गुरुवार, 30 मार्च 2017

क्‍या आपने मृणाल पांडे का लेख पढ़ा?

क्‍या आपने मृणाल पांडे का लेख पढ़ा? नहीं पढ़ा तो 29 मार्च के दैनिक जागरण का संपादकीय पृष्‍ठ पढ़  लीजिएगा। कल यानि 29 मार्च को छपा यह लेख मृणाल जी में मौजूद गजब की प्रतिभा को दर्शाता है,  वो प्रतिभा जो उन्‍हें विरासत में मिली और जिसके बूते उन्‍होंने राष्‍ट्रीय समाचार पत्र दैनिक हिन्‍दुस्‍तान  में संपादन का भारी भरकम बोझ अपने कांधों पर लादे रखा।

इसी प्रतिभा में चार चांद लगाती है उनके  भीतर की एक और प्रतिभा, और वो प्रतिभा है- ''हद दर्जे की नेगेटिविटी को जाहिर करने और उसे  छपवाकर गौरवान्‍वित होने की''। वो प्रतिभा जिसके वशीभूत हो उन्‍होंने अपने संपादनकाल में जो  नेगेटिविटी भाजपा के प्रति संजोई थी। उसी प्रतिभा को उन्‍होंने 29 मार्च के अपने लेख में पूरीतरह उड़ेल  दिया, मानो कल मौका मिले ना मिले। वे भाजपा, मोदी और वर्तमान में जीएसटी बिल की जबरन  बखिया उधेड़ रही थीं।

लोकतंत्र की खासियत ही ये है कि किसी भी सरकार को जब हम चुनते हैं तो उसके कामकाज की  समीक्षा करने का भी हक हमें हासिल होता है। मगर समीक्षा करते समय यह देखा जाना जरूरी है कि  हम निरपेक्ष रहें। खासकर हम मीडिया वालों को सावधानी, सकारात्‍मकता और तुलनात्‍मक दृष्‍टि रखनी  चाहिए, बिना किसी पूर्वाग्रह या विचारधारा को पालने के। देश हित में और आमजन के लिए नीतियों  को लागू करने में जो कमी हो, उसे जरूर उजागर करना चाहिए मगर किसी सोच का ठप्‍पा लगने से  बचना चाहिए। मृणाल जी की भाषा शैली और चुनचुन कर सरकार के हर कदम को आरोपों से घेर देना  ठीक नहीं। वामपंथ हो या दक्षिणपंथ, लोग सभी का सच जानते हैं और इनकी कार्यशैली भी।

बहरहाल मृणाल पांडे जी ने इस लेख में लिखा-
1. 2014 तक आधार कार्ड की बखिया उधेड़ रहे नरेंद्र मोदी ने जहां आधारकार्ड को सरकारी योजनाओं  का लाभ उठाने वालों के लिए अनिवार्य कर दिया है वहीं सुरक्षा संबंधी उपायों के लिए आमजन की  निजी सूचनाऐं जुटाने के लिए प्राइवेसी में सेंध लगाने का बंदोबस्‍त कर दिया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने  इसे गैर जरूरी बताया है।
उन्‍होंने लिखा कि-
2. जीएसटी बिल के संशोधनों पर बिना संसद में चर्चा कराए तिकड़म से वित्‍तमंत्री अरुण जेटली ने इसे  पास करा लिया।

उन्‍होंने लिखा कि-
3. उत्‍तरप्रदेश में आरएसएस का एजेंडा वाली राज्‍य सरकार ने पदभार संभालते ही एंटीरोमिओ स्‍क्‍वायड  बनाकर युवाओं में दहशत फैलाने का काम शुरू कर दिया है। अवैध बूचड़खानों के नाम पर वे  अल्‍पसंख्‍यकों की बड़ी आबादी को बेरोजगार बना रहे हैं आदि आदि।

फिलहाल ये  तीनों प्‍वाइंट्स पर मुझे घोर आपत्‍ति है। ये उसी तरह का लेख है जो जेएनयू में कथित  आजादी छाप छात्रों का बयान हुआ करता था, जिन्‍हें राष्‍ट्रवाद से अभिव्‍यक्‍ति की आजादी खतरे में  दिखाई देती थी।

मृणाल जी क्‍या बताऐंगी कि देश में ''एक कर प्रणाली'' से क्‍या नुकसान हो सकते हैं। सिवाय महंगाई  घटने, टैक्‍स डिपार्टमेंट के भ्रष्‍ट कर्मचारियों-ऑफीसर्स द्वारा व्‍यापारियों से वसूली बंद हो जाने, टैक्‍स दर  टैक्‍स की लंबीचौड़ी फाइल दौड़ बंद होने जैसी दिमाग-खपाऊ कार्यपद्धति से निजात मिल जाना क्‍या उन्‍हें  अच्छा नहीं लग रहा। क्‍या देश के तेज विकास में लालफीताशाही रोड़ा नहीं रही। मृणाल जी क्‍या ये भी  बताऐंगीं कि इससे निपटने की सारी कवायद पिछली सरकारों ने भी कीं मगर वे सफल क्‍यों नहीं हो  सकीं।

मृणाल जी, आधार कार्ड जरूरी बिल्‍कुल नहीं मगर अपनी प्राइवेसी का बहाना बनाकर उन ग्रामीण और  वंचितों को हम क्‍यों भूल रहे हैं जो आज आधार कार्ड के जरिए ही सरकार से तमाम योजनाओं का  लाभ उठा पा रहे हैं। गैस सब्‍सिडी के पैसे, बैंक में आसान काम और जनधन योजना, पेंशन योजना,  बीमा योजना से लाभान्‍वित हुए हैं।

मृणाल जी का अगला क्षोभ था उत्‍तरप्रदेश में एंटीरोमिओ स्‍क्‍वायड के अभियान पर, मगर उन्‍होंने उन  एसिड अटैक विक्‍टिम्‍स का दर्द अनदेखा कर दिया जिनके ऊपर जुल्‍म की शुरुआत ही छेड़छाड़ से होती  है, जबरदस्‍ती से होती है, वे आजीवन उस घृणास्‍पद अनुभूति के साथ जीती हैं।

