गुरुवार, 28 नवंबर 2013

कमल तो कमल ही रहता है...

धर्म और अपराध के घालमेल से उपजे अविश्‍वास ने आमजन को इतना भ्रमित कर दिया है कि यकायक आये किसी अच्‍छे समाचार पर भी हम आसानी से विश्‍वास नहीं कर पाते, लगभग भौंचक सी स्‍थिति में हैं आज वो सनातन धर्मावलंबी जो शंकराचार्यों को ईश्‍वरतुल्‍य मानते हैं , उनमें विश्‍वास रखते हैं  ।
कल जब से पुड्डुचेरी कोर्ट ने कांची काम कोटि पीठ के शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्‍वती को पिछले नौ वर्षों की लंबी अदालती लड़ाई के बाद बरी किया तो उनके अनुयायियों समेत अनेक सनातन   धर्मावलंबियों का तो अदालत के इस फैसले के बाद खुश होना लाजिमी था मगर इस बात की दाद दी जानी चाहिए कि स्‍वयं जयेंद्र सरस्‍वती ने शंकराचार्य पद की गरिमा के अनुरूप अपने सौम्‍य व्‍यवहार से अदालत के प्रति विश्‍वास और भरोसा बनाये रखा।
धर्म को व्‍यापार बना देने वालों की  यूं तो लंबी फेहरिस्‍त है और इन्‍हीं वजहों से धर्म व संतों की प्रतिष्‍ठा को समय समय पर आघात भी पहुंचता रहा है । फिर चाहे वह स्‍व. कृपालु जी के विवादित कृत्‍य रहे हों या आसाराम बापू कारनामे, सभी ने भी सनातन धर्म को और आस्‍थावानों की भक्‍ति भावना को भारी नुकसान पहुंचाया है । इनके अलावा नित्‍यानंदों - शिवानंदों की भी कमी नहीं रही है, जिन्‍होंने धर्म की आड़ लेकर वो सब किया जो एक सामान्‍य अपराधी कर सकता है, परंतु आज बात शंकराचार्य जैसी पदवी और उस पर बैठे बेहद सरल व सुलझे हुये व्‍यक्‍तित्‍व की हो रही है जिसके प्रति आदर व आस्‍था कोई प्रपंच करके हासिल नहीं की गई, तो निश्‍चितत: ये कहना पड़ेगा कि धर्म की विजय हुई। हालांकि जिस अपराध के लिए जयेन्‍द्र सरस्‍वती को उनके उत्‍तराधिकारी समेत दो दर्जन लोगों के साथ दोषी बताया गया था , उसका मूल अपराधी अभी तक पता नहीं चल पाया है और गुत्‍थी अनसुलझी ही रह गई है ।
 सनातन धर्म के सर्वोच्‍च प्रतिनिधि के तौर पर माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने जिन धार्मिक  व दार्शनिक परंपराओं को स्‍थापित किया , आज तक उन्‍हीं पद्धतियों पर चलकर धर्म को आमजन के बीच विस्‍तार दिया जा रहा है और ऐसे में जब कोई उंगली इन्‍हीं धर्मिक परंपराओं के निर्वाहकों पर उठती है तो उस संशय का निराकरण होना आवश्‍यक हो जाता है। कल आये निर्णय में समय भले ही नौ साल का लग गया हो मगर अब कोई संशय न रहा।
बहरहाल, इससे एक बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि सच्‍चा संत वही जो निरपेक्ष भाव से सभी स्‍थितियों में एक समान रहे और जयेन्‍द्र सरस्‍वती इसके प्रत्‍यक्ष उदाहरण बने।
इस पूरे प्रकरण से एक और बात महत्‍वपूर्ण यह निकल कर आई है कि  राजनैतिक दलों ने भी शंकराचार्यों की पीठों को अपने अपने हिसाब से बांट रखा है और इनके भव्‍य ऐशोआराम व शिष्‍यों में जिस तरह से वर्ग भेद कर रखा है, कोई ना कोई शंकराचार्य भी इसी तरह या तो राजनीति का शिकार होता रहेगा या फिर अपराधी तत्‍व इनके प्रांगणों में पनपते रहेंगे। बेहतर होगा कि राजनीति और अपराध की जुगलबंदी से  मठों व धर्म के पुरोधाओं को बचाया जाये अन्‍यथा सनातन धर्म की दुर्दशा निष्‍चित है।
- अलकनंदा सिंह


गुरुवार, 21 नवंबर 2013

‘नेशनल बुक अवार्ड’ से चूकीं झुंपा

वाशिंगटन। 
पुलित्जर पुरस्कार विजेता भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका झुंपा लाहिड़ी का नया उपन्यास ‘द लोलैंड’ काल्पनिक कथा श्रेणी में 2013 अमेरिकी ‘नेशनल बुक अवार्ड’ जीतने से चूक गया। यह पुरस्कार लेखक जेस मैकब्राइड की कृति ‘द गुड लॉर्ड बर्ड’ ने जीत लिया है। मैकब्राइड की रचना ‘द गुड लॉर्ड बर्ड’ 1850 दशक के एक युवा दास की यात्रा कहानी है जबकि लाहिड़ी का उपन्यास 1960 के दशक के कोलकाता निवासी दो भाइयों की कहानी है। कल्पित कथा श्रेणी के अंतिम दौर में जगह बनाने वालों में रशेल कुशनर की ‘द लैमथ्रोवर्स’, थॉमस यनछोन की ‘ब्लीडिंग ऐज’ और जॉर्ज सॉडंर्स  की ‘टेंथ ऑफ दिसेंबर’ शामिल थीं।
न्यूयॉर्क में हुए पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान निर्णायक मंडल ने मैकब्राइड की कृति की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘यह कृति कॉमिक जैसी ध्वनि दर्शाती है और अब तक मार्क ट्वेन की सुनी कृतियों जैसी ही वास्तविक है।’’ पुरस्कार जीतने के बाद 56 वर्षीय मैकब्राइड ने कहा कि वह पुरस्कार जीतने के बाद किए जाने वाले संबोधन के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे क्योंकि उन्हें यनछोन, लाहिड़ी और सॉडंर्स के आगे अपने जीतने की कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने कहा, ‘‘वह लाजवाब लेखक हैं। लेकिन यकीनन यहां रहना अच्छा है।’’
यह वार्षिक पुरस्कार नेशनल बुक फाउंडेशन द्वारा उन अमेरिकी लेखकों को दिया जाता है, जिन्होंने काल्पनिक कथा, कथेतर साहित्य, गद्य और युवा साहित्य के लिए काम किया हो। वहीं, कथेतर साहित्य पुरस्कार ‘द अनवाइंडिंग: ऐन इनर हिस्ट्री ऑफ द न्यू अमेरिका’ के लिए जॉर्ज पेकर ने जीता। गद्य पुरस्कार ‘इंकार्नडिन’ के लिए मैरी जिबिस्ट को मिला। इसके अलावा युवा साहित्य पुरस्कार सिंथियाका दोहता को उनकी रचना ‘द थिंग अबाउट लक’ के लिए दिया गया। लाहिड़ी (46 वर्ष) पिछले माह समकालीन कथा श्रेणी के प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘मैन बुकर प्राइज’ में कॉमनवेल्थ और आयरलैंड से पिछड़ गई थीं।
-एजेंसी

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

कैश,काइंड और हम कबीर

जीवन का सिक्‍का तो एक ही है ...उसके पहलू दो... कभी-कभी पहलुओं को जानने के  लिए फेंका गया सिक्‍का किसी एक तरफ गिरने की बजाय खड़ा रह  जाता है , एकदम हक्‍का-बक्‍का सा करता हुआ ...और असमंजस में रह जाते हैं हम परंतु बाजार में तब्‍दील हुई इस  दुनिया का सच बस इतना है कि जो फेंके जाने पर  खड़ा रह गया.. स्‍थिर हो गया..वो किसी तवज्‍जो के  लायक नहीं समझा जाता ।  अर्थात् जो खड़ा रह जाता  है वह अर्थहीन है । निरंतरता आवश्‍यक है, जीवन में  भी और बाजार में भी ।वर्तमान में तो कैश एंड काइंड के बीच झूलते  जीवन में हम, अब यह ढूंढ़ने पर बाध्‍य हैं कि आखिर  हम हैं क्‍या ...पूरा का पूरा एक सिक्‍का, या उसका कोई एक पहलू। या  फिर खड़े रह गये और हाशिये पर धकेल दिये गये  आमलोग..बस,इससे ज्‍यादा कुछ भी नहीं।
इसी बाजार पर बनते बिगड़ते जीवन को लेकर कबीर कहते हैं -
कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर,
ना काहू से दोस्‍ती ना काहू से बैर।
बाजार के सिद्धांतों में ना तो वो समय कबीर के लिए  अलग था और न अब अलग है। बाजार तब भी अपने  अस्‍तित्‍व को उसी तरह आमजन पर हावी किये हुये  था।इसीलिए कबीर ने जो भी कहा वह दोस्‍ती और बैर को बाजारवाद से जोड़ कर ही देखा गया  । इसका सीधा मतलब था कि सिक्‍के का किसी एक पहलू की  ओर झुकना...जबकि जीवन में या तो दोनों पहलू हैं या नहीं हैं...और जब कोई पहलू नहीं दिखता तो जीवन का सिक्‍का स्‍थिर हो जाता है यानि किसी  एक पहलू की ओर ध्‍यान न देकर जो भी अच्‍छे-बुरे,  कम-ज्‍या़दा के बीच स्‍थिर हो गया वो ही कबीर बन  गया, निश्‍छल हो गया, निष्‍काम हो गया।  परंतु स्‍थिर  हो गया और स्‍थिरता बाजार के प्रवाह को नष्‍ट कर  देती है तो कबीर ने इसी नष्‍ट होते जाने की प्रक्रिया को  अपना ध्‍येय बनाया और दोस्‍ती व बैर के स्‍थापित बाजार पर  वे हावी होते गये, सिक्‍के के दो पहलुओं को मिलाया और  स्‍वयं बीच में खड़े हो गये।
इस तरह संस्‍कारों की नई परिभाषाओं ने जन्‍म लिया।तब भी  रूढ़ियों की जकड़न जिस समाज के लिए आकंठ डूबने  और धीरे धीरे मूल्‍यहीन होते जाने का कारण बनी, वह  भी तो बाजारवाद का सामाजिक रूप ही तो था जो  समाज के मूल्‍यों का तोलमोल कर रहा था।
उन्‍हें चुनौती देते हुये कबीर ने मनुष्‍य और परमात्‍मा  के बीच संबंधों पर नये सिरे से फिर बहस शुरू की  और स्‍थिति यहां तक पहुंची कि आज देखिये कि हम  सैकड़ों साल पुराने 'निरक्षर' कबीर को अपने शोधों का  विषय बनाने को बाध्‍य हुये।
प्रश्‍न तो अब यह उठता है कि यदि वे बाजार की  निरंतरता को ही जीवन का ध्‍येय बना लेते तो क्‍या  आज वे कबीर हो पाते, हम जो कि बाजार के लिए  सिक्‍के भर हैं, चाहे वह बाजार हमारी आम उपभोगी  वस्‍तुओं का हो या धर्म का, रूढ़ियों को और वीभत्‍स  बनाकर हमें 'स्‍वयं' से दूर करता जा रहा है।
संभवत:  यही कारण है कि हम स्‍वयं अपने भीतर के कबीर को  न तो पहचान रहे हैं और ना ही पहचानना चाहते हैं क्‍योंकि अपने कबीर को पहचानने के लिए स्‍थिर होना पड़ेगा, चित्‍त से भी और प्रवृत्‍तियों से भी मगर ऐसा हो नहीं पा रहा । नतीजा हमारे सामने हैं कि सिक्‍के के किसी एक पहलू  की भांति हमें बाजार के बीच नचाया जा रहा है। कभी  धर्म के नाम पर कभी रिवाजों के नाम पर ।इसीलिए  जन्‍म होता जा रहा है उन बाजारों का जहां आस्‍था   बिक रही है, अरबों का कारोबार करने वाले मनोरंजन  के साधन सामने आते जा रहे हैं , अभाव है तो बस उस इच्‍छाशक्‍ति का जो कबीर बनने में सहायक हो सके। देखते हैं बाजार अपनी और कौन कौन सी रंगत हमें दिखाता है जिसमें रंगे जाते हुये हम मौन न साधें तो अच्‍छा होगा।
- अलकनंदा सिंह

बुधवार, 13 नवंबर 2013

ये ऊबे हुये लोगों का शगल है या...?

