अनियंत्रित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुष्परिणाम:
कुछ नासूर ऐसे होते हैं जो किसी एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरे समाज को अराजक स्थिति में झोंक देते हैं, ऐसा ही एक नासूर है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र बचाने के नाम पर ''आंदोलन'' की बात करना, फिर चाहे इसके लिए कोई भी अराजक तरीका क्यों ना अपनाया जाये। हाल ही में किया जा रहा किसान आंदोलन इसी अराजकता और भ्रम की परिणति है। ''किसानों के नाम पर'' किये जाने वाले इस आंदोलन के कर्ताधर्ता दरअसल भयभीत हैं कि उनकी सूदखोर लॉबी के हाथ से निकल कर किसान अपनी उपज का खुद मालिक बन जायेगा।
आंदोलन का जोर हरियाणा, पंजाब में ज्यादा रहा क्योंकि इन दोनों ही प्रदेशों में मंडी कारोबारी हों या कोल्ड स्टोरोज चेन के मालिक सभी नेता हैं। हरियाणा में देवीलाल के पोते दुष्यंत चौटाला या पंजाब के अकाली दल की बादल फैमिली का करोबारी हित इससे प्रभावित हो रहा है। ठीक यही स्थिति महाराष्ट्र में एनसीपी के पवार फैमिली की भी है, तभी तो अजित पवार ने कहा कि वे कानून को महाराष्ट्र में लागू नहीं होने देंगे। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भी भाकियू ने प्रदर्शन किये, इसमें भाग लेने वाले ''किसान'' दरअसल मंडी में कमीशन एजेंटों व आढ़तियों के वे गुर्गे ही निकले परंतु यहां उनकी '' नेतागिरी'' की सारी हवा पढ़े लिखे किसानों ने ही निकाल दी।
संसद में भी आपराधिक पृष्ठभूमि वालों ने तो भरपूर अराजकता फैलाने की कोशिश की, संसद के बाहर धरना दिया, राष्ट्रपति से जाकर भी मिले कि विधेयकों को पास न किया जा सके और कहीं से भी प्राणवायु मिल सके परंतु अब यह कानून ''कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य विधेयक-2020'' बन गया। इसमें किसानों के हित में ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो कृषि उत्पाद बाजार की खामियों को दूर करेंगे। अब किसानों को अपना उत्पाद बेचने के लिए एपीएमसी यानी कृषि मंडियों तक सीमित रहने के लिए मजबूर नहीं होना होगा। कानून बनने के बाद राज्य की मंडियां या व्यापारी किसी प्रकार की फीस या लेवी नहीं ले पाएंगे। जिस एमएसपी को लेकर संशय पैदा किया जा रहा है , केंद्र सरकार ने अगले ही कदम में रबी की फसलों का एमएसपी बड़ा कर ये शंका भी निर्मूल साबित कर दी। अब...? अब ये क्या करें .. कहने को कुछ नहीं ..बचा तो कुलमिलाकर ये कौआ कान ले गया जैसी कहावत को ही चरितार्थ कर रहे हैं जहां ना कौआ है ना ही कान गायब है ..है तो बस सिर्फ हंगामा ..वो भी बेवजह।
वर्ष 1967 में बना कृषि बाजार उत्पाद समिति यानी एपएमसी एक्ट और वर्ष 1991 के बाद आर्थिक सुधारों के बाद भी बिचौलियों के कारण कृषि उत्पाद बाजारों की उपेक्षा, किसानों का शोषण के लिए सरकारी लाइसेंस ने स्थिति औश्र बिगाड़ी ही। हालांकि 2001 में शंकरलाल गुरु समिति ने कृषि उत्पाद बाजार के संवर्द्धन एवं विकास के लिए 2,600 अरब रुपये के निवेश का सुझाव दिया, लेकिन उस पर चुप्पी साध ली गई। ऐसे में जाहिर है कि इस कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य विधेयक-2020 कानून से उस वर्ग को तो खीझ होगी ही जो अब तक कृषि उत्पाद बाजार से अरबपति बन गए। कृषि मंडियां जिनके लिए कमाई का अहम ज़रिया रहीं, कृषि मंडियों की खामियों व उनके परिसर में संचालित होने वाले उत्पादक संघों से कौन सा किसान आजिज़ नहीं होगा।
इस सारे कथित आंदोलन से एक बात तो साफ हो गई कि जिन्होंने कायदे से गांव नहीं देखे, खेत से जिनका साबका नहीं पड़ा, फसल की निराई-गुड़ाई नहीं की, उपज की मड़ाई-कटाई नहीं की, घर पर खेतों से अनाज कैसे आता है, जो नहीं जानते, वे लोग किसानों के हमदर्द बनने का दावा कर रहे हैं। दरअसल ऐसे लोगों की कोशिश अपनी राजनीति चमकाना है, इसीलिए वे राज्यसभा में अध्यक्ष की पीठ के सामने मेज पर चढ़ जाते हैं...हंगामा करते हैं और इसके बावजूद खुद को संसदीय आचरण के संवाहक मानते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज की जनता सूचनाओं के बहुस्रोतों के उपयोग की आदी हो गई है। वह भी सच और झूठ समझने लगी है। उसकी समझ ही मौजूदा राजनीति को जवाब देगी।
- अलकनंदा सिंंह