मृणाल जी उन लड़कियों के प्रति क्‍या कहेंगी जिन्‍हें छेड़छाड़ के कारण स्‍कूल-बाजार-आना जाना सब  छोड़ना पड़ता है, दहशत में घर से निकलते वक्‍त सौ सौ घूंट अपनी बेबसी के पीने पड़ते हैं। इसी  छेड़छाड़ ने अपने जेंडर पर शर्म करना लड़कियों की किस्‍मत बना दिया।

मृणाल जी क्‍या अपनी बेटियों-बहनों को इस शर्मिंदगी से और शोहदों की जाहिलाना हरकतों से बचाने  वाली राज्‍य सरकार गलत कर रही है। अपराधों को बढ़ावा देने की ये कथित ''मानवाधिकारी सोच''  घातक है।

मृणाल जी ने अवैध बूचड़खानों को बंद करने पर जो क्षोभ जताया, तो कोई भी राज्‍य सरकार यदि  अपने राज्‍य में अवैध गतिविधि रोकने को कदम उठाती है तो उसे किस एंगिल से गलत कहा जा  सकता है। समझ से परे की है ये बात।

सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करना और अपनी मानसिकता को उसमें डालकर ऊलजलूल लिखते  जाना मृणाल जी जैसी हस्‍ती के लिए समाज में अच्‍छा संदेश नहीं देती। आलोचना करते समय यह भी  ध्‍यान रखा जाना चाहिए कि उसकी तुलना जायज के साथ हो रही है या नाजायज के साथ।

मृणाल जी से कहना चाहूंगी कि प्रकृति हर पल सहायक और प्रेरक है, जो लोग प्राकृतिक, स्वाभाविक  और मर्यादित जीवन के अभ्यासी होते हैं वे प्राकृतिक सहजता, सरसता और आनंद के अधिकारी बन  जाते हैं। इतनी नेगेटिविटी अच्‍छी नहीं। भरोसा रखें तो परिणाम भी पॉजिटिव मिलेंगे। गिलास आधा  भरा दिखेगा, खाली नहीं।

-अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 28 मार्च 2017

''नवरात्रि'' एक ऊर्जा संकलन का प्रवाह : अजा, अनादि शक्ति अविनाशिनी...

सकारात्‍मक सोचों के ऊपर हावी होते इस क्रिटिकल समय में जब कि राष्‍ट्रीय व अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर नेगेटिव ऊर्जा को प्रवाहित करने वाले अनेक लोग विध्‍वंसक सोचों के साथ उपस्‍थित हों तब उत्‍सवरूप में ''नवरात्रि'' एक ऊर्जा संकलन का प्रवाह बनकर हमारे समक्ष उपस्‍थित होती हैं। तभी तो सनातन धर्म में मनाए जाने वाले उत्‍सवों में एक नवरात्रि ही है जो मुख्‍य ऋतुओं के संधिकाल में आती है।

आज से नवरात्रि का शुभारंभ हो रहा है जिसे शक्‍ति, ऊर्जा, आस्‍था के आव्‍हान के साथ साथ नकारात्‍मक वृत्‍तियों को दूर रखने वाले दिनों के रूप में जाना जाता है और प्रतीकात्‍मक रूप से मूर्तिरूप में ध्‍यान का एक केंद्र बनाकर स्‍वयं को आदिशक्‍ति (आंतरिक ऊर्जा) को समेटने की क्रिया को मन शांति की ओर ले जाया जाता है और पूरे नौ दिन तक यह क्रिया अपने एक एक चरण पूरे करते हुए हमारे मन को आंतरिक व नैतिक रूप से सबल बनाती है।
नवरात्रि ‘शक्ति तत्व’ का उत्सव है। अगमा के अनुसार ‘शक्ति’ को तीन रूप में पूजा जाता है – इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति। पुराणों (या कल्पों) के अनुसार शक्ति को महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती के रूप में पूजते हैं।  नौ दिनों तक देवी महात्यम और श्रीमद देवी भागवतम का जाप किया जाता है|

यह अद्भुत है जहाँ एक ओर बाहरी तौर पर उत्सवी रूप है तो दूसरी ओर आप अपने भीतर की गहराई में जाकर आत्मज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया से गुजरते हैं|

मन के छह विकार होते हैं – काम, क्रोध, लोभ, मद , मोह और ईर्ष्या। ये विकार किसी भी मनुष्य में नियंत्रण के बाहर हो सकते हैं और तब ये आध्यत्मिक पथ पर बाधा बन जाते हैं| इन नौ दिनों में ‘शक्ति’ की कृपा से ये विकार स्वतः ही मिट जाते हैं|

इसीलिये इन नौ दिनों में तपस्या और उपासना को महत्‍व दिया गया है जिसमें ध्यान बहुत महत्वपूर्ण है|

ध्‍यान से मन शांत होकर स्‍वयं में विश्‍व और विश्‍व में स्‍वयं को देख सकता है, ये ध्‍यान ही है जो दूसरों में कमियां देखने से पहले अपनी ओर देखता है, ये ध्‍यान ही है जो व्‍यक्‍ति को निर्लिप्‍त बना सकता है। और जब ऐसा होता है तो नकारात्‍मकता स्‍वयं उस दृष्‍टि में बदलने लगती है जो दूसरों के प्रयासों की सराहना, उनके औचित्‍य को समझ सके।

नवरात्रि देवी मंदिरों में जाकर नौ दिनों तक निराहार रहने का ही उत्‍सव नहीं बल्‍कि यह कर्म-ऊर्जा को शक्‍ति बनाकर उसे आमजन की ओर प्रवाहित करने का उत्‍सव है। यह उत्‍सव है नकारात्‍मकता को सकारात्‍मक प्रवाह की ओर ले जाने का। मौजूदा समय में इस ऊर्जा-उत्‍सव की बहुत आवश्‍यकता है।

देश की हवा में तैर रही नकारात्‍मक प्रवृत्‍तियों और व्‍यक्‍तियों पर अंग्रेजी का एक quote याद आ रहा है-

"stay way from negative people. they have a problem for every solution"

सो जोर शोर से मनाइये नवरात्रि उत्‍सव और मन से मनाइये ताकि ऊर्जा आपके भीतर बहे और इसका प्रवाह समाज के सकारात्‍मक कल्‍याण की ओर हो। सकारात्‍मकता और शांति के संवाहक भगवान श्रीराम ने भी की कुछ इस तरह थी नवरात्रि पूजा-

अजा, अनादि शक्ति अविनाशिनी सदा शंभु अरघंग निवासिनी,
जगसंभव पालन कारिनी निज इच्छा लीला वपु धारिणी।

-अलकनंदा सिंह

शनिवार, 25 मार्च 2017

BITS पिलानी का शोध- वेद , मंत्र और मनोविज्ञान

वेदों की बात करते ही क्‍या हम दक्षिणपंथी हो जाते हैं, क्‍या वेद की बात से नकारात्‍मकता खत्‍म होती है, क्‍या वेदों में जिन मंत्रों का उल्‍लेख है-उनकी बात पिछड़ेपन की मानी जाए...आज इन सबपर सोचने का समय आ गया है जब चारों ओर ऋणात्‍मक ऊर्जा तैर रही हो तब इस संदर्भ में सोचा जाना जरूरी है।

मैथिली शरण गुप्‍त, सुभद्राकुमारी चौहान से लेकर रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी  अनेक कविताओं में देश की स्‍वतंत्रता से पहले निज स्‍वतंत्रता और मन की  स्‍वतंत्रता को चाहे जिस तरह भी व्‍याख्‍यायित किया हो मगर आज तक हम  स्‍वतंत्रता के अर्थ नहीं समझ सके। इसका नतीजा यह कि हमारे ही सबसे पुराने  और वैज्ञानिक प्रयोगों से आच्‍छादित वैदिक कालीन निष्‍कर्षों पर अब फिर से शोध  करने की आवश्‍यकता महसूस होने लगी।
गनीमत यह रही कि विदेशी वैज्ञानिकों की ओर से इसकी शुरुआत की गई वरना  हमारे देश में वैदिक कालीन सभ्‍यता और उसकी वैज्ञानिकता की बात करने वालों  को दक्षिणपंथी, संघी, पोंगापंथी और कथित तौर पर घोषित अल्‍पसंख्‍यकों को  प्रताड़ित करने वाला बताकर उनका अंधविरोध किया जाता है। नकारात्‍मकता की  सारी हदें पार करने वाले हालांकि अपने खाते में ''सिर्फ और सिर्फ बातें'' ही रखते  हैं, कोई ऐसी उपलब्‍धि उनके पास नहीं जो वो वैदिक कालीन वैज्ञानिक प्रयोगों को  झुठला सकें। 

हमारे देश में आक्रमणकारियों ने जितना नुकसान नहीं पहुंचाया उतना तो इन  आयातित सोचों पर पलने वाले कथित बुद्धिजीवियों ने नकारात्‍मक सोच और  विध्‍वंसक दृष्‍टि का प्रचार करके किया है।

मंत्रों पर शोधकार्य की वैदिक कालीन वैज्ञानिक प्रयोगों के संदर्भ में कल हैदराबाद  से एक रिपोर्ट आई। बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी (BITS) पिलानी के  हैदराबाद कैम्पस की एक रिसर्च में यह दावा किया गया है कि वैदिक मंत्रों का  जाप करने से छात्रों को पढ़ाई से होने वाले तनाव से निपटने और परीक्षा में  बेहतर अंक मिलने में मदद मिलती है।

इतना ही नहीं, वैदिक मंत्रों के जाप से छात्र मनोवैज्ञानिक और शारीरिक तौर पर  बेहतर होते हैं और उन्हें एकाग्रता बढ़ाने में भी मदद मिलती है।

रिसर्च में हिस्सा ले रहे छात्रों ने 5 मंत्रों का उच्चारण किया जिनमें गायत्री मंत्र  (ऋगवेद से), विष्णु सहस्रनामम (भगवान विष्णु के एक हजार नाम), ललिता  सहस्रनामम (माता के हजार नाम), पुरुष सुक्तम (ब्रह्मांड से जुड़ा मंत्र, ऋग्वेद  से), आदित्य हृदयम (सूर्य देव की स्तुति) शामिल रहे। मंत्रोच्चारण के बाद छात्रों  की सामान्य खुशहाली और बुद्धि की स्पष्टता में बेहतरी दर्ज की गई।

बिट्स पिलानी, हैदराबाद कैम्पस में सोशल साइंस और ह्यूमैनिटी विभाग की डॉ.  अरुणा लोला ने कहा, ‘हमने इस शोध के पहले और बाद में मनोवैज्ञानिक टेस्ट  किया गया। इसमें विषयों को लेकर दिमागी स्पष्टता और सामान्य खुशहाली में  बढ़ोत्तरी देखी गई।
मंत्रोच्चारण एक शक्तिशाली आवाज या वाइब्रेशन है जिसकी मदद से कोई भी  अपने दिमाग को स्थिर रख सकता है।
''ओम'' के उच्चारण से तनाव से राहत मिलती है और याददाश्त भी बढ़ती है।’  यह शोध धर्म और स्वास्थ्य के नए अंक में पब्लिश हुआ है।
डॉक्टर लोला ने बताया, ‘यह शोध मंत्र के प्रयोग और इंसानी दिमाग पर इसके  प्रभाव के साथ ही इसके पीछे के आध्यात्मिक विज्ञान को जानने के मकसद से  किया गया।’

इस रिसर्च पर अभी तक किसी नकारात्‍मक सोच वाले कथित बुद्धिजीवी की कोई  ''प्रगतिवादी'' टिप्‍पणी नहीं आई है, हालांकि मैं इसका इंतज़ार कर रही हूं।

