राधाष्टमी पर
ओशो द्वारा कृष्ण पर दिए गए प्रवचन को लेकर कभी अमृता प्रीतम ने लिखा था-
'' जिस तरह कृष्ण की बाँसुरी को भीतर से सुनना है, ठीक उसी तरह ‘भारत—एक सनातन यात्रा’ को पढ़ते-सुनते, इस यात्रा पर चल देना है। और कह सकती हूँ कि अगर कोई तलब कदमों में उतरेगी, और कदम इस राह पर चल देंगे, तब वक्त आएगा कि यह राह सहज होकर कदमों के साथ चलने लगेगी, और फिर ‘यात्रा’ शब्द अपने अर्थ को पा लेगा !''
यात्रा... , जी हां । एक ऐसा अनवरत सिलसिला जिसे किसी ठांव या मकसद की हमेशा जरूरत होती है । जिसे हर हाल में मंज़िल की तलाश होती और मंज़िल को पाना ही लक्ष्य। यूं तो यात्रा का अर्थ बहुत गहरा है मगर जब यह यात्रा एक धारा बनकर बहती है तो अनायास ही वह अपने उद्गम की ओर आने को उत्सुक रहती है । यही उत्सुकता धारा को राधा बना देती है।
राधा कोई एक किसी ग्वाले कृष्ण की एक सुन्दर सी प्रेयसी का नाम नहीं, ना ही वो केवल वृषभान की दुलारी कन्या है बल्कि वह तो अनवरत हर कृष्ण अर्थात् ईश्वर के प्रत्येक अंश-अंश से मिलने को आतुर रहने वाली हर उस आध्यात्मिक शक्ति के रूप में बहने वाली धारा का नाम है जो भौतिकता के नश्वरवाद से आध्यात्मिक चेतना की ओर बहती है, उसमें एकात्म हो जाने को... बस यहीं से शुरू होती है किसी के भी राधा हो जाने की यात्रा ।
इसी 'राधा होते जाने की प्रक्रिया' को ओशो अपने प्रवचनों में कुछ यूं सुनाते हैं—‘‘पुराने शास्त्रों में राधा का कोई जिक्र नहीं । वहां गोपियाँ हैं, सखियाँ हैं, कृष्ण बाँसुरी बजाते हैं और रास की लीला होती है। राधा का नाम पुराने शास्त्रों में नहीं है। बस इतना सा जिक्र है, कि सारी सखियों में कोई एक थीं, जो छाया की तरह साथ रहती थीं। यह तो महज सात सौ वर्ष पहले 'राधा' नाम प्रकट हुआ । उस नाम के गीत गाए जाने लगे, राधा और कृष्ण को व्यक्ति के रूप में प्रस्थापित किया गया । इस नाम की खोज में बहुत बड़ा गणित छिपा है । राधा शब्द बनता है धारा शब्द को उलटा कर देने से।
‘‘गंगोत्री से गंगा की धारा निकलती है। स्रोत से दूर जाने वाली अवस्था का नाम धारा है। और धारा शब्द को उलटा देने से राधा हुआ, जिसा अर्थ है—स्रोत की तरफ लौट जाना। गंगा वापिस लौटती है गंगोत्री की तरफ। बहिर्मुखता, अंतर्मुखता बनती है।’’
ओशो जिस यात्रा की बात करते हैं—वह अपने अंतर में लौट जाने की बात करते हैं। एक यात्रा धारामय होने की होती है, और एक यात्रा राधामय होने की....।
यूं तो विद्वानों ने राधा शब्द और राधा के अस्तित्व तथा राधा की ब्रज व कृष्ण के जीवन में उपस्थिति को लेकर अपने नज़रिये से आध्यत्मिक विश्लेषण तो किया ही है, मगर लोकजीवन में आध्यत्म को सहजता से पिरो पाना काफी मुश्किल होता है ।
दर्शन यूं भी भक्ति जैसी तरलता और सरलता नहीं पा सकता इसीलिए राधा भले ही ईश्वर की आध्यात्मिक चेतना में धारा की भांति बहती हों मगर आज भी उनके भौतिक- लौकिक स्वरूप पर कोई बहस नहीं की जा सकती।
ज्ञान हमेशा से ही भक्ति से ऊपर का पायदान रहा है, इसीलिए जो सबसे पहला पायदान है भक्ति का, वह आमजन के बेहद करीब रहता है और राधा को आध्यात्मिक शक्ति से ज्यादा कृष्ण की प्रेयसी मान और उनकी अंतरसखी मान उन्हें किसी भी एक सखी में प्रस्थापित कर उन्हें अपना सा जानता है। ये भी तो ईश्वर की ओर जाने की धारा ही है, बस रास्ता थोड़ा लौकिक है, सरल है...।
ब्रज में समाई हुई राधा ... कृष्ण के नाम से पहले लगाया हुआ मात्र एक नामभर नहीं हैं और ना ही राधा मात्र एक प्रेम स्तम्भ हैं जिनकी कल्पना किसी कदम्ब के नीचे कृष्ण के संग की जाती है। भक्ति के रास्ते ही सही राधा फिर भी कृष्ण के ही साथ जुड़ा हुआ एक आध्यात्मिक पृष्ठ है, जहाँ द्वैत अद्वैत का मिलन है। राधा एक सम्पूर्ण काल का उद्गम है जो कृष्ण रुपी समुद्र से मिलती है ।
समाज में प्रेम को स्थापित करने के लिए इसे ईश्वर से जोड़कर देखा गया और समाज को वैमनस्यता से प्रेम की ओर ले जाने का सहज उपाय समझा गया इसीलिए श्रीकृष्ण के जीवन में राधा प्रेम की मूर्ति बनकर आईं। हो सकता है कि राधा का कृष्ण से ये संबंध शास्त्रों में ना हो मगर लोकजीवन में प्रेम को पिरोने का सहज उपाय बन गया। और इस तरह जिस प्रेम को कोई नाप नहीं सका, उसकी आधारशिला राधा ने ही रखी थी।
राधा की लौकिक कथायें बताती हैं कि प्रेम कभी भी शरीर की अवधारणा में नहीं सिमट सकता ... प्रेम वह अनुभूति है जिसमें साथ का एहसास निरंतर होता है। न उम्र... न जाति... न ऊंच नीच ... प्रेम हर बन्धनों से परे एक आत्मशक्ति है , जहाँ सबकुछ हो सकता है ।
यदि हम कृष्ण और राधा को हर जगह आत्मिक रूप से उपस्थित पाते हैं तो आत्मिक प्यार की ऊंचाई और गहराई को समझना होगा। कृष्ण इसीलिए हमारे इतने करीब हैं कि उन्हें सिर्फ ईश्वर ही नहीं बना दिया, उन्हें लड्डूगोपाल के रूप में लाड़ भी लड़ाया है तो वहीं राधा के संग झूला भी झुलाया है और रास भी रचाया है।
जब कृष्ण जननायक हैं तो भला राधा हममें से ही एक क्यों न मान ली जायें...जो सारे आध्यात्मिक तर्कों से परे हों, फिर चाहे वो आत्मा की गंगोत्री से धारा बनकर वापस कृष्ण में समाने को राधा बनें और अपनी यात्रा का पड़ाव पा लें या फिर बरसाने वाली राधाप्यारी...संदेश तो एक ही है ना दोनों का कि प्रेम में इतना रम जाया जाये कि ईश्वर तक पहुंचने को यात्रा कोई भी हो उसकी हर धारा राधा बन जाये, एकात्म हो जाये...।
- अलकनंदा सिंह
ओशो द्वारा कृष्ण पर दिए गए प्रवचन को लेकर कभी अमृता प्रीतम ने लिखा था-
'' जिस तरह कृष्ण की बाँसुरी को भीतर से सुनना है, ठीक उसी तरह ‘भारत—एक सनातन यात्रा’ को पढ़ते-सुनते, इस यात्रा पर चल देना है। और कह सकती हूँ कि अगर कोई तलब कदमों में उतरेगी, और कदम इस राह पर चल देंगे, तब वक्त आएगा कि यह राह सहज होकर कदमों के साथ चलने लगेगी, और फिर ‘यात्रा’ शब्द अपने अर्थ को पा लेगा !''
यात्रा... , जी हां । एक ऐसा अनवरत सिलसिला जिसे किसी ठांव या मकसद की हमेशा जरूरत होती है । जिसे हर हाल में मंज़िल की तलाश होती और मंज़िल को पाना ही लक्ष्य। यूं तो यात्रा का अर्थ बहुत गहरा है मगर जब यह यात्रा एक धारा बनकर बहती है तो अनायास ही वह अपने उद्गम की ओर आने को उत्सुक रहती है । यही उत्सुकता धारा को राधा बना देती है।
राधा कोई एक किसी ग्वाले कृष्ण की एक सुन्दर सी प्रेयसी का नाम नहीं, ना ही वो केवल वृषभान की दुलारी कन्या है बल्कि वह तो अनवरत हर कृष्ण अर्थात् ईश्वर के प्रत्येक अंश-अंश से मिलने को आतुर रहने वाली हर उस आध्यात्मिक शक्ति के रूप में बहने वाली धारा का नाम है जो भौतिकता के नश्वरवाद से आध्यात्मिक चेतना की ओर बहती है, उसमें एकात्म हो जाने को... बस यहीं से शुरू होती है किसी के भी राधा हो जाने की यात्रा ।
इसी 'राधा होते जाने की प्रक्रिया' को ओशो अपने प्रवचनों में कुछ यूं सुनाते हैं—‘‘पुराने शास्त्रों में राधा का कोई जिक्र नहीं । वहां गोपियाँ हैं, सखियाँ हैं, कृष्ण बाँसुरी बजाते हैं और रास की लीला होती है। राधा का नाम पुराने शास्त्रों में नहीं है। बस इतना सा जिक्र है, कि सारी सखियों में कोई एक थीं, जो छाया की तरह साथ रहती थीं। यह तो महज सात सौ वर्ष पहले 'राधा' नाम प्रकट हुआ । उस नाम के गीत गाए जाने लगे, राधा और कृष्ण को व्यक्ति के रूप में प्रस्थापित किया गया । इस नाम की खोज में बहुत बड़ा गणित छिपा है । राधा शब्द बनता है धारा शब्द को उलटा कर देने से।
