ये 21वीं सदी है। तमाम स्थापित परंपराएं-धारणाएं टूट रही हैं और बदलाव की ये हवा अपने पारंपरिक ढांचे में समयानुसार बदलाव भी करती जा रही है। हमारे देश में धर्म, समाज, संस्कृति और अधिकारों को लेकर नई सोच बन भी रही हैं और इन नई सुधारवादी सोचों के साथ बदलाव का हौसला भी दिख रहा है। आधुनिक काल में जहालत और ज़हानत में फ़र्क करना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उससे जुड़ी भ्रांति फैलाने वाले रिवाजों को नये तरीके से खंगालने की। कल सुप्रीम कोर्ट ने शरीयत की हद और फतवों के तौर-तरीकों को लेकर अपने निर्णय में इसी बदलाव की अगुवाई की है।
अभी तक सिर्फ खाप पंचायतों द्वारा स्थानीय स्तर दिये गये औरंगजेबी निर्णयों को लेकर बहस होती रही है जो हर दूसरे निर्णय में देश के कानून को अंगूठा दिखाती थीं, मगर अब शरियत की तकरीरों को अपने अपने हिसाब और बेजां तरीकों से पेश करके मुस्लिम समाज में जो एक ऊहापोही स्थिति बना दी गई थी उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कल साफ कर दिया है कि शरियत अदालतों को ऐसे व्यक्ति के खिलाफ फतवा या आदेश जारी करने से बाज आना चाहिए जो उसके समक्ष आया ही न हो। कोर्ट ने साफ कहा कि शरिया अदालतों को कानून की कोई मंजूरी प्राप्त नहीं है और ना ही उनका कोई कानूनी दर्जा है इसीलिए कानूनी अधिकारों, स्थिति और नैतिक कर्तव्यों को प्रभावित करने वाले फतवे पूरी तरह से अवैध हैं।
जस्टिस सी. के. प्रसाद और पी. सी. घोष की पीठ ने कहा कि कुछ मामलों में तो हद ही हो गई। दारुल कजा और दारुल निजाम जैसी शरिया अदालतों ने ऐसे आदेश दिए जिनके तहत मानवाधिकारों का सीधा सीधा उल्लंघन करते हुए बेगुनाह व्यक्तियों को ही सजा दी गई । कोर्ट ने मुज़फ्फ़रनगर की इमराना के मामले का उल्लेख किया जिसमें उसके बलात्कारी ससुर को ही उससे शादी करने का अजीबो-गरीब निर्णय सुनाया गया था। कोर्ट ने कहा कि यह फतवा एक पत्रकार के आग्रह पर दिया गया जो मामले में पूरी तरह से अजनबी था लेकिन फिर भी फतवा जारी कर दिया गया। इस तरीके से एक पीड़ित को ही सजा दे दी गई। कानून के शासन से शासित देश में ऐसे कार्य बर्दाश्त नहीं किए जा सकते। कोर्ट ने हिदायतन कहा कि दारुल कजा को इस बारे में सतर्क रहना चाहिए कि विवाद से अनजान या बाहरी व्यक्ति के कहने पर फतवा न दे। पीठ ने कहा कि फतवों को अदालत में चुनौती देने की जरूरत नहीं है, उन्हें नजरअंदाज कर देना चाहिए। यदि कोई उन्हें लागू करने की कोशिश करता है तो यह पूरी तरह से गैरकानूनी होगा। जस्टिस सी. के. प्रसाद और पी. सी. घोष की पीठ ने कहा कि इस्लाम सहित कोई भी धर्म बेगुनाहों को सजा की इजाजत नहीं देता। धर्म को पीड़ित के प्रति दयाविहीन नहीं होने दिया जा सकता, न ही किसी मत को अमानवीय शक्ति बनने की आज्ञा दी जा सकती है।
गौरतलब है कि कोर्ट द्वारा उक्त ऐतिहासिक निर्णय अधिवक्ता विश्व लोचन मदान द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनाया गया है। याचिका में उन शरियत अदालतों की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया गया था जो कि कथित तौर पर देश में न्यायिक प्रणाली के समानांतर चलती हैं। याचिका में इन अदालतों को बंद कराने की मांग भी की गई थी लेकिन कोर्ट ने इन अदालतों को 'बंद करने' का आग्रह खारिज कर दिया ।
शरियत, कानून और फतवों व मौलानाओं के माध्यम से नित नये भय पूरे मुस्लिम समाज को दिखाये जाते रहे हैं जबकि स्वयं इस्लामी विद्वान भी यह मानते हैं कि आज शरिया अदालतें भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हैं और उनके निर्णयों में पक्षपात आसानी से देखा जा सकता है। कुछ मौलानाओं का कोर्ट के निर्णय पर यह कहना कि शरिया अदालतें मजलूमों और गरीबों की मदद करती हैं, खुद को सही साबित करने की कोशिशभर करना है। हकीकत तो ये है कि शरियत के नाम पर जहालत को बढ़ावा दिया जाता रहा है ताकि कोई भी शख्स इन अदालतों और शरियाई कानूनों को लेकर सवाल जवाब करने की हिम्मत ना कर सके।
शरियत के निर्णयों और फतवों के खिलाफ भी अपनी बात कहने का अगला पायदान जब कोर्ट ही होता है तो फिर क्यों इन समानानन्तर चलने वाली अदालतों को इतनी अहमियत दी जाती है कि वे मनमाने निर्णय सुनाकर लोगों में विश्वास की बजाय दहशत पैदा करने की वाइज़ बनती हैं। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के मौलाना महमूद मदनी अदालत के निर्णय पर खुशी तो जाहिर करते हैं मगर शरियत के निर्णय को देश की अदालत के समानान्तर मानने की बजाय उसे अदालतों के लिए एक मददगार ज़रिया के तौर पर देखते हैं । एक ऐसा ज़रिया जो समाज के छोटे-मोटे सामाजिक व पारिवारिक विवादों को अपने स्तर से निपटा देते हैं। हालांकि इसमें कोई बुराई नहीं है मगर जिस तरह खापें अपना निर्णय अंतिम मानती हैं और उनके निर्णय के खिलाफ जाने वाले को समाज की भारी प्रताड़ना या कभी-कभी तो जान देकर या लेकर कीमत चुकाई जाती है । शरिया के निर्णयों में भी ऐसी ही हिमाकतें हो रही हैं, इमराना मामला भी तो ऐसा ही था जिसमें शरियाई हुक्म के मुताबिक बेचारी इमराना अपने पति को पति नहीं मान सकती थी और बलात्कार करने वाले को ही पति मानने के लिए उसे बाध्य किया गया ।
फतवों को जारी करने की बावत लगभग सफाई के अंदाज़ में आल इंडिया पर्सनल ला बोर्ड का कहना है कि फतवा बाध्यकारी नहीं होता और यह मुफ्ती का विचार/सलाह या मध्यस्थीकरण मात्र होता है, जो तभी दिया जाता है जब प्रभावी पक्ष उसके पास आता है। उसके पास उसे लागू कराने का कोई अधिकार या प्राधिकार नहीं होता। यदि किसी फतवे को संबंधित व्यक्ति की मर्जी के खिलाफ लागू करने का प्रयास किया जाता है तो वह उसके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।
अब एक सवाल पर्सनल लॉ बोर्ड से भी है कि फतवों से संबंधित यदि उनकी बात सही है फिर तो शरियाई अदालतों की जरूरत ही नहीं रह जाती। फिर शरियत के नाम पर गाहेबगाहे फतवों को जारी करने की जहमत उठाने का मतलब क्या है। क्या इसीलिए कि देश को मुगलकालीन व्यवस्थाओं से वाकिफ़ कराया जाता रहे, जहां जान के बदले जान तो आंख के बदले आंख लेने की सजा तजवीज की जाती थी। आखिर ये सारा प्रपंच क्यों?
बहरहाल, शीर्ष न्यायालय ने सोमवार को दिए फैसले में कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी अदालतों का कोई भी कानूनी दर्जा हासिल नहीं है। इनसे आया फतवा कोई फैसला नहीं है, न ही यह राज्य की कानूनी प्रणाली का हिस्सा है और न इसे कानून की स्वीकृति प्राप्त है। मुगल और ब्रिटिश काल में इनकी मान्यता होगी, लेकिन आजादी के बाद भारतीय संविधान में इनकी कोई जगह नहीं है। कम से कम इस निर्णय के बाद आशा की जानी चाहिए कि औरतों व मजलूमों की बावत सोया रहने वाला मुस्लिम समाज अब अपने मौलिक अधिकारों के लिए सजग होगा।
जाहिर है आज तक जो लोग समाज को अपनी उंगलियों पर नचाते आये हैं, उनके लिए भी सर्वोच्च अदालत ने चिंतन करने का एक अच्छा मौका दिया है ।
-अलकनंदा सिंह
अभी तक सिर्फ खाप पंचायतों द्वारा स्थानीय स्तर दिये गये औरंगजेबी निर्णयों को लेकर बहस होती रही है जो हर दूसरे निर्णय में देश के कानून को अंगूठा दिखाती थीं, मगर अब शरियत की तकरीरों को अपने अपने हिसाब और बेजां तरीकों से पेश करके मुस्लिम समाज में जो एक ऊहापोही स्थिति बना दी गई थी उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कल साफ कर दिया है कि शरियत अदालतों को ऐसे व्यक्ति के खिलाफ फतवा या आदेश जारी करने से बाज आना चाहिए जो उसके समक्ष आया ही न हो। कोर्ट ने साफ कहा कि शरिया अदालतों को कानून की कोई मंजूरी प्राप्त नहीं है और ना ही उनका कोई कानूनी दर्जा है इसीलिए कानूनी अधिकारों, स्थिति और नैतिक कर्तव्यों को प्रभावित करने वाले फतवे पूरी तरह से अवैध हैं।
जस्टिस सी. के. प्रसाद और पी. सी. घोष की पीठ ने कहा कि कुछ मामलों में तो हद ही हो गई। दारुल कजा और दारुल निजाम जैसी शरिया अदालतों ने ऐसे आदेश दिए जिनके तहत मानवाधिकारों का सीधा सीधा उल्लंघन करते हुए बेगुनाह व्यक्तियों को ही सजा दी गई । कोर्ट ने मुज़फ्फ़रनगर की इमराना के मामले का उल्लेख किया जिसमें उसके बलात्कारी ससुर को ही उससे शादी करने का अजीबो-गरीब निर्णय सुनाया गया था। कोर्ट ने कहा कि यह फतवा एक पत्रकार के आग्रह पर दिया गया जो मामले में पूरी तरह से अजनबी था लेकिन फिर भी फतवा जारी कर दिया गया। इस तरीके से एक पीड़ित को ही सजा दे दी गई। कानून के शासन से शासित देश में ऐसे कार्य बर्दाश्त नहीं किए जा सकते। कोर्ट ने हिदायतन कहा कि दारुल कजा को इस बारे में सतर्क रहना चाहिए कि विवाद से अनजान या बाहरी व्यक्ति के कहने पर फतवा न दे। पीठ ने कहा कि फतवों को अदालत में चुनौती देने की जरूरत नहीं है, उन्हें नजरअंदाज कर देना चाहिए। यदि कोई उन्हें लागू करने की कोशिश करता है तो यह पूरी तरह से गैरकानूनी होगा। जस्टिस सी. के. प्रसाद और पी. सी. घोष की पीठ ने कहा कि इस्लाम सहित कोई भी धर्म बेगुनाहों को सजा की इजाजत नहीं देता। धर्म को पीड़ित के प्रति दयाविहीन नहीं होने दिया जा सकता, न ही किसी मत को अमानवीय शक्ति बनने की आज्ञा दी जा सकती है।
गौरतलब है कि कोर्ट द्वारा उक्त ऐतिहासिक निर्णय अधिवक्ता विश्व लोचन मदान द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनाया गया है। याचिका में उन शरियत अदालतों की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया गया था जो कि कथित तौर पर देश में न्यायिक प्रणाली के समानांतर चलती हैं। याचिका में इन अदालतों को बंद कराने की मांग भी की गई थी लेकिन कोर्ट ने इन अदालतों को 'बंद करने' का आग्रह खारिज कर दिया ।
