असम के बोगांइगांव ज़िले के सोलमारी में एक अनोखी शादी हो रही है. अनोखी इस
मायने में कि असम की परंपरा के अनुसार यहां दुल्हन तो होती है लेकिन
दूल्हा एक केले का पौधा है. ये मौक़ा है तोलिनी ब्याह का. ये वो मौका होता
है जब बेटी बचपन की उम्र पार कर किशोरावस्था में चली जाती है. ये तब मनाया
जाता है जब पहली बार किसी लड़की को महावारी होती है. असम के सोलमारी गांव
के ओनियो रॉय के घर उसी की तैयारी चल रही है और सब की नज़र उनकी बेटी
गीतूमनी पर है जिसका नवोई तोलिनी ब्याह है.
बाहर शोर गुल है, गाना बजाना है तो 13 साल की गीतूमनी रॉय एक कमरे में ज़मीन पर चुपचाप बैठी है. तीन दिन बाद वो स्नान करेगी और कपड़े बदलेगी. उसे दुल्हन की तरह सजाया जाएगा. गीतूमनी की मां भखंत रॉय का कहना था कि ऐसा अवसर उनके जीवन में भी आया था. लेकिन पहले उत्सव के साथ-साथ पाबंदियां भी ज़्यादा थीं.
वे कहती हैं, ''मुझे पहले दिन तो केवल पानी दिया गया गया था, ज़मीन पर सुलाया गया और उन दिनों में खुद खाना पकाना पड़ता था. काफी छुआछूत होती थी, काफ़ी एहतियात बरतना पड़ता था लेकिन मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं कर सकती. वो स्कूल जाती है तो कैसे खाना पकाएगी. अगर मैं उसे हमेशा महावारी के दौरान नीचे सुलाउंगी तो उसे दुख होगा. मैं अपनी बेटी का साथ दूंगी.''
तोलिनी ब्याह की शुरुआत होती है लड़की की पहली माहवारी के पहले दिन से. उसे सूर्य की रोशनी से बचाया जाता है. महावारी के दौरान खाने के लिए फल, कच्चा दूध और पीठा दिया जाता है. वो पका हुआ खाना नहीं खा सकती. उसे ज़मीन पर सोना होता है और जब तक रस्म पूरी नहीं हो जाती, कोई पुरुष लड़की का चेहरा नहीं देख सकता.
गीतूमनी के पिता ओनियो रॉय कहते हैं, ''मैं खुश हूँ लेकिन मेरी बेटी ने तीन दिन से कुछ नहीं खाया. मैं कैसे खा सकता हूं. तीन दिन से वो इस सर्दी में ज़मीन पर सो रही है, माना नियम तो नियम होता है लेकिन दुख भी होता है. लेकिन एक तसल्ली है कि उसे महावारी हो गई. नहीं होती तो हम तनाव में आ जाते. अब मेरी बेटी बड़ी हो गई है.''
इस बीच परंपरा के मुताबिक गीतूमनी को उसकी मामी कंधे पर लादकर नहलाने ले गईं. इस रस्म के दौरान केवल महिला और लड़कियां शामिल होती हैं. इसके बाद, आंगन में गीतूमनी के सोने और चांदी के जेवर पहनाए गए, पेरौं में पायल और फिर पारंपरिक मेखला चादर पहनाई गई.
गीतूमनी का दुल्हन की तरह श्रृंगार करने के बाद उसकी मांग में सिंदूर भरा गया. उसने आंगन में केले के पत्तों पर रखी पूजा सामग्री के सामने प्रणाम किया. हालांकि दूल्हा बना केले का पेड़ यहां नहीं होता. शादी के बाद पूजा सामग्री में से तांबुल, पान का पत्ता पारंपरिक गमछे में बांधा जाता है और इसे बच्चा समझकर उत्सव में शामिल महिलाओं को खेलने के लिए दिया जाता है.
ये इस बात को दर्शाता है कि लड़की शादी के लायक है और मां बन सकती है.
गीतूमनी कक्षा आठ में पढ़ती है. वे कहती हैं, ''अच्छा लग रहा है और मैं जानती हूं कि रीति रिवाज़ के अनुसार मुझे खाना नहीं दिया जा रहा वो सब ठीक है लेकिन मैं ज़मीन पर नहीं सोउंगी.''
उधर 60 साल की पूर्णिमा सिंहो अपनी बेटी का कई साल पहले तोलिनी ब्याह कर चुकी है.
उनका कहना था, ''मेरी बेटी का तोलिनी ब्याह में 30 हज़ार रुपए का ख़र्च आया था. मैंने उसे सोने के गहने भी दिए थे. ये हमारे लिए खुशी मनाने का मौका होता है क्योंकि अगर बच्चा भाग कर शादी कर ले तो कम से कम दिल का अरमान तो अधूरा नहीं रहता.''
ये उत्सव लड़की के सयाने होने पर किया जाता है हालांकि हर इलाके के रीति रिवाज़ो में थोड़ा बहुत अंतर होता है. असम में माना जाता है कि पहले निचली जाति के लोग ही अपनी बेटी की पहली महावारी के बाद इस तरह का जश्न मनाते थे लेकिन अब देखा देखी समाज का हर वर्ग इसे मनाने लगा है.
तेजपुर यूनिवर्सिटी में कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर मंदाकिनी बरुआ पुबर्टी राइट्स पर शोध पत्र भी लिख रही हैं. वे बताती हैं, "पहले ब्राह्मण समाज में इसे छिप कर मनाया जाता था क्योंकि वहां ये रिवाज़ था कि महावारी से पहले लड़की की शादी हो जानी चाहिए लेकिन अब असमिया समाज के हर तबके में इसे मनाया जाने लगा है."
वे कहती हैं, "तोलिनी ब्याह का मसकद दरअसल समाज या लड़के वालों को ये बताना होता है कि उनकी लड़की शादी के लिए तैयार हो गई. यहां बिहू उत्सव के दौरान अगर लड़का लड़की एक दूसरे को पसंद कर लेते है तो भाग कर शादी कर लेते हैं. क्योंकि उन्हें डर रहता है कि शायद मां-पिता इससे राज़ी न हो. ऐसे में इसी ब्याह में लड़की के माता-पिता अपनी इच्छाएं पूरी करते है. साथ ही इस बात की खुशी ज़ाहिर की जाती है कि अब वो मां बन सकती है.''
मंदाकिनी बरुआ ये भी बताती हैं कि लड़की को जेवर देकर ये अहसास भी दिलाया जाता है अब वो सयानी हो गई.
उत्तर भारत में जहां अब भी इस विषय पर खुलकर बात नहीं की जाती वहीं असम, तमिलाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ इलाक़ों में लड़की की पहली महावारी को शादी की तरह मनाया जाता है.
-सुशीला सिंह
बाहर शोर गुल है, गाना बजाना है तो 13 साल की गीतूमनी रॉय एक कमरे में ज़मीन पर चुपचाप बैठी है. तीन दिन बाद वो स्नान करेगी और कपड़े बदलेगी. उसे दुल्हन की तरह सजाया जाएगा. गीतूमनी की मां भखंत रॉय का कहना था कि ऐसा अवसर उनके जीवन में भी आया था. लेकिन पहले उत्सव के साथ-साथ पाबंदियां भी ज़्यादा थीं.
वे कहती हैं, ''मुझे पहले दिन तो केवल पानी दिया गया गया था, ज़मीन पर सुलाया गया और उन दिनों में खुद खाना पकाना पड़ता था. काफी छुआछूत होती थी, काफ़ी एहतियात बरतना पड़ता था लेकिन मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं कर सकती. वो स्कूल जाती है तो कैसे खाना पकाएगी. अगर मैं उसे हमेशा महावारी के दौरान नीचे सुलाउंगी तो उसे दुख होगा. मैं अपनी बेटी का साथ दूंगी.''
तोलिनी ब्याह की शुरुआत होती है लड़की की पहली माहवारी के पहले दिन से. उसे सूर्य की रोशनी से बचाया जाता है. महावारी के दौरान खाने के लिए फल, कच्चा दूध और पीठा दिया जाता है. वो पका हुआ खाना नहीं खा सकती. उसे ज़मीन पर सोना होता है और जब तक रस्म पूरी नहीं हो जाती, कोई पुरुष लड़की का चेहरा नहीं देख सकता.
गीतूमनी के पिता ओनियो रॉय कहते हैं, ''मैं खुश हूँ लेकिन मेरी बेटी ने तीन दिन से कुछ नहीं खाया. मैं कैसे खा सकता हूं. तीन दिन से वो इस सर्दी में ज़मीन पर सो रही है, माना नियम तो नियम होता है लेकिन दुख भी होता है. लेकिन एक तसल्ली है कि उसे महावारी हो गई. नहीं होती तो हम तनाव में आ जाते. अब मेरी बेटी बड़ी हो गई है.''
इस बीच परंपरा के मुताबिक गीतूमनी को उसकी मामी कंधे पर लादकर नहलाने ले गईं. इस रस्म के दौरान केवल महिला और लड़कियां शामिल होती हैं. इसके बाद, आंगन में गीतूमनी के सोने और चांदी के जेवर पहनाए गए, पेरौं में पायल और फिर पारंपरिक मेखला चादर पहनाई गई.
गीतूमनी का दुल्हन की तरह श्रृंगार करने के बाद उसकी मांग में सिंदूर भरा गया. उसने आंगन में केले के पत्तों पर रखी पूजा सामग्री के सामने प्रणाम किया. हालांकि दूल्हा बना केले का पेड़ यहां नहीं होता. शादी के बाद पूजा सामग्री में से तांबुल, पान का पत्ता पारंपरिक गमछे में बांधा जाता है और इसे बच्चा समझकर उत्सव में शामिल महिलाओं को खेलने के लिए दिया जाता है.
ये इस बात को दर्शाता है कि लड़की शादी के लायक है और मां बन सकती है.
गीतूमनी कक्षा आठ में पढ़ती है. वे कहती हैं, ''अच्छा लग रहा है और मैं जानती हूं कि रीति रिवाज़ के अनुसार मुझे खाना नहीं दिया जा रहा वो सब ठीक है लेकिन मैं ज़मीन पर नहीं सोउंगी.''
उधर 60 साल की पूर्णिमा सिंहो अपनी बेटी का कई साल पहले तोलिनी ब्याह कर चुकी है.
उनका कहना था, ''मेरी बेटी का तोलिनी ब्याह में 30 हज़ार रुपए का ख़र्च आया था. मैंने उसे सोने के गहने भी दिए थे. ये हमारे लिए खुशी मनाने का मौका होता है क्योंकि अगर बच्चा भाग कर शादी कर ले तो कम से कम दिल का अरमान तो अधूरा नहीं रहता.''
ये उत्सव लड़की के सयाने होने पर किया जाता है हालांकि हर इलाके के रीति रिवाज़ो में थोड़ा बहुत अंतर होता है. असम में माना जाता है कि पहले निचली जाति के लोग ही अपनी बेटी की पहली महावारी के बाद इस तरह का जश्न मनाते थे लेकिन अब देखा देखी समाज का हर वर्ग इसे मनाने लगा है.
तेजपुर यूनिवर्सिटी में कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर मंदाकिनी बरुआ पुबर्टी राइट्स पर शोध पत्र भी लिख रही हैं. वे बताती हैं, "पहले ब्राह्मण समाज में इसे छिप कर मनाया जाता था क्योंकि वहां ये रिवाज़ था कि महावारी से पहले लड़की की शादी हो जानी चाहिए लेकिन अब असमिया समाज के हर तबके में इसे मनाया जाने लगा है."
वे कहती हैं, "तोलिनी ब्याह का मसकद दरअसल समाज या लड़के वालों को ये बताना होता है कि उनकी लड़की शादी के लिए तैयार हो गई. यहां बिहू उत्सव के दौरान अगर लड़का लड़की एक दूसरे को पसंद कर लेते है तो भाग कर शादी कर लेते हैं. क्योंकि उन्हें डर रहता है कि शायद मां-पिता इससे राज़ी न हो. ऐसे में इसी ब्याह में लड़की के माता-पिता अपनी इच्छाएं पूरी करते है. साथ ही इस बात की खुशी ज़ाहिर की जाती है कि अब वो मां बन सकती है.''
मंदाकिनी बरुआ ये भी बताती हैं कि लड़की को जेवर देकर ये अहसास भी दिलाया जाता है अब वो सयानी हो गई.
उत्तर भारत में जहां अब भी इस विषय पर खुलकर बात नहीं की जाती वहीं असम, तमिलाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ इलाक़ों में लड़की की पहली महावारी को शादी की तरह मनाया जाता है.
-सुशीला सिंह
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