रविवार, 10 अप्रैल 2022

रामनवमी पर व‍िशेष: ऐसे थे न‍िराला के राम और राम की शक्तिपूजा


 आज रामनवमी है और इस अवसर पर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित काव्य राम की शक्तिपूजा के राम की बात यद‍ि हम ना करें तो रामनवमी का द‍िन सार्थक नहीं होगा। राम की शक्तिपूजा का प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र ‘भारत’ में पहली बार 26 अक्टूबर 1936 को हुआ था। इसका मूल निराला के कविता संग्रह ‘अनामिका’ के प्रथम संस्करण में छपा।

तब से लेकर आज तक हर कोई राम के व्यक्तित्व की व्याख्या अपनी अपनी तरह से करता रहता है। यहां तक क‍ि बिना रामायण के किसी भी संस्करण को पढ़े और राम के व्यक्तित्व पर चिंतन किए बिना कई कथित बुद्धिजीवी, विशेषकर फेमिनिस्ट (नारीवादी) प्रायः राम पर सीता का त्याग करने के लिए निशाना साधते रहते हैं और ब‍िना सोचे व‍िचारे क्षमायाचक (अपॉलोजेटिक) बने हिंदू उनका अनुसरण भी करते रहते हैं।

‘राम की शक्ति पूजा’ नामक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता में राम के कुछ ऐसे भी मनोभाव देखने को मिलते हैं जो शायद रामचर‍ित मानस में भी उल्लि‍खित नहीं हैं क्याेंक‍ि इसमें राम-रावण युद्ध को साधने के लिए राम द्वारा की गई शक्ति पूजा का भी उल्लेख है जिसका संदर्भ भले ही पुराणों में मिलता है लेकिन वाल्मीकि या तुलसी रामायण में नहीं।

शक्ति पूजा से पूर्व राम देवी के विधान से निराश हैं। उनकी निराशा इस बात से है कि अधर्मी होने के बावजूद वे रावण का साथ क्यों दे रही हैं। वे अपनी व्यथा बताते हुए कहते हैं कि शक्ति के प्रभाव के कारण उनकी सेना निष्फल हुई और स्वयं उनके हस्त भी शक्ति की एक दृष्टि के कारण बाण चलाते-चलाते रुक गए थे।

निराला ने अपने शब्दों में राम की पूरी ”वो पूजा” जो शक्त‍ि आराधना को समर्प‍ित थी, को हमारे सामने ऐसे उदाहरण की तरह पेश क‍िया जो पूरे के पूरे मानवीय आदर्श को नई पीढ़ी के ल‍िए एक प्रेरणा के तौर रखेगा।

राम की शक्तिपूजा का एक अंश

रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।
आज का तीक्ष्ण शरविधृतक्षिप्रकर, वेगप्रखर,
शतशेल सम्वरणशील, नील नभगर्जित स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह
राक्षस विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि राजीवनयन हतलक्ष्य बाण,
लोहित लोचन रावण मदमोचन महीयान,
राघव लाघव रावण वारणगत युग्म प्रहर,
उद्धत लंकापति मर्दित कपि दलबल विस्तर,
अनिमेष राम विश्वजिद्दिव्य शरभंग भाव,
विद्धांगबद्ध कोदण्ड मुष्टि खर रुधिर स्राव,
रावण प्रहार दुर्वार विकल वानर दलबल,
मुर्छित सुग्रीवांगद भीषण गवाक्ष गय नल,
वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्ल रोध,
गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध,
उद्गीरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतुःप्रहर,
जानकी भीरू उर आशा भर, रावण सम्वर।
लौटे युग दल। राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज पति चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

‘राम की शक्तिपूजा’ की कुछ अन्तिम पंक्तियाँ देखिए

“साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम !”
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर।

“होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।”
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।

- अलकनंदा सिंंह

11 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-4-22) को "ऐसे थे न‍िराला के राम और राम की शक्तिपूजा" (चर्चा अंक 4398) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

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  2. निराला जी की राम की शक्तिपूजा का अंश शेयर करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद अलंकनंदा जी !

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  3. 'राम की शक्ति पूजा ' इस अर्थ में बहुत अर्थवान हो जाती कि इसमें राम को एक पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है . पुरुष के रूप में ही उनका पुरुषार्थ सामने आता है. जबकि तुलसीदास ने राम को ब्रह्म रूप में चित्रित कर पुरुषार्थ को कम किया है क्योंकि वे सर्वशक्तिमान हैं उन्हें तो जीतना ही है .
    निराला जी का यह अद्भुत आख्यानक गीत है.

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  4. बहुत सुंदर आलेख और निराला जी की राम की शक्ति पूजा के माध्यम से राम के पुरुषोत्तम वाला चरित्र और भी निखर आया है।
    निराला जी के इस सृजन पर बिशेष ध्यान दिलवाने के लिए बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी।
    बहुत सुंदर पोस्ट।

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  5. निराला जी कृत “राम शक्ति पूजा” और श्री राम के मानवीय गुणों पर प्रकाश डालते आलेख को साझा करने के लिए हार्दिक आभार अलकनन्दा जी ! सादर..।

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