मुंबई में एनसीपीए थिएटर फ़ेस्टिवल सेंटरस्टेज में बीते 6 दिसंबर की शाम
व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के नाम रही. मनोज शाह निर्देशित नाटक ‘पॉपकॉर्न
विद परसाई’ ने हरिशंकर परसाई को ही जैसे मंच पर ला खड़ा कर दिया.
पॉपकॉर्न की चर्चा कुछ इस तरह चली कि दर्शकों ने नाटक के ज़रिए साहित्य ही नहीं, बल्कि साहित्यकार को भी जाना. चरित्र अभिनेता दया शंकर पांडे ने नाटक में लीड किरदार बख़ूबी निभाया.
नाटक का संगीत, मंच सज्जा, रघुवीर यादव की आवाज़ में मक्के का गीत और परसाई का व्यंग्य इस शाम की पहचान बना.
कटाक्ष
एक घंटे से भी ज़्यादा समय चले इस अवधी नाटक में परसाई का पात्र निभाते दया शंकर पांडे तत्कालीन साहित्यकारों पर कटाक्ष करते हैं तो फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध के पीछे का अंधेरा भी परसाई की अदा में दर्शकों को बताया जाता है.
पिछले कुछ समय से सोलो एक्ट वाले नाटकों का चलन कुछ बढ़ा है.
मनोज शाह इस प्रकार के नाटक पहले भी दर्शकों के सामने रख चुके हैं जहां एक ही अभिनेता पात्र बन अपनी कहानी बताता है.
गुजराती भाषा के लेखक चंद्रकांत बक्शी के पात्र में अभिनेता प्रतीक गांधी को ले कर बनाया गया नाटक ‘हुं चंद्रकांत बक्शी’, कार्ल मार्क्स की कथनी उन्हीं की ज़बानी बताता, सतचित पुराणिक की केंद्रीय भूमिका वाला नाटक ‘कार्ल मार्क्स इन कालबादेवी’ ऐसे ही कुछ प्रयोगो में से एक है.
लोकप्रियता की वजह
ऐसे नाटकों की सफलता के पीछे कई कारण हैं.
जब एक ही अभिनेता पूरे नाटक का भार अपने कंधो पर ले कर चलता है तब वह नाटक में अपनी तरफ़ से पूरी ज़िम्मेदारी निभाते हुए भी एक अलग ही प्रकार की स्वतंत्रता से मंच का इस्तेमाल करता है.
हालांकि निर्देशक की सूचना तो अभिनेता को मन में रखनी ही होती है फिर भी वह पात्र को आत्मसात करने के बाद अपनी समझ को अभिनय में ढाल सकता है.
मुश्किल है ये कला
एक घंटे से ज़्यादा समय तक दर्शकों को अभिनय और वाणी प्रवाह से पकड़े रखना बहुत बड़ी चुनौती है.
इस के साथ ही ढेर सारी लाइनें याद रखना, जिस किरदार को निभाना है उसके इतने क़रीब होना कि दर्शक मानने लगे कि अभिनेता और वह पात्र जैसे एक ही है.
मुंबई की रंगभूमि सोलो एक्ट जैसे कुछ प्रोडक्शन्स दर्शकों के समक्ष सफलतापूर्वक रख चुकी है.
हालांकि ये चलन कितना दीर्घकालीन होता है ये देखना बाक़ी है.
-चिरंतना भट्ट
पॉपकॉर्न की चर्चा कुछ इस तरह चली कि दर्शकों ने नाटक के ज़रिए साहित्य ही नहीं, बल्कि साहित्यकार को भी जाना. चरित्र अभिनेता दया शंकर पांडे ने नाटक में लीड किरदार बख़ूबी निभाया.
नाटक का संगीत, मंच सज्जा, रघुवीर यादव की आवाज़ में मक्के का गीत और परसाई का व्यंग्य इस शाम की पहचान बना.
कटाक्ष
एक घंटे से भी ज़्यादा समय चले इस अवधी नाटक में परसाई का पात्र निभाते दया शंकर पांडे तत्कालीन साहित्यकारों पर कटाक्ष करते हैं तो फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध के पीछे का अंधेरा भी परसाई की अदा में दर्शकों को बताया जाता है.
पिछले कुछ समय से सोलो एक्ट वाले नाटकों का चलन कुछ बढ़ा है.
मनोज शाह इस प्रकार के नाटक पहले भी दर्शकों के सामने रख चुके हैं जहां एक ही अभिनेता पात्र बन अपनी कहानी बताता है.
गुजराती भाषा के लेखक चंद्रकांत बक्शी के पात्र में अभिनेता प्रतीक गांधी को ले कर बनाया गया नाटक ‘हुं चंद्रकांत बक्शी’, कार्ल मार्क्स की कथनी उन्हीं की ज़बानी बताता, सतचित पुराणिक की केंद्रीय भूमिका वाला नाटक ‘कार्ल मार्क्स इन कालबादेवी’ ऐसे ही कुछ प्रयोगो में से एक है.
लोकप्रियता की वजह
ऐसे नाटकों की सफलता के पीछे कई कारण हैं.
जब एक ही अभिनेता पूरे नाटक का भार अपने कंधो पर ले कर चलता है तब वह नाटक में अपनी तरफ़ से पूरी ज़िम्मेदारी निभाते हुए भी एक अलग ही प्रकार की स्वतंत्रता से मंच का इस्तेमाल करता है.
हालांकि निर्देशक की सूचना तो अभिनेता को मन में रखनी ही होती है फिर भी वह पात्र को आत्मसात करने के बाद अपनी समझ को अभिनय में ढाल सकता है.
मुश्किल है ये कला
एक घंटे से ज़्यादा समय तक दर्शकों को अभिनय और वाणी प्रवाह से पकड़े रखना बहुत बड़ी चुनौती है.
इस के साथ ही ढेर सारी लाइनें याद रखना, जिस किरदार को निभाना है उसके इतने क़रीब होना कि दर्शक मानने लगे कि अभिनेता और वह पात्र जैसे एक ही है.
मुंबई की रंगभूमि सोलो एक्ट जैसे कुछ प्रोडक्शन्स दर्शकों के समक्ष सफलतापूर्वक रख चुकी है.
हालांकि ये चलन कितना दीर्घकालीन होता है ये देखना बाक़ी है.
-चिरंतना भट्ट
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