षाओं में सफल होने और असफलताओं के पीछे छुपे हुए कारण खोजने में ही सुभाषित हमारी मदद करेंगे।
शास्त्री जी तेज आवाज़ में रटाया करते थे समयोचित पद्यमालिका का ये श्लोक -
अतिरूपाद् हृता सीतातिगर्वाद्रावणो हत:।
अतिदानाद् बलिर्बद्ध: अति सर्वत्र वर्जयेत्।।
फिर हमसे इसका अर्थ भी पूछते थे-
अति रूपवान होने के कारण सीता का हरण हुआ, अति गर्व के कारण रावण मारा गया। अतिदानशीलता के कारण बलि को अपना सर्वस्व देना पड़ा, इसलिए किसी भी वस्तु, इच्छा और कार्य की अधिकता अच्छी नहीं मानी गई।
English Translation
Too much beauty is what lead to the kidnapping od Sita] Ravana got killed beacause of too much Pride. Bali's Progress was curtailed because of too much charity, oe should refrain from "Too Much" of Anything.
शास्त्री जी के तब याद कराये हुए इस श्लोक के अंतिम भाग को तो आज आप और हम हर दूसरे तीसरे वाक्य में उद्धृत करते रहते हैं कि अति सर्वत्र वर्ज्यते मगर इसके निहितार्थ को भूल सा गए हैं कि ''बैलेंस हर जगह जरूरी है'' चाहे वह निजी जीवन हो, प्रोफेशनल हो या फिर सार्वजनिक, गली हो, मोहल्ला हो या अपना घर ही क्यों ना हो। समाज से जुड़ी हर कड़ी में इस श्लोक की अनिवार्यता देखी जा सकती है। जरूरत से ज्यादा भोजन, सुदरता, ज्ञान, शिक्षा, मेलजोल हो या फिर जरूरत से ज्यादा अकेले रहने की प्रवृत्ति। घातक सभी हैं।
इसी हफ्ते पहली खबर कोलकाता से और फिर दूसरी खबर आगरा से आई कि अपने प्रियजन के कंकाल के साथ रह रहे व्यक्ति की भी मौत हो गई। इनका शव घर में कई दिनों से सड़ रहा था, बदबू उठने पर पड़ोसियों द्वारा पहले पुलिस को बुलाया गया फिर दरवाजा खोला गया तो उनकी कहानी सामने आई। कहानी दोनों की ही एक सी थी।
दोनों ही घटनाओं में साम्य यह था कि अलग-अलग पृष्ठभूमि में रहने वाले ये ''अकेले'' कई कई दिनों तक वे ना तो घर से नहीं निकलते थे, दोनों ने ही ''अकेलेपन'' को अपना लाइफस्टाइल बना लिया था। कोलकाता में अकेला रहने वाला पुरुष था तो आगरा में महिला।
यूं तो अकेलेपन के कई कारण हो सकते हैं। लोग अनेक कारणों से अकेलापन महसूस करते हैं, जैसे सामान्य सामाजिक परेशानी एवं सुविचारित एकाकीपन। कुछ लोगों को तो भीड़ में भी अकेलापन लगता है, क्योंकि वे उन लोगों से अर्थपूर्ण संबंध ही नहीं जोड़ पाते। सभी को कभी न कभी अकेलेपन का एहसास होता है, मगर अकेलेपन को किन्हीं भी परिस्थितियों में अच्छा नहीं माना गया।
हमारे समाज में संभवत: इसीलिए रिश्ते-नाते, दोस्ती और सामाजिक गतिविधियों को इतना महत्व दिया जाता रहा है। न्यूक्लिर फैमिली के रिवाज, पड़ोसियों से भी संबंध रखने को प्राइवेसी के नाम पर जिस अकेलेपन को पिछले कुछ दशकों से तरजीह दी जाती रही है, उसके अब दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। ये मेट्रो कल्चर हमारी मानसिकता पर हावी हो चला है।
इसके अलावा स्वयं को सर्वोत्कृष्ट मानने की जिद भी अकेलेपन का कारण बन रही है। मैं का प्रवेश जब व्यक्तित्व में होने लगता है तो दूसरे के दुखसुख, दूसरे की इच्छा गौण हो जाती है और जब यही ''मैं'' किसी कारणवश परास्त होता है तो अकेलापन घेरने लगता है। अपेक्षाओं की अधिकता, पूरा न हो की स्थिति में उपेक्षा का उपजना, इससे उपजी कुंठा और अवसाद और यही अवसाद ''अकेलेपन'' को जन्म देती है।
नितांत अकेलेपन के ''अतिवाद'' की ओर हमारा यूं बढ़ते जाना अब जानलेवा होता जा रहा है। समाज और हमारे अपनों के मानसिक स्वास्थ के लिए ये जरूरी है कि हम औरों की खबर भी लेते रहें, उनसे जुड़े रहें। उन्हें अपेक्षाओं के अतिवाद से बचाने के लिए उनमें सकारात्मक विचारों का प्रवेश करायें।
अब ये जानना जरूरी हो गया है कि कहीं हम आधुनिक बनने की बड़ी कीमत तो नहीं चुका रहे। सोचिए कि अपने परिवार और दोस्तों से आप कितना मिलते हैं, ये आपकी सेहत को काफ़ी प्रभावित करता है। अकेलापन आपको बीमार कर देता है और सिर्फ मानसिक रूप से नहीं, शारीरिक रूप से भी।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी देखें तो एक अध्ययन 2006 में स्तन कैंसर की शिकार 2800 महिलाओं पर किया गया कि जो मरीज़ तुलनात्मक रूप से परिवार या दोस्तों से कम मिलती थीं, उनकी बीमारी और उससे मौत की आशंका पांच गुना ज़्यादा हो गई थी। इसी तरह शिकागो विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिकों ने देखा कि सामाजिक रूप से अलग-थलग लोगों की प्रतिरोधक क्षमता में बदलाव हो जाता है तथा अकेले लोग रोज़मर्रा के कामों को ज़्यादा तनावकारी पाते हैं। बड़ी संख्या में स्वस्थ लोगों में सुबह और शाम के वक्त तनाव के हार्मोन कोर्टिसोल की मात्रा की जांच की। कोर्टिसोल तनाव के वक्त पैदा होने वाला एक हार्मोन है जो अकेले लोगों में ज़्यादा पाया गया।
यूं तो हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक रवायतों में अकेलेपन से निबटने की कई विधियां मौजूद हैं, जैसे नए लोगों से मिलना, अपने एकांत का आनंद लेना और परिवार से पुनर्मिलन।
कारण और निदान हमें ही खोजना है कि अकेले होते हुए लोगों को उनके अपने ''अतिवाद'' से कैसे छुटकारा दिलाया जाए।
योग व आध्यात्म की ओर रुझान अकेलेपन को खत्म करने की गारंटी होता है मगर योग तक लाने के लिए उनकी सोच के अतिवाद को नीचे लाना होगा, क्योंकि अतिवाद कोई भी हो, कई कोणों से नुकसान पहुंचाता है इससे जूझने के लिए शारीरिक, मानसिक स्तर पर भी काम करना होगा अर्थात् अति सर्वत्र वर्ज्यते के नुकसान अब वृहद रूप में हमारे सामने है।
अकेलेपन के शिकार लोगों के संदर्भ में मुझे अपने शास्त्री जी याद आ रहे हैं कि जो अति के नुकसान बताया करते थे। हम जब उनकी बात पूरी तरह नहीं समझ पाते थे ...तब भी वो थकते नहीं थे...फिर फिर कहते रहते कि- बिटिया एक और कहन सुनावैं तुमका...जो कबीर बाबा बोल गए कि-
अति का भला न बोलना,
अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना,
अति की भली न धूप।
तब शास्त्री जी की बात कुछ समझते, कुछ समझने का नाटक करते हम बच्चे आज इस तथ्य को अच्छी तरह समझ पा रहे हैं कि अकेलेपन की अति अर्थात् ''कंकालों के साथ रहने की प्रवृत्ति'' जब खबरों में आती है तो सोचने को बाध्य करती है कि हजारों साधु-संन्यासियों, सूफी संतों, बाबाओं, साध्वियों और मोटीवेशनल स्पीकर्स के रहते भी समाज में अकेलापन क्यों ज़हर बनता जा रहा है।
हम भी सोचें कि आसपास कोई अकेला ना रहे, और अपना ईगो छोड़कर उसको इस विकट स्थिति से बाहर लायें। इसके लिए कोई खास प्रयास नहीं बल्कि छोटी सी कोशिश की जरूरत है...बस।
-अलकनंदा सिंह
शास्त्री जी तेज आवाज़ में रटाया करते थे समयोचित पद्यमालिका का ये श्लोक -
अतिरूपाद् हृता सीतातिगर्वाद्रावणो हत:।
अतिदानाद् बलिर्बद्ध: अति सर्वत्र वर्जयेत्।।
फिर हमसे इसका अर्थ भी पूछते थे-
अति रूपवान होने के कारण सीता का हरण हुआ, अति गर्व के कारण रावण मारा गया। अतिदानशीलता के कारण बलि को अपना सर्वस्व देना पड़ा, इसलिए किसी भी वस्तु, इच्छा और कार्य की अधिकता अच्छी नहीं मानी गई।
English Translation
Too much beauty is what lead to the kidnapping od Sita] Ravana got killed beacause of too much Pride. Bali's Progress was curtailed because of too much charity, oe should refrain from "Too Much" of Anything.
शास्त्री जी के तब याद कराये हुए इस श्लोक के अंतिम भाग को तो आज आप और हम हर दूसरे तीसरे वाक्य में उद्धृत करते रहते हैं कि अति सर्वत्र वर्ज्यते मगर इसके निहितार्थ को भूल सा गए हैं कि ''बैलेंस हर जगह जरूरी है'' चाहे वह निजी जीवन हो, प्रोफेशनल हो या फिर सार्वजनिक, गली हो, मोहल्ला हो या अपना घर ही क्यों ना हो। समाज से जुड़ी हर कड़ी में इस श्लोक की अनिवार्यता देखी जा सकती है। जरूरत से ज्यादा भोजन, सुदरता, ज्ञान, शिक्षा, मेलजोल हो या फिर जरूरत से ज्यादा अकेले रहने की प्रवृत्ति। घातक सभी हैं।
इसी हफ्ते पहली खबर कोलकाता से और फिर दूसरी खबर आगरा से आई कि अपने प्रियजन के कंकाल के साथ रह रहे व्यक्ति की भी मौत हो गई। इनका शव घर में कई दिनों से सड़ रहा था, बदबू उठने पर पड़ोसियों द्वारा पहले पुलिस को बुलाया गया फिर दरवाजा खोला गया तो उनकी कहानी सामने आई। कहानी दोनों की ही एक सी थी।
दोनों ही घटनाओं में साम्य यह था कि अलग-अलग पृष्ठभूमि में रहने वाले ये ''अकेले'' कई कई दिनों तक वे ना तो घर से नहीं निकलते थे, दोनों ने ही ''अकेलेपन'' को अपना लाइफस्टाइल बना लिया था। कोलकाता में अकेला रहने वाला पुरुष था तो आगरा में महिला।
यूं तो अकेलेपन के कई कारण हो सकते हैं। लोग अनेक कारणों से अकेलापन महसूस करते हैं, जैसे सामान्य सामाजिक परेशानी एवं सुविचारित एकाकीपन। कुछ लोगों को तो भीड़ में भी अकेलापन लगता है, क्योंकि वे उन लोगों से अर्थपूर्ण संबंध ही नहीं जोड़ पाते। सभी को कभी न कभी अकेलेपन का एहसास होता है, मगर अकेलेपन को किन्हीं भी परिस्थितियों में अच्छा नहीं माना गया।
हमारे समाज में संभवत: इसीलिए रिश्ते-नाते, दोस्ती और सामाजिक गतिविधियों को इतना महत्व दिया जाता रहा है। न्यूक्लिर फैमिली के रिवाज, पड़ोसियों से भी संबंध रखने को प्राइवेसी के नाम पर जिस अकेलेपन को पिछले कुछ दशकों से तरजीह दी जाती रही है, उसके अब दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। ये मेट्रो कल्चर हमारी मानसिकता पर हावी हो चला है।
इसके अलावा स्वयं को सर्वोत्कृष्ट मानने की जिद भी अकेलेपन का कारण बन रही है। मैं का प्रवेश जब व्यक्तित्व में होने लगता है तो दूसरे के दुखसुख, दूसरे की इच्छा गौण हो जाती है और जब यही ''मैं'' किसी कारणवश परास्त होता है तो अकेलापन घेरने लगता है। अपेक्षाओं की अधिकता, पूरा न हो की स्थिति में उपेक्षा का उपजना, इससे उपजी कुंठा और अवसाद और यही अवसाद ''अकेलेपन'' को जन्म देती है।
नितांत अकेलेपन के ''अतिवाद'' की ओर हमारा यूं बढ़ते जाना अब जानलेवा होता जा रहा है। समाज और हमारे अपनों के मानसिक स्वास्थ के लिए ये जरूरी है कि हम औरों की खबर भी लेते रहें, उनसे जुड़े रहें। उन्हें अपेक्षाओं के अतिवाद से बचाने के लिए उनमें सकारात्मक विचारों का प्रवेश करायें।
अब ये जानना जरूरी हो गया है कि कहीं हम आधुनिक बनने की बड़ी कीमत तो नहीं चुका रहे। सोचिए कि अपने परिवार और दोस्तों से आप कितना मिलते हैं, ये आपकी सेहत को काफ़ी प्रभावित करता है। अकेलापन आपको बीमार कर देता है और सिर्फ मानसिक रूप से नहीं, शारीरिक रूप से भी।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी देखें तो एक अध्ययन 2006 में स्तन कैंसर की शिकार 2800 महिलाओं पर किया गया कि जो मरीज़ तुलनात्मक रूप से परिवार या दोस्तों से कम मिलती थीं, उनकी बीमारी और उससे मौत की आशंका पांच गुना ज़्यादा हो गई थी। इसी तरह शिकागो विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिकों ने देखा कि सामाजिक रूप से अलग-थलग लोगों की प्रतिरोधक क्षमता में बदलाव हो जाता है तथा अकेले लोग रोज़मर्रा के कामों को ज़्यादा तनावकारी पाते हैं। बड़ी संख्या में स्वस्थ लोगों में सुबह और शाम के वक्त तनाव के हार्मोन कोर्टिसोल की मात्रा की जांच की। कोर्टिसोल तनाव के वक्त पैदा होने वाला एक हार्मोन है जो अकेले लोगों में ज़्यादा पाया गया।
यूं तो हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक रवायतों में अकेलेपन से निबटने की कई विधियां मौजूद हैं, जैसे नए लोगों से मिलना, अपने एकांत का आनंद लेना और परिवार से पुनर्मिलन।
कारण और निदान हमें ही खोजना है कि अकेले होते हुए लोगों को उनके अपने ''अतिवाद'' से कैसे छुटकारा दिलाया जाए।
योग व आध्यात्म की ओर रुझान अकेलेपन को खत्म करने की गारंटी होता है मगर योग तक लाने के लिए उनकी सोच के अतिवाद को नीचे लाना होगा, क्योंकि अतिवाद कोई भी हो, कई कोणों से नुकसान पहुंचाता है इससे जूझने के लिए शारीरिक, मानसिक स्तर पर भी काम करना होगा अर्थात् अति सर्वत्र वर्ज्यते के नुकसान अब वृहद रूप में हमारे सामने है।
अकेलेपन के शिकार लोगों के संदर्भ में मुझे अपने शास्त्री जी याद आ रहे हैं कि जो अति के नुकसान बताया करते थे। हम जब उनकी बात पूरी तरह नहीं समझ पाते थे ...तब भी वो थकते नहीं थे...फिर फिर कहते रहते कि- बिटिया एक और कहन सुनावैं तुमका...जो कबीर बाबा बोल गए कि-
अति का भला न बोलना,
अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना,
अति की भली न धूप।
तब शास्त्री जी की बात कुछ समझते, कुछ समझने का नाटक करते हम बच्चे आज इस तथ्य को अच्छी तरह समझ पा रहे हैं कि अकेलेपन की अति अर्थात् ''कंकालों के साथ रहने की प्रवृत्ति'' जब खबरों में आती है तो सोचने को बाध्य करती है कि हजारों साधु-संन्यासियों, सूफी संतों, बाबाओं, साध्वियों और मोटीवेशनल स्पीकर्स के रहते भी समाज में अकेलापन क्यों ज़हर बनता जा रहा है।
हम भी सोचें कि आसपास कोई अकेला ना रहे, और अपना ईगो छोड़कर उसको इस विकट स्थिति से बाहर लायें। इसके लिए कोई खास प्रयास नहीं बल्कि छोटी सी कोशिश की जरूरत है...बस।
-अलकनंदा सिंह
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