दुनिया से गुलामी प्रथा का खात्मा हुए 19वीं शताब्दी से अबतक न जाने कितने बदलाव आए और दुनिया को तरक्की के नए नए आयाम दे गए मगर आईएस के रोजाना के कारनामे हमें बहुत कुछ सोचने पर विवश कर देते हैं कि क्या सचमुच यज़ीदी औरतों पर वे जो अपनी हैवानियत के प्रयोग कर रहे हैं, उसका अंत क्या उनका सफाया कर देने भर से हो जाएगा । क्या उनके सफाए से वो ''मानसिकता'' भी खत्म हो जाएगी जो औरतों, लड़कियों और बच्चों के शरीरों पर अपना युद्ध लड़ती है। उनकी आत्मा रौंद कर अपने परचम फहराती है ।
विश्व के अन्य देशों की बात छोड़ दें , वो तो इस हैवानियत को सिर्फ देख रहे हैं , यूएन भी उन यज़ीदी औरतों की खबरों पर अपने उपदेश झाड़ रहा है मगर कोई कुछ नहीं कर रहा। और मीडिया की तो बात क्या कही जाए...? औरतों के रोते हुए चेहरों से वे सब के सब भारी पैसा बना रहे हैं। उन औरतों के नुचे हुए शरीर के पीछे छुपी उनकी नुची हुई आत्मा को कोई न देख पा रहा है और न ही दिखा पा रहा है।
आज बस एक खबर भर है कि यौन हिंसा से जुड़े एक यूएन प्रतिनिधि की रपट के अनुसार इराक और सीरिया से अपहृत किशोरियों को आईएस आतंकी गुलामों के बाजार में सिगरेट के एक पैकेट की कीमत पर बेच रहे हैं। इस रपट को तैयार करने वाले क्या बिल्कुल वैसा ही व्यवहार नहीं कर रहे जैसे कि कोई फोटो जर्नलिस्ट जलते हुए या डूबते हुए व्यक्ति से इंटरव्यू ले रहा हो... और उस फोटो से वो नाम कमाने की जुगत लगा रहा हो...।
ये हकीकत अप्रैल में जुटाए गए आंकड़ों पर आधारित है जब यूएन के विशेष दूत जैनब बांगुरा इराक और सीरिया का दौरा कर लौटे । उन्होंने आईएस के चंगुल से जसतस छूटी किशोरियों और औरतों के मुंह से हृदयविदारक दास्तां सुनीं । लड़कियों ने बताया कि किसी भी क्षेत्र पर कब्जा करने के बाद आतंकी वहां की औरतों , लड़कियों को अपहृत कर लेते हैं फिर सरेआम उन्हें नहलाकर निर्वस्त्र या करके उनकी बोली लगाई जाती है , कभी कभी तो एक सिगरेट के पैकेट की कीमत या एक शर्त या फिर कुछ डॉलर में उन्हें बेच दिया जाता है । तुर्की लेबनान जॉर्डन के शिविरों में इनकी दुदर्शा की कहानियां अटी पड़ी हैं। फिलहाल बांगुरा इन पर रपट तैयार कर रहे हैं, मगर रपट से उन औरतों और लड़कियों के दर्द को सुना तो जा सकता है मगर तब तक कितना दर्द उनमें बह चुका होगा , इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता ।
क्या आईएस के जुल्म के मारी औरतों की ये खबरें हमारे देश के इस्लामी हुनरमंदों तक नहीं पहुंच रहीं ?
भारत के उलेमा इस बावत बोलने में तंगदिली क्यों दिखा रहे हैं ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि आईएस की मानसिकता से भारतीय इस्लामिक विद्वान भी इत्तिफाक रखते हों ?
भारतीय उलेमा आईएस की हैवानियत पर चुप्पी साध कर आखिर ज़ाहिर क्या कराना चाहते हैं ?
उनकी सोच क्या सिर्फ देश में सियासती फैसलों पर अपनी नाराजगी जताने तक सिमटकर रह गई है ?