बहरहाल, अभी तक मंत्र चिकित्‍सा से अनेक रोगों का निदान संभव किया जा  चुका है। मंत्र से विविध शारीरिक एवं मानसिक रोगों में लाभ मिलता है। यह बात  अब विशेषज्ञ भी मानने लगे हैं कि मनुष्य के शरीर के साथ-साथ यह समग्र  सृष्टि ही वैदिक स्पंदनों से निर्मित है। शरीर में जब भी वायु-पित्त-कफ नामक  त्रिदोषों में विषमता से विकार पैदा होता है तो मंत्र चिकित्सा द्वारा उसका  सफलता पूर्वक उपचार किया जाना संभव है।

अमेरिका के ओहियो यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार कैंसरयुक्त फेफड़ों,  आंत, मस्तिष्क, स्तन, त्वचा और फाइब्रो ब्लास्ट की लाइनिंग्स पर जब सामवेद  के मंत्रों और हनुमान चालीसा के पाठ का प्रभाव परखा गया तो कैंसर की  कोशिकाओं की वृद्धि में भारी गिरावट आई। इसके विपरीत तेज गति वाले  पाश्चात्य और तेज ध्वनि वाले रॉक संगीत से कैंसर की कोशिकाओं में तेजी के  साथ बढ़ोत्तरी हुई।

मंत्र चिकित्सा के लगभग पचास रोगों के पांच हजार मरीजों पर किए गए  क्लीनिकल परीक्षणों के अनुसार दमा, अस्थमा रोग में सत्तर प्रतिशत, स्त्री रोगों  में 65 प्रतिशत, त्वचा एवं चिंता संबंधी रोगों में साठ प्रतिशत, उच्च रक्तदाब,  हाइपरटेंशन से पीड़ितों में पचपन प्रतिशत, आर्थराइटिस में इक्यावन प्रतिशत,  डिस्क संबंधी समस्याओं में इकतालीस प्रतिशत, आंखों के रोगों में इकतालीस  प्रतिशत तथा एलर्जी की विविध अवस्थाओं में चालीस प्रतिशत औसत लाभ हुआ।  निश्चित ही मंत्र चिकित्सा उन लोगों के लिए तो वरदान ही है जो पुराने और  जीर्ण क्रॉनिक रोगों से ग्रस्त हैं।

कहा गया है कि जब भी कोई व्यक्ति गायत्री मंत्र का पाठ करता है तो अनेक  प्रकार की संवेदनाएं इस मंत्र से होती हुई व्यक्ति के मस्तिष्क को प्रभावित करती  हैं। जर्मन वैज्ञानिक कहते हैं कि जब भी कोई व्यक्ति अपने मुंह से कुछ बोलता  है तो उसके बोलने में आवाज का जो स्पंदन और कंपन होता है, वह 175 प्रकार  का होता है। जब कोई कोयल पंचम स्वर में गाती है तो उसकी आवाज में 500  प्रकार का प्रकंपन होता है लेकिन जर्मन वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि दक्षिण  भारत के विद्वानों से जब विधिपूर्वक गायत्री मंत्र का पाठ कराया गया, तो यंत्रों  के माध्यम से यह ज्ञात हुआ कि गायत्री मंत्र का पाठ करने से संपूर्ण स्पंदन के  जो अनुभव हुए, वे 700 प्रकार के थे।

जर्मन वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति पाठ न भी करे, सिर्फ पाठ  सुन भी ले तो भी उसके शरीर पर इसका प्रभाव पड़ता है। उन्होंने मनुष्य की  आकृति का छोटा सा यंत्र बनाया और उस आकृति में जगह-जगह कुछ छोटी-छोटी  लाइटें लगा दी गईं। लाइट लगाने के बाद यंत्र के आगे लिख दिया कि यहां पर  खड़ा होकर कोई आदमी किसी भी तरह की आवाजें निकालें तो उस आवाज के  हिसाब से लाइटें मनुष्य की आकृति में जलती नजर आएंगी, लेकिन अगर किसी  ने जाकर गायत्री मंत्र बोल दिया तो पांव से लेकर सिर तक सारी की सारी लाइटें  एक साथ जलने लग जाती है। दुनियाभर के मंत्र और किसी भी प्रकार की आवाजें  निकालने से यह सारी की सारी लाइटें नहीं जलतीं। एक गायत्री मंत्र बोलने से सब  जलने लग जाती हैं क्योंकि इसके अंदर जो वाइब्रेशन है, वह अद्भुत है।

हमारे देश के पास इतने आश्‍चर्यजनक वैज्ञानिक प्रयोगों की थाती है और हम  आज भी इनके परिणामों पर यदि संदेह करते हैं तो जिन कवियों ने जिन  स्‍वतंत्रता सेनानियों ने जिन दार्शनिकों ने मन की स्‍वतंत्रता हासिल करने की बात  कही वह सब निरर्थक ही हो जाएगा। हम अपने ही मंत्रों की सार्थकता सिद्ध करने  के लिए औरों पर निर्भर रहें, इससे बड़ी परतंत्रता और क्‍या होगी।
वेदों ने जो मंत्रों की थाती हमें सौंपी है, उस पर हमें गर्व होना चाहिए संशय नहीं।  संशय विवेक को खा जाता है और हमारे कथित बुद्धिजीवी संशयों से ग्रस्‍त रहे हैं  तो उन्‍हें मंत्रों की शक्‍ति-वैज्ञानिकता और उसकी वृहद शक्‍तियों पर विश्‍वास हो भी  तो कैसे।

बहरहाल, हैदराबाद के शोधकार्य ने उनके भी मुंह बंद कर देने का इंतज़ाम कर  दिया जो कहते थे कि मंगलयान से पहले वैज्ञानिकों ने पूजा और अपने-अपने  इष्‍ट देवों का ध्‍यान क्‍यों किया। अब संभवत: वे समझ जाऐं कि मंत्र से  मंगलयान जैसे अभियान को सफलता तक आखिर किस कॉन्‍फीडेंस ने पहुंचाया।
मंत्रों पर अनेकानेक शोधों की आवयश्‍कता है, तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ियों  के लिए एक सकारात्‍मक वातावरण बना सकेंगे।

- अलकनंदा सिंह

बुधवार, 15 मार्च 2017

नाक पै आफत

अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस गुजर गया, होली भी हो ली और हुरंगा भी... मगर इस बीच कुछ घटनाऐं ऐसी  घटीं जिनसे बात बात में 'नाक' आड़े आई। कहीं तीन तलाक मामले में मुस्‍लिम महिलाओं ने उलेमाओं  की नाक को नीचा किया तो कहीं महिला प्रधान फिल्‍मों पर सेंसर बोर्ड की नाक नीची हुई और चलते  चलाते इन दोनों ही बदलावों में 'नाक' की आफत आ गई।

बड़ी नाइंसाफी है रे...कि चेहरे पर मौजूद एक अदने से अंग को लेकर गांव के गांव रंजिशों में स्‍वाहा हो  रहे हैं। अरे भई! नाक को लेकर हम इतना सेंसिटिव क्‍यों हैं। नाक को स्‍त्रीलिंग क्‍यों माना गया और  माना गया सो तो ठीक मगर इज्‍जत के साथ नाक को क्‍यों जोड़ा गया। ज़ाहिर है जब स्‍त्रीलिंग माना  गया और इज्‍ज़त से जोड़ा गया तो इसका ठीकरा महिलाओं के माथे फूटना था।

विशेषणों में ज़रा देखिए नाक का सवाल, नाक का बाल, नाक बहना, नाक में दम, नाक की बात, ऊंची  नाक, नकटी नाक, नाक नीची आदि जो भी मुझे याद आ रहा सभी में स्‍त्रीलिंग को दोषी या कारक  बताया गया है।

फिर सवाल उपजता है कि नाक कटना या नाक नीची होने को स्‍त्रियों के माध्‍यम से पुरुषों  द्वारा   हासिल इज्‍ज़त से जोड़ा जाना क्‍या ठीक है। क्‍या पुरुषों के अंदर इतनी हिम्‍मत नहीं या ताकत नहीं कि  वे अपने बल पर अपनी नाक खुद ऊंची कर सकें और अपनी इज्‍जत खुद कमा सकें।

परिवार की सबसे पहली इकाई घर है जहां महिलाऐं स्‍वयं को सुरक्षित समझती हैं, होती हैं या नहीं, यह  अलग बात है। यह हमेशा की तरह अब भी यक्ष प्रश्‍न है जिसका अधिकतर उत्‍तर हां में होता है मगर  इस हां में भी नाक अपने पूरे रुतबे के साथ मौजूद रहती है। जहां इस घरेलू सुरक्षा का कवच ना में  बदलता है वहीं नाक कटती है, नीची होती है यानि सवाल यहां भी नाक का ही है महिलाओं की सुरक्षा  का नहीं क्‍यों कि नाक यहां भी पुरुष की अस्‍मिता से चिपकी हुई रहती है। पारिवारिक परंपरा में कम ही  उदाहरण ऐसे देखने को मिले कि पुरुष की वजह से नाक कटी हो, नाक नीची हुई हो, हां नाक में दम  अवश्‍य देखा जा सकता है।

इस तरह महिलाओं की सुरक्षा में नाक के विशेषणों का महत्‍वपूर्ण योगदान है। नाक नहीं जानती कि  महिलाओं को सुरक्षा शारीरिक स्‍तर के साथ मानसिक सुरक्षा भी चाहिए जो यह महसूस कराए कि वे जो  चाह रही हैं, मांग रही हैं, कह रही हैं, लिख रही हैं, वह हकीकतन ज़मीन पर उतरना चाहिए।
वो जो अहसास कर रही हैं उसे ज़ाहिर भी करा पाएं।

घर हो या बाहर, घरेलू हो या कामकाजी हर हाल में स्‍त्रियों को अपनी रक्षा खुद ही करनी होती है-  शारीरिक स्‍तर पर भी और मानसिक स्‍तर पर भी। मानसिक स्‍तर पर असुरक्षा का अहसास ही 'नाक के  नाम पर' महिलाओं को सुरक्षित ''दिखाता'' है।

बहुत पुरानी उक्‍ति है-
"जो व्यक्ति केवल आपकी ख़ुशी के लिये अपनी हार मान ले,
उससे आप कभी जीत ही नहीं सकते"...

नाक का भी यही हाल है। नाक के बूते जो भी इज्‍ज़त घरों से लेकर समाज तक बनाई जाती है वह ही  नाक में दम की वजह भी बनती रही है।
बहरहाल, इज्‍जत के लबादे को ओढ़े महिलाऐं क्‍या लिख रही हैं, क्‍या बोल रही हैं, क्‍या हासिल कर रही  हैं, कृपया इसे अब बेचारी नाक से ना जोड़ा जाए। मीडिया के विभिन्‍न माध्‍यमों में लिखे गए शब्‍द बता  रहे हैं कि इज्‍ज़त-बेइज्‍ज़ती का ठीकरा नाक पर फोड़ नाक को तो बेवजह घसीटा जाता रहा है।

अभी तक तो नाक बचाए रखने के नाम पर सामाजिक ठेकेदारों को ''ताकत'' महिलाओं द्वारा ही बख्‍शी  जाती रही है। मगर अब अपनी इज्‍ज़त का प्रदर्शन करने के लिए नाक को बीच में ना लाइये और अपनी  हिम्‍मत को अपने बूते ही साबित कीजिए। आमने सामने की बात होने दीजिए।
मनुष्‍य के शरीर का एक अदना सा अंग बेचारी ''नाक'' को स्‍त्रियों की अस्‍मिता, खानदान का नाम और पुरुषोचित अहंकार पर बेवजह बलि चढ़ाई जा रही है, ये अच्‍छी बात नहीं। नाक की भी अपनी अस्‍मिता है, स्‍वतंत्रता है, गुण हैं। नाक को नाक ही रहने दीजिए। इज्‍ज़त, सवाल, कटना, बाल, ऊंची, नीची जैसे अलंकरणों की ज़रूरत नहीं।

- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 11 मार्च 2017

क्रोध लाल रंग, ईर्ष्‍या हरे रंग, आनंद जीवंतता पीले रंग से जुड़े होते हैं

श्री श्री रविशंकर  ने  कहा कि चैतन्य होकर हम अज्ञानता और नकारात्मकता के काले रंग को मिटा सकते हैं। इससे हमारे जीवन में आनंद और जीवंतता के पीत रंग के साथ-साथ और भी कई रंग भर जाते हैं। इस आनंद का उत्सव शरीर और मन के साथ-साथ चेतना भी मनाती है
होली (13 मार्च) पर श्री श्री रविशंकर का चिंतन…
संसार रंग भरा है। प्रकृति की तरह ही रंगों का प्रभाव हमारी भावनाओं और संवेदनाओं पर भी पड़ता है। हमारी प्रत्येक भावना एक निश्चित रंग से सीधी जुड़ी होती है। जैसे माना जाता है कि क्रोध लाल रंग से, ईष्र्या हरे रंग से, आनंद और जीवंतता पीले रंग से जुड़े होते हैं। गुलाबी रंग को हम प्रेम से, नीले को विस्तार से, सफेद रंग को शांति से, केसरिया  को त्याग से और जामुनी को हम ज्ञान से जोड़कर देखते हैं। कुल मिलाकर, प्रत्येक मनुष्य रंगों का एक फ व्वारा प्रतीत होता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा हिरण्यकशिपु प्रजा के बीच स्वयं को ईश्वर के रूप में स्थापित करना चाहता था, जबकि उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु-भक्त था। अपने पुत्र के विचारों को बदलने का हिरण्यकशिपु ने हर संभव प्रयास किया। बहन होलिका की गोद में बैठाकर उसे अग्निकुंड में भी जलाने का प्रयास किया, लेकिन वह विफल रहा। प्रह्लाद की भक्ति में इतनी गहराई थी कि पिता का कोई भी अनुचित कार्य उसे अपने विचारों से डिगा नहीं सका।
दरअसल, प्रह्लाद ने चैतन्य होकर अज्ञानता के काले रंग को मिटाने में पूर्ण सफलता पा ली थी। देखा जाए तो हिरण्यकशिपु स्थूलता का प्रतीक है और प्रह्लाद आनंद और श्रद्धा का प्रतीक है। चेतना को भौतिकता तक सीमित नहीं किया जा सकता। हिरण्यकशिपु भौतिकता से सब कुछ प्राप्त करना चाहता था। कोई भी जीव अपने विचारों की शक्ति से भौतिकता से परे हो सकता है।
होलिका अतीत की प्रतीक है और प्रह्लाद वर्तमान के आनंद का प्रतीक है। यह प्रह्लाद की भक्ति ही थी, जो उसे आनंद और जीवंत (पीत रंग) बनाए रखती थी। आनंद और जीवंतता के होने से जीवन उत्सव बन जाता है। भावनाएं आपको अग्नि की तरह जलाती हैं, पर यह रंगों की फु हार की तरह होनी चाहिए, तभी जीवन सार्थक होता है। अज्ञानता में भावनाएं कष्टकारी होती हैं, लेकिन ज्ञान के साथ जुड़कर यही भावनाएं जीवन में रंग भर देती हैं। जीवन रंगों से भरा होना चाहिए। हम कई भूमिका निभाते हैं।
ये भूमिकाएं और भावनाएं स्पष्ट होनी चाहिए, अन्यथा कष्ट निश्चित है। घर में यदि आप पिता का रोल निभा रहे हैं, तो अपने कार्यस्थल पर वैसा रोल नहीं निभा सकते। जब अलग-अलग भूमिकाओं का हम जीवन में घालमेल करने लगते हैं, तो फिर उलझने लगते हैं और गलतियां करने लग जाते हैं। जीवन में जो भी आप आनंद का अनुभव करते हैं, वह आपको स्वयं से ही प्राप्त होता है।
आपको जो जकड़ कर बैठा है, जब आप उसे छोड़कर शांत बैठ जाते हैं, तो इसी समय से आपकी ध्यानावस्था शुरू हो जाती है। ध्यान में आपको गहरी नींद से भी ज्यादा विश्राम मिलता है, क्योंकि आप सभी इच्छाओं से परे होते हैं। यह मस्तिष्क को गहरी शीतलता देता है और आपके तंत्रिका-तंत्र को पुष्ट करता है।
उत्सव चेतना का स्वभाव है, जो उत्सव मौन से उत्पन्न होता है, वह वास्तविक है। यदि उत्सव के साथ पवित्रता जोड़ दी जाए, तो वह पूर्ण हो जाता है। केवल शरीर और मन ही उत्सव नहीं मनाता है, बल्कि चेतना भी उत्सव मनाती है। इसी स्थिति में जीवन रंगों से भर जाता है।

प्रस्‍तुति : अलकनंदा सिंह 

सोमवार, 6 मार्च 2017

कंकाल के साथ

बचपन में पढ़े थे सुभाषितानि...हमें संस्‍कृत पढ़ाने वाले शास्‍त्री जी कक्षा में एक एक बच्‍चे को खड़ा करके एक एक श्‍लोक रटवाते थे, फिर उनके अर्थ और प्रयोग पूछते थे तब हमें ये कतई नहीं पता था कि इनका हमारे जीवन में किस तरह पग पग पर प्रयोग होगा और किस तरह हमें जीवन की अनेक  परीक्षाओं में सफल होने और असफलताओं के पीछे छुपे हुए कारण खोजने में ही सुभाषित हमारी मदद करेंगे।

शास्‍त्री जी तेज आवाज़ में रटाया करते थे समयोचित पद्यमालिका का ये श्‍लोक -

अतिरूपाद् हृता सीतातिगर्वाद्रावणो हत:।
अतिदानाद् बलिर्बद्ध: अति सर्वत्र वर्जयेत्।।

फिर हमसे इसका अर्थ भी पूछते थे-

अति रूपवान होने के कारण सीता का हरण हुआ, अति गर्व के कारण रावण मारा गया। अतिदानशीलता के कारण बलि को अपना सर्वस्‍व देना पड़ा, इसलिए किसी भी वस्‍तु, इच्‍छा और कार्य की अधिकता अच्‍छी नहीं मानी गई।

English Translation
Too much  beauty  is  what  lead to  the kidnapping od Sita] Ravana got killed beacause of too much Pride. Bali's Progress was curtailed because of too much  charity, oe should refrain from  "Too Much" of Anything.

शास्‍त्री जी के तब याद कराये हुए इस श्‍लोक के अंतिम भाग को तो  आज आप और हम हर दूसरे तीसरे वाक्‍य में उद्धृत करते रहते हैं कि अति सर्वत्र वर्ज्‍यते मगर इसके निहितार्थ को भूल सा गए हैं कि ''बैलेंस हर जगह जरूरी है'' चाहे वह निजी जीवन हो, प्रोफेशनल हो या फिर सार्वजनिक, गली हो, मोहल्‍ला हो या अपना घर ही क्‍यों ना हो। समाज से जुड़ी हर कड़ी में इस श्‍लोक की अनिवार्यता  देखी जा सकती है। जरूरत से ज्‍यादा भोजन, सुदरता, ज्ञान, शिक्षा, मेलजोल हो या फिर जरूरत से ज्‍यादा अकेले रहने की प्रवृत्‍ति। घातक सभी हैं।

इसी हफ्ते पहली खबर कोलकाता से और फिर दूसरी खबर आगरा से आई कि अपने प्रियजन के कंकाल के साथ रह रहे व्‍यक्‍ति की भी मौत हो गई। इनका शव घर में कई दिनों से सड़ रहा था, बदबू उठने पर पड़ोसियों द्वारा पहले पुलिस को बुलाया गया फिर दरवाजा खोला गया तो उनकी कहानी सामने आई। कहानी दोनों की ही एक सी थी।
दोनों ही घटनाओं में साम्‍य यह था कि अलग-अलग पृष्‍ठभूमि में रहने वाले ये ''अकेले'' कई कई दिनों तक वे ना तो घर से नहीं निकलते थे, दोनों ने ही ''अकेलेपन'' को अपना लाइफस्‍टाइल बना लिया था। कोलकाता में अकेला रहने वाला पुरुष था तो आगरा में महिला।

यूं तो अकेलेपन  के कई कारण हो सकते हैं। लोग अनेक कारणों से अकेलापन महसूस करते हैं, जैसे सामान्य सामाजिक परेशानी एवं सुविचारित एकाकीपन। कुछ लोगों को तो भीड़ में भी अकेलापन लगता है, क्योंकि वे उन लोगों से अर्थपूर्ण संबंध ही नहीं जोड़ पाते। सभी को कभी न कभी अकेलेपन का एहसास होता है, मगर अकेलेपन को किन्‍हीं भी परिस्‍थितियों में अच्छा नहीं माना गया।

हमारे समाज में संभवत: इसीलिए रिश्‍ते-नाते, दोस्‍ती और सामाजिक गतिविधियों को इतना महत्‍व दिया जाता रहा है। न्‍यूक्‍लिर फैमिली के रिवाज, पड़ोसियों से भी संबंध रखने को प्राइवेसी के नाम पर जिस अकेलेपन को पिछले कुछ दशकों से तरजीह दी जाती रही है, उसके अब दुष्‍परिणाम सामने आने लगे हैं। ये मेट्रो कल्‍चर हमारी मानसिकता पर हावी हो चला है।

इसके अलावा स्‍वयं को सर्वोत्‍कृष्‍ट मानने की जिद भी अकेलेपन का कारण बन रही है। मैं का प्रवेश जब व्‍यक्‍तित्व में होने लगता है तो दूसरे के दुखसुख, दूसरे की इच्‍छा गौण हो जाती है और जब यही ''मैं'' किसी कारणवश परास्‍त होता है तो अकेलापन घेरने लगता है। अपेक्षाओं की अधिकता, पूरा न हो की स्‍थिति में उपेक्षा का उपजना, इससे उपजी कुंठा और अवसाद और यही अवसाद ''अकेलेपन'' को जन्‍म देती है।

नितांत अकेलेपन के ''अतिवाद'' की ओर हमारा यूं बढ़ते जाना अब जानलेवा होता जा रहा है। समाज और हमारे अपनों के मानसिक स्‍वास्‍थ के लिए ये जरूरी है कि हम औरों की खबर भी लेते रहें, उनसे जुड़े रहें। उन्‍हें अपेक्षाओं के अतिवाद से बचाने के लिए उनमें सकारात्‍मक विचारों का प्रवेश करायें।

अब ये जानना जरूरी हो गया है कि कहीं हम आधुनिक बनने की बड़ी कीमत तो नहीं चुका रहे। सोचिए कि अपने परिवार और दोस्तों से आप कितना मिलते हैं, ये आपकी सेहत को काफ़ी प्रभावित करता है। अकेलापन आपको बीमार कर देता है और सिर्फ मानसिक रूप से नहीं, शारीरिक रूप से भी।

स्‍वास्‍थ्‍य की दृष्‍टि से भी देखें तो एक अध्ययन 2006 में स्तन कैंसर की शिकार 2800 महिलाओं पर किया गया कि जो मरीज़ तुलनात्मक रूप से परिवार या दोस्तों से कम मिलती थीं, उनकी बीमारी और उससे मौत की आशंका पांच गुना ज़्यादा हो गई थी। इसी तरह शिकागो विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिकों ने देखा कि सामाजिक रूप से अलग-थलग लोगों की प्रतिरोधक क्षमता में बदलाव हो जाता है तथा अकेले लोग रोज़मर्रा के कामों को ज़्यादा तनावकारी पाते हैं। बड़ी संख्या में स्वस्थ लोगों में सुबह और शाम के वक्त तनाव के हार्मोन कोर्टिसोल की मात्रा की जांच की। कोर्टिसोल तनाव के वक्त पैदा होने वाला एक हार्मोन है जो अकेले लोगों में ज़्यादा पाया गया।

