'अबे सुन...' और 'सुनिए...' में कितना फर्क है ..क्या आप बता सकते हैं ?
दोनों शब्दों को सुनकर बारी-बारी से जो पहली प्रतिक्रिया मस्तिष्क देता है...वह कितनी भिन्न होती है... क्या ये बता सकते हैं ?
जरूर बता सकते हैं, दोनों शब्द पुकारने के सिर्फ लहजे पर ही टिके हुए हैं, बस इतना ही ना । ठीक ऐसा ही फर्क है 'टीचर्स डे' और 'गुरू उत्सव' में...।
जी हां! पुकारने का लहजा...जिसमें टीचर्स कहने पर मन तरंगित नहीं होता, न ही श्रद्धा पैदा होती है परंतु यदि किसी को गुरू कहा जाये तो अनायास ही हम उस व्यक्ति के समक्ष श्रद्धावनत हो जाते हैं, वह व्यक्ति हमारे सामने हो तो हाथ उसके पांवों की ओर खुद-ब-खुद बढ़ जाते हैं जबकि टीचर्स कहने से मन में ऐसी किसी भावना का जन्म नहीं होता। यह सब संस्कारों का खेल है जो हमारे जीवन में तमाम विकृत उठापटकों के बावजूद अभी भी मन के किसी कोने में चुपके से बहते हैं।
आज सुबह से मन बेचैन था उन बयानबाजियों को पढ़-सुनकर जो कि राजनैतिक ही नहीं बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी मेरे सामने एक-एक करके 'ओढ़ी हुई प्रगति' के दृश्यों को नमूदार कर रही थीं, कि किस तरह से केंद्र सरकार द्वारा शिक्षक दिवस के उपलक्ष में स्कूली छात्रों को गुरू उत्सव संबंधी निबंध लिखने की बात करने पर कोहराम मचाया जा रहा है ।
विपक्षी पार्टियों और कथित सेक्युलरवादियों द्वारा इतना हो हल्ला मचाया गया कि अंतत: मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को कहना ही पड़ा कि मंत्रालय द्वारा सम्मानित करने के लिए कराई जा रही निबंध प्रतियोगिता पर इतनी आपत्ति जताने वालों की सोच सचमुच रहम के लायक है, और कुछ नहीं क्योंकि गुरू उत्सव एक निबंध प्रतियोगिता है और इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज़ सभी भाषाओं में आयोजित करवाया गया है। यह शिक्षकों के योगदान का उत्सव है ।
निश्चित ही इसका विरोध करने वाले नहीं चाहते कि नई पीढ़ी को दिशा दिखाने वाले शिक्षकों को सम्मानित किया जाये और इतना ही नहीं सम्मान देने वाले बच्चों में अपने शब्दों से उन्हें सम्मानित करने की होड़ लगे ।
इन कथित समाजवादियों की सोच का ही परिणाम है कि हमारी समृद्ध परंपराओं में से एक गुरू-शिष्य परंपरा को मात्र शिक्षक और विद्यार्थी के दायरे में समेट दिया गया है। जहां शिक्षा देने वाला एक दुकानदार की भूमिका में आता गया और विद्यार्थी एक उपभोक्ता बनकर उनका शिकार बनता रहा।
नतीजा हम सबके सामने है कि ना विद्यार्थी शिक्षकों का सम्मान कर पाते हैं और ना ही शिक्षक उन्हें अपना ज्ञान दे पाते हैं, अव्वल तो चल चला कर सारी बात हताशा से उपजे एक जर्जर से बयान पर आकर टिक जाती है कि ''क्या करें...हमारे जमाने में गुरू जी के सामने गर्दन नहीं उठा पाते थे, मगर अब देखो बच्चे उन्हें सम्मान ही नहीं देते फिर पैर छूना तो दूर...चाहे जहां, चाहे जैसे मिसबिहेव कर देते हैं...छात्रों और शिक्षकों में मारकुटाई तो इतना आम हो गया है कि पूछो मत...ज़रा सा कुछ कहो तो सौ सौ आफतें ...कभी छात्रों के हमले तो कभी अभिभावकों के जोर-जंग आदि आदि ।'' ये रोतलू-टाइप शिकायत हर उस व्यक्ति से सुनने को मिल जायेगी जो उम्र के चौथे या पांचवें दशक में चल रहा होगा, जिसने शिक्षा का उदारीकरण भी भलीभंति देखा होगा और उसके सामाजिक दुष्परिणाम भी ।
हालांकि इस उदारीकरण में कौन उदार हुआ और कौन निष्ठुर, किसने कितना पाया और किसने कितना खोया या संस्कारों की बलि देकर हमने ग्लोबलाइजेशन की जो चकाचौंध हासिल की, वह कितनी अपनी है और कितनी पराई ...आदि । यह बहस बहुत लंबी खिंचेगी इसलिए आज इस पर इतना ही। बात सिर्फ उस लहजे की है जो एक शब्द के उच्चारण मात्र से नई पीढ़ी की दशा व दिशा तय कर सकती है ।
शिक्षक दिवस को टीचर्स डे कहा जाये या इसे गुरू उत्सव बताकर इस पर निबंध की प्रतियोगिता आयोजित की जाये, इसे स्कूलों में किस तरह मनाया जाये, या इसे प्रधानमंत्री संबोधित करें तो वे कैसे करें...बच्चे प्रधानमंत्री के भाषण से कितने प्रभावित होंगे ...आदि खोखली बातें इस बारे में सोचने पर विवश कर सकती है कि केंद्र सरकार भले ही भाजपा की हो या भले ही उस पर संघ की सोच का ठप्पा लगा हो मगर हम सब इस बात से तो सहमत ही होंगे कि बीते दशकों में ना केवल शिक्षा का स्तर गिरा है बल्कि संस्कारों की भी बलि चढ़ गई और ये बलि कुछ इस तरह चढ़ी कि गुरू को गुरू मानना तो बहुत दूर की बात, किसी शिक्षक पर किसी छात्र या छात्रा को भरोसा नहीं रह गया, कोई शिक्षक अब छात्र को अपने बच्चे की तरह देखने को तैयार नहीं। इस राजनीति से क्षति तो दोनों की हुई ना, इस टूटते भरोसे के बारे में सेक्युलरवादी क्या संघ या भाजपा को ही दोषी ठहरायेंगे ।
हद तो तब हो गई जब सुना कि अभिषेक मनु सिंघवी कह रहे हैं कि यह मासूम बच्चों के दिमाग को प्रभावित करने के लिए सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का सीधा उदाहरण है। तो सिंघवी से यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या महिला वकील को जज बनवाने का लालच देकर उसके साथ अंतरंग होने में क्या सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नहीं था । कम से कम सिंघवी जैसे लोग तो अपना मुंह ना ही खोलें तो अच्छा। नैतिकता या शुचिता की बातें उन्हीं के मुंह से अच्छी लगती हैं जो स्वयं भी नैतिक दृष्टि रखता हो।
बहरहाल, किसी को सम्मान देकर यदि हम अपने बच्चों के लिए भरोसा कमा पायें तो इस शिक्षक दिवस पर यह बहुत बड़ी कमाई होगी।
अपने लिए ना सही अपनी पीढि़यों के लिए कुछ तो वृहद सोच अपनानी ही होगी और राजनीति व कथित बौद्धिक विवेचनाओं से अलग होकर बच्चों को शिक्षित ही नहीं संस्कारवान कैसे बनाया जाये, यह भी विचारना होगा ताकि वे स्वयं देश के बेहतर नागरिक बन सकें, तो क्यों ना हम अपने बच्चों के भविष्य के लिए अपनी सोच को भी थोड़ा संस्कारों की ओर ना मोड़ें । लीक से हटकर फिर से सोचें कि पिछले दशकों में जो गंवा चुके हैं, उसे वापस कैसे लाया जाये । बात सिर्फ लहजे की ही तो है...'अबे सुन...' की जगह 'सुनिए...' को अपनाकर तो देखिए ।
- अलकनंदा सिंह
दोनों शब्दों को सुनकर बारी-बारी से जो पहली प्रतिक्रिया मस्तिष्क देता है...वह कितनी भिन्न होती है... क्या ये बता सकते हैं ?
जरूर बता सकते हैं, दोनों शब्द पुकारने के सिर्फ लहजे पर ही टिके हुए हैं, बस इतना ही ना । ठीक ऐसा ही फर्क है 'टीचर्स डे' और 'गुरू उत्सव' में...।
जी हां! पुकारने का लहजा...जिसमें टीचर्स कहने पर मन तरंगित नहीं होता, न ही श्रद्धा पैदा होती है परंतु यदि किसी को गुरू कहा जाये तो अनायास ही हम उस व्यक्ति के समक्ष श्रद्धावनत हो जाते हैं, वह व्यक्ति हमारे सामने हो तो हाथ उसके पांवों की ओर खुद-ब-खुद बढ़ जाते हैं जबकि टीचर्स कहने से मन में ऐसी किसी भावना का जन्म नहीं होता। यह सब संस्कारों का खेल है जो हमारे जीवन में तमाम विकृत उठापटकों के बावजूद अभी भी मन के किसी कोने में चुपके से बहते हैं।
आज सुबह से मन बेचैन था उन बयानबाजियों को पढ़-सुनकर जो कि राजनैतिक ही नहीं बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी मेरे सामने एक-एक करके 'ओढ़ी हुई प्रगति' के दृश्यों को नमूदार कर रही थीं, कि किस तरह से केंद्र सरकार द्वारा शिक्षक दिवस के उपलक्ष में स्कूली छात्रों को गुरू उत्सव संबंधी निबंध लिखने की बात करने पर कोहराम मचाया जा रहा है ।
विपक्षी पार्टियों और कथित सेक्युलरवादियों द्वारा इतना हो हल्ला मचाया गया कि अंतत: मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को कहना ही पड़ा कि मंत्रालय द्वारा सम्मानित करने के लिए कराई जा रही निबंध प्रतियोगिता पर इतनी आपत्ति जताने वालों की सोच सचमुच रहम के लायक है, और कुछ नहीं क्योंकि गुरू उत्सव एक निबंध प्रतियोगिता है और इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज़ सभी भाषाओं में आयोजित करवाया गया है। यह शिक्षकों के योगदान का उत्सव है ।
निश्चित ही इसका विरोध करने वाले नहीं चाहते कि नई पीढ़ी को दिशा दिखाने वाले शिक्षकों को सम्मानित किया जाये और इतना ही नहीं सम्मान देने वाले बच्चों में अपने शब्दों से उन्हें सम्मानित करने की होड़ लगे ।
इन कथित समाजवादियों की सोच का ही परिणाम है कि हमारी समृद्ध परंपराओं में से एक गुरू-शिष्य परंपरा को मात्र शिक्षक और विद्यार्थी के दायरे में समेट दिया गया है। जहां शिक्षा देने वाला एक दुकानदार की भूमिका में आता गया और विद्यार्थी एक उपभोक्ता बनकर उनका शिकार बनता रहा।
नतीजा हम सबके सामने है कि ना विद्यार्थी शिक्षकों का सम्मान कर पाते हैं और ना ही शिक्षक उन्हें अपना ज्ञान दे पाते हैं, अव्वल तो चल चला कर सारी बात हताशा से उपजे एक जर्जर से बयान पर आकर टिक जाती है कि ''क्या करें...हमारे जमाने में गुरू जी के सामने गर्दन नहीं उठा पाते थे, मगर अब देखो बच्चे उन्हें सम्मान ही नहीं देते फिर पैर छूना तो दूर...चाहे जहां, चाहे जैसे मिसबिहेव कर देते हैं...छात्रों और शिक्षकों में मारकुटाई तो इतना आम हो गया है कि पूछो मत...ज़रा सा कुछ कहो तो सौ सौ आफतें ...कभी छात्रों के हमले तो कभी अभिभावकों के जोर-जंग आदि आदि ।'' ये रोतलू-टाइप शिकायत हर उस व्यक्ति से सुनने को मिल जायेगी जो उम्र के चौथे या पांचवें दशक में चल रहा होगा, जिसने शिक्षा का उदारीकरण भी भलीभंति देखा होगा और उसके सामाजिक दुष्परिणाम भी ।
हालांकि इस उदारीकरण में कौन उदार हुआ और कौन निष्ठुर, किसने कितना पाया और किसने कितना खोया या संस्कारों की बलि देकर हमने ग्लोबलाइजेशन की जो चकाचौंध हासिल की, वह कितनी अपनी है और कितनी पराई ...आदि । यह बहस बहुत लंबी खिंचेगी इसलिए आज इस पर इतना ही। बात सिर्फ उस लहजे की है जो एक शब्द के उच्चारण मात्र से नई पीढ़ी की दशा व दिशा तय कर सकती है ।
शिक्षक दिवस को टीचर्स डे कहा जाये या इसे गुरू उत्सव बताकर इस पर निबंध की प्रतियोगिता आयोजित की जाये, इसे स्कूलों में किस तरह मनाया जाये, या इसे प्रधानमंत्री संबोधित करें तो वे कैसे करें...बच्चे प्रधानमंत्री के भाषण से कितने प्रभावित होंगे ...आदि खोखली बातें इस बारे में सोचने पर विवश कर सकती है कि केंद्र सरकार भले ही भाजपा की हो या भले ही उस पर संघ की सोच का ठप्पा लगा हो मगर हम सब इस बात से तो सहमत ही होंगे कि बीते दशकों में ना केवल शिक्षा का स्तर गिरा है बल्कि संस्कारों की भी बलि चढ़ गई और ये बलि कुछ इस तरह चढ़ी कि गुरू को गुरू मानना तो बहुत दूर की बात, किसी शिक्षक पर किसी छात्र या छात्रा को भरोसा नहीं रह गया, कोई शिक्षक अब छात्र को अपने बच्चे की तरह देखने को तैयार नहीं। इस राजनीति से क्षति तो दोनों की हुई ना, इस टूटते भरोसे के बारे में सेक्युलरवादी क्या संघ या भाजपा को ही दोषी ठहरायेंगे ।
हद तो तब हो गई जब सुना कि अभिषेक मनु सिंघवी कह रहे हैं कि यह मासूम बच्चों के दिमाग को प्रभावित करने के लिए सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का सीधा उदाहरण है। तो सिंघवी से यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या महिला वकील को जज बनवाने का लालच देकर उसके साथ अंतरंग होने में क्या सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नहीं था । कम से कम सिंघवी जैसे लोग तो अपना मुंह ना ही खोलें तो अच्छा। नैतिकता या शुचिता की बातें उन्हीं के मुंह से अच्छी लगती हैं जो स्वयं भी नैतिक दृष्टि रखता हो।
बहरहाल, किसी को सम्मान देकर यदि हम अपने बच्चों के लिए भरोसा कमा पायें तो इस शिक्षक दिवस पर यह बहुत बड़ी कमाई होगी।
अपने लिए ना सही अपनी पीढि़यों के लिए कुछ तो वृहद सोच अपनानी ही होगी और राजनीति व कथित बौद्धिक विवेचनाओं से अलग होकर बच्चों को शिक्षित ही नहीं संस्कारवान कैसे बनाया जाये, यह भी विचारना होगा ताकि वे स्वयं देश के बेहतर नागरिक बन सकें, तो क्यों ना हम अपने बच्चों के भविष्य के लिए अपनी सोच को भी थोड़ा संस्कारों की ओर ना मोड़ें । लीक से हटकर फिर से सोचें कि पिछले दशकों में जो गंवा चुके हैं, उसे वापस कैसे लाया जाये । बात सिर्फ लहजे की ही तो है...'अबे सुन...' की जगह 'सुनिए...' को अपनाकर तो देखिए ।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें