जो सब समर्पण करता है वह सब पा लेता है। जो
कतार में सबसे पीछे खड़ा हो जाता है अपने अहं और दोषों को त्याग कर वह कतार में सबसे आगे जगह पा लेता है क्योंकि वह
अहं के भारी बोझ से दबा नहीं होता। ऐसा व्यक्ति अपनी बारी आने का इंतजार सब्र के साथ करता है। यह भी कहा जा सकता
है कि जब अहं से रीत जाता है दिमाग तो उसमें सब्र खुदबखुद बैठता चला जाता है। और जब सब्र आता है तब गुस्सा आ ही
नहीं सकता। ये एक चेन है...एक सीरीज है...जो अपनी पहली कड़ी से यात्रा शुरू करती है और एक एक कर उसमें सभ्यता
की ऊंचाई पर पहुंचाने वाली कई कड़ियां जुड़ती जाती हैं और अंतिम कड़ी तक पहुंचने की यात्रा के इस क्रम में जो कमजोरियों
को जकड़े रहता है, वह ही असभ्य समाज की नींव
रखता है वह कारण बन जाता है अनेक आक्रमणों
का, अनैतिकताओं का व अनाचारों का।
अहं से रहित समर्पण,
प्रेम के वृक्ष की न सिर्फ नींव रखता है बल्कि उसको ईश्वर की ऊंचाई
तक पहुंचाने की शक्ति भी रखता है ठीक जैसे
राधा पहुंचीं श्रीकृष्ण तक । यूं तो संस्थागत दृष्टि से समर्पण का पहला अधिकार रुक्मणि
का था और इसी अधिकार से जन्मे कर्तव्य के
कारण उनके समर्पण को नि:स्वार्थ समर्पण कहने से बचा गया जबकि राधा के समर्पण को भक्ति
व प्रेम का आधार माना गया है क्योंकि वहां
समर्पण के बाद श्रीकृष्ण से कुछ वापस पाने का भाव नहीं था, बस
समर्पण से प्रेम को करते चले जाना था। इसीलिए
रुक्मणि और राधा में ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही अंतर देखा गया मगर प्रेम और समर्पण
में अपनी भावनाओं को 'ईश्वर बनाने तक ले जाना' इसे तो सिर्फ
और सिर्फ राधा ही सार्थक कर पाईं। इसीलिए श्रीकृष्ण के संग
रुक्मिणि की अनुपस्थिति और राधा की अतिशय उपस्थिति समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण बन
गई । कृष्ण के आगे राधा का नाम आगे रखा जाना इसी समर्पण का हिस्सा
है। ओशो कहते भी हैं कि कृष्ण चूंकि पूर्णपुरुष माने गये हैं इसलिए उनके साथ आना किसी पूर्ण स्त्री के ही
वश की बात हो सकती है। रुक्मिणि दावेदार थीं कृष्ण नाम के संग अपना नाम जोड़ने की। मगर वो दावेदार थीं...अर्थात् दावा
करने का अर्थ ही ये रह गया कि कहीं कुछ बाकी रह गया है जिसे पाने के लिए उन्हें संस्थागत रिवाजों का सहारा लेना पड़
रहा है,
ऐसे में वह मेंटीनेंस भी मांग सकती है जबकि राधा को किसी रिवाज में बांधा नहीं जा सकता। उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं
है।
निश्चित ही ईश्वर के अंशमात्र में भी रमने
के लिए किसी अदालती दावे, किसी समाज या किसी संस्थागत
बंधन में रहने की आवश्यकता ही नहीं होती,
ईश्वर तो हवा की तरह घुलता जाता है मन में। मन में घुलने के लिए बिल्कुल
पानी का सा रंग लेना पड़ता है तभी समर्पण शतप्रतिशत
होता है, जैसे राधा का था कृष्ण के लिए। इसीलिए रुक्मिणी पीछे
छूटती चली गई और राधा आगे आती गईं। इतना आगे
कि कृष्ण नाम के आगे राधा खड़ी हो गईं जबकि वे संस्थागत संबंधों की कतार में सबसे पीछे खड़ी थीं। सबसे पीछे खड़े होने का अर्थ है
कि सब कुछ छोड़ो, सबकुछ दे दो और हल्के हो जाओ। हल्के हो जाओ
इतने कि अपने ईश में रमने के लिए किसी कोशिश
की जरूरत ही ना पड़े।
- अलकनंदा सिंह
- अलकनंदा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें