शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

हम भी आदि शंकराचार्य की भांति कह सकते हैं शिवोहम् ...शिवोहम् ...शिवोहम्


आज शिवचतुर्दशी=शिवरात्रि=शिवविवाह का दिन=शिव महिमा के चौतरफा गायन का दिन है, आज ही  से ब्रज में बरसाना की प्रसिद्ध लठामार होली की पहली चौपाई उठेगी जिसे लाड़ली महल से निकाल कर  रंगीली गली के शिव मंदिर तक लाया जाएगा और होली का जो जोर बसंत पंचमी से शुरू हुआ था वह  अपने चरम की ओर बढ़ता जाएगा।

कोयम्बटूर में आज ही ईशा फाउंडेशन के ईशा योग केंद्र द्वारा स्‍थापित की जा रही एक विशालकाय  शिव प्रतिमा का अनावरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे।

हमेशा की तरह इन प्रसिद्ध मंदिरों के उत्‍सव और शिव भजनों के कोलाहल में जिस शिव तत्‍व को  अनदेखा किया जाएगा, वह किस तरह हमें प्राप्‍त हो सकता है, इस पर शायद ही कोई चर्चा होगी। ईशा  फाउंडेशन के सद्गुरू कहते हैं कि आदि योगी शिव ने मानवता को आत्‍मरूपांतरण की 112 विधियां भेंट  कीं, इसी के सम्‍मान में आदियोगी के 112 फुट ऊंचे दिव्‍य चेहरे को प्रतिष्‍ठित किया जाएगा।

कितना बचकाना है ये विचार। मेरे ख्‍याल से तो यह सिर्फ उसी राह को आगे बढ़ाने करने का ज़रिया है  जिसके तहत लोग ''ईश्‍वर को इंगित करने वाली उंगली ही पकड़ कर बैठ जाते हैं और उसे ईश्‍वर  समझ लेते हैं, जिसकी ओर उंगली उठाकर ''गुरू'' उसे बतौर ईश्‍वर प्रतिष्‍ठापित करते हैं और इस तरह  अनुयायियों की एक लंबी चौड़ी फौज खड़ी हो जाती है। गाहे-बगाहे सनातन धर्म की रक्षा की बातें या यूं  कहें कि प्रोपेगंडा किया जाता है ताकि धर्म का असली स्‍वरूप इन उंगली पकड़ने वालों की समझ में  कैसे भी ना आने पाए। फिर किसके कितने अनुयायी, किसके कितने मंदिर- मठ, किसके कितने ''5  स्‍टार भक्‍त'' और किसका कितना बाहुबल, कितनी संपत्‍ति आदि तो प्रतिस्‍पर्द्धा में होता ही है।

ऐसे में ''शिव'' और ''शिव तत्‍व'' का अध्‍ययन कौन करेगा, निश्‍चित ही कोई नहीं। शिव योगी थे तो  उस योग का मूल तत्‍व ''स्‍वयं पर नियंत्रण'', सर्वप्रथम इन मंदिर-मठ-गुरुओं के सानिध्‍य में नहीं बल्‍कि  ''स्‍वयं को स्‍वयं के द्वारा ही'' जानकर हो सकता है। प्रतिमाओं की स्‍थापना से हो सकता है कि आंखें  आश्‍चर्य से फटी की फटी रह जायें, हम कौतूहलवश ये तो कह सकते हैं कि ओह, कितनी विशाल है,  किस तरह बनाई गई होगी, कितना धन व्‍यय हुआ होगा परंतु इसे देखकर शिवतत्‍व पाने
की कामना नहीं जागेगी। कदापि नहीं।

आस्‍थाओं के बाजार के बीच शिव को समझने और हृदय के तल तक उतारने के लिए आदि गुरू  शंकराचार्य का उदाहरण देना चाहूंगी जो आज धर्म, गुरुओं और उनकी उंगली पकड़ने वालों के लिए  बिल्‍कुल सही बैठती है-

''आदि गुरू शंकराचार्य की जब अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका  परिचय मांगा। बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन  जाता है…

यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

अर्थात्

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश,  भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…।
अब आप ही बताइये कि शिव के किस रूप को पाने के लिए हम इतने लालायित रहते हैं, जो हमारे  भीतर घुला हुआ है उसे हम विलग करके कैसे देख सकते हैं। और जो ऐसा देखने का प्रयास करते हैं  वह कोरा नाटक है क्‍योंकि शिव तो हमारे भीतर हर श्‍वास-नि:श्‍वास में है। प्रतिमाओं- मंदिरों-  मठों-सिद्धपीठों में ही यदि शिव विराजते तो ना तो शंकराचार्य होते और ना ही कबीर और सूर को  शायद ही कभी ब्रह्म का ज्ञान होता।

जहां तक बात है शिवचौदस पर लोक के मनोरंजन की तो जब मन आल्‍हादित होगा...प्रफुल्‍लित होगा...
तो ईश्‍वर तक उतनी ही सहजता से जा मिलेगा...शिव को भोला भंडारी इसीलिए तो कहा गया है कि  वो नाचना चाहता है तो नटराज बन जाता है गाना चाहता है तो विशिष्‍ट रागों का निर्माण करता  है...और प्रेमी ऐसा कि सती के विरह में संपूर्ण ब्रहमांड को उथलपुथल कर देता है और जब वह योग  साधना में रत होता है तो 112 विधियों को प्रतिपादित कर देता है...। हम लोक में सहज रहकर भी  शिव को अपने ''भोलेपन'' से पा सकते हैं।

स्‍वयं के ''शिव'' बनने की प्रक्रिया स्‍वयं को मिटाकर आती है, ''शिव तत्‍व'' को पाने की लालसा नहीं,  अनुभूति जाग्रत करनी होगी तभी शिव दर्शन हो सकता है और हम भी आदि शंकराचार्य की भांति कह  सकते हैं शिवोहम् ...शिवोहम् ...शिवोहम् ।

- अलकनंदा सिंह

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