अभी तक साईं की मूर्तिपूजा का विरोध करने की बात करके सुर्खियां बटोरने वाले ज्योतिष एवं द्वारका शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने जो धर्मसंसद लगाकर आग उगली , उसकी तपिश अब पारिवारिक रिश्तों को भी झुलसाने का कारण बन सकती है।
है ना कितने कमाल की बात कि बाल्यावस्था से ही संन्यासी रहने वाले, अब इस पर भी बोलेंगे कि नि:संतान होने पर पुरुष को दूसरा विवाह कर लेना चाहिए, वह भी बगैर यह जाने कि नि:संतान होने के लिए कौन जिम्मेदार है। ऐसा ही है तो फिर इन्हीं के अनुसार यदि पुरुष संतान उत्पन्न करने के योग्य नहीं है तो फिर पत्नी को भी दूसरा विवाह कर लेना चाहिए।
आज ही मद्रास हाइकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए केंद्र व राज्य सरकारों से कहा है कि शादी से पहले अगर दूल्हा-दुल्हन की "नपुसकता की जांच करवाई जाए तो इन वजहों से टूटने वाली शादियों की दर में कमी आ सकती है। इसका सीधा सीधा मतलब यह भी है कि नपुंसकता का प्रतिशत बढ़ रहा है मगर इसका ठीकरा औरत के मत्थे कतई फोड़ा जा सकता।
गनीमत है कि देश में कानून का राज है, जो कम से कम कानूनी धाराओं में तो महिला अधिकारों की बात करता ही है वरना यदि छत्तीसगढ़ के कवर्धा में हुई धर्मसंसद के प्रस्तावों पर गौर किया जाये तो समाज के तानेबाने की प्रथम इकाई अर्थात् परिवार में धर्मसंसद में मौजूद इन संतों ने अराजकता पिरोने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कम से कम मुझे तो इन महान धर्म विभूतियों से महिलाओं के संदर्भ में ऐसे ही अनादर की अपेक्षा थी। यूं भी औरतों से ज्यादा सॉफ्ट टारगेट और हो भी क्या सकता है ,वो भी धर्म की आड़ में। इज़्जत-बेइज़्जत ,वंश-निर्वंश, कुल और मर्यादा सब का ठेका औरतों के ही सिर जो ठहरी।
संभवत: शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद यह भूल गये कि आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व जब आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को गूढ़ शास्त्रार्थ में हराकर, मंडन मिश्र की पत्नी के सिर्फ एक ही प्रश्न कि ''सम्भोग का व्यवहारिक ज्ञान क्या है और इससे संतान का निर्माण कैसे होता है '' का उत्तर देने के लिए परकाया प्रवेश तक करना पड़ा।
आज तब से लेकर अब तक सत्तर शंकाराचार्य हो चुके हैं। किसी ने भी गृहस्थजीवन पर बोलने का दुस्साहस नहीं किया। बिना व्यवहारिक ज्ञान के भला शंकराचार्य कैसे बता सकते हैं कि पति व पत्नी में से कौन नि:संतानता के लिए जिम्मेदार है।
इंसानियत को सर्वोपरि रखने वाले हिंदू धर्म को स्वामी स्वरूपानंद के इस कदम ने इतना हल्का करके पेश किया है कि गोया औरत को सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए ही दांपत्य जीवन जीने का अधिकार हो।
बहरहाल हिंदू मर्दों की दूसरी शादी से जुड़े शंकराचार्य के बयान पर विवाद बढ़ता जा रहा है, जैसी कि आशंका थी कि शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के बयान का जमकर विरोध शुरू हो चुका है और इसे लेकर काफी गुस्सा है। निश्चित ही शंकराचार्य का ये बयान अपमानजनक है और बच्चे के लिए दूसरी शादी करना संतानहीन महिलाओं के साथ धोखा है। उनका कहना है कि अगर बच्चे नहीं हो तो दूसरी शादी ही विकल्प नहीं है, टेस्टट्यूब बेबी से लेकर बच्चे गोद लेने जैसे कई और भी तरीके हैं। ये निजी मामलों में धर्माचार्यों का अनावश्यक हस्तक्षेप है।
गौरतलब है कि मुसलमान होने के चलते जहां एक तरफ शंकराचार्य साईं बाबा को संत मानने से इंकार कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ इस्लाम में मिली एक से ज्यादा शादियों की छूट को ही हिंदू धर्म में अपनाने की बात कह रहे हैं।
क्या ये बात नाजायज नहीं कि बच्चों की पैदाइश होने या ना होने के कारण ही, व्यभिचार का एक टूल पुरुषों को पकड़ाया जा रहा है । सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पहली पहली पत्नी के रहते और उसे तलाक दिए बिना दूसरा विवाह जायज़ होगा या पहली पत्नी की उपयोगिता सिर्फ बच्चे पैदा करने की है, बस।
