शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

तो मंडन मिश्र की पत्‍नी को क्‍या फिर आना होगा...

अभी तक साईं की मूर्तिपूजा का विरोध करने की बात करके सुर्खियां बटोरने वाले ज्योतिष एवं द्वारका शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्‍वामी स्‍वरूपानंद ने जो धर्मसंसद लगाकर आग उगली , उसकी तपिश अब पारिवारिक रिश्‍तों को भी झुलसाने का कारण बन सकती है।
है ना कितने कमाल की बात कि बाल्‍यावस्‍था से ही संन्‍यासी रहने वाले, अब इस पर भी बोलेंगे कि नि:संतान होने पर पुरुष को दूसरा विवाह कर लेना चाहिए, वह भी बगैर यह जाने कि नि:संतान होने के लिए कौन जिम्‍मेदार है। ऐसा ही है तो फिर इन्‍हीं के अनुसार यदि पुरुष संतान उत्‍पन्‍न करने के योग्‍य नहीं है तो फिर पत्‍नी को भी दूसरा विवाह कर लेना चाहिए।
आज ही मद्रास हाइकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए केंद्र व राज्‍य सरकारों से कहा है कि शादी से पहले अगर दूल्हा-दुल्हन की "नपुसकता की जांच करवाई जाए तो इन वजहों से टूटने वाली शादियों की दर में कमी आ सकती है। इसका सीधा सीधा मतलब यह भी है कि नपुंसकता का प्रतिशत बढ़ रहा है मगर इसका ठीकरा औरत के मत्‍थे कतई फोड़ा जा सकता।
गनीमत है कि देश में कानून का राज है, जो कम से कम कानूनी धाराओं में तो महिला अधिकारों की बात करता ही है वरना यदि छत्‍तीसगढ़ के कवर्धा में हुई धर्मसंसद के प्रस्‍तावों पर गौर किया जाये तो समाज के तानेबाने की प्रथम इकाई अर्थात् परिवार में धर्मसंसद में मौजूद इन संतों ने अराजकता पिरोने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कम से कम मुझे तो इन महान धर्म विभूतियों से महिलाओं के संदर्भ में ऐसे ही अनादर की अपेक्षा थी। यूं भी औरतों से ज्‍यादा सॉफ्ट टारगेट और हो भी क्‍या सकता है ,वो भी धर्म की आड़ में। इज्‍़जत-बेइज्‍़जत ,वंश-निर्वंश, कुल और मर्यादा सब का ठेका औरतों के ही सिर जो ठहरी।
संभवत: शंकराचार्य स्‍वामी स्‍वरूपानंद यह भूल गये कि आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व जब आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को गूढ़ शास्‍त्रार्थ में हराकर, मंडन मिश्र की पत्‍नी के सिर्फ एक ही प्रश्‍न कि ''सम्‍भोग का व्‍यवहारिक ज्ञान क्‍या है और इससे संतान का निर्माण कैसे होता है '' का उत्‍तर देने के लिए परकाया प्रवेश तक करना पड़ा।
आज तब से लेकर अब तक सत्तर शंकाराचार्य हो चुके हैं। किसी ने भी गृहस्‍थजीवन पर बोलने का दुस्‍साहस नहीं किया। बिना व्‍यवहारिक ज्ञान के भला शंकराचार्य कैसे बता सकते हैं कि पति व पत्‍नी में से कौन नि:संतानता के लिए जिम्‍मेदार है।
इंसानियत को सर्वोपरि रखने वाले हिंदू धर्म को स्‍वामी स्‍वरूपानंद के इस कदम ने इतना हल्‍का करके पेश किया है कि गोया औरत को सिर्फ बच्‍चे पैदा करने के लिए ही दांपत्‍य जीवन जीने का अधिकार हो।
बहरहाल हिंदू मर्दों की दूसरी शादी से जुड़े शंकराचार्य के बयान पर विवाद बढ़ता जा रहा है, जैसी कि आशंका थी कि शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के बयान का जमकर विरोध शुरू हो चुका है और इसे लेकर काफी गुस्सा है। निश्‍चित ही शंकराचार्य का ये बयान अपमानजनक है और बच्चे के लिए दूसरी शादी करना संतानहीन महिलाओं के साथ धोखा है। उनका कहना है कि अगर बच्चे नहीं हो तो दूसरी शादी ही विकल्प नहीं है, टेस्टट्यूब बेबी से लेकर बच्चे गोद लेने जैसे कई और भी तरीके हैं। ये निजी मामलों में धर्माचार्यों का अनावश्यक हस्तक्षेप है।
गौरतलब है कि मुसलमान होने के चलते जहां एक तरफ शंकराचार्य साईं बाबा को संत मानने से इंकार कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ इस्लाम में मिली एक से ज्यादा शादियों की छूट को ही हिंदू धर्म में अपनाने की बात कह रहे हैं।
क्‍या ये बात नाजायज नहीं कि बच्‍चों की पैदाइश होने या ना होने के कारण ही, व्‍यभिचार का एक टूल पुरुषों को पकड़ाया जा रहा है । सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पहली पहली पत्नी के रहते और उसे तलाक दिए बिना दूसरा विवाह जायज़ होगा या पहली पत्‍नी की उपयोगिता सिर्फ बच्‍चे पैदा करने की है, बस।
- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 25 अगस्त 2014

बाकी तीन उंगलियां स्‍वामी स्‍वरूपानंद की ओर

तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे की तर्ज़ पर द्वारका शारदापीठ के शंकराचार्य स्‍वामी स्‍वरूपानंद सरस्‍वती ने साईं की ईश्‍वर मानकर पूजा न किये जाने का जो शिगूफा छोड़ा है और इसे सनातन धर्म पर संकट के रूप में प्रचारित किया है, वह निश्‍चित ही हमारी सनातनी धर्म व्‍यवस्‍था को कमजोर बनाने का एक बचकाना प्रयास है, इसके अलावा और कुछ नहीं । सच तो ये है कि कभी धर्म की रक्षार्थ आदि शंकराचार्य ने जिन चार पीठों की स्‍थापना की,उनके उत्‍तराधिकारी धर्म की तो छोड़िए, स्‍वयं अपनी रक्षा नहीं कर पा रहे और अहंकार के बोझ से इतना लद चुके हैं कि उन्‍हें सनातन धर्म का पाठ पढ़ाने के लिए साईं के नाम का सहारा लेना पड़ रहा है। आमजन को यह बताना पड़ रहा है कि कुंभ स्‍नान में सर्वोच्‍चता जतलाने के अलावा भी उनका अपना कोई वज़ूद है।
कल अखाड़ों की एक धार्मिक बैठक में सनातन धर्म के अलंबरदारों ने साईं को ईश्‍वर मानकर पूजा किये जाने के विरोध में एक सहमति पत्र तैयार किया जिसे आज धर्म संसद में पढ़ा जायेगा और इस पत्र के अनुसार धर्म संसद में शामिल सभी धर्मविद्वतजन स्‍वामी स्‍वरूपानंद सरस्‍वती द्वारा उठाये गये साईं को ईश्‍वर मानकर पूजा किये जाने के मुद्दे को सहमति देंगे।
कितना अच्‍छा होता कि साईं को उनके भक्‍त ईश्‍वर मानकर पूजें या संत मानकर, इस मुद्दे पर   एकत्र होने से पहले धर्मसंसद में वेदों के ज्ञाता, सनातन धर्म के सर्वोच्‍च अधिकारी यह आत्‍मचिंतन भी कर पाते कि स्‍वयं उन्‍होंने शंकराचार्यों, महामंडलेश्‍वरों, मंडलेश्‍वरों के पद को सुशोभित करते हुये कौन-कौन से जनहितकारी, धर्महितकारी कार्य किये । सनातन धर्म की जितनी छीछालेदर इन अलंबरदारों ने की है, उतनी तो विधर्मियों ने भी नहीं की। जो स्‍वयं अपने धर्म को भूल दूसरे धर्म पर उंगली उठाता है, वह यह भूल जाता है कि बाकी की तीन उंगलियां स्‍वयं उसकी ओर ही उठ  रही हैं।
कुछ सवाल हैं जो स्‍वयं इन्‍हीं धर्माचार्यों के मंसूबों को कठघरे में लाते हैं जैसे कि -
1.क्‍या स्‍वयं स्‍वरूपानंद सरस्‍वती ये बतायेंगे कि उन्‍होंने धर्मांतरण पर चुप्‍पी क्‍यों साध रखी है
2.क्‍या उन्‍हें देश के हर हिस्‍से में हो रहे गौवध का फैलता दायरा दिखाई नहीं देता
3.क्‍या गंगा समेत तमाम पूज्‍यनीय नदियों के प्रदूषण पर उनकी चुप्‍पी उनकी मूढ़ता और निष्‍क्रियता नहीं दर्शाती
4.क्‍या उन्‍हें नहीं पता कि शंकराचार्यों, जगद्गुरुओं और महामंडलेश्‍वरों के पद भी खरीदे बेचे जा रहे हैं। इतना ही नहीं, बाकायदा इन्‍हीं के मठों से सेटिंग का पूरा खेल होता है और पदों के बदले में मिली धनराशि से इनके बैंक अकूत संपत्‍तियों से भरे पड़े हैं
5.क्‍या इन अकूत संपत्‍तियों में आने वाला धन काली कमाई नहीं होती
6.क्‍यों नहीं इनके खजानों को समाज के कल्‍याणार्थ सार्वजनिक किया जाता
7. धर्म को बेचने के लिए बनाये जा रहे आश्रमों, मंदिरों और धार्मिक चैनलों के ज़रिये जो धर्मांधता फैलाई जा रही है, उस पर क्‍यों नहीं कोई आपत्‍ति जताई जाती
8.सामाजिक बुराइयों पर इनकी चुप्‍पी क्‍या इन्‍हें बख्‍शने देगी
 ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो इन मठाधीशों के इरादों को कतई जनहितकारी या धर्महितकारी नहीं मानने देते।
यूं भी शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती विवादित बयान देकर सिर्फ खबरों में रहने के आदी हो चुके हैं और सब जानते हैं कि वह कांग्रेस के हिमायती हैं। तभी तो वह कभी कहते हैं कि स्वामी अग्निवेश यह साबित करें कि वह आतंकवादी नहीं, सिर्फ संन्यासी हैं तो कभी कहते हैं कि शिरडी के साईं मंदिर में काला धन चढ़ावे में आता है। ये कौन सी अनोखी बात है, सब जानते हैं। कभी कहते हैं कि कर्मों का फल ना निर्मल बाबा देगा, ना साईं बाबा देगा। तो फिर आपत्‍ति किस पर है, वे ये भी बतायें। कभी कहते हैं कि आपत्ति साईं से नहीं, उनकी पूजा से है तो कभी कहते हैं कि साईं बाबा 'वेश्या पुत्र' और उनके भक्तगण 'संक्रामक बीमारी'  हैं...आदि आदि।
बहरहाल "हिंसायाम दूयते या सा हिन्दु" अर्थात् हिन्दू या सनातन धर्म केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है जिसमें कहा गया है कि अपने मन, वचन, कर्म सहित जो हिंसा से दूर रहे, वह हिन्दू है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे, वह हिंसा है और फिलहाल धर्माचार्यों का ये कदम ऐसी ही हिंसा की भूमि तैयार कर रहा है।
कौन... किसकी... कैसे... क्‍यों... किसलिए...पूजा या आराधना करे जैसे प्रश्‍नों की बौछार के बीच  कुल 13 अखाड़ों  के जमघट में जूना अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा, आवान अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, पंचाग्नि अखाड़ा, नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा, वैष्णव अखाड़ा, बड़ा उदासीन अखाड़ा, निर्मल पंचायती अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, रामानंदी दिगंबरी अखाड़ा शामिल हैं। कल सुबह सभी अखाड़ों के प्रतिनिधियों की बैठक वागंभरी गद्दी के महंत नरेन्द्र गिरी की अध्यक्षता में हुई जिसमें जूना अखाड़े के राष्ट्रीय संरक्षक हरि गिरी ने साईं मुद्दे व सनातन धर्म से जुड़े सभी मुद्दों पर शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का समर्थन करने से संबंधित प्रस्ताव पढ़ा। आज सभी अखाड़ों के प्रतिनिधि इसी सहमति पत्र को धर्म संसद में पढ़ेंगे, जिसके बाद साईं की पूजा के मुद्दे पर फैसला लिया जाएगा।
हालांकि एक अच्‍छी खबर भी है कि इस जमघट से अलग अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने कहा है कि द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं बाबा के बारे में दिया गया बयान आधारहीन है। देखते हैं हैं कि आज ये धर्माचार्य क्‍या निर्णय लेते हैं।
- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

कुल्‍हाड़ी-कुदाल के संग तम्‍बूरा

सदियों पुरानी बहस है कि भाग्‍य और कर्म में कौन श्रेष्‍ठ है। भाग्‍यवादी कर्म को और कर्मवादी भाग्‍य को गौण समझते हैं परंतु भाग्‍य और कर्म दोनों का ही अस्‍तित्‍व जीवन के लिए बेहद महत्‍वपूर्ण है। अंतर बस इतना है कि भाग्‍य पर निर्भरता हमें कर्म करने से दूर कर देती है जबकि कर्म पर निर्भर रहकर भाग्‍य का निर्माण किया जा सकता है।
यह तभी संभव है जबकि कर्म को उत्‍सव मानकर चला जाये। कर्म को जिया जाये न कि 'कैसे भी निबटाओ' की सोच के साथ उसे खत्‍म किया जाये। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि उत्‍तम कर्म करके व्‍यक्‍ति उच्‍च स्‍थान तक पहुंचे हैं, मगर उन्‍होंने भी अपने कर्म को जिया, उसे उत्‍सव मानकर जीवन का ध्‍येय बनाया।उनके लिए उनका कर्म बोझ नहीं था इसीलिए वे उसे करने में आनंदित होते रहे और आगे बढ़ते रहे।
जीवन में सब कुछ पा लेने की ज़िद में मानवीय संवेदनायें दम तोड़ रही हैं, सारे भाव खो रहे हैं, ऐसे में बहुत जरूरत है इस सोच को अपनाने की कि कर्म की प्रकृति को उत्‍सव बना दिया जाये।और फिर से कहीं मीरा के हाथ का तम्‍बूरा , कृष्‍ण के हाथ की बांसुरी बन जाये वह तो कहीं ताजमहल तक का निर्माण कर दे।
मीरा के हाथ में जो तम्‍बूरा है, वह कर्म करने वालों की वजह से ही आया, उसे बनाने वाले यदि नहीं होते तो हम तम्‍बूरे से अनभिज्ञ ही रहते मगर लकड़ी, बांस और तार के मिश्रण की कल्‍पना जिसने भी की, वह पहला व्‍यक्‍ति निश्‍चित ही 'कर्म को उत्‍सव' बनाने की धुन पाले बैठा रहा होगा। बिना उत्‍सवी सोच के ये संभव ही नहीं था। तम्‍बूरा जैसा वाद्य यंत्र 'सिर्फ कर्म' करना है, की सोच वाले पैदा नहीं करते। वे तो कुल्‍हाड़ी बनाते हैं, कुदाल बनाते हैं, तलवार बनाते हैं। तम्‍बूरा को गढ़ा गया और इसे गढ़ने वाली उत्‍सवी सोच से केवल कर्म करते जाने वालों की सोच का क्‍या लेना देना। तम्‍बूरा तो गढ़ते ही वे लोग हैं जो जिंदगी को खेल की तरह से लेते हैं। जिंदगी में जो भी श्रेष्‍ठ आया चाहे वह तम्‍बूरा हो या ताजमहल, वह उन लोगों के मन से आया, उन के सपनों से आया जो जिंदगी को उत्‍सव बनाकर चलते रहे, गुनगुनाते रहे और नायाब कृतियां बना दीं।
ज़रा सोचिए! भोजन घर में भी बनता है और होटल में भी मगर तृप्‍ति घर का भोजन ही देता है, क्‍यों ? क्‍योंकि वह  उस गृहणी के लिए काम नहीं बल्‍कि अपनों को स्‍वाद का आनंद लेते देख स्‍वयं आनंदित होने का साधन है। और जहां आनंद है वहीं उत्‍सव है। सो आनंद के साथ कर्म को करने में जो तृप्‍ति मिलती है उससे जीवन उत्‍सव बन जाता है। हर कदम हल्‍का, कहीं कोई भार नहीं, कहीं कोई जबरदस्‍ती नहीं।