‘‘गंगोत्री से गंगा की धारा निकलती है। स्रोत से दूर जाने वाली अवस्था का नाम धारा है। और धारा शब्द को उलटा देने से राधा हुआ, जिसा अर्थ है—स्रोत की तरफ लौट जाना। गंगा वापिस लौटती है गंगोत्री की तरफ। बहिर्मुखता, अंतर्मुखता बनती है।’’
ओशो जिस यात्रा की बात करते हैं—वह अपने अंतर में लौट जाने की बात करते हैं। एक यात्रा धारामय होने की होती है, और एक यात्रा राधामय होने की....।
यूं तो विद्वानों ने राधा शब्द और राधा के अस्तित्व तथा राधा की ब्रज व कृष्ण के जीवन में उपस्थिति को लेकर अपने नज़रिये से आध्यत्मिक विश्लेषण तो किया ही है, मगर लोकजीवन में आध्यत्म को सहजता से पिरो पाना काफी मुश्किल होता है ।
दर्शन यूं भी भक्ति जैसी तरलता और सरलता नहीं पा सकता इसीलिए राधा भले ही ईश्वर की आध्यात्मिक चेतना में धारा की भांति बहती हों मगर आज भी उनके भौतिक- लौकिक स्वरूप पर कोई बहस नहीं की जा सकती।
ज्ञान हमेशा से ही भक्ति से ऊपर का पायदान रहा है, इसीलिए जो सबसे पहला पायदान है भक्ति का, वह आमजन के बेहद करीब रहता है और राधा को आध्यात्मिक शक्ति से ज्यादा कृष्ण की प्रेयसी मान और उनकी अंतरसखी मान उन्हें किसी भी एक सखी में प्रस्थापित कर उन्हें अपना सा जानता है। ये भी तो ईश्वर की ओर जाने की धारा ही है, बस रास्ता थोड़ा लौकिक है, सरल है...।
ब्रज में समाई हुई राधा ... कृष्ण के नाम से पहले लगाया हुआ मात्र एक नामभर नहीं हैं और ना ही राधा मात्र एक प्रेम स्तम्भ हैं जिनकी कल्पना किसी कदम्ब के नीचे कृष्ण के संग की जाती है। भक्ति के रास्ते ही सही राधा फिर भी कृष्ण के ही साथ जुड़ा हुआ एक आध्यात्मिक पृष्ठ है, जहाँ द्वैत अद्वैत का मिलन है। राधा एक सम्पूर्ण काल का उद्गम है जो कृष्ण रुपी समुद्र से मिलती है ।
समाज में प्रेम को स्थापित करने के लिए इसे ईश्वर से जोड़कर देखा गया और समाज को वैमनस्यता से प्रेम की ओर ले जाने का सहज उपाय समझा गया इसीलिए श्रीकृष्ण के जीवन में राधा प्रेम की मूर्ति बनकर आईं। हो सकता है कि राधा का कृष्ण से ये संबंध शास्त्रों में ना हो मगर लोकजीवन में प्रेम को पिरोने का सहज उपाय बन गया। और इस तरह जिस प्रेम को कोई नाप नहीं सका, उसकी आधारशिला राधा ने ही रखी थी।
राधा की लौकिक कथायें बताती हैं कि प्रेम कभी भी शरीर की अवधारणा में नहीं सिमट सकता ... प्रेम वह अनुभूति है जिसमें साथ का एहसास निरंतर होता है। न उम्र... न जाति... न ऊंच नीच ... प्रेम हर बन्धनों से परे एक आत्मशक्ति है , जहाँ सबकुछ हो सकता है ।
यदि हम कृष्ण और राधा को हर जगह आत्मिक रूप से उपस्थित पाते हैं तो आत्मिक प्यार की ऊंचाई और गहराई को समझना होगा। कृष्ण इसीलिए हमारे इतने करीब हैं कि उन्हें सिर्फ ईश्वर ही नहीं बना दिया, उन्हें लड्डूगोपाल के रूप में लाड़ भी लड़ाया है तो वहीं राधा के संग झूला भी झुलाया है और रास भी रचाया है।
जब कृष्ण जननायक हैं तो भला राधा हममें से ही एक क्यों न मान ली जायें...जो सारे आध्यात्मिक तर्कों से परे हों, फिर चाहे वो आत्मा की गंगोत्री से धारा बनकर वापस कृष्ण में समाने को राधा बनें और अपनी यात्रा का पड़ाव पा लें या फिर बरसाने वाली राधाप्यारी...संदेश तो एक ही है ना दोनों का कि प्रेम में इतना रम जाया जाये कि ईश्वर तक पहुंचने को यात्रा कोई भी हो उसकी हर धारा राधा बन जाये, एकात्म हो जाये...।
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें