आज देवी अष्टमी है और आज के दिन यदि कुछ लिखा जाये और वह महिलाओं से संबंधित ना हो , ऐसा हो नहीं सकता। यूं देखा जाये तो हम पत्रकार लोग अकसर ज्वलंत मुद्दों पर ही लिखते हैं और आंकड़ों की बाजीगरी कम करते हैं, परंतु कुछ स्थापित लेखक और बड़े संस्थानों के '' बड़े चिंतक '' जब आंकड़ों पर आधारित बात करके किसी भी समस्या को कागजों पर ही तैराते हैं तो बड़ा दुख होता है क्योंकि आंकड़े कभी ज़मीनी हक़ीकत नहीं बता पाते।
ऐसा ही आज के समाचार पत्र में ''सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज'' के निदेशक 'सी. उदय भास्कर' का एक लेख पढ़ा, जो कि दुष्कर्म और महिलाओं की स्थिति पर ' समाज की जिम्मेदारी' पर लिखा गया था, उन्होंने हाथरस के जिस केस से शुरुआत की, वह बेहद हवा हवाई था, क्योंकि इस केस से संबंधित जांच एंजेंसियों की अभी तक की प्रगति, राजनीतिक कुप्रचार और ग्रामीणों के हवाले से जो बातें छन कर आ रही हैं, वे सभी जानकारी पूरे मीडिया में उपस्थित है परंतु उदयभास्कर जी ने इसे भी रटे रटाये अंदाज़ में पिछले एक दशक के आंकड़े पेश करते हुए मात्र ''दलित उत्पीड़न और महिलाओं पर अत्याचार'' के संदर्भ में देखा । जबकि आज के संदर्भ में पूरा का पूरा केस ही एकदम अलग एंगिल लेकर सामने आ रहा है...तमाम संदेह और सुबूत इशारा करते हैं कि केस जो प्रचारित किया गया... वैसा है नहीं और इसे मैं पहले भी लिख चुकी हूं।
दरअसल SCSTAct में फर्जी केस दर्ज कराने और 2 लाख रुपये लेकर केस वापस लेने से पनपी 19 साल पहले की रंजिश और मृतका के प्रेम संबंधों के चलते दुश्मनी को गाढ़ा रंग मिला। इत्तिफाक ऐसा कि लड़की से संबंध रखने वाले का नाम संदीप और लड़की भाई का भी नाम संदीप... विक्टिम लड़की के सबसे पहले जो वीडियो आए वे सारी कहानी बताते हैं परंतु विक्टिम के परिवारीजन शुरू से ही संदेह के घेरे में रहे और इसकी तस्दीक उन्होंने नार्को टेस्ट से मना करके कर भी दी। तमाम अन्य कारणों को तो जाने ही दें।
मैं आज इस केस पर नहीं लिख रही बल्कि आंकड़ों के ज़रिये महिला अत्याचारों पर अब तक बनाए जाते रहे नैरेटिव पर लिख रही हूं। कि आखिर ये नैरेटिव क्यों बनाया जा रहा है, क्यों सी. उदयभास्कर सरीखे सभी बड़े पॉलिसी मेकर्स आज तक सरकारों, अधिकारियों और राजनीति को दोषी बताते नहीं थक रहे और क्यों ये बुद्धिजीवी सदैव ही महिलाओं के हित बनने वाली नीतियों को कमतर ठहराने का राग अलापते रहते हैं। वे यह क्यों हम भूल जाते हैं कि हम ही उसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। ''गांव की बेटी- सबकी बेटी'' के ध्वस्त हो चुके सामाजिक ढांचे के लिए वे अपनी आवाज़ क्यों नहीं उठाते। जब SCSTAct में जाति सुचक शब्द कहने पर सजा का प्राविधान है तो महिलाओं के नाम पर दी जाने वाली गालियों पर क्यों नहीं।
समाज में अभीतक हमने ही तो जो फसल महिलाओं की बेइज्जती कर- कर के बोई है अब वही तो काट रहे हैं फिर ये हाय-हाय क्यों।
नेता भी इसी समाज से आते हैं और अधिकारी भी... दुष्कर्मी भी कोई आसमान से नहीं टपकते, उन्हें हम ही तैयार करते रहे हैं...अपने घर की फैक्ट्री में और तो और अब भी ऐसा करने से बाज नहीं आ रहे। कभी हमने अपने परिवारों में... अपने घरों में.. रिश्तेदारियों...में देखा है कि कोई पुरुष गाली देता है तो घर की महिलायें उसे टोकती हों या अन्य बुजुर्ग अथवा पुरुष उस पर ऐतराज करते हों, जबकि हम सभी जानते हैं भारतीय समाज में हर भाषा में सभी गालियां लगभग महिलाओं पर यौनिक आत्याचार से ओतप्रोत होती हैं... हम फिर भी उन्हें देते हुए सुनते हैं, कोई अपना किसी को दे रहा हो तो खुश भी होते हैं , आत्मसंतुष्टि होती है ये देखकर फलां को नीचा दिखा दिया...।
तो गिरेबां तो हमने मैला किया हुआ है अपने समाज का और आशा करते हैं कि पीढ़ियां सुधर जायें... ऐसा कैसे संभव है। कम से कम बढ़े लेखकों, पॉलिसी मेकर संस्थानों के निदेशक जैसे पदों पर बैठे लोगों को किसी नैरेटिव पर लिखते समय यह अवश्य सोचना चाहिये कि वे यह सब अखबारों, वेबपोर्टल्स से मेहनताना पाने के लिए नहीं लिख रहे , वे समाज को आइना दिखाने और एक कदम आगे बढ़कर उसके लिए ''कुछ पॉजिटिव'' करने के लिए लिख रहे हैं, शब्द सदैव जीवित रहता है ... वह क्रांति भी ला सकता है और तबाही भी। सोचना बुद्धिजीवियों को है कि वे समाज में अपने शब्दों से कौन सी भुमश्िका निबाहना चाहते है।
आज बस इतना ही।
- अलकनंदा सिंंह