किसी भी समृद्ध सभ्यता को तहस-नहस करना हो तो उसका नैतिक पतन करते चलो, उसकी आस्था के केंद्रों को मिटाते चलो, सभ्यता स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। सदियों से यही किया जाता रहा है हमारे समृद्ध सभ्यता केंद्रों अर्थात् हमारे मंदिरों के साथ, जिनकी स्थापत्य-कला और वैज्ञानिकता आज भी शोध का विषय बनी हुई है। भारत की सभ्यता और इसकी सनातन शक्ति को तोड़ने के लिए पहले विदेशी आक्रांताओं द्वारा प्रहार दर प्रहार किये गये और जो शेष रहा, उसे ‘द हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट-1951’ के बहाने अब तक किया जा रहा है।
संभवत: अब इसीलिए ईशा फाउंडेशन के सद्गुरू जग्गी वासुदेव ने #FreeTemples जैसे अभियान चलाए हुए हैं जिसे अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती का पूर्ण समर्थन भी है ताकि मंदिरों को ‘सरकारी चंगुल’ से छुड़ाया जा सके। #FreeTemples के पीछे मूल कारण है मंदिरों से प्राप्त धन केे जरिए बड़े पैमाने पर धर्मांतरण और हजारों मंदिरों को धराशायी कर उनकी चल-अचल संपत्ति का गैरकानूनी गतिविधियों में उपयोग।
मंदिरों पर सरकारी आधिपत्य के बारे में एक खोजी रिपोर्ट पढ़नी हो तो इस्कॉन (ISKCON) के अनुयायी व वैदिक इतिहास के लेखक नंदनंदन दास (स्टीफन नैप) की ‘क्राइम अगेंस्ट इंडिया एंड द नीड टू प्रोटेक्ट एनसिएंट वैदिक ट्रेडिशन’ को पढ़ा जाना चाहिए ताकि हमें ज्ञात हो सके कि द हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट-1951 क्यों बना, इसके निहितार्थ किसे लाभ देते रहे और इस एक कानून ने मंदिरों की दुर्दशा के लिए क्या-क्या नहीं किया।
लेखक नंदनंदन दास (स्टीफन नैप) की किताब में इसका भी उल्लेख है कि किसी भी धर्मनिष्ठ राजा ने मंदिरों के निर्माण के बाद उन पर आधिपत्य स्थापित नहीं किया। बहुत से राजाओं ने तो अपने नाम तक के शिलालेख नहीं लिखवाए। यहाँ तक कि उन्होंने बहुत सी ज़मीनें, हीरे-जवाहरात एवं सोना इत्यादि भी मन्दिरों को दान स्वरूप दिया। उन्होंने सुगमतापूर्वक इनका संचालन मन्दिर प्राधिकरण को सौंप दिया। शताब्दियों पूर्व धर्मनिष्ठ राजाओं द्वारा सैंकड़ों मन्दिरों का निर्माण उनके द्वारा और जनमानस द्वारा इकट्ठी की गई दानस्वरूप धनराशि से किया गया। यह धनराशि लोक कल्याण के लिए भी प्रयोग की जाती थी।
परंतु ‘द हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट-1951’ के इस कानून के जरिये राज्यों को अधिकार दे दिया गया कि बिना कोई कारण बताए वे किसी भी मंदिर को सरकार के अधीन कर सकते हैं। और यही हुआ भी, जिसका उदाहरण आंध्रप्रदेश का है जहां इसी कानून के नाम पर में 43000 मन्दिरों का अधिग्रहण किया गया जिनसे प्राप्त राजस्व का 18% ही मन्दिरों के रखरखाव के लिए दिया गया, शेष 82% उन गैरहिंदू बनाने के धर्मांतरण पर लुटा दिए गए, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी उपलब्ध हैं। अकेले तिरुपति बाला जी मंदिर से ही प्रतिवर्ष 3100 करोड़ रुपये इकट्ठे होते हैं जिसका 85% सरकारी खजाने में जाता है और इसका उपयोग सरकार कहां करती है, कोई हिसाब नहीं दिया जाता, इस मंदिर के बेशकीमती रत्न ब्रिटेन के बाजारों में बिकते पाए जा चुके हैं और तो और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी ने तिरुपति की सात पहाड़ियों में से पांच को सरकार को देने का आदेश दिया था। इन पहाड़ियों पर चर्च का निर्माण किया जाना था, अब इन्हीं का बेटा जगन रेड्डी 10 मन्दिरों को ध्वस्त कर गोल्फ़ मैदान को बना रहा है और बड़े पैमाने पर हिंदुओं का धर्मांतरण कर उन्हें ईसाई बना रहा है।
इसी तरह कर्नाटक में 2 लाख मन्दिरों से एकत्र 79 करोड़ रुपये में से केवल 7 करोड़ मंदिर रखरखाव को मिले शेष 72 करोड़ में से 59 करोड़ मदरसों व 13 करोड़ चर्च को दिए गए। साफ पता चलता है कि हिंदुओं की धनराशि का उपयोग उन धर्मों के लिए किया जाता है जो धर्मान्तरण को बढ़ावा देते हैं। इन सभी मंदिरों के दान में भ्रष्टाचार का स्तर यह है कि कर्नाटक में लगभग 50 हजार मंदिर रख-रखाव के अभाव में बंद हो गए हैं।
सरकारी ट्रस्टों के अधीन मंदिर की दुर्दशा का एकमात्र कारण मंदिरों के अंदर गैर धार्मिक, राजनीतिक व्यक्तियों का ट्रस्टी के रूप में सरकारों द्वारा मनोनयन भी है। इससे हिंदू संस्कृति को क्षति पहुंच रही है।
बहरहाल अप्रैल 2019 में दक्षिण भारत के एक मंदिर के प्रबंधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में यह निर्णय दिया गया कि मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारा प्रबंधन किसी ‘सेक्युलर सरकार’ का काम नहीं है। यह उस आस्थावान समाज का काम है, जो अपने पूजास्थलों के प्रति श्रद्धा रखता है और दानस्वरूप धन खर्च करता है। वही समाज अपने पूजास्थलों का संरक्षण एवं प्रबंधन करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भले ही 128 संप्रदायों वाले सनातन हिंदू समाज की पूजा पद्धतियां भिन्न हों परंतु इन सभी में संस्कार तो वैदिक ही हैं। संतों के विभिन्न संगठनों से संवाद कर हिंदू मंदिरों के प्रबंधन व्यवस्था को सुदृढ़ किए जाने की ज़रूरत है।
साढ़े नौ लाख मंदिर अभी भी हमारे हैं जिनमें साढ़े चार लाख मंदिरों पर विभिन्न राज्य सरकारों का कब्ज़ा है। उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश ही आज #FreeTemples जैसे अभियानों का संबल बना है।
देश की आजादी से पूर्व मंदिरों के धन को लूटने के लिए जो साजिश अंग्रेजों ने कानून ‘मद्रास हिंदू टेंपल एक्ट 1843’ बनाकर रची, और जवाहरलाल नेहरू ने उसी को ‘1951’ में अपना जामा पहना दिया ताकि सेक्यूलरिज्म के नाम पर इन्हें तहस-नहस किया जा सके। मंदिर मुक्ति की राह में अब उस कानून को समाप्त किया जाने का वक्त आ गया है।
- अलकनंदा सिंंह
बहुत बड़ा खेल चल रहा है। जिसे किसी भी कीमत पर रोकना होगा...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम जी
हटाएंसशक्त आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित विषय उठाया है,आपने अलकनंदा जी,हमारे मंदिरों के साथ जो अन्याय वर्षों से चल रहा है,वो अब जरूर खत्म होना चाहिए,सरकारों को स्वयं ही दखल देना चाहिए,पर कहीं भी ऐसा होना दिख नही रहा,सार्थक लेखन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जिज्ञासा जी , सब कुछ होगा, अभी तो ये शुरुआत है
हटाएंमंदिर मुक्ति की राह में ......
जवाब देंहटाएंसफर यह लम्बा है , दीदी
सही कहा भाई मनोज जी, परंतु आवाज़ उठनी शुरू हुई है तो आगे भी अवश्य जाएगी, राम मंदिर ने हौसला बढ़ा तो दिया ही है ...देखते हैं आगे क्या क्या होना है । धन्यवाद
हटाएंकाम की चर्चा रही, सार्थक लेखन, हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंकाम की चर्चा रही, सार्थक लेखन, हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी
हटाएंBahut Hi Sunder Article Hai
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजेश जी
हटाएंबहुत ही सारगर्भित लेख ।
जवाब देंहटाएंकितने तथ्य उजागर करता है ये आलेख जो हमें पता भी नहीं।
बहुत सुंदर जानकारी।
धन्यवाद कुसुम जी
हटाएंसटीक और सशक्त आलेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी
हटाएंपूर्णतः सहमत ... सरकारी कब्ज़े से मुक्त कर के एक नई, स्वस्थ, स्वचालित परंपरा स्थापित करना बहुत ज़रूरी है आज ... जिससे धर्म का विस्तार हो ... धर्म के लिए कार्य हो, शोध हो हिन्दू धर्म का विकास हो ...
जवाब देंहटाएं