आज फेसबुक पर एक पोस्ट किन्हीं ठाकुर जितेंद्र सिंह बिष्ट की नज़र के सामने से गुजरी...पोस्ट ने बहुत सी यादों को ताज़ा कर दिया...आपमें से भी कई इस दौर से गुजरे होंगे...
तो देखिए पोस्ट का मजमून और खो जाइये अपने ''ज़माने'' की यादों में... तस्वीर भी है साथ में-
''हाईस्कूल का रिजल्ट तो हमारे जमाने में ही आता था... ये जमाना गुजर गया ।अब बच्चो के नंबर 95% से भी ऊपर आने पर भी कुछ नहीं आता और उस जमाने के 36 % वाला भी आज की फौज को पढ़ा रहा है।
रिजल्ट तो हमारे जमाने में आते थे, जब पूरे बोर्ड का रिजल्ट 17 ℅ हो, और उसमें भी आप ने वैतरणी तर ली हो (डिवीजन मायने नहीं, परसेंटेज कौन पूँछे) तो पूरे कुनबे का सीना चौड़ा हो जाता था।
दसवीं का बोर्ड...बचपन से ही इसके नाम से ऐसा डराया जाता था कि आधे तो वहाँ पहुँचने तक ही पढ़ाई से सन्यास ले लेते थे। जो हिम्मत करके पहुँचते, उनकी हिम्मत गुरुजन और परिजन पूरे साल ये कहकर बढ़ाते,"अब पता चलेगा बेटा, कितने होशियार हो, नवीं तक तो गधे भी पास हो जाते हैं" !!
रही-सही कसर हाईस्कूल में पंचवर्षीय योजना बना चुके साथी पूरी कर देते..." भाई, खाली पढ़ने से कुछ नहीं होगा, इसे पास करना हर किसी के लक में नहीं होता, हमें ही देख लो...
और फिर , जब रिजल्ट का दिन आता। ऑनलाइन का जमाना तो था नहीं,सो एक दिन पहले ही शहर के दो- तीन हीरो (ये अक्सर दो पंच वर्षीय योजना वाले होते थे) अपनी हीरो स्प्लेंडर या यामहा में शहर चले जाते। फिर आधी रात को आवाज सुनाई देती..."रिजल्ट-रिजल्ट"
पूरा का पूरा मुहल्ला उन पर टूट पड़ता। रिजल्ट वाले #अखबार को कमर में खोंसकर उनमें से एक किसी ऊँची जगह पर चढ़ जाता। फिर वहीं से नम्बर पूछा जाता और रिजल्ट सुनाया जाता...पाँच हजार एक सौ तिरासी ...फेल, चौरासी..फेल, पिचासी..फेल, छियासी..सप्लीमेंट्री !!
कोई मुरव्वत नहीं..पूरे मुहल्ले के सामने बेइज्जती।
रिजल्ट दिखाने की फीस भी डिवीजन से तय होती थी,लेकिन फेल होने वालों के लिए ये सेवा पूर्णतया निशुल्क होती।
जो पास हो जाता, उसे ऊपर जाकर अपना नम्बर देखने की अनुमति होती। टोर्च की लाइट में प्रवेश-पत्र से मिलाकर नम्बर पक्का किया जाता, और फिर 10, 20 या 50 रुपये का पेमेंट कर पिता-पुत्र एवरेस्ट शिखर आरोहण करने के गर्व के साथ नीचे उतरते।
जिनका नम्बर अखबार में नहीं होता उनके परिजन अपने बच्चे को कुछ ऐसे ढाँढस बँधाते... अरे, कुम्भ का मेला जो क्या है, जो बारह साल में आएगा, अगले साल फिर दे देना एग्जाम...
पूरे मोहल्ले में रतजगा होता।चाय के दौर के साथ चर्चाएं चलती, अरे ... फलाने के लड़के ने तो पहली बार में ही ...
आजकल बच्चों के मार्क्स भी तो #फारेनहाइट में आते हैं।
99.2, 98.6, 98.8.......
और हमारे जमाने में मार्क्स #सेंटीग्रेड में आते थे....37.1, 38.5, 39
हाँ यदि किसी के मार्क्स 50 या उसके ऊपर आ जाते तो लोगों की खुसर -फुसर .....
नकल की होगी ,मेहनत से कहाँ इत्ते मार्क्स आते हैं।
वैसे भी इत्ता पढ़ते तो कभी देखा नहीं । (भले ही बच्चे ने रात रात जगकर आँखें फोड़ी हों)
सच में, रिजल्ट तो हमारे जमाने में ही आता था।''
अब बताइये कैसा लगा पढ़कर....
-अलकनंदा सिंंह
जी अलकनंदा जी, उस दौर के परिणाम घोषणा उत्सव की जीवं झाँकी प्रस्तुत कर दी माननीय ठाकुर जितेन्द्र जी ने।और उस दुर्लभ गजट की फोटो देखकर कहीं भीतर तक मन भीग गया। सच है उस समय बोर्ड का परिणाम प्रतिशत बहुत कम रहता था,जिसके लिये अखबार हफ्तों सरकार और स्कूली व्यवस्था को कोसते रहते थे।थोड़े अंक प्राप्त अंकवीरों के लिए अपार संभावनाएँ थी रोज़गार की। स्कूल के बाद जो बच्चे कॉलेज में दाखिला लेते उनके सौभाग्य की तुलना आज के पढ़ाई के लिए विदेश जा रहे बच्चों से नहीं की जा सकती।वो दौर सरलता का था,सहजता का था।उस पर विद्यार्थियों के उच्च आत्मिक उत्थान का था।जहाँ व्यर्थ के आरोप-प्रत्यारोप नहीं थे। बोर्ड परिणाम की घोषणा एक सामाजिक पर्व था।हार्दिक आभार इस भावपूर्ण पोस्ट को साझा करने के लिए 🙏🙏🌺🌺
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद रेणु जी, इतनी अच्छी टिप्पणी के लिए आपने समय निकाला, इसके लिए बहुत बहुत आभार
हटाएं* जीवंत झाँकी 🙏
जवाब देंहटाएंहाँ, यही बात हमारे आईआईटी रूड़की के ह्वाट्सऐप ग्रुप में उत्तरप्रदेश बोर्ड से इंटर किए एक मित्र ने २० मई को डाली थी। यही वह दिन है जब उनके समय में बोर्ड के रिज़ल्ट की घोषणा होती थी और विद्यालयों में गरमी की छुट्टी भी घोषित हो जाती थी।बाक़ी उस दिन के माहौल का चित्र तो इस पोस्ट ने उजागर कर ही दिया है।
जवाब देंहटाएंजी सही कहा आपने...मैंने भी किन्हीं बिष्ट जी की पोस्ट का हवाला दिया है मगर ये यादें तो सांझां हैं
हटाएंसच में कितना कुछ याद दिला दिया इस लेख ने...
जवाब देंहटाएंसाथ ही वही न्यूज पेपर...
यादों का पिटारा खोलती बहुत ही लाजवाब पोस्ट
जी धन्यवाद सुधा जी, सांझी यादों को एकसंग याद करने के लिए मुझे ये पोस्ट का ज़िक्र करना इसीलिए जरूरी लगा...आपको अच्छा लगा,मेरे लिए बस यही काफी है
हटाएंगुज़रा ज़माना याद दिला दिया । तब रिज़ल्ट के लिए अखबार का कितना महत्त्व था । तब बच्चों पर पढ़ाई का इतना प्रेशर भी नहीं था ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संगीता जी
हटाएंकैसी जीवंत तस्वीर उकेरी है आपने सच वो गुजरा ज़माना याद क्या आप गया साक्षात जैसे चलचित्र सा दिख गया। सत्य और रोचक लेख ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
धन्यवाद कुसुम जी
हटाएंवाकई उन दिनों की बात ही निराली थी
जवाब देंहटाएंजीवित कर दिए वे दिन
बेहद प्रभावी अंदाज में उकेरा है आपने
अच्छा विश्लेषण
धन्यवाद ज्योति खरे जी
हटाएंऐसे सौभाग्यशाली शायद हम आखिरी पीढ़ी ही थे,२००० तक तो यदा कदा लोगों ने देखा होगा ये मंज़र मगर उसके बाद की पीढ़ी का दौर ही बहुत अलग हो गया। बेहद खुबसूरत यादों को साझा किया है आपने अलकनंदा जी, सभी को एक साथ खींच कर अतीत में ले गई आप, बहुत बहुत धन्यवाद आपको इसे साझा करने के लिए 🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कामिनी जी
हटाएंधन्यवाद अनीता जी
जवाब देंहटाएंगुजरे जमाने की यादें ताजा करती लाजवाब पोस्ट, अलकनन्दा दी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
हटाएं