प्रत्येक ‘उदय’ का ‘अस्त’ जहां भौगोलिक नियम है, वहीं ‘अस्त’ का ‘उदय’ प्राकृतिक व आध्यात्मिक सत्य है। सूर्य की अस्ताचलगामी रश्मियां इस सत्य को सार्वभौम कर देती हैं।
आज अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती स्त्रियों की एक फोटो ने बहुत कुछ ऐसा कह दिया कि पूरे पर्व के औचित्य पर दोबारा सोचना पड़ रहा है। हालांकि गत 3 नवम्बर को यमद्वितीया पर मथुरा के यमुना किनारे का दृश्य भी कुछ इसी तरह का था।
बहन-भाई दोनों ही सोच रहे थे कि आखिर अपने प्रेम को ”किस यमुना” में डुबकी लगाकर अमर किया जाए… वो यमुना जो पवित्र है, जिसे यम की बहन कहा गया, जो कृष्ण को छूकर धन्य हुई थीं या उस यमुना को जो पूरे शहर का मैला ढोने को अभिशप्त है। ठीक यही हाल आज दिल्ली की यमुना का भी दिखा।
सूर्य की उपासना का पर्व ”छठ” भी लोक में आकर अपनी दिव्यता का मूलभाव तिरोहित कर चुका है, यदि ऐसा ना हुआ होता तो आज दिल्ली के कालिंदी कुंज की ये तस्वीरें हमें यह सोचने पर बाध्य ना कर रही होतीं कि आखिर हम ”किस सूर्य की उपासना” कर रहे हैं, ”किस तरह से” सूर्य की उपासना कर रहे हैं। पूरी तरह प्रदूषित जल में कमर तक खड़े होकर, इसी प्रदूषण से उपजे झागों में घिर कर हम आखिर सूर्य की आराधना से किस मनोकामना को पूरा करने की चाहत रख रहे हैं।
सूर्य की आराधना का ये लोक-भावन स्वरूप संभवत: कर्ण द्वारा सूर्य की उपासना से प्रभावित दिखता है जिसमें जल में कमर तक खड़े होकर अर्घ्य दिया जाता है, मगर तब जल और खासकर बहते हुए जल को पवित्र रखा जाता था। संभवत: इसीलिए संकल्प के लिए जल से ज्यादा पवित्र कुछ नहीं था मगर अब स्थितियां एकदम बदल चुकी हैं।
यूं तो वैदिक मन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ माने गये गायत्री महामन्त्र का देवता भी सविता अर्थात् सूर्य ही है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है ‘‘सविता वा देवानां प्रसविता।’’ अर्थात् सविता ही देवों का प्रसव करने वाला, अपने अंश से उत्पन्न करने वाला है। इसके अनुसार जो सूर्य आकाश में दिखाई देता है, वह उस सूर्य का एक स्थूल रूप है जिसका विस्तार अनन्त है। शास्त्रों में माना जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड कितने ही सूर्यों से जगमगा रहा है और ये सभी सूर्य उस अज्ञात महासूर्य की ही उपज हैं इसीलिए प्राणदायिनी ऊर्जा एवं प्रकाश का एक मात्र स्रोत होने से सूर्य का नवग्रहों में भी सर्वोपरि स्थान है।
निश्चय ही भारतीय संस्कृति ने सूर्य के इस लोकोपकारी स्वरूप को पहले ही जान लिया था, इसीलिए भारतीय संस्कृति में सूर्य की उपासना पर पर्याप्त बल दिया गया है।
सूर्योपासना के लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के लाभ हैं। निष्काम भाव से दिन- रात निरंतर अपने कार्य में रत सूर्य असीमित विसर्ग- त्याग की प्रतिमूर्त है, इसी तरह यह कर्म प्रधानता को आगे रखता है। सूर्यदेव सबको समर्थ बनाएं, यही सूर्योपासना का मूल तत्व है। भारतीय संस्कृति भी सभी को समर्थ बनाने की इसी भावना से ओत- प्रोत रही है। इसी आधार पर आदि सविता तो परब्रह्म कहा जा सकता है किन्तु प्रत्यक्ष सूर्य को भी ‘सविता’, अर्थात् परब्रह्म का सर्वोत्त्म प्रतीक कहा गया है।
अथर्ववेद में लिखा है-
‘संध्यानो देवःसविता साविशद् अमृतानि।’ अर्थात् यह सविता देव अमृत तत्त्वों से परिपूर्ण है। और — ‘तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः।’
अर्थात् यह परम पुरुष सविता तेज का भण्डार और अमृतमय है।
कहा जाता है कि वेदों में जितने भी मंत्र हैं, वे तन-मन को आरोग्य देते हैं मगर अथर्ववेद की इसी पंक्ति को आज जब कालिंदी कुंज के झागदार प्रदूषित पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते समय दोहराया गया होगा तो क्या ये मंत्र अपना कोई प्रभाव छोड़ पाए होंगे, मुझे तो भारी संशय है।
प्रदूषण की मार से यूं तो अब जल, जंगल, नदी और वायु सहित समूची प्रकृति प्रभावित है किंतु यमुना और गंगा जैसी जीवनदायिनी नदियों के तो अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। यमुना को सूर्य की पुत्री माना गया है। ऐसे में अब सूर्योपासना के इस पर्व की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब इस पर्व को मनाने वाला समूचा वर्ग सूर्यपुत्री को प्रदूषणमुक्त कराने का संकल्प ले और संकल्प ले इस बात का भी कि अगले छठ पर्व पर वह डूबते सूर्य को अर्घ्य तो देगा लेकिन प्रदूषित यमुना में खड़े होकर नहीं।
यमुना ही क्यों, किसी भी प्रदूषित नदी में खड़े होकर नहीं। सूर्य को अर्घ्य स्वच्छ व निर्मल जल की धारा में खड़े होकर दिया जाएगा। फिर चाहे इसके लिए कितना ही कठिन व्रत और कितना ही कठिन संकल्प क्यों न लेना पड़े।
– अलकनंदा सिंह
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