महाभारत युद्ध के दौरान कई बार कृष्ण ने अर्जुन से परंपरागत नियमों को तोड़ने के लिए कहा था जिससे धर्म की रक्षा हो सके, युद्ध के दौरान कर्ण ''निःशस्त्र'' थे तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, ''हे पार्थ, धर्म की जीत के लिए कर्ण का वध जरूरी है, वह नि:शस्त्र ही क्यों ना हो।
मौत तो हर एक को एक ना एक दिन आनी ही है मगर कुछ ऐसी होती हैं जो सवालों को छोड़ जाती हैं, नेताओं के बड़े बड़े निंदा प्रस्तावों के बीच बूढ़े कांधों पर जवान बेटे की अर्थी या कहीं नन्हा बच्चा मुखाग्नि देता, ये सीन अब आम हो चले हैं, जवानों को अब अपनी आवाज अपनी नौकरी को दांव पर लगाकर उठानी पड़ रही है। नासूर सिर्फ वो समस्यायें नहीं जो बॉर्डर पर खून बिखेर रही हैं, नासूर ये भावनायें भी हैं जो रणनीतियों का बोझ ढोती हैं और अनुशासनहीनता का दंड भी।
आज फेसबुक पर अपना वीडियो पोस्ट करने वाला सीआरपीएफ जवान आरा/बिहार निवासी पंकज मिश्रा हो या कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर ही बीएसएफ का जवान तेजबहादुर यादव हो, गाहे-ब-गाहे ''भीतर सबकुछ ठीक'' है को नकारते हैं तो इसे अनुशासनहीनता से जोड़कर बात को दबा दिया जाता है और यही दबाने की आदत आज पूरे देश पर भारी पड़ रही है।
दंतेवाड़ा, बस्तर, उड़ी , सुकमा… लगातार हमारे जवान शहीद हो रहे हैं और हम बस शहीद गिन रहे हैं। एक रस्मआदयगी के तहत हमारे राजनेता निंदा के साथ मुंहतोड़ जवाब देने की बात करते हैं। कश्मीर की अलगाववादी हुर्रियत हो या नक्सलवादी विचारधारा दिन पर दिन हावी होती जा रही है। कुछ मानवाधिकारवादी इन नक्सलियों को आतंकी नहीं मानते तो कुछ मानवाधिकारवादी पत्थरबाजों को मासूम कहने से नहीं हिचकते, भ्रमित विचारधारा के शिकार कहकर इनका बचाव किया जाता है।
ये रस्साकशी का खेल खेलकर भारत नक्सलियों से पचासों साल से जूझ रहा है,मगर हर हमले के बाद राजनेता ट्वीट कर निंदा कर देते हैं और मीडिया एक दिन बहस कराकर अगले दिन मानवता के पाठ पढ़ाते हुए अलगावादियों-नक्सवादियों को मासूम बताने लगती है।
फिलहाल सुकमा के इन 26 जवानों की शहादत के बाद भी क्या अब भी वे मानवाधिकारवादी नक्सलियों को ही सही ठहराएंगे? यदि नहीं तो कब तक हम श्रद्धांजलि देते रहेंगे?
आज का नक्सल आंदोलन 1967 वाला आदर्शवादी आंदोलन नहीं रहा है बल्कि यह साम्यवादियों द्वारा रंगदारी वसूलनेवाले आपराधिक गिरोह में बदल चुका है। इन पथभ्रष्ट लोगों का साम्यवाद और गरीबों से अब कुछ भी लेना-देना नहीं है। हां, इनका धंधा गरीबों के गरीब बने रहने पर ही टिका जरूर है इसलिए ये लोग अपने इलाकों में कोई भी सरकारी योजना लागू नहीं होने देते हैं और यहां तक कि स्कूलों में पढ़ाई भी नहीं होने देते।
आप ही बताईए कि जो लोग देश के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर एकछत्र शासन करते हैं वे भला समझाने से क्यों मानने लगे? हर दिन, हर सप्ताह, हर महीना, हर साल भारतीय जवान मरते रहते हैं, राजनेता आरोप प्रत्यारोप लगाकर इस खून सनी जमीन पर मिटटी डालते रहते हैं।
हमारी वर्तमान केंद्र सरकार नक्सली समस्या को जितने हल्के में ले रही है यह समस्या उतनी हल्की है नहीं। यह समस्या हमारी संप्रभुता को खुली चुनौती है। हमारी एकता और अखंडता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
हमेशा से नक्सलवादी इलाकों में सरकार योजना लेकर जाती है। लेकिन लाशे लेकर आती है। भला क्या कोई ऐसी समस्या स्थानीय हो सकती है? क्या यह सच नहीं है कि हमारे संविधान और कानून का शासन छत्तीसगढ़ राज्य के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही चलता है? क्या यह सच नहीं है कि वहां के नक्सली क्षेत्रों में जाने से हमारे सुरक्षा-बल भी डरते हैं तो योजनाएं क्या जाएंगी?
आज इन सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि भारत के मध्य हिस्से में नक्सल बहुल इलाकों में इन लोगों के पास धन और हथियार कहां से आता है? कौन लोग इन्हें लाल क्रांति के नाम पर उकसा रहे हैं? यदि सरकार विश्व के सामने अपनी उदार छवि पेश करना चाहती तो उसे सुरक्षित भारत की छवि भी पेश करनी होगी। जम्मू-कश्मीर और मिजोरम के बाद कई राज्य संघर्ष के तीसरें केंद्र के रूप में उभरे हैं जहां पर माओवादियों के विरूद्ध सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती हुई है। पिछले लगभग साढ़े चार दशकों से चल रहा माओवाद जैसा कोई भी भूमिगत आंदोलन बिना व्यापक जन सर्मथन और राजनेताओं के संभव है? लंबे अरसे से नक्सल अभियान पर नजर रखे सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि बिना तैयारी के सुरक्षा बलों को नक्सल विरोधी अभियान में झोंक देना भूखे भेडि़यों को न्योता देने के बराबर है।
नक्सल अकसर ही गुरिल्ला लड़ाई का तरीका अपनाते हैं और उनकी हमला कर गायब होने जाने की रणनीति सुरक्षा बलों के लिये खतरनाक साबित हुई है। नक्सली जिन इलाकों में अपना प्रभाव रखते हैं वहां पहुंचने के साधन नहीं हैं। पिछले दस सालों से इन इलाकों में न ही सरकार और न ही सुरक्षा एजेंसियों ने प्रवेश करने का जोखिम लिया है जिस कारण यह लोग मजबूत होते गये।
‘जब मौत केवल आंकड़ा बन जाए, जवाब केवल ईंट और पत्थर में तोला जाए, जब हमदर्द ही दर्द देने लगें तो सुकमा बार बार होगा।’
महाभारत में कहा गया कि धर्म की रक्षा के लिए नि:शस्त्र का वध भी उचित है तो क्यों नहीं हमारी सरकारें, हमारी सुरक्षा एजेंसियां और कथित मानवाधिकारवादी व मीडिया मिलकर उन लोगों का सच खोलते और उन्हें जनता के सामने नंगा करते , कर्ण तो तब भी निशस्त्र थे मगर जो हमारे जवानों को मार रहे हैं वे अत्याधुनिक हथियारों से लैस हैं तो इन कॉकरोचों की सफाई क्यों न घर से की जाए।
-अलकनंदा सिंह
मौत तो हर एक को एक ना एक दिन आनी ही है मगर कुछ ऐसी होती हैं जो सवालों को छोड़ जाती हैं, नेताओं के बड़े बड़े निंदा प्रस्तावों के बीच बूढ़े कांधों पर जवान बेटे की अर्थी या कहीं नन्हा बच्चा मुखाग्नि देता, ये सीन अब आम हो चले हैं, जवानों को अब अपनी आवाज अपनी नौकरी को दांव पर लगाकर उठानी पड़ रही है। नासूर सिर्फ वो समस्यायें नहीं जो बॉर्डर पर खून बिखेर रही हैं, नासूर ये भावनायें भी हैं जो रणनीतियों का बोझ ढोती हैं और अनुशासनहीनता का दंड भी।
आज फेसबुक पर अपना वीडियो पोस्ट करने वाला सीआरपीएफ जवान आरा/बिहार निवासी पंकज मिश्रा हो या कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर ही बीएसएफ का जवान तेजबहादुर यादव हो, गाहे-ब-गाहे ''भीतर सबकुछ ठीक'' है को नकारते हैं तो इसे अनुशासनहीनता से जोड़कर बात को दबा दिया जाता है और यही दबाने की आदत आज पूरे देश पर भारी पड़ रही है।
दंतेवाड़ा, बस्तर, उड़ी , सुकमा… लगातार हमारे जवान शहीद हो रहे हैं और हम बस शहीद गिन रहे हैं। एक रस्मआदयगी के तहत हमारे राजनेता निंदा के साथ मुंहतोड़ जवाब देने की बात करते हैं। कश्मीर की अलगाववादी हुर्रियत हो या नक्सलवादी विचारधारा दिन पर दिन हावी होती जा रही है। कुछ मानवाधिकारवादी इन नक्सलियों को आतंकी नहीं मानते तो कुछ मानवाधिकारवादी पत्थरबाजों को मासूम कहने से नहीं हिचकते, भ्रमित विचारधारा के शिकार कहकर इनका बचाव किया जाता है।
ये रस्साकशी का खेल खेलकर भारत नक्सलियों से पचासों साल से जूझ रहा है,मगर हर हमले के बाद राजनेता ट्वीट कर निंदा कर देते हैं और मीडिया एक दिन बहस कराकर अगले दिन मानवता के पाठ पढ़ाते हुए अलगावादियों-नक्सवादियों को मासूम बताने लगती है।
फिलहाल सुकमा के इन 26 जवानों की शहादत के बाद भी क्या अब भी वे मानवाधिकारवादी नक्सलियों को ही सही ठहराएंगे? यदि नहीं तो कब तक हम श्रद्धांजलि देते रहेंगे?
आज का नक्सल आंदोलन 1967 वाला आदर्शवादी आंदोलन नहीं रहा है बल्कि यह साम्यवादियों द्वारा रंगदारी वसूलनेवाले आपराधिक गिरोह में बदल चुका है। इन पथभ्रष्ट लोगों का साम्यवाद और गरीबों से अब कुछ भी लेना-देना नहीं है। हां, इनका धंधा गरीबों के गरीब बने रहने पर ही टिका जरूर है इसलिए ये लोग अपने इलाकों में कोई भी सरकारी योजना लागू नहीं होने देते हैं और यहां तक कि स्कूलों में पढ़ाई भी नहीं होने देते।
आप ही बताईए कि जो लोग देश के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर एकछत्र शासन करते हैं वे भला समझाने से क्यों मानने लगे? हर दिन, हर सप्ताह, हर महीना, हर साल भारतीय जवान मरते रहते हैं, राजनेता आरोप प्रत्यारोप लगाकर इस खून सनी जमीन पर मिटटी डालते रहते हैं।
हमारी वर्तमान केंद्र सरकार नक्सली समस्या को जितने हल्के में ले रही है यह समस्या उतनी हल्की है नहीं। यह समस्या हमारी संप्रभुता को खुली चुनौती है। हमारी एकता और अखंडता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
हमेशा से नक्सलवादी इलाकों में सरकार योजना लेकर जाती है। लेकिन लाशे लेकर आती है। भला क्या कोई ऐसी समस्या स्थानीय हो सकती है? क्या यह सच नहीं है कि हमारे संविधान और कानून का शासन छत्तीसगढ़ राज्य के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही चलता है? क्या यह सच नहीं है कि वहां के नक्सली क्षेत्रों में जाने से हमारे सुरक्षा-बल भी डरते हैं तो योजनाएं क्या जाएंगी?
आज इन सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि भारत के मध्य हिस्से में नक्सल बहुल इलाकों में इन लोगों के पास धन और हथियार कहां से आता है? कौन लोग इन्हें लाल क्रांति के नाम पर उकसा रहे हैं? यदि सरकार विश्व के सामने अपनी उदार छवि पेश करना चाहती तो उसे सुरक्षित भारत की छवि भी पेश करनी होगी। जम्मू-कश्मीर और मिजोरम के बाद कई राज्य संघर्ष के तीसरें केंद्र के रूप में उभरे हैं जहां पर माओवादियों के विरूद्ध सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती हुई है। पिछले लगभग साढ़े चार दशकों से चल रहा माओवाद जैसा कोई भी भूमिगत आंदोलन बिना व्यापक जन सर्मथन और राजनेताओं के संभव है? लंबे अरसे से नक्सल अभियान पर नजर रखे सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि बिना तैयारी के सुरक्षा बलों को नक्सल विरोधी अभियान में झोंक देना भूखे भेडि़यों को न्योता देने के बराबर है।
नक्सल अकसर ही गुरिल्ला लड़ाई का तरीका अपनाते हैं और उनकी हमला कर गायब होने जाने की रणनीति सुरक्षा बलों के लिये खतरनाक साबित हुई है। नक्सली जिन इलाकों में अपना प्रभाव रखते हैं वहां पहुंचने के साधन नहीं हैं। पिछले दस सालों से इन इलाकों में न ही सरकार और न ही सुरक्षा एजेंसियों ने प्रवेश करने का जोखिम लिया है जिस कारण यह लोग मजबूत होते गये।
‘जब मौत केवल आंकड़ा बन जाए, जवाब केवल ईंट और पत्थर में तोला जाए, जब हमदर्द ही दर्द देने लगें तो सुकमा बार बार होगा।’
महाभारत में कहा गया कि धर्म की रक्षा के लिए नि:शस्त्र का वध भी उचित है तो क्यों नहीं हमारी सरकारें, हमारी सुरक्षा एजेंसियां और कथित मानवाधिकारवादी व मीडिया मिलकर उन लोगों का सच खोलते और उन्हें जनता के सामने नंगा करते , कर्ण तो तब भी निशस्त्र थे मगर जो हमारे जवानों को मार रहे हैं वे अत्याधुनिक हथियारों से लैस हैं तो इन कॉकरोचों की सफाई क्यों न घर से की जाए।
-अलकनंदा सिंह