- अलकनंदा सिंह
है ना कितने कमाल की बात कि बाल्यावस्था से ही संन्यासी रहने वाले, अब इस पर भी बोलेंगे कि नि:संतान होने पर पुरुष को दूसरा विवाह कर लेना चाहिए, वह भी बगैर यह जाने कि नि:संतान होने के लिए कौन जिम्मेदार है। ऐसा ही है तो फिर इन्हीं के अनुसार यदि पुरुष संतान उत्पन्न करने के योग्य नहीं है तो फिर पत्नी को भी दूसरा विवाह कर लेना चाहिए।
आज ही मद्रास हाइकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए केंद्र व राज्य सरकारों से कहा है कि शादी से पहले अगर दूल्हा-दुल्हन की "नपुसकता की जांच करवाई जाए तो इन वजहों से टूटने वाली शादियों की दर में कमी आ सकती है। इसका सीधा सीधा मतलब यह भी है कि नपुंसकता का प्रतिशत बढ़ रहा है मगर इसका ठीकरा औरत के मत्थे कतई फोड़ा जा सकता।
गनीमत है कि देश में कानून का राज है, जो कम से कम कानूनी धाराओं में तो महिला अधिकारों की बात करता ही है वरना यदि छत्तीसगढ़ के कवर्धा में हुई धर्मसंसद के प्रस्तावों पर गौर किया जाये तो समाज के तानेबाने की प्रथम इकाई अर्थात् परिवार में धर्मसंसद में मौजूद इन संतों ने अराजकता पिरोने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कम से कम मुझे तो इन महान धर्म विभूतियों से महिलाओं के संदर्भ में ऐसे ही अनादर की अपेक्षा थी। यूं भी औरतों से ज्यादा सॉफ्ट टारगेट और हो भी क्या सकता है ,वो भी धर्म की आड़ में। इज़्जत-बेइज़्जत ,वंश-निर्वंश, कुल और मर्यादा सब का ठेका औरतों के ही सिर जो ठहरी।
संभवत: शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद यह भूल गये कि आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व जब आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को गूढ़ शास्त्रार्थ में हराकर, मंडन मिश्र की पत्नी के सिर्फ एक ही प्रश्न कि ''सम्भोग का व्यवहारिक ज्ञान क्या है और इससे संतान का निर्माण कैसे होता है '' का उत्तर देने के लिए परकाया प्रवेश तक करना पड़ा।
आज तब से लेकर अब तक सत्तर शंकाराचार्य हो चुके हैं। किसी ने भी गृहस्थजीवन पर बोलने का दुस्साहस नहीं किया। बिना व्यवहारिक ज्ञान के भला शंकराचार्य कैसे बता सकते हैं कि पति व पत्नी में से कौन नि:संतानता के लिए जिम्मेदार है।
इंसानियत को सर्वोपरि रखने वाले हिंदू धर्म को स्वामी स्वरूपानंद के इस कदम ने इतना हल्का करके पेश किया है कि गोया औरत को सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए ही दांपत्य जीवन जीने का अधिकार हो।
बहरहाल हिंदू मर्दों की दूसरी शादी से जुड़े शंकराचार्य के बयान पर विवाद बढ़ता जा रहा है, जैसी कि आशंका थी कि शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के बयान का जमकर विरोध शुरू हो चुका है और इसे लेकर काफी गुस्सा है। निश्चित ही शंकराचार्य का ये बयान अपमानजनक है और बच्चे के लिए दूसरी शादी करना संतानहीन महिलाओं के साथ धोखा है। उनका कहना है कि अगर बच्चे नहीं हो तो दूसरी शादी ही विकल्प नहीं है, टेस्टट्यूब बेबी से लेकर बच्चे गोद लेने जैसे कई और भी तरीके हैं। ये निजी मामलों में धर्माचार्यों का अनावश्यक हस्तक्षेप है।
गौरतलब है कि मुसलमान होने के चलते जहां एक तरफ शंकराचार्य साईं बाबा को संत मानने से इंकार कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ इस्लाम में मिली एक से ज्यादा शादियों की छूट को ही हिंदू धर्म में अपनाने की बात कह रहे हैं।
क्या ये बात नाजायज नहीं कि बच्चों की पैदाइश होने या ना होने के कारण ही, व्यभिचार का एक टूल पुरुषों को पकड़ाया जा रहा है । सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पहली पहली पत्नी के रहते और उसे तलाक दिए बिना दूसरा विवाह जायज़ होगा या पहली पत्नी की उपयोगिता सिर्फ बच्चे पैदा करने की है, बस।
- अलकनंदा सिंह