गुरु के महात्मय को समझने के लिए ही प्रतिवर्ष
आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व
मनाया जाता है। गुरू पूर्णिमा कब से शुरू हुई यह कहना मुश्किल है,
लेकिन गुरू पूजन की यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है क्योंकि उपनिषदों
में भी ऐसा माना गया है कि आत्मस्वरुप का ज्ञान पाने के अपने कर्त्तव्य की याद दिलाने
वाला, मन को दैवी गुणों से विभूषित करनेवाला, गुरु के प्रेम और उससे प्राप्त ज्ञान की गंगा में बार बार डुबकी लगाने हेतु
प्रोत्साहन देनेवाला जो पर्व है – वही है ‘गुरु पूर्णिमा’ ।
इसी पूर्णिमा के दिन ही भगवान वेदव्यास ने वेदों
का संकलन किया, १८ पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों
के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना
इसी पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ
किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है।
इसीलिए ये लोक मान्यता बनी है कि इस दिन जो शिष्य ब्रह्मवेत्ता गुरु के चरणों में
संयम-श्रद्धा-भक्ति से उनका पूजन करता है उसे वर्षभर के पर्व मनाने का फल मिलता है।
ईश्वर के लिए गुरू का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक
माना गया है। गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन
से कहा -
मय्ये व मन आघत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि भय्येव,
अत ऊर्ध्व न संशयः ॥8/12
अर्थात् “हे अर्जुन ! तू मुझ में मन को लगा
और मुझ में ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझ में ही निवास करेगा,
इसमें कुछ संशय नहीं है।”
किसी को गुरु से कितना मिला,
किसी को अधिक किसी को कम क्यों मिला, इसके मूल
में यही कारण है कि जिसने गुरु के बताये आदर्शों में मन व बुद्धि को लगा दिया,
संशय मन से निकाल दिया, श्रेष्ठता के प्रति समर्पण
कर दिया, उसका सारा जीवन ही बदल गया।
गुरू और शिष्य के सुप्रामेंटल रिलेशन्स के
बारे में दार्शनिक श्री अरविन्द कहते थे “डू नथिंग ट्राइ टू थिंक नथिंग विह्च इज अनवर्थी
टू डिवाइन” अर्थात् जो देवत्वधारी सत्ता के योग्य न हो,
ऐसा कोई भी कार्य न करो, यहां तक कि ऐसा करने की
सोचो भी मत ।
श्री रामकृष्ण परमहंस ने तो और एक कदम आगे बढ़कर
यही कहा कि कामिनी काँचन से दूर परमात्म सत्ता में मन-बुद्धि को लगाने पर स्वयं ईश्वर
गुरु के रूप में आकर मार्गदर्शन करते हैं। देखा जाये आदर्श शिष्य के लिए समर्पण एक
ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति का रूपांतरण कर देती है और जब श्रेष्ठ गुरु के प्रति यही
समर्पण होता है तो व्यक्ति तत्सम हो जाता है। उपनिषदों में कहा गया है कि व्यक्ति
को तप करने से सिद्धि तो मिल सकती है, किन्तु भगवान
नहीं मिल सकता जबकि समर्पण से गुरु व भगवान दोनों एक साथ मिल जाते हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे-”सामान्य गुरु
कान फूँकते हैं, अवतारी महापुरुष-सदगुरु प्राण फूँकते हैं।”
ऐसे सदगुरु का स्पर्श व कृपा दृष्टि ही पर्याप्त है । परमहंस जी एक ऐसी ही सत्ता के रूप में हम सबके बीच आए। अनेकों
व्यक्तियों ने उनका स्नेह पाया, सामीप्य पाया, पास बैठकर मार्गदर्शन पाया, अनेक प्रकार से उनकी सेवा
करने का उन्हें अवसर मिला।
गुरू-शिष्य के
बीच संबंध और गुरू की महत्ता को रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी कुछ
यूं कहा है-
गुरु के वचन प्रतीत न जेहिं
, सपनेहुँ सुख सुलभ न तेहिं ।
उदाहरण बताते हैं कि इस एक आध्यात्मिक संबंध
की वास्तविकता,
कि समर्पण भाव से गुरु के निर्देशों का परिपालन करने वालों को जी भर कर गुरु
के अनुदान भी मिले हैं।
श्रद्धा की परिपक्वता, समर्पण की पूर्णता, शिष्य में अनन्त संभावनाओं के द्वार
खोल देती है। उसके सामने देहधारी गुरु की अंत:चेतना की जितनी
भी रहस्यमयी परतें होती हैं सब की सब एक एक करके खुलने लगती हैं। शिष्य के सामने इनका
ठीक-ठीक खुलना शास्त्रीय भाषा में गुरु के परमतत्व का प्राकट्य ही तो होता है। गुरु
का यह रूप जान लेने पर मौन व्याख्या शुरू हो जाती है। बिल्कुल ऐसे जैसे कि हृदय में
निःशब्द शक्ति का जन्म हो रहा हो । जन्म लेने से पूर्व ही प्रश्नों का उत्तर मिलने
लग जाता है ।
स्वामी विवेकानन्द की दो शिष्याएँ थीं एक नोबुल
(निवेदिता), दूसरी क्रिस्टीन (कृष्ण प्रिया)। स्वामी
जी से निवेदिता तो तरह तरह के सवाल पूछतीं परन्तु कृष्ण प्रिया चुप रहतीं। स्वामी जी
ने उनसे पूछा-”तेरे मन में जिज्ञासाएँ नहीं उठतीं?” उसने कहा-”उठती
हैं पर आपके जाज्वल्य समान रूप के समक्ष वे विगलित हो जाती हैं, मेरी जिज्ञासाओं का मुझे अंतःकरण में समाधान मिल जाता है।” लगभग यही स्थिति
हम सबकी हो, यदि हम अपनी गुरुसत्ता के शाश्वत रूप व गुरुसत्ता
के संस्कृति सत्य को ध्यान में रखें कि “जब तक एक भी शिष्य पूर्णता प्राप्ति से वंचित
है, गुरु की चेतना का विसर्जन परमात्मा में नहीं हो सकता।” सूक्ष्म
शरीरधारी वह सत्ता अपने शिष्यों, आदर्शोन्मुख संस्कृति साधकों
की मुक्ति हेतु सतत् प्रयत्नशील है व रहेगी जब तक कि अंतिम व्यक्ति भी इस पृथ्वी पर
मुक्त नहीं हो जाता ।
गुरू और शिष्य के बीच संबंधों की पवित्रता
को लेकर आज की स्थिति बड़ी विषम हो चुकी है। विगत वर्षों में कई गुरुओं के कारनामों
ने इस संबंध को तार तार करके रख दिया है।ऐसा लगता है कि चारों ओर नकली ही नकली गुरु
भरे हैं। ये बिल्कुल ऐसे ही हैं जैसे कि पानी में रहने वाला सांप, जिसके मुंह का आकार छोटा मगर चेष्टायें
बड़ी होती हैं । इन्हीं 'चेष्टाओं' के
कारण वह मेंढक को निगलने की कोशिश में मुँह में तो उसे जकड़ लेता है पर दोनों के लिए
मुश्किल हो जाती है । पनेले सांप के गले से मेंढक बाहर निकलने को ताकत लगाता है ,
और वह मेंढक को गले में उतारने के लिए । आज गुरु व शिष्य दोनों की स्थिति
ऐसी है। फिर भी सत्य और संकल्प के साथ सदगुरू की खोज और उसका सानिध्य पाने की संभावना
को नकारा नहीं जा सकता और इस गुरू पूर्णिमा पर
हमारा ध्येय यही होना चाहिए ।
- अलकनंदा सिंह
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