सदियों पुरानी बहस है कि भाग्य और कर्म में कौन श्रेष्ठ है। भाग्यवादी कर्म को और कर्मवादी भाग्य को गौण समझते हैं परंतु भाग्य और कर्म दोनों का ही अस्तित्व जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। अंतर बस इतना है कि भाग्य पर निर्भरता हमें कर्म करने से दूर कर देती है जबकि कर्म पर निर्भर रहकर भाग्य का निर्माण किया जा सकता है।
यह तभी संभव है जबकि कर्म को उत्सव मानकर चला जाये। कर्म को जिया जाये न कि 'कैसे भी निबटाओ' की सोच के साथ उसे खत्म किया जाये। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि उत्तम कर्म करके व्यक्ति उच्च स्थान तक पहुंचे हैं, मगर उन्होंने भी अपने कर्म को जिया, उसे उत्सव मानकर जीवन का ध्येय बनाया।उनके लिए उनका कर्म बोझ नहीं था इसीलिए वे उसे करने में आनंदित होते रहे और आगे बढ़ते रहे।
जीवन में सब कुछ पा लेने की ज़िद में मानवीय संवेदनायें दम तोड़ रही हैं, सारे भाव खो रहे हैं, ऐसे में बहुत जरूरत है इस सोच को अपनाने की कि कर्म की प्रकृति को उत्सव बना दिया जाये।और फिर से कहीं मीरा के हाथ का तम्बूरा , कृष्ण के हाथ की बांसुरी बन जाये वह तो कहीं ताजमहल तक का निर्माण कर दे।
मीरा के हाथ में जो तम्बूरा है, वह कर्म करने वालों की वजह से ही आया, उसे बनाने वाले यदि नहीं होते तो हम तम्बूरे से अनभिज्ञ ही रहते मगर लकड़ी, बांस और तार के मिश्रण की कल्पना जिसने भी की, वह पहला व्यक्ति निश्चित ही 'कर्म को उत्सव' बनाने की धुन पाले बैठा रहा होगा। बिना उत्सवी सोच के ये संभव ही नहीं था। तम्बूरा जैसा वाद्य यंत्र 'सिर्फ कर्म' करना है, की सोच वाले पैदा नहीं करते। वे तो कुल्हाड़ी बनाते हैं, कुदाल बनाते हैं, तलवार बनाते हैं। तम्बूरा को गढ़ा गया और इसे गढ़ने वाली उत्सवी सोच से केवल कर्म करते जाने वालों की सोच का क्या लेना देना। तम्बूरा तो गढ़ते ही वे लोग हैं जो जिंदगी को खेल की तरह से लेते हैं। जिंदगी में जो भी श्रेष्ठ आया चाहे वह तम्बूरा हो या ताजमहल, वह उन लोगों के मन से आया, उन के सपनों से आया जो जिंदगी को उत्सव बनाकर चलते रहे, गुनगुनाते रहे और नायाब कृतियां बना दीं।
ज़रा सोचिए! भोजन घर में भी बनता है और होटल में भी मगर तृप्ति घर का भोजन ही देता है, क्यों ? क्योंकि वह उस गृहणी के लिए काम नहीं बल्कि अपनों को स्वाद का आनंद लेते देख स्वयं आनंदित होने का साधन है। और जहां आनंद है वहीं उत्सव है। सो आनंद के साथ कर्म को करने में जो तृप्ति मिलती है उससे जीवन उत्सव बन जाता है। हर कदम हल्का, कहीं कोई भार नहीं, कहीं कोई जबरदस्ती नहीं।
आज जो चारों तरफ आपाधापी समाज में हर क्षेत्र में सर्वोच्चता को पा लेने की है उससे संपन्नता तो बढ़ रही है मगर व्यक्ति उतना ही तेजी से मन से गरीब हुआ जा रहा है। भावनायें, संवेदनायें, दया, करुणा, क्षमा जैसे मन से उपजने वाले भाव से हीन होता जा रहा है। उत्सवविहीनों से बनते समाज का ही तो आइना है बढ़ता आपराधिक आंकड़ा। कितने आश्चर्य की बात है कि समाज की गरीबी मिटाने पर सबका ध्यान है और किसी हद तक संपन्नता गरीबी को मिटा भी रही है मगर जो समाज 'मन से गरीब' हुआ जा रहा है उस पर किसी का ध्यान नहीं है। मन अतृप्त है, गरीब है, वह करोड़ों कमा लेने के बाद भी जीवन को उत्सव नहीं बना पा रहा, ना ही उसे देख आनंदित हो पा रहा है और कुंठाओं से घिरा अपराधों को जन्म दे रहा है।
कुल मिलाकर इस स्थिति को हम भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ सकते क्योंकि कर्म को महज 'काम है- जो निबटाना है' वाली सोच में बांध दिया गया है, आनंद से दूर कर दिया गया है। इस बंधन में विवशता है जो जब-तब बंधन तोड़ने को आतुर हो उठती है और यही आतुरता समाज में अपराध को बढ़ावा दे रही है।
समाज को फिर से उत्सव से जोड़ना होगा और उत्सव ऐसे हों जो सदियों से थोपे गये ना हों, वे स्वयं ही उपजें...ऐसे उत्सव जो स्वयं आग्रह करें... मन से नाच उठने का...कुछ नया जन्माने का...कुछ नया खोजने का जैसे कि तम्बूरा खोजा गया, बांसुरी खोजी गई...। ढर्रे पर चलते चलते सदियों पुराने उत्सवों की सड़ांध अब समाज के मन को झूमने नहीं देती बल्कि बोझ बन गई है, रस्म बन गई है। और जो रस्म बन गई हो, लीक पर ही चलती रही हो वह ना तो 'कर्म' में उत्सव की भावना को पैदा कर पायेगी ना ही 'मन' में।
निश्चित ही जब मन तमाम ढर्रे में बंधी सोचों से संचालित होगा तो वह कर्म को उत्सव कैसे बना पायेगा भला और ऐसे में कर्म के द्वारा भाग्य को बनाने- बदलने के प्रयास भी तो धराशायी ही हो जायेंगे ना। इसलिए कोशिश की जाये कि कर्म जरूरी है मगर वो महज 'काम निबटाने' तक सीमित ना रहे, वह मन से किया जाये ताकि हम कर्म को उत्सव मानकर आगे बढ़ें और अपने पने भाग्यों को स्वयं संचालित करें..उसे बनायें और बढ़ायें। समाज की नकारात्मकता को सकारात्मक दिशा में उत्सव के संग ही ले जाया जा सकता है।
-अलकनंदा सिंह
यह तभी संभव है जबकि कर्म को उत्सव मानकर चला जाये। कर्म को जिया जाये न कि 'कैसे भी निबटाओ' की सोच के साथ उसे खत्म किया जाये। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि उत्तम कर्म करके व्यक्ति उच्च स्थान तक पहुंचे हैं, मगर उन्होंने भी अपने कर्म को जिया, उसे उत्सव मानकर जीवन का ध्येय बनाया।उनके लिए उनका कर्म बोझ नहीं था इसीलिए वे उसे करने में आनंदित होते रहे और आगे बढ़ते रहे।
जीवन में सब कुछ पा लेने की ज़िद में मानवीय संवेदनायें दम तोड़ रही हैं, सारे भाव खो रहे हैं, ऐसे में बहुत जरूरत है इस सोच को अपनाने की कि कर्म की प्रकृति को उत्सव बना दिया जाये।और फिर से कहीं मीरा के हाथ का तम्बूरा , कृष्ण के हाथ की बांसुरी बन जाये वह तो कहीं ताजमहल तक का निर्माण कर दे।
मीरा के हाथ में जो तम्बूरा है, वह कर्म करने वालों की वजह से ही आया, उसे बनाने वाले यदि नहीं होते तो हम तम्बूरे से अनभिज्ञ ही रहते मगर लकड़ी, बांस और तार के मिश्रण की कल्पना जिसने भी की, वह पहला व्यक्ति निश्चित ही 'कर्म को उत्सव' बनाने की धुन पाले बैठा रहा होगा। बिना उत्सवी सोच के ये संभव ही नहीं था। तम्बूरा जैसा वाद्य यंत्र 'सिर्फ कर्म' करना है, की सोच वाले पैदा नहीं करते। वे तो कुल्हाड़ी बनाते हैं, कुदाल बनाते हैं, तलवार बनाते हैं। तम्बूरा को गढ़ा गया और इसे गढ़ने वाली उत्सवी सोच से केवल कर्म करते जाने वालों की सोच का क्या लेना देना। तम्बूरा तो गढ़ते ही वे लोग हैं जो जिंदगी को खेल की तरह से लेते हैं। जिंदगी में जो भी श्रेष्ठ आया चाहे वह तम्बूरा हो या ताजमहल, वह उन लोगों के मन से आया, उन के सपनों से आया जो जिंदगी को उत्सव बनाकर चलते रहे, गुनगुनाते रहे और नायाब कृतियां बना दीं।
ज़रा सोचिए! भोजन घर में भी बनता है और होटल में भी मगर तृप्ति घर का भोजन ही देता है, क्यों ? क्योंकि वह उस गृहणी के लिए काम नहीं बल्कि अपनों को स्वाद का आनंद लेते देख स्वयं आनंदित होने का साधन है। और जहां आनंद है वहीं उत्सव है। सो आनंद के साथ कर्म को करने में जो तृप्ति मिलती है उससे जीवन उत्सव बन जाता है। हर कदम हल्का, कहीं कोई भार नहीं, कहीं कोई जबरदस्ती नहीं।
आज जो चारों तरफ आपाधापी समाज में हर क्षेत्र में सर्वोच्चता को पा लेने की है उससे संपन्नता तो बढ़ रही है मगर व्यक्ति उतना ही तेजी से मन से गरीब हुआ जा रहा है। भावनायें, संवेदनायें, दया, करुणा, क्षमा जैसे मन से उपजने वाले भाव से हीन होता जा रहा है। उत्सवविहीनों से बनते समाज का ही तो आइना है बढ़ता आपराधिक आंकड़ा। कितने आश्चर्य की बात है कि समाज की गरीबी मिटाने पर सबका ध्यान है और किसी हद तक संपन्नता गरीबी को मिटा भी रही है मगर जो समाज 'मन से गरीब' हुआ जा रहा है उस पर किसी का ध्यान नहीं है। मन अतृप्त है, गरीब है, वह करोड़ों कमा लेने के बाद भी जीवन को उत्सव नहीं बना पा रहा, ना ही उसे देख आनंदित हो पा रहा है और कुंठाओं से घिरा अपराधों को जन्म दे रहा है।
कुल मिलाकर इस स्थिति को हम भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ सकते क्योंकि कर्म को महज 'काम है- जो निबटाना है' वाली सोच में बांध दिया गया है, आनंद से दूर कर दिया गया है। इस बंधन में विवशता है जो जब-तब बंधन तोड़ने को आतुर हो उठती है और यही आतुरता समाज में अपराध को बढ़ावा दे रही है।
समाज को फिर से उत्सव से जोड़ना होगा और उत्सव ऐसे हों जो सदियों से थोपे गये ना हों, वे स्वयं ही उपजें...ऐसे उत्सव जो स्वयं आग्रह करें... मन से नाच उठने का...कुछ नया जन्माने का...कुछ नया खोजने का जैसे कि तम्बूरा खोजा गया, बांसुरी खोजी गई...। ढर्रे पर चलते चलते सदियों पुराने उत्सवों की सड़ांध अब समाज के मन को झूमने नहीं देती बल्कि बोझ बन गई है, रस्म बन गई है। और जो रस्म बन गई हो, लीक पर ही चलती रही हो वह ना तो 'कर्म' में उत्सव की भावना को पैदा कर पायेगी ना ही 'मन' में।
निश्चित ही जब मन तमाम ढर्रे में बंधी सोचों से संचालित होगा तो वह कर्म को उत्सव कैसे बना पायेगा भला और ऐसे में कर्म के द्वारा भाग्य को बनाने- बदलने के प्रयास भी तो धराशायी ही हो जायेंगे ना। इसलिए कोशिश की जाये कि कर्म जरूरी है मगर वो महज 'काम निबटाने' तक सीमित ना रहे, वह मन से किया जाये ताकि हम कर्म को उत्सव मानकर आगे बढ़ें और अपने पने भाग्यों को स्वयं संचालित करें..उसे बनायें और बढ़ायें। समाज की नकारात्मकता को सकारात्मक दिशा में उत्सव के संग ही ले जाया जा सकता है।
-अलकनंदा सिंह
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