मिट्टी..दर्री है या चिकनी? बर्तन कैसे बनेंगे? चके पर कितना उठेंगे? आग पर फटेंगे या नहीं? किससे घड़ा और किस मिट्टी का बर्तन भोजन पकाने के काम आएगा? ऐसे बहुत से प्रश्नों को जानने में मुझे #कुम्हार के पास चार वर्ष लगे। और कहते हैं, हम पढ़े-लिखे हैं?
सत्य तो यह है, हम अनपढ़ हैं।
और इससे भी अधिक चिंताजनक बात ये है कि कथित आधुनिकतावश हम ना तो कुम्हार को उचित स्थान दे पाये और ना ही उसकी अद्भुत कला को। रिजर्वेशन और सरकारी नौकरी के लालच ने इन कलाकारों का
अस्तित्व व औचित्य दोनों के साथ साथ सनातन को भी भारी नुकसान पहुंचाया है।
उस व्यक्ति की कुशलता सोचिए जो ६वर्ष की आयु से यही करते६०का होगया और जो हजारों वर्षों से पढ़ी दर पीढ़ी अपना काम कर रहा हो उसकी तो अकल्पनी है ३ वर्ष का ग्रेजुएट और २ वर्ष मास्टरी उसका मुकाबला क्या करेगी,वर्ण आधारित हजारों वर्षों की कुशलता आधुनिक बनने के चक्कर में हमने नष्ट कर डाली।
जातियों को मिटाना मतलब सदियों तक घिस कर पीढ़ियों द्वारा अर्जित किए ज्ञान को नाली में बहा देना, अपनी अर्थव्यवस्था गैरों को सौंप देना।
इतनी सी बात हिन्दुत्व की बागडोर थामे ना तो नेतृत्व समझता और ना ही हम जो बंटने पर हार हाल में आमादा हैं जैसे कि -
कुम्हार, सुथार, विश्वकर्मा, नाई, लुहार, चर्मकार, पंडित, बनिया और ठाकुर...फेहरिस्त बड़ी लंबी है ....कहां तक लिखूं ...आज मन इस बंटाव को देखकर दुखी है कि हम कहो थे और कहां आ गए...नौकरी की भीख मांगत मांगते ।
इसी बात पर हसीब सोज़ का एक शेर देखिए----
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें