अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस गुजर गया, होली भी हो ली और हुरंगा भी... मगर इस बीच कुछ घटनाऐं ऐसी घटीं जिनसे बात बात में 'नाक' आड़े आई। कहीं तीन तलाक मामले में मुस्लिम महिलाओं ने उलेमाओं की नाक को नीचा किया तो कहीं महिला प्रधान फिल्मों पर सेंसर बोर्ड की नाक नीची हुई और चलते चलाते इन दोनों ही बदलावों में 'नाक' की आफत आ गई।
बड़ी नाइंसाफी है रे...कि चेहरे पर मौजूद एक अदने से अंग को लेकर गांव के गांव रंजिशों में स्वाहा हो रहे हैं। अरे भई! नाक को लेकर हम इतना सेंसिटिव क्यों हैं। नाक को स्त्रीलिंग क्यों माना गया और माना गया सो तो ठीक मगर इज्जत के साथ नाक को क्यों जोड़ा गया। ज़ाहिर है जब स्त्रीलिंग माना गया और इज्ज़त से जोड़ा गया तो इसका ठीकरा महिलाओं के माथे फूटना था।
विशेषणों में ज़रा देखिए नाक का सवाल, नाक का बाल, नाक बहना, नाक में दम, नाक की बात, ऊंची नाक, नकटी नाक, नाक नीची आदि जो भी मुझे याद आ रहा सभी में स्त्रीलिंग को दोषी या कारक बताया गया है।
फिर सवाल उपजता है कि नाक कटना या नाक नीची होने को स्त्रियों के माध्यम से पुरुषों द्वारा हासिल इज्ज़त से जोड़ा जाना क्या ठीक है। क्या पुरुषों के अंदर इतनी हिम्मत नहीं या ताकत नहीं कि वे अपने बल पर अपनी नाक खुद ऊंची कर सकें और अपनी इज्जत खुद कमा सकें।
परिवार की सबसे पहली इकाई घर है जहां महिलाऐं स्वयं को सुरक्षित समझती हैं, होती हैं या नहीं, यह अलग बात है। यह हमेशा की तरह अब भी यक्ष प्रश्न है जिसका अधिकतर उत्तर हां में होता है मगर इस हां में भी नाक अपने पूरे रुतबे के साथ मौजूद रहती है। जहां इस घरेलू सुरक्षा का कवच ना में बदलता है वहीं नाक कटती है, नीची होती है यानि सवाल यहां भी नाक का ही है महिलाओं की सुरक्षा का नहीं क्यों कि नाक यहां भी पुरुष की अस्मिता से चिपकी हुई रहती है। पारिवारिक परंपरा में कम ही उदाहरण ऐसे देखने को मिले कि पुरुष की वजह से नाक कटी हो, नाक नीची हुई हो, हां नाक में दम अवश्य देखा जा सकता है।
इस तरह महिलाओं की सुरक्षा में नाक के विशेषणों का महत्वपूर्ण योगदान है। नाक नहीं जानती कि महिलाओं को सुरक्षा शारीरिक स्तर के साथ मानसिक सुरक्षा भी चाहिए जो यह महसूस कराए कि वे जो चाह रही हैं, मांग रही हैं, कह रही हैं, लिख रही हैं, वह हकीकतन ज़मीन पर उतरना चाहिए।
वो जो अहसास कर रही हैं उसे ज़ाहिर भी करा पाएं।
घर हो या बाहर, घरेलू हो या कामकाजी हर हाल में स्त्रियों को अपनी रक्षा खुद ही करनी होती है- शारीरिक स्तर पर भी और मानसिक स्तर पर भी। मानसिक स्तर पर असुरक्षा का अहसास ही 'नाक के नाम पर' महिलाओं को सुरक्षित ''दिखाता'' है।
बहुत पुरानी उक्ति है-
"जो व्यक्ति केवल आपकी ख़ुशी के लिये अपनी हार मान ले,
उससे आप कभी जीत ही नहीं सकते"...
नाक का भी यही हाल है। नाक के बूते जो भी इज्ज़त घरों से लेकर समाज तक बनाई जाती है वह ही नाक में दम की वजह भी बनती रही है।
बहरहाल, इज्जत के लबादे को ओढ़े महिलाऐं क्या लिख रही हैं, क्या बोल रही हैं, क्या हासिल कर रही हैं, कृपया इसे अब बेचारी नाक से ना जोड़ा जाए। मीडिया के विभिन्न माध्यमों में लिखे गए शब्द बता रहे हैं कि इज्ज़त-बेइज्ज़ती का ठीकरा नाक पर फोड़ नाक को तो बेवजह घसीटा जाता रहा है।
अभी तक तो नाक बचाए रखने के नाम पर सामाजिक ठेकेदारों को ''ताकत'' महिलाओं द्वारा ही बख्शी जाती रही है। मगर अब अपनी इज्ज़त का प्रदर्शन करने के लिए नाक को बीच में ना लाइये और अपनी हिम्मत को अपने बूते ही साबित कीजिए। आमने सामने की बात होने दीजिए।
मनुष्य के शरीर का एक अदना सा अंग बेचारी ''नाक'' को स्त्रियों की अस्मिता, खानदान का नाम और पुरुषोचित अहंकार पर बेवजह बलि चढ़ाई जा रही है, ये अच्छी बात नहीं। नाक की भी अपनी अस्मिता है, स्वतंत्रता है, गुण हैं। नाक को नाक ही रहने दीजिए। इज्ज़त, सवाल, कटना, बाल, ऊंची, नीची जैसे अलंकरणों की ज़रूरत नहीं।
- अलकनंदा सिंह
बड़ी नाइंसाफी है रे...कि चेहरे पर मौजूद एक अदने से अंग को लेकर गांव के गांव रंजिशों में स्वाहा हो रहे हैं। अरे भई! नाक को लेकर हम इतना सेंसिटिव क्यों हैं। नाक को स्त्रीलिंग क्यों माना गया और माना गया सो तो ठीक मगर इज्जत के साथ नाक को क्यों जोड़ा गया। ज़ाहिर है जब स्त्रीलिंग माना गया और इज्ज़त से जोड़ा गया तो इसका ठीकरा महिलाओं के माथे फूटना था।
विशेषणों में ज़रा देखिए नाक का सवाल, नाक का बाल, नाक बहना, नाक में दम, नाक की बात, ऊंची नाक, नकटी नाक, नाक नीची आदि जो भी मुझे याद आ रहा सभी में स्त्रीलिंग को दोषी या कारक बताया गया है।
फिर सवाल उपजता है कि नाक कटना या नाक नीची होने को स्त्रियों के माध्यम से पुरुषों द्वारा हासिल इज्ज़त से जोड़ा जाना क्या ठीक है। क्या पुरुषों के अंदर इतनी हिम्मत नहीं या ताकत नहीं कि वे अपने बल पर अपनी नाक खुद ऊंची कर सकें और अपनी इज्जत खुद कमा सकें।
परिवार की सबसे पहली इकाई घर है जहां महिलाऐं स्वयं को सुरक्षित समझती हैं, होती हैं या नहीं, यह अलग बात है। यह हमेशा की तरह अब भी यक्ष प्रश्न है जिसका अधिकतर उत्तर हां में होता है मगर इस हां में भी नाक अपने पूरे रुतबे के साथ मौजूद रहती है। जहां इस घरेलू सुरक्षा का कवच ना में बदलता है वहीं नाक कटती है, नीची होती है यानि सवाल यहां भी नाक का ही है महिलाओं की सुरक्षा का नहीं क्यों कि नाक यहां भी पुरुष की अस्मिता से चिपकी हुई रहती है। पारिवारिक परंपरा में कम ही उदाहरण ऐसे देखने को मिले कि पुरुष की वजह से नाक कटी हो, नाक नीची हुई हो, हां नाक में दम अवश्य देखा जा सकता है।
इस तरह महिलाओं की सुरक्षा में नाक के विशेषणों का महत्वपूर्ण योगदान है। नाक नहीं जानती कि महिलाओं को सुरक्षा शारीरिक स्तर के साथ मानसिक सुरक्षा भी चाहिए जो यह महसूस कराए कि वे जो चाह रही हैं, मांग रही हैं, कह रही हैं, लिख रही हैं, वह हकीकतन ज़मीन पर उतरना चाहिए।
वो जो अहसास कर रही हैं उसे ज़ाहिर भी करा पाएं।
घर हो या बाहर, घरेलू हो या कामकाजी हर हाल में स्त्रियों को अपनी रक्षा खुद ही करनी होती है- शारीरिक स्तर पर भी और मानसिक स्तर पर भी। मानसिक स्तर पर असुरक्षा का अहसास ही 'नाक के नाम पर' महिलाओं को सुरक्षित ''दिखाता'' है।
बहुत पुरानी उक्ति है-
"जो व्यक्ति केवल आपकी ख़ुशी के लिये अपनी हार मान ले,
उससे आप कभी जीत ही नहीं सकते"...
नाक का भी यही हाल है। नाक के बूते जो भी इज्ज़त घरों से लेकर समाज तक बनाई जाती है वह ही नाक में दम की वजह भी बनती रही है।
बहरहाल, इज्जत के लबादे को ओढ़े महिलाऐं क्या लिख रही हैं, क्या बोल रही हैं, क्या हासिल कर रही हैं, कृपया इसे अब बेचारी नाक से ना जोड़ा जाए। मीडिया के विभिन्न माध्यमों में लिखे गए शब्द बता रहे हैं कि इज्ज़त-बेइज्ज़ती का ठीकरा नाक पर फोड़ नाक को तो बेवजह घसीटा जाता रहा है।
अभी तक तो नाक बचाए रखने के नाम पर सामाजिक ठेकेदारों को ''ताकत'' महिलाओं द्वारा ही बख्शी जाती रही है। मगर अब अपनी इज्ज़त का प्रदर्शन करने के लिए नाक को बीच में ना लाइये और अपनी हिम्मत को अपने बूते ही साबित कीजिए। आमने सामने की बात होने दीजिए।
मनुष्य के शरीर का एक अदना सा अंग बेचारी ''नाक'' को स्त्रियों की अस्मिता, खानदान का नाम और पुरुषोचित अहंकार पर बेवजह बलि चढ़ाई जा रही है, ये अच्छी बात नहीं। नाक की भी अपनी अस्मिता है, स्वतंत्रता है, गुण हैं। नाक को नाक ही रहने दीजिए। इज्ज़त, सवाल, कटना, बाल, ऊंची, नीची जैसे अलंकरणों की ज़रूरत नहीं।
- अलकनंदा सिंह
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