कल जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल के तीसरे दिन शनिवार को भाषाओं की जननी संस्कृत को लेकर भी सेशन '' द प्लेजर एंड परफेक्शन ऑफ संस्कृत'' हुआ , डिस्कशन के शीर्षक को लेकर रामचरित मानस की एक चौपाई याद आ रही है----किष्किंधा कांड में वर्णित है कि हनुमान को लंका जाकर सिया की खोज के लिए भेजने को जामवंत द्वारा उन्हें उनका बल याद दिलाया गया--
''कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥''
यहां तो खालिस अवधी भाषा में जामवंत ने हनुमान जी को उनका बल याद दिलाया और उन्हें याद आ भी गया तो फौरन वो पर्बताकार हो भी गए। मगर यहां तो हमें हमारा बल याद दिलाने के लिए अंग्रेजों को आगे आना पड़ रहा है।
जो संस्कृत देववाणी के रूप में हमारे सभी वेदों-शास्त्रों और पुराणों की भाषा रही आज उसी पर परिचर्चा करने के लिए हमें अंग्रेजी शीर्षक का सहारा लेना पड़ रहा है। हमें हमारी ही जननी से परिचय कोई थर्ड पार्टी कराए, यह लज्जाजनक तो है ना। संस्कृत का यह बद-हाल आजादी के बाद से अब तक रही कमजोर राजनैतिक इच्छाशक्ति और तथाकथित गैर मुल्कों से आयातित राजनैतिक विचारधाराओं को (कभी जबरन तो कभी अत्याधुनिक कहलाए जाने के लालच में) अपनाए जाने की वजह से भी हुआ।
चलो देर आयद दुरुस्त आयद, यदि आज भी किसी शीर्षक अंग्रेजी में ना होता तो जयपुर तो छोड़िए किसी भी लिटरेचर फेस्टीवल में संस्कृत पढ़ना का किसी ''पोंगापंथी'' की भेंट चढ़ चुका होता। ''एज ए रिजल्ट'' हमें हमारी जननी भाषा के सुनहरे शब्द फिर से अस्तित्व में आते दिख रहे हैं।
सराहनीय हैं ये प्रयास भी
कुछ दिन पहले एक वीडियो देखा जिसमें प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों को वेदमंत्रों का अध्ययन संगीतमय वातावरण में कराया जा रहा है। ये सिर्फ संगीतमय बनाकर ही नहीं बल्कि प्रत्येक श्लोक में मौजूद शब्दों का एक निश्चित साइन होता है जो शब्द को खास ध्वनि के साथ मिलाकर धुन की रचना करता है और बच्चे इसी धुन पर गा गा कर सभी श्लोकों को बड़ी आसानी से याद भी कर लेते हैं।
बचपन में आपने भी सुना-देखा या फिर पढ़ा भी होगा कि संस्कृत के रूप-वचन किस तरह याद कराए जाते थे।
व्याकरण के आधार क्रियाओं को भी लगभग धुन में याद कराया जाता था और कक्षा में सुना भी जाता था- ''कर्ता ने कर्म को करण से संप्रदान के लिए.....'' अब याद आया कि स्कूल में शास्त्री जी कैसे याद कराते थे।
बहरहाल उक्त वीडियो के बारे में पता करते करते एक और ठिया पता चला और वह है दक्षिण भारत कर्नाटक के शिवमोग्गा जिले के मट्टूर गांव, जिसे लोग संस्कृत गांव के नाम से भी पुकारते हैं। इस गांव की आबादी का संस्कृत बोलना तो आश्चर्यजनक है ही इसके अलावा भी यहां कि एक खासियत और है यहां हर घर में एक इंजीनियर है। ये सौ फीसदी सच है जो इस गांव को सबसे अलग और आश्चर्यजनक बनाता है।
तुंगा नदी के किनारे बसे इस छोटे से गांव के लोग आम जीवन में संस्कृत का प्रयोग नहीं करते लेकिन इच्छुक व्यक्ति को संस्कृत सिखाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं।
संस्कृत सीखने से गणित और तर्कशास्त्र का ज्ञान बढ़ता है और दोनों विषय बड़ी आसानी से समझ आ जाते हैं। यही कारण है कि इस गांव के युवाओं का रुझान धीरे-धीरे आईटी इंजीनियर की ओर हो गया और आज यहां घर-घर में इंजीनियर है।
पोंगापंथी की भाषा बताई जाने वाली संस्कृत में जप और वेदों के ज्ञान से स्मरण शक्ति बढ़ती है और ध्यान लगाने में मदद मिलती है। गांव के कई युवा एमबीबीएस या इंजीनियरिंग के लिए विदेश भी जाते हैं।
क्यों है संस्कृत अद्भुत
संस्कृत में आकृति और ध्वनि का आपस में संबंध होता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में अगर आप ‘son’ या ‘sun’ का उच्चारण करें, तो ये दोनों एक जैसे सुनाई देंगे, बस वर्तनी में ये अलग हैं। आप जो लिखते हैं, वह मानदंड नहीं है, मानदंड तो वह ''ध्वनि'' है क्योंकि आधुनिक विज्ञान यह साबित कर चुका है कि पूरा अस्तित्व ऊर्जा की गूंज है।
जहां कहीं भी कंपन है, वहां ध्वनि है, हमारा पूरा अस्तित्व ध्वनि ऊर्जा से जुड़ा है इसीलिए एक खास ध्वनि एक खास आकृति के साथ जुड़ती है तो यही ध्वनि उस आकृति के लिए नाम बन जाती है। अब ध्वनि और आकृति आपस में जुड़ गईं। इसमें ध्वनि का उच्चारण करते हुए आकृति की ही चर्चा होती ही है। अर्थात् न केवल मनोवैज्ञानिक रूप से बल्कि अस्तित्वगत रूप से भी आप आकृति को ध्वनि से जोड़ रहे हैं। अगर ध्वनि पर आपको महारत हासिल है, तो आकृति पर भी आपको महारत हासिल होगी। तो संस्कृत भाषा हमारे अस्तित्व की रूपरेखा है। जो कुछ भी आकृति में है, हमने उसे ध्वनि में परिवर्तित कर दिंया।
आजकल इस मामले में बहुत ज्यादा विकृति आ गई है। यह एक चुनौती है कि मौजूदा दौर में इस भाषा को संरक्षित कैसे रखा जाए। इसकी वजह यह है कि इसके लिए जरूरी ज्ञान, समझ और जागरूकता की काफी कमी है।
यही वजह है कि जब लोगों को संस्कृत भाषा पढ़ाई जाती है, तो उसे रटाया जाता है। लोग शब्दों का बार बार उच्चारण करते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उन्हें इसका मतलब समझ आता है या नहीं, लेकिन ध्वनि महत्वपूर्ण है, अर्थ नहीं।
अर्थ तो आपके दिमाग में बनते हैं। यह ध्वनि और आकृति ही हैं जो आपस में जुड़ रही हैं। आप जोड़ रहे हैं या नहीं, सवाल यही है।
तो संस्कृत भाषा इस तरह से बनी, इसीलिए इसका महत्व है और इसलिए यह तमिल को छोडक़र लगभग सभी भारतीय और यूरोपीय भाषाओं की जननी है। तमिल संस्कृत से नहीं आती। यह स्वतंत्र तौर से विकसित हुई है। आमतौर पर ऐसा भी माना जाता है कि तमिल संस्कृत से भी प्राचीन भाषा है। बाकी सभी भारतीय भाषाओं और लगभग सभी यूरोपीय भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से ही हुई है।
कुल मिला कर बात इतनी सी है कि लिटरेचर फेस्टीवल में परिचर्चा में शामिल एसपी भट्ट, सुधा गोपालकृष्णन और संस्कृत के विदेश विद्वान जिम मेलिन्सन का धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने हमारी जननी भाषा के लिए ये प्रयास किए। 1000 साल से भी ज्यादा समय से संस्कृत को सिर्फ ब्राह्मणों की भाषा के तौर प्रचारित कर करके इसे सीमाओं में बांध दिया गया और इसके अध्ययनकर्ताओं को पोंगापंथी कह कर सोच के आधार पर ''पिछड़ा'' वर्ग में डाल दिया गया।
बावजूद इसके दक्षिण भारत कर्नाटक के शिवमोग्गा जिले के मट्टूर गांव के निवासी हों या लिटरेचर फेस्टीवल में शामिल होने आए संस्कृत के राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय विद्वान, सभी ने जामवंत की भांति आम भारतीय भाषा को फिर उसी ऊंचाई पर ले जाने वाले ''हनुमानों'' को उनका बल याद दिलाया है। यह एक शुभ संकेत है और शुभ ये भी है कि पहली बार कहा गया है कि इसमें सरकार और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संस्कृत के महिमामयी प्रतिष्ठापन में भाषाविदों का सहयोग करें।
- अलकनंदा सिंह
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