यूं तो हमारी सांस्‍कृतिक और सामाजिक रवायतों में अकेलेपन से निबटने की कई विधियां मौजूद हैं, जैसे नए लोगों से मिलना, अपने एकांत का आनंद लेना और परिवार से पुनर्मिलन।

कारण और निदान हमें ही खोजना है कि अकेले होते हुए लोगों को उनके अपने ''अतिवाद'' से कैसे छुटकारा दिलाया जाए।

योग व आध्‍यात्‍म की ओर रुझान अकेलेपन को खत्‍म करने की गारंटी होता है मगर योग तक लाने के लिए उनकी सोच के अतिवाद को नीचे लाना होगा, क्‍योंकि अतिवाद कोई भी हो, कई कोणों से नुकसान पहुंचाता है  इससे जूझने के लिए शारीरिक, मानसिक स्‍तर पर भी काम करना होगा अर्थात् अति सर्वत्र वर्ज्‍यते के नुकसान अब वृहद रूप में हमारे सामने है।

अकेलेपन के शिकार लोगों के संदर्भ में मुझे अपने शास्‍त्री जी याद आ रहे हैं कि जो अति के नुकसान बताया करते थे। हम जब उनकी बात पूरी तरह नहीं समझ पाते थे ...तब भी वो थकते नहीं थे...फिर फिर कहते रहते कि- बिटिया एक और कहन सुनावैं तुमका...जो कबीर बाबा बोल गए कि-

अति का भला न बोलना,
अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना,
अति की भली न धूप।

तब शास्‍त्री जी की बात कुछ समझते, कुछ समझने का नाटक करते हम बच्‍चे आज इस तथ्‍य को अच्‍छी तरह समझ पा रहे हैं कि अकेलेपन की अति अर्थात् ''कंकालों के साथ रहने की प्रवृत्‍ति'' जब खबरों में आती है तो सोचने को बाध्‍य करती है कि हजारों साधु-संन्‍यासियों, सूफी संतों, बाबाओं, साध्‍वियों और मोटीवेशनल स्‍पीकर्स के रहते भी समाज में अकेलापन क्‍यों ज़हर बनता जा रहा है।
हम भी सोचें कि आसपास कोई अकेला ना रहे, और अपना ईगो छोड़कर उसको इस विकट स्‍थिति से बाहर लायें। इसके लिए कोई खास प्रयास नहीं बल्‍कि छोटी सी कोशिश की जरूरत है...बस।

-अलकनंदा सिंह




शनिवार, 4 मार्च 2017

फणीश्वर नाथ रेणु का जन्‍मदिन आज: 'मैला आंचल' लिखकर रेणु ने रेणु की ही बात कही


रेणु का मतलब होता है बालू- रेत- रेती सो अपने नाम को सार्थक करते  वो धूल से सने रस्‍ते, गली गांव चौबारे से निकलती खुश्‍बुऐं, दामन को  बच बचाकर चलती बतकहियों और हकीकतों को समेटते रहे। जी हां !  'इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन  भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं  निकल पाया' कहने वाले फणीश्‍वर नाथ रेणु का आज जन्‍मदिन है।

उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने 'घर की बोली' की आंचलिक पहचान  को जनजन तक पैठ बनाने में जितनी विशेषज्ञता दिखाई वह उनके  शब्‍दों से आम जन को जोड़ती है। किसी भी जन समुदाय की  भलाई-बुराई को अत्‍यधिक प्रमाणिक उसकी अपनी बोली में रचे गए  साहित्‍य से ही तो आसानी से किया जा सकता है।

'रेणु' ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी  सजीवता और मानवीय संवेदनाओं - दृश्यों को चित्रित करने के लिए  उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे  उपकरणों का सुंदर प्रयोग किया है। इतना ही नहीं 'रेणु' ने मिथक,  लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सभी को अपनी  रचनाओं में स्थान दिया है।


उन्होंने 'मैला आंचल' उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व  व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक  औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति तो बन ही गया वरन  अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है।

अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल के लिये उन्हें पद्मश्री से सम्मानित  किया गया।

उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम'  को हममें से कोई भी नहीं भूल सकता। राजकपूर, वहीदा रहमान की  इस 'तीसरी क़सम' को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके  निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। आज भी यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा  में मील का पत्थर मानी जाती है।

रेणु सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन  करते हुए जेल गये, आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' का  सम्मान भी लौटा दिया। इसी दौरान उन्‍होंने पटना में 'लोकतंत्र रक्षी  साहित्य मंच' की स्थापना के साथ उस समय भयानक रोग रेणु को  'पैप्टिक अल्सर' की गंभीरता को झेला, इस बीमारी के बाद भी रेणु ने  1977 ई. में नवगठित जनता पार्टी के लिए चुनाव में काफ़ी काम किया  परंतु 11 अप्रैल 1977 ई. को रेणु उसी 'पैप्टिक अल्सर' की बीमारी के  कारण चल बसे।

फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत  की थी। उस समय कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर  रेणु की अपरिपक्व कहानियाँ थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने  के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने  'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। 'बटबाबा' 'साप्ताहिक  विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी  कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक  विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र  की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है।  'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको  उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की  महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां',  आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।

फिलहाल ये सब इतिहास है जिसे आज की पीढ़ी सिर्फ सहेज सकती है,  उसे महसूस करना है तो रेणु की ही तरह ज़मीन पर उतर कर सोचना  होगा।

- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 3 मार्च 2017