शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

ये फीनिक्‍स के अपनी राख में से उठ खड़े होने का समय है

कहावतें और उक्‍तियां, लोकोक्‍तियां बनकर किसी भी देश, काल, समाज की  उन्‍नति तथा अवनति, विचारधारा, सांस्‍कृतिक उत्थान- पतन और सामाजिक चेतना  के स्‍तर को दिखाती हैं।
ऐसी ही एक कहावत हमारे देश के बारे में भी प्रचलित रही है- कि ''भारत सोने  की चिड़िया था''। इस एक कहावत ने देश के प्राचीनतम इतिहास, भूगोल,  सामाजिक व्‍यवस्‍था, सांस्‍कृतिक विरासतें सभी को अपनी ज़द में ले लिया था और  इस एक कहावत ने ही देश की अनमोल विरासतों के खंड-खंड कराए। इस तरह ये  भारतवर्ष से यह भारत बनता गया। सोने की चिड़िया को बार-बार उड़ने, घायल  होने पर विवश होना पड़ा। सदियों के ताने-बाने इस एक कहावत ने बदल दिए।  चूंकि देश सोने की चिड़िया था इसलिए आक्रांताओं  की गिद्ध दृष्‍टि से बच नहीं  पाया, और इस कहावत के कारण ही हमने राजनैतिक-सामरिक विखंडन जैसे  झंझावात झेले। देश को सोने की चिड़िया कहे जाने के Consequences आज तक  देखे जा सकते हैं।
मगर कहते हैं ना कि समय किसी के लिए एक जैसा नहीं रहता, ना व्‍यक्‍तियों के  लिए और ना ही देश के लिए। वह अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है और सबको  उसी की गति के नियम मानने भी होते हैं। इसीलिए इस कहावत ने भी अपनी  गति, समय की गति में मिलाई और इसका रूप बदला। इसी बदले रूप को हम  आजकल देख सकते हैं।
हालांकि कुछ नकारात्‍मक चेष्‍टाओं ने समाजवाद के नाम हमें बार-बार यह दिखाने  की कोशिश की कि भारत सोने की चिड़िया था मगर अब सोने की चिड़िया नहीं  रहा, उन्‍होंने पूंजी की असमानता का राग तो अलापा मगर उस असमानता को दूर  करने का कोई रास्‍ता नहीं दिखाया, संभवत: वे समाजवादी और उनके वर्तमान  प्रतिरूप कथित समाजवादी (पार्टी नहीं) सोच वाले एक भयंकर नकारात्‍मकता से  घिरते चले गए।
इस बीच देश अपने सोने की चमक से लेकर गुलामी की कालिख तक बार-बार  राख कर दिए जाने के बावजूद फीनिक्‍स पक्षी की तरह उठ खड़ा होता रहा, समय  के साथ उसने तमाम जद्देाजहद सहकर अपनी राख से फिर उठ खड़े होने का  हौसला दिखाया। 8 नवंबर के बाद से तस्‍वीर बता रही है कि सोने की चिड़िया का  ये रूप परिवर्तन हो चुका है, अब यह कहीं बैंकों की कतार में खड़े दिहाड़ी मजदूर  के हौसले के रूप में तो कहीं कालाधन वालों में बेचैनी के रूप में दिखाई दे रहा है।  आज से तो बेनामी संपत्‍तियों पर सरकार की निगाहें बता रही हैं कि ये समय  फीनिक्‍स से सोन चिरैया बनने का है। हर बदलाव, हर नया रूप, हर नई चेतना  का जन्‍म दर्द से ही होता है मगर दर्द के बाद नएपन का नज़ारा ही कुछ और  होता है। कतार में खड़े होने का दर्द अपने साथ कुछ नए खुशनुमा संकेत भी ला  रहा है।
अपनी राख से तो फीनिक्‍स जी उठा है, वह अब पुन: सोने की चिड़िया बनने के  लिए अंगड़ाई ले रहा है। अब ये हमें सोचना है कि इस चिड़िया को सही दिशा कैसे  दी जाए, इस चेतना के साथ कि अब सोने की चिड़िया पर किसी की बुरी नजर ना  पड़ सके, चाहे वह नज़र बाहरी हो या भीतरी।


और अंत में.....
फीनिक्‍स के बावत आपने यह तो सुना ही होगा कि उसे दुनियाभर की दंत कथाओं  में  ५०० से १००० वर्षों तक जीने वाला मायापंक्षी कहा गया है जिसके प्रमाण अभी  नहीं मिले हैं मगर वह मौजूद हर कालखंड में रहा है।
कथाओं के अनुसार फ़ीनिक्स एक बेहद रंगीन पक्षी है जिसकी दुम कुछ कथाओं में  सुनहरी या बैंगनी बताई गई है तो कुछ में हरी या नीली. यह अपने जीवनचक्र के  अंत में खुद के इर्द-गिर्द लकड़ियों व टहनियों का घोंसला बनाकर उसमें स्वयं जल  जाता है। घोसला और पक्षी दोनों जल कर राख बन जाते हैं और इसी राख से एक  नया फ़ीनिक्स उभरता है।
इस नए जन्मे फ़ीनिक्स का जीवन काल पुराने फ़ीनिक्स जितना ही होता है।
कुछ और कथाओं में तो नया फ़ीनिक्स अपने पुराने रूप की राख एक अंडे में भर  कर मिस्र के शहर हेलिओपोलिस (जिसे यूनानी भाषा में "सूर्य का शहर" कहते है)  में रख देता है। यह कहा जाता है की इस पक्षी की चीख़, किसी मधुर गीत जैसी  होती है। अपने ही राख से पुनर्जन्म लेने की काबिलियत के कारण यह माना जाता  है कि फ़ीनिक्स अमर है। यहां तक कि कुछ प्राचीन कहानियों के अनुसार ये  मानवों में तब्दील होने की काबिलियत भी रखता है।


- अलकनंदा सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें