ये एक आम सी जिज्ञासा है जिसकी वजह से लोग अक्सर पूछा करते हैं कि भई आखिर ये प्रेम क्या बला है।
....अरबों रुपये का कारोबार फिल्म इंडस्ट्री कर रही है,इससे कुछ कम ही सही वेलेंटाइन पर भी प्रेम का ही करोबार हो रहा है..इसी का भ्रम पाले अपराध की दुनिया भी प्रेम का धंधा कर रही है। यह बात दीगर है कि कहीं ये भ्रम है तो कहीं हकीकत।हकीकत वह भी है जो कुछ खापों के निर्णयों से हमारे बीच गाहे-ब-गाहे चर्चा का विषय बनती रही है और प्रेम को सभी अपनी अपनी नजरों से देखते हुये परिभाषित करने में जुट जाते हैं... मगर बात वहीं ठहरी दिखती है कि भई आखिर ये प्रेम है क्या बला...
साइंटफिक लैग्वेज़ में कहूं तो यह एक न्यूरोलॉजिकल मेंटल स्टेज है जिसके तहत दिमाग और दिल का तालमेल अगर सही अनुपात में हो यह कंस्ट्रक्टिव होता है वरना इसके डिस्ट्रैक्ट होने से परिणाम घातक होना निश्चित है।
सामाजिक नज़रिये से प्रेम एक ऐसी बीमारी के रूप में देखा जाता है जिसकी गिरफ्त में स्वयं तो सब आना चाहते हैं लेकिन दूसरे को आते देख नैतिकता का पहाड़ा पढ़ने लगते हैं। दूसरे का प्रेम अचानक ही अनैतिक हो जाता है।
एक और भी नजरिया है व्यवहार का नज़रिया...जिसमें प्रेम, मानव व्यवहार की एक साइकोलॉजिकल स्टेज को परिभाषित करता है या यूं कहें कि प्रेम के माध्यम से किये गये मानवीय व्यवहार को ज्यादा स्थायित्व मिलता है।
मेरी समझ में तो इतनी सी बात आती है कि तमाम अवस्थाओं से गुज़रते हुये भी...अलग-अलग रंग, रूप, देश, भाषा, समाज, सोच, दशा व अवस्थाओं में इसकी कितनी भी परिभाषायें क्यों न गढ़ ली जायें परंतु.....इस शाश्वत सहज ईश्वरीय शक्ति व वरदान को न तो परिभाषित किया जा सकता है और न ही किसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
बात तो इतनी सी है कि प्रेम जब घटित होता है तो फिक्र कैसी..और फिक्र है तो प्रेम कहां ...ये असमंजस क्यों है। ऐसे में हमें भीतर झांक लेना चाहिए , अकसर हम अपने भीतर झांकने से डरते हैं, क्यों...? क्योंकि आदतन हम दूसरे के प्रेम को देखते हैं कि उसने मुझसे प्रेम किया,उसने कितना प्रेम किया,उसका प्रेम ऐसा,उसका प्रेम वैसा। ऐसे में हम स्वयं प्रेम करना भूल जाते हैं। न स्वयं से कर पाते हैं ना स्वयं के लिए । और जब स्वयं से प्रेम नहीं तो किसी से भी प्रेम का सवाल ही उठता।
मेरी समझ में तो प्रेम जब भी होता है चरम ही होता है, उसकी कोई अवस्था नहीं होती,उसे डिग्रीज में नहीं बांटा जा सकता। या तो वह 100 डिग्री प्रथम होता है या 100 डिग्री आखिरी । प्रथम अवस्था ही आखिरी होती है। इसीलिए या तो यह होता है या नहीं।
इसके होने या न होने को तो देखा व महसूस किया जा सकता है,वह भी बेहद निजी स्तर पर मगर शब्दों में इसकी वृहदता को बांधना मुश्किल है।
संभवत: इसीलिए ये जहां अनपढ़ कबीर की दृष्टि में बंधकर साधो से एकात्म हो जाने को विवश हो जाता है वहीं ज्ञानी ऊधौ को अज्ञानी गोपिकाओं से मात खानी पड़ती है।
निश्चित ही सृष्टि के साथ ही उपजी इस फिज़ीकल-मेंटल
अवस्था के अस्तित्व पर पूर्वकाल से चली आ रही बहस आज भी वहीं टिकी है जहां से ये शुरू हुई थी।
- अलकनंदा सिंह
....अरबों रुपये का कारोबार फिल्म इंडस्ट्री कर रही है,इससे कुछ कम ही सही वेलेंटाइन पर भी प्रेम का ही करोबार हो रहा है..इसी का भ्रम पाले अपराध की दुनिया भी प्रेम का धंधा कर रही है। यह बात दीगर है कि कहीं ये भ्रम है तो कहीं हकीकत।हकीकत वह भी है जो कुछ खापों के निर्णयों से हमारे बीच गाहे-ब-गाहे चर्चा का विषय बनती रही है और प्रेम को सभी अपनी अपनी नजरों से देखते हुये परिभाषित करने में जुट जाते हैं... मगर बात वहीं ठहरी दिखती है कि भई आखिर ये प्रेम है क्या बला...
साइंटफिक लैग्वेज़ में कहूं तो यह एक न्यूरोलॉजिकल मेंटल स्टेज है जिसके तहत दिमाग और दिल का तालमेल अगर सही अनुपात में हो यह कंस्ट्रक्टिव होता है वरना इसके डिस्ट्रैक्ट होने से परिणाम घातक होना निश्चित है।
सामाजिक नज़रिये से प्रेम एक ऐसी बीमारी के रूप में देखा जाता है जिसकी गिरफ्त में स्वयं तो सब आना चाहते हैं लेकिन दूसरे को आते देख नैतिकता का पहाड़ा पढ़ने लगते हैं। दूसरे का प्रेम अचानक ही अनैतिक हो जाता है।
एक और भी नजरिया है व्यवहार का नज़रिया...जिसमें प्रेम, मानव व्यवहार की एक साइकोलॉजिकल स्टेज को परिभाषित करता है या यूं कहें कि प्रेम के माध्यम से किये गये मानवीय व्यवहार को ज्यादा स्थायित्व मिलता है।
मेरी समझ में तो इतनी सी बात आती है कि तमाम अवस्थाओं से गुज़रते हुये भी...अलग-अलग रंग, रूप, देश, भाषा, समाज, सोच, दशा व अवस्थाओं में इसकी कितनी भी परिभाषायें क्यों न गढ़ ली जायें परंतु.....इस शाश्वत सहज ईश्वरीय शक्ति व वरदान को न तो परिभाषित किया जा सकता है और न ही किसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
बात तो इतनी सी है कि प्रेम जब घटित होता है तो फिक्र कैसी..और फिक्र है तो प्रेम कहां ...ये असमंजस क्यों है। ऐसे में हमें भीतर झांक लेना चाहिए , अकसर हम अपने भीतर झांकने से डरते हैं, क्यों...? क्योंकि आदतन हम दूसरे के प्रेम को देखते हैं कि उसने मुझसे प्रेम किया,उसने कितना प्रेम किया,उसका प्रेम ऐसा,उसका प्रेम वैसा। ऐसे में हम स्वयं प्रेम करना भूल जाते हैं। न स्वयं से कर पाते हैं ना स्वयं के लिए । और जब स्वयं से प्रेम नहीं तो किसी से भी प्रेम का सवाल ही उठता।
मेरी समझ में तो प्रेम जब भी होता है चरम ही होता है, उसकी कोई अवस्था नहीं होती,उसे डिग्रीज में नहीं बांटा जा सकता। या तो वह 100 डिग्री प्रथम होता है या 100 डिग्री आखिरी । प्रथम अवस्था ही आखिरी होती है। इसीलिए या तो यह होता है या नहीं।
इसके होने या न होने को तो देखा व महसूस किया जा सकता है,वह भी बेहद निजी स्तर पर मगर शब्दों में इसकी वृहदता को बांधना मुश्किल है।
संभवत: इसीलिए ये जहां अनपढ़ कबीर की दृष्टि में बंधकर साधो से एकात्म हो जाने को विवश हो जाता है वहीं ज्ञानी ऊधौ को अज्ञानी गोपिकाओं से मात खानी पड़ती है।
निश्चित ही सृष्टि के साथ ही उपजी इस फिज़ीकल-मेंटल
अवस्था के अस्तित्व पर पूर्वकाल से चली आ रही बहस आज भी वहीं टिकी है जहां से ये शुरू हुई थी।
- अलकनंदा सिंह