आज जो चारों तरफ आपाधापी समाज में हर क्षेत्र में सर्वोच्‍चता को पा लेने की है उससे संपन्‍नता तो बढ़ रही है मगर व्‍यक्‍ति उतना ही तेजी से मन से गरीब हुआ जा रहा है। भावनायें, संवेदनायें, दया, करुणा, क्षमा जैसे मन से उपजने वाले भाव से हीन होता जा रहा है। उत्‍सवविहीनों से बनते समाज का ही तो आइना है बढ़ता आपराधिक आंकड़ा। कितने आश्‍चर्य की बात है कि समाज की गरीबी मिटाने पर सबका ध्‍यान है और किसी हद तक संपन्‍नता गरीबी को मिटा भी रही है मगर जो समाज 'मन से गरीब' हुआ जा रहा है उस पर किसी का ध्‍यान नहीं है। मन अतृप्‍त है, गरीब है, वह करोड़ों कमा लेने के बाद भी जीवन को उत्‍सव नहीं बना पा रहा, ना ही उसे देख आनंदित हो पा रहा है और कुंठाओं से घिरा अपराधों को जन्‍म दे रहा है।
कुल मिलाकर इस स्‍थिति को हम भाग्‍य के भरोसे नहीं छोड़ सकते क्‍योंकि कर्म को महज 'काम है- जो निबटाना है' वाली सोच में बांध दिया गया है, आनंद से दूर कर दिया गया है। इस बंधन में विवशता है जो जब-तब बंधन तोड़ने को आतुर हो उठती है और यही आतुरता समाज में अपराध को बढ़ावा दे रही है।
समाज को फिर से उत्‍सव से जोड़ना होगा और उत्‍सव ऐसे हों जो सदियों से थोपे गये ना हों, वे स्‍वयं ही उपजें...ऐसे उत्‍सव जो स्‍वयं आग्रह करें... मन से नाच उठने का...कुछ नया जन्‍माने का...कुछ नया खोजने का जैसे कि तम्‍बूरा खोजा गया, बांसुरी खोजी गई...। ढर्रे पर चलते चलते सदियों पुराने उत्‍सवों की सड़ांध अब समाज के मन को झूमने नहीं देती बल्‍कि बोझ बन गई है, रस्‍म बन गई है। और जो रस्‍म बन गई हो, लीक पर ही चलती रही हो वह ना तो 'कर्म' में उत्‍सव की भावना को पैदा कर पायेगी ना ही 'मन' में।
निश्‍चित ही जब मन तमाम ढर्रे में बंधी सोचों से संचालित होगा तो वह कर्म को उत्‍सव कैसे बना पायेगा भला और ऐसे में कर्म के द्वारा भाग्‍य को बनाने- बदलने के प्रयास भी तो धराशायी ही हो जायेंगे ना। इसलिए कोशिश की जाये कि कर्म जरूरी है मगर वो महज 'काम निबटाने' तक सीमित ना रहे, वह मन से किया जाये ताकि हम कर्म को उत्‍सव मानकर आगे बढ़ें और अपने पने भाग्‍यों को स्‍वयं संचालित करें..उसे बनायें और बढ़ायें। समाज की नकारात्‍मकता को सकारात्‍मक दिशा में उत्सव के संग ही ले जाया जा सकता है।

-अलकनंदा सिंह

बुधवार, 13 अगस्त 2014

नाटक: 'म्यूज़ियम ऑफ़ स्पीशीज़ इन डेंजर'

"कुंती ने हमारा सेक्स टाइमटेबल बनाया ताकि किसी भाई को कम या ज़्यादा दिन न मिलें."- द्रौपदी

असली प्रेमी कौन था? वो रावण जिसने उसकी हां का इंतज़ार किया या वो राम जिसने उस पर अविश्वास किया?-सीता


"पाँच पांडवों के लिए पाँच तरह से बिस्तर सजाना पड़ता है लेकिन किसी ने मेरे इस दर्द को समझा ही नहीं क्योंकि महाभारत मेरे नज़रिए से नहीं लिखा गया था!" बीईंग एसोसिएशन के नाटक 'म्यूज़ियम ऑफ़ स्पीशीज़ इन डेंजर' की मुख्य किरदार प्रधान्या शाहत्री मंच से ऐसे कई पैने संवाद बोलती हैं.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से मंचित इस नाटक में सीता और द्रौपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से महिलाओं की हालत की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे ने.
रसिका कहती हैं, "सीता को देवी होने के बाद भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और इसे सही भी माना जाता है लेकिन मेरा मानना है कि 'अग्नि परीक्षा' जैसी चीज़ें ही रेप को बढ़ावा देती हैं."
नाटक में शूर्पणखा पूछती है, "मेरी गलती बस इतनी थी कि मैंने राम से अपने प्यार का इज़हार कर दिया था? इसके लिए मुझे कुरूप बना देना इंसाफ़ है?"
शूर्पणखा सवाल उठाती है, "अगर शादीशुदा आदमी से प्यार करना ग़लत है तो राम के पिता की तीन पत्नियां क्यों थीं?"
रसिका कहती हैं, "16 दिसंबर को दिल्ली गैंगरेप के बाद इंडिया गेट पर मोमबती जलाने और मोर्चा निकालने से बेहतर यही लगा कि लोगों तक अपनी बात को पहुंचाई जाए और इसके लिए इससे अच्छा माध्यम मुझे कोई नहीं लगा."
नाटक में सीता का किरदार निभाने वाली प्रधान्या शाहत्री हैं, "सच से डरना कैसा? ये हमारा विरोध करने का तरीका है और हम जानते हैं, हम ग़लत नहीं हैं."
जब आस्था का मामला आता है तो घर परिवार से भी विरोध होता है. द्रौपदी की भूमिका निभाने वाली किरण ने बताया कैसे घर वाले उनसे नाराज़ हो गए थे.
रसिका का कहना था, "ये पहली बार नहीं है कि किसी ने द्रौपदी और सीता के दर्द को लिखने की कोशिश की है और उस वक़्त धर्म कहाँ जाता है जब किसी लड़की का रेप हो जाता है."
"कुंती ने हमारा सेक्स टाइमटेबल बनाया ताकि किसी भाई को कम या ज़्यादा दिन न मिलें." द्रौपदी जब मंच से ये संवाद बोलती हैं तो तालियां गूंज उठती हैं.
नाटक की सीता पूछती हैं, "लोग पूछेंगे कि सीता का असली प्रेमी कौन था? वो रावण जिसने उसकी हां का इंतज़ार किया या वो राम जिसने उस पर अविश्वास किया?"
सिर्फ़ हिंदू मान्यताओं पर ही छींटाकशी क्यों, इसके जवाब में वह कहती हैं, "हमने ये कहानियां बचपन से सुनी हैं. हमें ये याद हैं और इसलिए हम इसके हर पहलू पर गौर कर सकते हैं."
साभार -सुशांत एस मोहन