''हर सिक्‍के के दो पहलू होते हैं'' अकसर ये जुमला भारतीय जीवन दर्शन को  बेहद सकारात्‍मक ढंग से समझाने के लिए प्रयुक्‍त किया जाता है। इसी प्रक्रिया  में जो अपने पास है उसकी खुशी मनाने और जो नहीं है, उसका शोक न मनाने  के लिए भी कहा जाता है।
आज एक सर्वे की रिपोर्ट पढ़ी जिसके अनुसार विश्‍वभर में होने वाली कुल  आत्‍महत्‍याओं में से एक बड़ा प्रतिशत विकसित देशों के उन लोगों का है जो  अपने जीवन से ऊबे हुये थे, सुविधा-समपन्‍नता से ऊबे हुये थे। इन्‍हें भौतिक  सुख-सुविधाओं में डूबने के बाद भी चैन नहीं मिला, वे कुछ और भी चाहते थे  जीवन से...अपने आप से, दोस्‍तों से, व्‍यवसाय से, नौकरी से और अपने परिजनों  से...।
मैं इस संदर्भ में अपने देश की उस सनातन सोच को धन्‍यवाद देती हूं जिसके  द्वारा स्‍थापित हर नियम में समग्र समाज के हित को साधकर चला गया और  उसी के आधार पर सबका कल्‍याण करने की परिपाटी बनी। तभी तो वसुधैव  कुटुंबकम की परिकल्‍पना साकार हुई। और जब बात समग्र की हो तो आत्‍महत्‍या  की वजह कम से कम ऊब तो कभी नहीं हो सकती। शायद यही कारण है कि  जीवनदर्शन के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले हमारे देश की गिनती  इस सर्वे में नहीं है। यूं तो दर्शन शास्‍त्र में भी कहा गया है कि ऊबने का सीधा  सीधा संबंध सब्‍जेक्‍ट और ऑब्‍जेक्‍ट से है।
सर्वे के इस आंकलन में सब्‍जेक्‍ट हैं वो व्‍यक्‍ति जो अपनी विशेषता ''सुविधा  संपन्‍नता'' के अतिवाद से ग्रस्‍त हुए और आत्‍महत्‍या करने तक की स्‍थिति में  पहुंचे। निश्‍चित ही उन्‍हें अपनी संपन्‍नता को दर्शाने के लिए एक ऑब्‍जेक्‍ट की  तलाश रही होगी। किसी भी व्‍यक्‍ति को किसी वस्‍तु या जीवन से ऊब तभी हो  सकती है जब उसके पास संसाधन तो पर्याप्‍त हों परंतु उन्‍हें प्रयोग करने के लिए  कोई ऑब्‍जेक्‍ट मौजूद न हो। खैर, आत्‍महत्‍या की वजह चाहे जो हो लेकिन  नि:संदेह यह कायरता है, जीवन देने वाले ईश्‍वर का अपमान है।
दरअसल हर भारतीय के संस्‍करों में यह शामिल होता है कि जीवन है.. तो  कठिनाइयां भी हैं, कठिनाइयां हैं तो उन्‍हें पार करने की चुनौतियां भी। हर  भारतीय के जीवन का पल-पल चुनौतियों से जूझने और उससे पार होने की  कसौटी के पेंडुलम पर नाचता रहता है। हां, कुछ लोग इनसे घबराकर तो  आत्‍महत्‍या करते हैं मगर इसमें सुविधा-संपन्‍नता से ऊबे हरगि़ज नहीं होती।  विकसित देशों की इस 'ऊब' से हम यानि भारतीय कब तक अछूते रह पायेंगे,  यह कहना तो मुश्‍किल है मगर इतना अवश्‍य कहा जा सकता है कि यदि हम  अपनी लोकोक्‍तियों में निहित जीवन दर्शन पर अमल करते रहें और ''कम खाने  व गम खाने'' जैसी कहावतों का मर्म समझें तो देश में अति अमीर और अति  गरीब के बीच बढ़ती खाई को रोका जा सकता है और इससे नाकामियों के कारण  उपजी आत्‍महत्‍याओं को बहुत कम किया जा सकता है।
बस, जरूरत है तो उस सनातन जीवनदर्शन को फिर से समझने और समझाने  की, जहां बाकायदा हर उम्र के लिए एक नियत दर्शन उपस्‍थित है...जहां ब्रह्मचर्य  से लेकर संन्‍यास तक का प्राविधान है...जहां आत्‍महत्‍या के लिए न कोई जगह  तब थी और ना ही कोई वजह अब है।
 - अलकनंदा सिंह

रविवार, 10 नवंबर 2013

गोपाष्‍टमी: पर्व या औपचारिकता ?

ज़मीनी हकीकत और किताबों के बीच जब सामंजस्‍य नहीं होता तो अराजकता को प्राश्रय मिलना शुरू हो जाता है और ऐसा तभी संभव भी होता है जब इसी अराजकता की जड़ें तलाशने की बजाय उसके फलने फूलने पर व्‍याख्‍यान दिये जाते हैं। कुछ ऐसा ही सीन ब्रजभूमि में दिखाई दे रहा है। गौपालक गोपाल की ब्रजभूमि में।
एक अनुमान के अनुसार ब्रज चौरासी कोस में लगभग एक हजार गौशालायें हैं और हजारों की तादाद में साधु संतों का जमावड़ा है। भागवत वक्‍ताओं की भी अच्‍छी-खासी फौज है। गायों के नाम पर यहां दान के रूप में देश व विदेशों से आती करोड़ों की धनराशि....जैसी खबरें हमारे सामने एक ऐसी तस्‍वीर पेश करती हैं कि यदि धरती पर कहीं भी गायों को साक्षात् मां का दर्जा प्राप्‍त है तो वह अकेला ब्रज क्षेत्र है।
यहां एक ओर वृंदावन में ही गायों को भोजन कराने के लिए हर मंदिर के नुक्‍कड़ पर मुट्ठीभर हरा चारा हाथ लेकर खड़े होने वाले भिखारियों के बच्‍चे मिल जायेंगे तो दूसरी ओर बेशकीमती जमीनों पर बड़ी-बड़ी 'ए. सी.' गौशालायें बनाकर करोड़ों का दान हजम करने वाले भी कम नहीं होंगे।
इन सबके बीच जिसके नाम पर ये कारोबार चल रहा है, वो गौ माता कहीं या तो विलुप्‍त कर दी जाती है या उसे कूड़े-करकट के ढेर पर अपनी भूख मिटाने को भेज दिया जाता है। ये हकीकत जहां यह बताती है कि जो कुछ कहा जा रहा है या सुनाया जा रहा है, असल में गायों को माध्‍यम बनाकर धंधा करने के पारंपरिक तरीकों से हटकर और कुछ भी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि स्‍टाइल बदल गया है धंधे का। हां, इस नए तरीके में जिन गायों के नाम पर दान का धंधा चल रहा है, वे गायें कभी दानदाताओं के समक्ष रूबरू नहीं होतीं। सब-कुछ कागजों से चलता हुआ हवा में तैर रहा है....गाय भी और गौशाला भी। यदि कोई मौजूद हैं तो बस गायों के नाम पर दान के धंधेबाज।
अब प्रश्‍न उठता है कि जब इतना दान और इतने गौसेवी व इतनी गौशालायें अकेले इस धर्मनगरी में ही मौज़ूद हैं तो...तो... सड़कों पर मानवीय अपशिष्‍ट- कूड़े के ढेर पर मुंह मारती गायें कहां से आ रही हैं, क्‍यों पुलिस व चंद समाजसेवियों द्वारा आये दिन कट्टीघरों को जाता गौवंश पकड़ा तो जाता है लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की जाती। तभी तो इसे फिर से उन्‍हीं गलियों-चौराहों पर देखा जाता है और तभी वो सिर्फ दुत्‍कारों को पर जीवित रहने को विवश हैं जबकि इस हकीकत में वो तथ्‍य शामिल नहीं हैं जो कट्टीघर से जुड़े हैं ।
आज गोपाष्‍टमी पर पूरे ब्रज में गायों की सेवा, उनकी महिमा, उनके अंग में मौजूद देवी-देवताओं को लेकर बड़े-बड़े व्‍याख्‍यान देने की होड़ लगी रहेगी लेकिन इतिश्री हो जायेगी कल सारे अखबारों में मयफोटो के छपी खबरों से। इसमें गाय का साक्षात् रूप कहीं नहीं होगा....उसे तो हम किसी कूड़े के ढेर में मुंह मारते हुये ही देखेंगे। इस स्‍थिति के लिए ऐसा नहीं है कि सिर्फ गायों के नाम पर पैसा हजम करने वाले ही दोषी हों, बल्‍कि वे अधिक दोषी हैं जो पात्र-कुपात्र का ज्ञान किये बिना अपने पापों से पल्‍ला झाड़ने के लिए 'दान' की मंशा पाले यहां आते हैं।
बेहतर होगा कि गोपाष्‍टमी की औपचारिकता पूरी करने से पहले ब्रजवासी कोई ऐसा संकल्‍प भी लें जो कृष्‍ण के गौपालक होने की संज्ञा पूरी करता हो और जिससे ब्रजभूमि की गरिमा का आभास हो।
-अलकनंदा सिंह