शिया हों , सुन्नी हों, कुर्द हों, यज़ीदी हों ... कोई भी हों औरत तो औरत होती है , यौन अपराध किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता । इन अपराधों के नतीजतन जो बच्चे पैदा होंगे, आखिर उनकी मानसिकता कितनी घातक हो सकती है। जेनेटिक्स पर साइकोलॉजिकल इफेक्ट नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यहीं पर बात आ जाती है नैतिकता की, इंसानियत के पतन की, इंतिहाई जहालत की ... मगर भारतीय इस्लामिक विद्वानों की इस बावत चुप्पी ठीक नहीं है।
बात बात पर अपना विरोध जताने जो लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया का मुंह ताकते हैं , क्या वे दो शब्द भी आईएस के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं रखते ?
ये मजहब की कौन सी परिभाषा है जो शरीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाने से तो मना करती है मगर जुल्म के खिलाफ मुंह भी नहीं खोलती ?
भारत में तो योग पर भी बवेला कर देते हैं यही विद्वान... गोया कि उनके बच्चे कहीं नैतिक हो गए तो उनके चंगुल से निकल जाऐंगे ... मगर इराक में जो हो रहा है उस पर चुप्पी इसके इस्लामिक ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह लगाती है । यूं तो आईएस की सताई औरतों की आह स्वयं आईएस को तो देर सबेर खत्म कर ही देगी , मगर इस पर चुप्पी साधने वालों को भी कठघरे में खड़ा करेगी जो मजहब की रोटी खाते हैं।
भारत अपने हाल ही के निर्णयों से विश्व के केंद्र में आया हुआ है । इस समय भारतीय इस्लामिक विद्वानों और अकीदतमंदों को इसका फायदा उठाते हुए आईएस के औरतों पर जुल्मों के खिलाफ एकजुट हो आगे आना चाहिए।
निश्चति ही भारतीय इस्लामिक विद्वानों को इस बावत अपनी ओर से अंतर्राष्ट्रीय प्रयास करने चाहिए ताकि जुल्म करने वालों की अगली पीढ़ी हैवान बनने से बचाई जा सके। ये ज़हालत और जुल्म की इंतिहा है , इसे किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।
जहालत और जुल्म के इस दौर पर अज़हर इनायती का एक शेर है बिल्कुल सही बैठता है -
जहाँ से इल्म का हम को ग़ुरूर होता है
वहीं से होती है बस इब्तिदा जहालत की
- अलकनंदा सिंह
विश्व के अन्य देशों की बात छोड़ दें , वो तो इस हैवानियत को सिर्फ देख रहे हैं , यूएन भी उन यज़ीदी औरतों की खबरों पर अपने उपदेश झाड़ रहा है मगर कोई कुछ नहीं कर रहा। और मीडिया की तो बात क्या कही जाए...? औरतों के रोते हुए चेहरों से वे सब के सब भारी पैसा बना रहे हैं। उन औरतों के नुचे हुए शरीर के पीछे छुपी उनकी नुची हुई आत्मा को कोई न देख पा रहा है और न ही दिखा पा रहा है।
आज बस एक खबर भर है कि यौन हिंसा से जुड़े एक यूएन प्रतिनिधि की रपट के अनुसार इराक और सीरिया से अपहृत किशोरियों को आईएस आतंकी गुलामों के बाजार में सिगरेट के एक पैकेट की कीमत पर बेच रहे हैं। इस रपट को तैयार करने वाले क्या बिल्कुल वैसा ही व्यवहार नहीं कर रहे जैसे कि कोई फोटो जर्नलिस्ट जलते हुए या डूबते हुए व्यक्ति से इंटरव्यू ले रहा हो... और उस फोटो से वो नाम कमाने की जुगत लगा रहा हो...।
ये हकीकत अप्रैल में जुटाए गए आंकड़ों पर आधारित है जब यूएन के विशेष दूत जैनब बांगुरा इराक और सीरिया का दौरा कर लौटे । उन्होंने आईएस के चंगुल से जसतस छूटी किशोरियों और औरतों के मुंह से हृदयविदारक दास्तां सुनीं । लड़कियों ने बताया कि किसी भी क्षेत्र पर कब्जा करने के बाद आतंकी वहां की औरतों , लड़कियों को अपहृत कर लेते हैं फिर सरेआम उन्हें नहलाकर निर्वस्त्र या करके उनकी बोली लगाई जाती है , कभी कभी तो एक सिगरेट के पैकेट की कीमत या एक शर्त या फिर कुछ डॉलर में उन्हें बेच दिया जाता है । तुर्की लेबनान जॉर्डन के शिविरों में इनकी दुदर्शा की कहानियां अटी पड़ी हैं। फिलहाल बांगुरा इन पर रपट तैयार कर रहे हैं, मगर रपट से उन औरतों और लड़कियों के दर्द को सुना तो जा सकता है मगर तब तक कितना दर्द उनमें बह चुका होगा , इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता ।
क्या आईएस के जुल्म के मारी औरतों की ये खबरें हमारे देश के इस्लामी हुनरमंदों तक नहीं पहुंच रहीं ?
