शनिवार, 30 मई 2020

चकाचौंधी पत्रकार‍िता में खोए जा रहे फीन‍िक्स पत्रकारों के नाम…30 मई

1826 में 30 मई की तारीख को जब हिंदी भाषा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के नाम से पहला समाचार पत्र निकाला गया तब यह द‍िन सदैव के ल‍िए पत्रकार‍िता व पत्रकारों के ल‍िए ऐत‍िहास‍िक, वैचार‍िक पर‍िघटना के बतौर पत्रकार‍िता द‍िवस के रूप में मनाया जाने लगा। आज भले ही लॉकडाउन में पत्रकारों व पत्रकार‍िता के ल‍िए सशरीर कसीदे ना पढ़े जायें परंतु ऑनलाइन माध्यमों में इन कसीदों में कोई कमी भी नहीं रखी जाएगी।
मैं इनको कसीदे इसल‍िए कह पा रही हूं क‍ि ना तो इनसे पत्रकार‍िता का कोई लेना देना होगा और ना ही पत्रकारों की दशा को लेकर कुछ गंभीर क‍िया जाएगा। ये तो खाल‍िस ”पत्रकारों के नाम एक द‍िन” पर गालबजाऊ प्रक्र‍िया ही रहेगी। पत्रकार‍िता के नाम पर नेताग‍िरी करने वालों द्वारा ”ये कमी है -वो कमी है ” जैसे कुछ रोने रोए जायेंगे, कुछ चने के झाड़ों पर चढ़ाए जायेंगे, कुछ को सम्मानि‍त क‍िया जाएगा, कभी पूरी न होने वाली कुछ मांगें सरकारों से रखी जाएंगी… और बस… एक द‍िन और पत्रकारों – पत्रकार‍िता के ल‍िए यूं ”कुर्बान” कर द‍िया जाएगा।
इस सारी नेताग‍िरी के बावजूद पत्रकार‍िता तो सदैव ही कठ‍िनाइयों से जूझती आई है, पत्रकार‍िता व इसकी स्वतंत्रता को अपने कंधों पर यहां तक ढोकर ले आए पत्रकारों की अन‍िश्च‍ितता तो जहां थी, आज तक वहीं खड़ी है। वह मीड‍िया घरानों की शोषणकारी नीत‍ियों का श‍िकार है, पीत पत्रकार‍िता से भी जूझ रहा है। स्वयं अपनी पहचान का संकट तो है ही, पार‍िवार‍िक व आर्थ‍िक चुनौत‍ियों से भी दोचार हो रहा है। फ्रीलांसर हों या अवैतन‍िक मीड‍ियाकर्मी, स्ट्र‍िंगर हों या जॉब से न‍िकाले जाने की धमकी के साथ ऑफ‍िस आने को व‍िवश क‍िए गए पत्रकार सभी का हाल एक ही है।
उसूलों के तौर पर राख हो चुकी पत्रकार‍िता और फीन‍िक्स की भांत‍ि इससे जीव‍ित हो उठने वाले ये पत्रकार ज‍िन वि‍वशताओं में काम कर रहे हैं उसमें ये सोचना तो कतई बेमानी है क‍ि जो सच द‍िखाया, पढ़ाया या सुनाया जा रहा है, वह सच में ”सच” ही होगा। चकाचौंधी पत्रकार‍िता में ये फीन‍िक्स खोए जा रहे हैं। एक संस्थान से दूसरे , दूसरे से तीसरे में जाकर अपनी र‍िपोर्ट्स को एक टेबल से दूसरी पर ख‍िसकाने को बाध्य हैं। ऐसा ही चलता रहा तो समाचारों के जंगल के तौर उभर रहे सोशल मीड‍िया प्लेफॉर्म्स के जमाने में कहां बचेगी पत्रकार‍िता?
अंततोगत्वा पत्रकार‍िता द‍िवस पर आज बहुत कुछ बोला जाएगा, चौथा खंभा का माल‍िक, सच का पहरेदार, फलां योद्धा कहकर भरमाया जाएगा और ना जाने क्या क्या कसीदों से द‍िन में ही स्वप्न द‍िखाये जायेंगे… मैं घोर सकारात्मक रहने वाली भी ये सच बखूबी जानती हूं क‍ि एक पत्रकार का वेतन तक जहां मीड‍िया संस्थान के माल‍िक की दया और चरणवंदना पर न‍िर्भर करता हो, वहां पत्रकार‍िता या पत्रकार के ल‍िए इन सारे ”चोंचलों” से आगे सोचना भी बेकार है।
- अलकनंदा स‍िंह 

मंगलवार, 19 मई 2020

...रक्त पिपासु ने विक्रय की लाखों में तस्वीर

व्यथा व बेचारगी की ऑनलाइन सेल
सुख क‍िसे बुरा लगता है, बैठे ठाले अपना रोजगार छोड़कर कौन जाना चाहता है परंतु लगभग 2 महीने की बेकारी के बाद घटती जा रही जमापूंजी के संग आगे बढ़ती असमंजस भरी ज‍िंदगी तथा अपनों से दूरी… ऐसी कई व्यथा हैं जो आज कामगारों और मजदूरों के हालात बयां कर रही हैं, इन व्यथाओं ने ”उनके सुख” पर प्रश्नच‍िन्ह लगा द‍िया है …। एसी कमरों में बैठकर हम ना तो उन व्यथाओं का अंदाज़ा लगा सकते हैं और ना उस अन‍िश्च‍ितता का। हद तो तब होती है जब उनकी ये व्यथा बाजार में बेचने रख दी जाए।
ऑनलाइन सेल
फोटो जर्नल‍िस्ट्स द्वारा ई कॉमर्स वेबसाइट पर व्यथा व बेचारगी की ऑनलाइन सेल
जी हां, ऐसा ही क‍िया गया है इस बेबसी की ऑनलाइन सेल लगाकर। अफरातफरी के इस आलम में अगर मजबूर, फटेहाल, छाले पड़े नंगे पैर, आंसू भरी आंखें, गर्भवती का दर्द, साइक‍िल के डंडे पर सोती नन्हीं बच्च‍ियों की तस्वीरों को फोटो जर्नल‍िस्ट्स द्वारा ई कॉमर्स वेबसाइट पर ”ऑन सेल” लगा द‍िया जाये तो… ? आप इसे क‍िस श्रेणी में रखेंगे… मानवीय, अमानवीय, बाजारवाद या अपनी पेशेगत असुरक्षा की श्रेणी में?
माना क‍ि फोटोग्राफी कमरों में बैठकर नहीं हो सकती, यह जीती जागती पूरी र‍िपोर्ट होती है उस लम्हे की जो क‍िसी ने कैसे ज‍िया, परंतु मौजूदा सूरतेहाल में कामगारों की मजबूरी को ऑनलाइन सेल पर लगा देना… अमानवीय ही कहा जायगा। हम पत्रकारों के ल‍िए ये बात बेहद शर्मनाक है क‍ि मार्केट‍िंग के दौर में मानवीय और अमानवीय के बीच भेद नहीं कर पा रहे।
इंड‍िया टुडे ग्रुप की ओर से हृदयविदारक तस्वीरें ई कॉमर्स वेबसाइट पर बिक्री के लिए देख कर हैरान हूं मैं। इन कामगारों को तो पता भी न होगा कि वो बिक गए, उनके आँसू… टूटी चप्पल… फटा बैग… सब सेल पर लगे हैं । इनमें से एक एक फ़ोटो का दाम 8000 से 20000 तक रखा गया है।
माना कि सबको घर चलाना है लेकिन इन तस्वीरों से कमाई? कुछ समय बाद इनमें से कोई पुल‍ित्जर ले आए तो आश्चर्य नहीं, पुल‍ित्जर की तो पॉल‍िसी ही ” बेचारगी” को बेचने और लाचारगी को उत्कृष्ट बताने की है। फोटो पत्रकार‍िता के इसी कृत्य में शाम‍िल बीबीसी के विज्ञान, तकनीक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार पल्लव बागला ने तो ISRO के वैज्ञानिकों की फोटो तक ऑनलाइन सेल के लिए रख दी थी।
ऑनलाइन सेल पर रखी गई तस्वीरों के पीछे पूरी मार्केट‍िंग स्ट्रेटजी होती है, जो ज‍ितनी ज्यादा हृदय व‍िदारक, उसकी उतनी ही ज्यादा कीमती। बानगी देख‍िए क‍ि मज़दूर परिवार थककर चूर है, प्रेस फोटोग्राफर ने निढाल परिवार को बैठने को कहा, फिर मासूम से मां का पैर दबवाया, और फ़ोटो क्लिक, अब अगले फ़ोटो की बारी…अब मां ने बच्चे का पैर दबाया..फ‍िर फोटो क्ल‍िक। एनडीटीवी ने फोटोग्राफर ने तो थकेहारों का हुजूम के साथ यमुना पार कर आए व्यक्त‍ि को फ‍िर से कहा क‍ि वापस जाओ यमुना में…हमारी ओर देखो… ऐसा करते ही क्ल‍िक, स‍िर्फ एक ख़बर के लिए।
याद है ना! गुजरात दंगों में एक रोते व्यक्त‍ि की फोटो इतनी वायरल हुई क‍ि उसे बाकायदा कोर्ट से जाकर उस फोटो को हटवाने की गुहार लगानी पड़ी।
क‍िसी ने इनके ल‍िए ही कही हैं ये चार लाइनें और बात खत्म –
किसने समझी किसने जानी मजदूरों की पीर।
रक्त पिपासु ने विक्रय की लाखों में तस्वीर।
फ़क़त बुजुर्गों की छाया को निकले नंगे पांव।
सड़कों पर दम तोड़ गए देखो भारत के गांव।
- अलकनंदा स‍िंह 

शनिवार, 16 मई 2020

प्रवास‍ियोंं पर याच‍िका के उन्माद का अर्धसत्य

क‍िसी भी अध‍िकता की प्रवृत्त‍ि उन्मादी होती है। वह हर हाल में नुकसान पहुंचाती है। फिर चाहे वह अध‍िक मीठा हो, अध‍िक खारा या अध‍िक चुप्पी या फिर अध‍िक वाचाल प्रवृत्त‍ि….। घर में बैठे बुजुर्ग यद‍ि अध‍िक बोलने लगें तो उनकी ”अच्छी बातें” भी हम ”ये तो बस यूं ही बड़बड़ाते रहते हैं” कहकर अनसुनी कर देते हैं। ऐसे ही अनेक लोग आपको मीड‍िया, सोशल मीड‍िया या आस-पड़ोस में म‍िल जाऐंगे, जो ”हर वि‍षय पर वक्त-बेवक्‍त ”ज्ञान बघारने” का काम करते रहते हैं।
इस कोरोना संकट के समय पलायन कर रहे प्रवासियों की बात हो या कोरोना से बचाव के उपाय, उपदेशों की अध‍िकता ने द‍िमाग चकरा द‍िया है क‍ि आख‍िर इन ”कृपा बरसाने वालों” का उपाय क्या है। संभवत: इसी अध‍िकता से आज‍िज़ आ गई अदालतों ने भी अब याचि‍काकर्ताओं को दोटूक जवाब देना शुरू कर द‍िया है।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मजदूरों के ट्रेन की पटर‍ियों पर सोने के कारण हुई मृत्यु पर कल अदालत ने एक याच‍िका रद्द करते हुए याच‍िकाकर्ता वकील से कहा क‍ि ऐसे प्रवास‍ियों को रोकना असंभव है जो सरकारों द्वारा लगातार क‍िये जा रहे उपायों के बाद भी न केवल पैदल चल रहे हैं बल्क‍ि रेल की पटर‍ियों पर सो कर स्वयं अपनी मौत को आमंत्रण दे रहे हैं। सरकारों को अपना काम करने दें, उन्हें एक्शन लेने दें, क‍िसी को भी अपनी बारी का इंतज़ार तो करना ही होगा, और यही व्यवस्था का मूल है।
हर ऐरे-गैरे व‍िषय पर याच‍िका दायर करने की अध‍िकता ना तो सरकारों को काम करने दे रही है और ना ही स्वयं नागर‍िकों को उनके कर्तव्य का बोध करा रही है। याच‍िकाएं अब स‍िर्फ अध‍िकारों को मांगने का ज़र‍िया बनकर रह गई हैं, गोया क‍ि अध‍िकार स‍िर्फ नागर‍िकों के होते हैं और कर्तव्य स‍िर्फ सरकारों के।
जहां तक बात है प्रवासी मजदूरों पर याच‍िका की तो न‍िश्च‍ित ही उनके ल‍िए ये समय सब्र और बुद्ध‍ि से काम लेने का है, ना क‍ि आवेश और गुस्से में आकर मीलों तक पैदल सफर करने का। सरकार द्वारा ट्रेन की व्यवस्था क‍िये जाने व बसों में उनके गंतव्य तक पहुंचाए जाने के बावजूद वे अपनी जेब से भारी भरकम पैसा खर्च कर यद‍ि ट्रकों में ठुंसकर सफर करने पर आमादा हैं तो उन्हें रोकना असंभव है। इसी तरह वे जो रेल की पटर‍ियों पर सो गए, ना तो अबोध थे और ना ही मंदबुद्ध‍ि फ‍िर उनके ल‍िए सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जाहिर है कि ना तो हर मृत व्यक्त‍ि ”न‍िर्दोष” होता है और न हर गरीब ”बेचारा”। ये समय सरकारों का साथ देकर व्यवस्थाओं को मानने का है।
प्रवासी मजदूरों के झुंडाें को धूप में पैदल चलते द‍िखाने वाले फोटो, सूटकेस पर लेटे हुए सफर करते बच्चे का फोटो, ब‍िवांई और छालों के साथ अपने मूल देस लौट रहे लोगों की थकान के फोटो ”लाइक्स” और सरकारों की आलोचना का ”आनंद” भले ही दे दें परंतु इस तरह के व‍िचारों की अध‍िकता मजदूरों के प्रत‍ि सहानुभूत‍ि को बहुत देर तक भुनाने नहीं देगी क्योंक‍ि ये अर्धसत्य है प्रवास‍ियों का, कर्मठता और न‍िकृष्टता के बीच मौजूद पूर्णसत्य इससे अभी बहुत दूर है।
बहरहाल पलायन करने वाले प्रवासि‍यों पर वसीम बरेलवी का एक शेर बेहद माकूल बैठता है -   
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है
कोई बताये ये उसके ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है


शनिवार, 9 मई 2020

इस मदर्स डे पर… इन लंबी कतारों का अर्थ


आज मदर्स डे है, और जैसा क‍ि पत्रकार‍िता व लेखन जगत में ऐसे ”द‍िवसों ” पर ल‍िखा जाना एक रवायत है तो कायदे से इस रवायत को आज मुझे भी न‍िभाना चाह‍िए परंतु ऐसा कर नहीं पा रही मैं। आज मैं मांओं को ईश्वर का दर्ज़ा देने में स्वयं को असमर्थ पा रही हूं, इसकी स्पष्ट वजह हैं—लॉकडाउन में शराब की दुकानों के बाहर की बदली तस्वीरें।
Just See the Video Women and Girls in Liquor Que After LockDown

इन तस्वीरों को देखने के बाद अब ये अहसास ना जाने क‍ितनों को हो रहा होगा क‍ि जो जैसा द‍िखता है या द‍िखाया जाता है दरअसल वो वैसा होता नहीं। आज मदर्स डे पर उन मह‍िलाओं की तस्वीरें मैं अपने जेहन से नहीं न‍िकाल पा रही जो शराब की दुकानों के सामने कतारें दर कतारें लगाए खड़ी रहीं। कभी मकान को घर बनाने वाली ” ये नारी ” इतनी बदल जाएगी क‍ि उसे उसकी ”तलब” इन लाइनों में लगने से भी नहीं रोक पाएगी, कम से कम इतना तो नहीं सोचा था।

अभी तक एक स्थाप‍ित सच ये था क‍ि या तो उच्च वर्ग की या अत्यंत न‍िम्न वर्गीय मह‍िलायें ही शराब का सेवन करती हैं परंतु लॉकडाउन के बाद इस भ्रम की धज्ज‍ियां उड़ा दीं गईं लाइन में लगी मध्यमवर्गीय लड़क‍ियों द्वारा। वो मध्यमवर्ग ज‍िसके कांधों पर चलकर भारतीय समाज अपने संस्कारों को अब तक जीव‍ित रख पाया, अब उसी वर्ग की ”ये नार‍ियां” भी शराब की दुकानों पर लाइन में लगी… बोतलों को अपने अंक में समेटे… समाज में हो चुके बड़े बदलाव की पूरी कहानी स्वयं कहे दे रही हैं। ये बदलाव बड़ा है परंतु क्या हमें इस पर खुश होना चाह‍िए…क्या ये सकारात्मक है… मदर्स डे पर अब हमें इसकी समीक्षा करनी होगी क‍ि शराब की दुकानें खुलने के बाद के ये नजारे मेट्रो स‍िटीज से लेकर छोटे शहरों तक आम रहे तो आख‍िर क्यों…।
इन सारे नजारों ने हमें हमारे मूल्यों, संस्कारों के साथ मौजूदा नौजवानों की सोच को पढ़ने का एक अवसर द‍िया है। इन्होंने हमें बताया है क‍ि पुराने मूल्यों को र‍िवाइव करना ही होगा ताक‍ि समाज उच्छृंखल न होने पाए और उसके मूल्य भी बचे रहें। मह‍िलाओं की इन लंबी लाइनों ने बताया है समाज को एक चुनौतीपूर्ण र‍िवाइवल की जरूरत है और जब समाज बदलेगा तो जाह‍िर है क‍ि कानूनों को भी बदला जाना चाह‍िए।
अभी तक कानून हर मह‍िला को न‍िर्दोष मानकर काम करता है वहीं समाज भी ”लेडीज फर्स्ट” पर अपने कायदे बनाता है। ये सोच पूरी तरह बदलनी होगी। अब मामला बराबरी का होना चाह‍िए। माना क‍ि ये तस्वीरें बदलते समय का पूरा सच नहीं परंतु झांकी तो हैं ही, अब ये हमारे ऊपर है क‍ि हम अपने बच्चों को क‍िस तरह की ”लाइन” में देखना चाहते हैं, यह कुल म‍िलाकर हमारी परवर‍िश पर न‍िर्भर करता है। आज मदर्स डे पर बस इतना ही। सोच‍िएगा अवश्य!!!

- अलकनंदा स‍िंंह