याचिका के अनुसार 1974 से पहले ये व्यवस्था नहीं थी, 1974 से 1993 तक हलाल सर्टिफिकेशन सिर्फ मीट प्रोडक्ट के लिए दिया जाता था परंतु अब तो यह तेल, साबुन, शैम्पू, आटा, दाल, मैदा, चावल तक पहुंच गया है। याचिका में अन्य बातों के साथ-साथ कहा गया है कि 15% जनता की खातिर "85% जनता हलाल उत्पादों का उपभोग करने के लिए मजबूर हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 14, 21 के तहत प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों के हनन के लिए रचा गया एक ऐसा कुचक्र है जिसे व्यापारिक आवश्यकता का नाम दिया गया है, अत: हलाल प्रमाणित उत्पादों पर लगाम लगाई जाए।
इस याचिका के अतिरिक्त भी जो सूचनायें हैं वे देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा छेद कर चुकी हैं। मुस्लिम देशों की बात तो छोड़ दें क्योंकि वहां यह सर्टिफिकेट सरकारें देती हैं परंतु हमारे देश में हलाल सर्टिफिकेशन की प्रक्रिया न केवल व्यापार विरोधी बल्कि देश विरोधी भी है क्योंकि यह सर्टिफिकेट सरकार द्वारा नहीं दिया जाता बल्कि केवल हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, जमीयत उलेमा ए हिन्द हलाल ट्रस्ट जैसे प्राइवेट संस्थान ही देते हैं जो स्वयं को देश के कानून के प्रति जवाबदेह नहीं मानते। भला धार्मिक संस्थाऐं मजहब के नाम पर कारोबार के लिए परमिट कैसे बांट सकती हैं। और जो जायज़ और नाजायज़ की परिभाषा निर्धारित कर ये संस्थाऐं कलमा पढ़ा हुआ मांस खिलाकर हिन्दू और सिख धर्म के अनुयाइयों की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन कर रही हैं, सो अलग।
मीट कारोबार को छोड़कर बाकी कारोबारों के लिए यह वैधता से ज्यादा ''व्यापारिक बाध्यता'' बना दी गई है। भारतीय रेल, विमानन सेवा, फाइव स्टार होटल से लेकर मैकडोनाल्ड डोमिनोज़, जोमाटो जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां तक इसी सर्टिफिकेट के साथ काम करती हैं।
ग्लोबली हलाल प्रोडक्ट का कारोबार 4.2 बिलियन डॉलर्स के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुका है जिसमें भारत भी बड़ा हिस्सेदार है। भारत के सभी होटलों में मांसाहारी भोजन के लिए मसाला तक सभी हलाल सर्टिफाइड होता है और यह ग्राहकों को बिना उनकी जानकारी के परोसा जा रहा है।
स्वयं हलाल इंडिया के अनुसार इस समय भारत में 6 प्रकार के उद्योगों में हलाल सर्टिफिकेट बांटा जा रहा है जिसमें मेडिकल, रेस्टोरेंट, टूरिज्म, खाद्य सामग्री, ट्रेनिंग व वेयरहाउस शामिल है। ऐसे क्षेत्रों में हलाल सर्टिफिकेट प्राप्त करने के बाद यह सुनिश्चित किया जाता है कि काम करने वाला व्यक्ति मुस्लिम ही हो। जैसे हलाल मीट में यह तय किया जाता है कि मीट को काटते समय कुरान की आयतें पढ़ी जा रही हों व काटने वाला व्यक्ति मुसलमान हो। हलाल इंडिया के अधिकारी ने बताया कि यह सब इस्लामिक क़ानून के हिसाब से तय किया जाता है, हलाल एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है कि यहाँ सब कुछ शरिया क़ानून के नियमों के आधार पर तय होता है कि कौन सा खाद्य पदार्थ शरीर के लिए हानिकारक है और कौन सा नहीं। हलाल इंडिया सारी प्रक्रिया ‘शरिया बोर्ड’ की निगरानी में पूरी करता है। उसका कहना है कि अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ भी उसके द्वारा मान्यता प्राप्त खाद्य पदार्थों व उत्पादों को अपने-अपने देशों में मान्यता देती है।
बात यहां ये आती है कि जब औद्योगिक वस्तुओं के लिए ISI मार्क, कृषि उत्पादों के लिए एगमार्क, प्रॉसेस्ड फल उत्पाद जैसे जैम अचार के लिए एफपीओ, सोने के लिए हॉलमार्क आदि भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे हैं तो फिर ये अलग से हलाल सर्टिफिकेट का पुछल्ला क्यों।
जाहिर है कि शरिया कानून के नाम पर एक समानांतर अथर्व्यवस्था चलाई जा रही है, जिसके धन का उपयोग हम कभी दंगाइयों की पैरवी कभी धर्मांतरण तो कभी सीएए-एनआरसी जैसे विरोध प्रदर्शनों में किया जाता है।
देश में ''व्यापारिक बाध्यता'' के नाम पर खाद्य कंपनियों द्वारा हलाल सर्टिफिकेट लेने को दी गयी फीस का प्रयोग इस्लाम की बढ़ोत्तरी के लिए होता ही है, इसके साथ ही हलाल सर्टिफिकेट लेते समय एक क्लॉज जुड़ा होता है कि कंपनियां कुछ भी इस्लाम विरोधी नहीं कर सकती। इसीलिए अधिकाँश कंपनियां अपने प्रोडक्ट के विज्ञापन भी बनाते समय इस्लामिक आस्थाओं का ध्यान रखती हैं क्योंकि उनका पैसा जुड़ा हुआ है।
षडयंत्र की पराकाष्ठा देखिए कि केरल के पश्चिमी कोच्चि में स्थित एक रियल स्टेट कंपनी ने तो हलाल सर्टिफाइड अपार्टमेंट्स बनाए हैं जिसमें दावा किया गया है कि ये शरियत से अप्रूव है।
देश में सरकारी तंत्र को ठेंगा दिखाते हुए हलाल इंडस्ट्री का अपना ही अलग देश चल रहा है। इसने पूरी अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ाकर देश की अर्थव्यवस्था के पैरेलल अपनी एक अन्य अर्थव्यवस्था खड़ी कर दी है जिसका न ही कोई ऑडिट होता है न ही कोई रिकॉर्ड। साथ में वो रिपोर्ट भी डराती हैं कि हलाल इंडस्ट्री का पैसा आतंकी गतिविधियों में उपयोग किया जा रहा है। हलाल सर्टिफिकेशन के ज़रिए यह धार्मिक अर्थव्यवस्था अब तक 3 ख़रब रुपए के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी इस धार्मिक अर्थव्यवस्था को न आज कोई पूछने वाला है और न कोई हिसाब लेने वाला है।
निश्चित ही कोर्ट में याचिका आने के बाद समानांतर रूप से चलाई जा रही इस अवैध अर्थव्यवस्था के बारे बातें शुरू हुई हैं, लोगों ने अपने अपने अनुभव साझा करने शुरू किए हैं तो उम्मीद भी बंधी है कि...अब बात निकली है तो दूर तलक भी जाएगी भी....।
-अलकनंदा सिंंह