भारत के उलेमा इस बावत बोलने में तंगदिली क्यों दिखा रहे हैं ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि आईएस की मानसिकता से भारतीय इस्लामिक विद्वान भी इत्तिफाक रखते हों ?
भारतीय उलेमा आईएस की हैवानियत पर चुप्पी साध कर आखिर ज़ाहिर क्या कराना चाहते हैं ?
उनकी सोच क्या सिर्फ देश में सियासती फैसलों पर अपनी नाराजगी जताने तक सिमटकर रह गई है ?
शिया हों , सुन्नी हों, कुर्द हों, यज़ीदी हों ... कोई भी हों औरत तो औरत होती है , यौन अपराध किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता । इन अपराधों के नतीजतन जो बच्चे पैदा होंगे, आखिर उनकी मानसिकता कितनी घातक हो सकती है। जेनेटिक्स पर साइकोलॉजिकल इफेक्ट नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यहीं पर बात आ जाती है नैतिकता की, इंसानियत के पतन की, इंतिहाई जहालत की ... मगर भारतीय इस्लामिक विद्वानों की इस बावत चुप्पी ठीक नहीं है।
बात बात पर अपना विरोध जताने जो लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया का मुंह ताकते हैं , क्या वे दो शब्द भी आईएस के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं रखते ?
ये मजहब की कौन सी परिभाषा है जो शरीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाने से तो मना करती है मगर जुल्म के खिलाफ मुंह भी नहीं खोलती ?
भारत में तो योग पर भी बवेला कर देते हैं यही विद्वान... गोया कि उनके बच्चे कहीं नैतिक हो गए तो उनके चंगुल से निकल जाऐंगे ... मगर इराक में जो हो रहा है उस पर चुप्पी इसके इस्लामिक ज्ञान पर प्रश्नचिन्ह लगाती है । यूं तो आईएस की सताई औरतों की आह स्वयं आईएस को तो देर सबेर खत्म कर ही देगी , मगर इस पर चुप्पी साधने वालों को भी कठघरे में खड़ा करेगी जो मजहब की रोटी खाते हैं।
भारत अपने हाल ही के निर्णयों से विश्व के केंद्र में आया हुआ है । इस समय भारतीय इस्लामिक विद्वानों और अकीदतमंदों को इसका फायदा उठाते हुए आईएस के औरतों पर जुल्मों के खिलाफ एकजुट हो आगे आना चाहिए।
निश्चति ही भारतीय इस्लामिक विद्वानों को इस बावत अपनी ओर से अंतर्राष्ट्रीय प्रयास करने चाहिए ताकि जुल्म करने वालों की अगली पीढ़ी हैवान बनने से बचाई जा सके। ये ज़हालत और जुल्म की इंतिहा है , इसे किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।
जहालत और जुल्म के इस दौर पर अज़हर इनायती का एक शेर है बिल्कुल सही बैठता है -
जहाँ से इल्म का हम को ग़ुरूर होता है
वहीं से होती है बस इब्तिदा जहालत की
- अलकनंदा सिंह
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