शरियत, कानून और फतवों व मौलानाओं के माध्यम से नित नये भय पूरे मुस्लिम समाज को दिखाये जाते रहे हैं जबकि स्वयं इस्लामी विद्वान भी यह मानते हैं कि आज शरिया अदालतें भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हैं और उनके निर्णयों में पक्षपात आसानी से देखा जा सकता है। कुछ मौलानाओं का कोर्ट के निर्णय पर यह कहना कि शरिया अदालतें मजलूमों और गरीबों की मदद करती हैं, खुद को सही साबित करने की कोशिशभर करना है। हकीकत तो ये है कि शरियत के नाम पर जहालत को बढ़ावा दिया जाता रहा है ताकि कोई भी शख्स इन अदालतों और शरियाई कानूनों को लेकर सवाल जवाब करने की हिम्मत ना कर सके।
शरियत के निर्णयों और फतवों के खिलाफ भी अपनी बात कहने का अगला पायदान जब कोर्ट ही होता है तो फिर क्यों इन समानानन्तर चलने वाली अदालतों को इतनी अहमियत दी जाती है कि वे मनमाने निर्णय सुनाकर लोगों में विश्वास की बजाय दहशत पैदा करने की वाइज़ बनती हैं। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के मौलाना महमूद मदनी अदालत के निर्णय पर खुशी तो जाहिर करते हैं मगर शरियत के निर्णय को देश की अदालत के समानान्तर मानने की बजाय उसे अदालतों के लिए एक मददगार ज़रिया के तौर पर देखते हैं । एक ऐसा ज़रिया जो समाज के छोटे-मोटे सामाजिक व पारिवारिक विवादों को अपने स्तर से निपटा देते हैं। हालांकि इसमें कोई बुराई नहीं है मगर जिस तरह खापें अपना निर्णय अंतिम मानती हैं और उनके निर्णय के खिलाफ जाने वाले को समाज की भारी प्रताड़ना या कभी-कभी तो जान देकर या लेकर कीमत चुकाई जाती है । शरिया के निर्णयों में भी ऐसी ही हिमाकतें हो रही हैं, इमराना मामला भी तो ऐसा ही था जिसमें शरियाई हुक्म के मुताबिक बेचारी इमराना अपने पति को पति नहीं मान सकती थी और बलात्कार करने वाले को ही पति मानने के लिए उसे बाध्य किया गया ।
फतवों को जारी करने की बावत लगभग सफाई के अंदाज़ में आल इंडिया पर्सनल ला बोर्ड का कहना है कि फतवा बाध्यकारी नहीं होता और यह मुफ्ती का विचार/सलाह या मध्यस्थीकरण मात्र होता है, जो तभी दिया जाता है जब प्रभावी पक्ष उसके पास आता है। उसके पास उसे लागू कराने का कोई अधिकार या प्राधिकार नहीं होता। यदि किसी फतवे को संबंधित व्यक्ति की मर्जी के खिलाफ लागू करने का प्रयास किया जाता है तो वह उसके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।
अब एक सवाल पर्सनल लॉ बोर्ड से भी है कि फतवों से संबंधित यदि उनकी बात सही है फिर तो शरियाई अदालतों की जरूरत ही नहीं रह जाती। फिर शरियत के नाम पर गाहेबगाहे फतवों को जारी करने की जहमत उठाने का मतलब क्या है। क्या इसीलिए कि देश को मुगलकालीन व्यवस्थाओं से वाकिफ़ कराया जाता रहे, जहां जान के बदले जान तो आंख के बदले आंख लेने की सजा तजवीज की जाती थी। आखिर ये सारा प्रपंच क्यों?
बहरहाल, शीर्ष न्यायालय ने सोमवार को दिए फैसले में कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी अदालतों का कोई भी कानूनी दर्जा हासिल नहीं है। इनसे आया फतवा कोई फैसला नहीं है, न ही यह राज्य की कानूनी प्रणाली का हिस्सा है और न इसे कानून की स्वीकृति प्राप्त है। मुगल और ब्रिटिश काल में इनकी मान्यता होगी, लेकिन आजादी के बाद भारतीय संविधान में इनकी कोई जगह नहीं है। कम से कम इस निर्णय के बाद आशा की जानी चाहिए कि औरतों व मजलूमों की बावत सोया रहने वाला मुस्लिम समाज अब अपने मौलिक अधिकारों के लिए सजग होगा।
जाहिर है आज तक जो लोग समाज को अपनी उंगलियों पर नचाते आये हैं, उनके लिए भी सर्वोच्च अदालत ने चिंतन करने का एक अच्छा मौका दिया है ।
-अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें