समाज में मानसिक विकृत लोगों की शायद कुछ कमी खल रही होगी तभी तो सरकार के
सूचना प्रसारण मंत्रालय कट-अनकट फिल्म फेस्टिवल को आयोजित कर रहा है।
भारतीय दर्शक बॉलीवुड फिल्मों के वे किसिंग सीन भी देख पा रहे हैं जिन पर 'मजबूरीवश' सेंसर बोर्ड को कैंची चलानी पड़ी थी।
मजबूरीवश इसलिए कि अव्वल तो मौजूदा सेंसरबोर्ड अध्यक्षा
फिल्मों के विवादास्पद और समाज के लिए विकृत उदाहरण
पेश करने वाले सीन्स को सेंसर करने की कतई पक्षधर हैं ही
नहीं, फिर अध्यक्ष के तौर पर उन्हें व उनके पुत्र को मिले
राष्ट्रीय पद्म पुरस्कार का अहसान चुकाने का इससे आसान
रास्ता दूसरा क्या हो सकता था।
गौरतलब है कि नई दिल्ली में पहली बार 25 अप्रैल से 30 अप्रैल तक चल रहे "कट-अनकट" फेस्टिवल में फिल्मों के अनएडिटेड वर्जन दिखाए जाएंगे।
हैरानी की बात यह है कि बॉलीवुड की 100वीं वर्षगांठ पर यह
फेस्टिवल मिनिस्ट्री ऑफ इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग
आयोजित करवा रही है। मिनिस्ट्री के एक अधिकारी ने बड़ी
बेतकल्लुफी से बताया कि हम अब ज्यादा आजाद होना चाहते
हैं, पुराने नियमों को थोपना बंद कर कलाकारों की कला को
पहचानना चाहते हैं।
तो गोया आईबी मिनिस्ट्री को आज आज़ादी अगर कहीं दिखती
है तो वह सिर्फ और सिर्फ एडल्ट-पोजिंग सीन्स को सरेआम
करने में दिखाई देती है। समाज के लिए फ़िक्र करने का उसके
पास वक्त ही कहां है। वो भी एक ऐसे माहौल में जब हर रोज
होने वाली रेप की वारदातें समाज के बड़े तबके को उद्वेलित
कर रही हैं।
यूं तो फिल्मों को साफ सुथरा बनाने की जिम्मेदार
संस्था ''सेंसर बोर्ड'' को ही अंतरंग सीन्स और सच्चाई के नाम
पर फूहड़ तरीके से दिखाये जाते न्यूड सीन्स की भरमार नजर
नहीं आती ।
इसी के साथ ये सच भी फिल्म जगत से लेकर आईबी
मिनिस्ट्री तक सभी जानते हैं कि जो सीन काटने की रस्म
अदायगी होती भी है उसके पीछे उन सीन्स का आपत्तिजनक
होना नहीं बल्कि फिल्म निर्माता-मिनिस्ट्री के नौकरशाह व
सेंसरबोर्ड की म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग में विफलता होती है।
आज के इस तेजाबी माहौल में जब कि बच्ची से लेकर बूढ़ी
औरत तक को यौन हिंसक छोड़ नहीं रहे तब ... यदि किसी
मूढ़ व्यक्ति से भी पूछा जाये कि समाज में यौन हिंसा के
बढ़ते प्रकोप का क्या कारण्ा है तो वह अन्य कारणों को गिनाने
से पहले इसके लिए फिल्मों में बढ़ती अश्लीलता को ही
मुख्यत: दोषी बतायेगा।
उस पर भी कमाल यह कि जो सरकार महिला सुरक्षा पर एक
मुकम्मल बिल नहीं ला पाई, उसी का एक मंत्रालय इस तरह
की कथित बेबाकी दिखा रहा है। जो सैंसर बोर्ड औपचारिकतावश ही सही, अभी तक फिल्मों में लम्बे किसिंग सीन, न्यूडिटी और सरकार के खिलाफ विद्रोह पैदा करने वाले वीडियोज पर कैंची चला देता था। अब वही बोर्ड मिनिस्ट्री की हां में हां मिलाते हुये कह रहा है कि "बदलते समय के साथ हमें फ्रेश अप्रोच को अपनाना चाहिए। हमारा मकसद है सैंसर लॉ के पुराने नियमों को जल्द बदलना।"
ज़ाहिर है समाज के टूटते रिश्तों व आपसी विश्वास के लिए
इस फिल्म फेस्टीवल ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है
कि अपने नाम की तरह ''कट और अनकट'' के दोराहे पर खड़े
होकर सिर्फ और सिर्फ समाज की तबाही देखी जा सकती है
और कुछ नहीं ।
गौरतलब है कि 1952 में ड्राफ्ट हुआ और 1983 में संशोधित
हुए सेंसर बोर्ड के कानून के तहत सेक्स का चित्रण, न्यूडिटी
या सोशल अनरेस्ट और हिंसा को फिल्मों से बाहर रखा जा
सकता है। हो सकता है इसके आफ्टर इफेक्ट्स अभी दिखाई न
दें मगर जल्दी ही वो भी सबके सामने होंगे।
- अलकनंदा सिंह
भारतीय दर्शक बॉलीवुड फिल्मों के वे किसिंग सीन भी देख पा रहे हैं जिन पर 'मजबूरीवश' सेंसर बोर्ड को कैंची चलानी पड़ी थी।
मजबूरीवश इसलिए कि अव्वल तो मौजूदा सेंसरबोर्ड अध्यक्षा
फिल्मों के विवादास्पद और समाज के लिए विकृत उदाहरण
पेश करने वाले सीन्स को सेंसर करने की कतई पक्षधर हैं ही
नहीं, फिर अध्यक्ष के तौर पर उन्हें व उनके पुत्र को मिले
राष्ट्रीय पद्म पुरस्कार का अहसान चुकाने का इससे आसान
रास्ता दूसरा क्या हो सकता था।
गौरतलब है कि नई दिल्ली में पहली बार 25 अप्रैल से 30 अप्रैल तक चल रहे "कट-अनकट" फेस्टिवल में फिल्मों के अनएडिटेड वर्जन दिखाए जाएंगे।
हैरानी की बात यह है कि बॉलीवुड की 100वीं वर्षगांठ पर यह
फेस्टिवल मिनिस्ट्री ऑफ इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग
आयोजित करवा रही है। मिनिस्ट्री के एक अधिकारी ने बड़ी
बेतकल्लुफी से बताया कि हम अब ज्यादा आजाद होना चाहते
हैं, पुराने नियमों को थोपना बंद कर कलाकारों की कला को
पहचानना चाहते हैं।
तो गोया आईबी मिनिस्ट्री को आज आज़ादी अगर कहीं दिखती
है तो वह सिर्फ और सिर्फ एडल्ट-पोजिंग सीन्स को सरेआम
करने में दिखाई देती है। समाज के लिए फ़िक्र करने का उसके
पास वक्त ही कहां है। वो भी एक ऐसे माहौल में जब हर रोज
होने वाली रेप की वारदातें समाज के बड़े तबके को उद्वेलित
कर रही हैं।
यूं तो फिल्मों को साफ सुथरा बनाने की जिम्मेदार
संस्था ''सेंसर बोर्ड'' को ही अंतरंग सीन्स और सच्चाई के नाम
पर फूहड़ तरीके से दिखाये जाते न्यूड सीन्स की भरमार नजर
नहीं आती ।
इसी के साथ ये सच भी फिल्म जगत से लेकर आईबी
मिनिस्ट्री तक सभी जानते हैं कि जो सीन काटने की रस्म
अदायगी होती भी है उसके पीछे उन सीन्स का आपत्तिजनक
होना नहीं बल्कि फिल्म निर्माता-मिनिस्ट्री के नौकरशाह व
सेंसरबोर्ड की म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग में विफलता होती है।
आज के इस तेजाबी माहौल में जब कि बच्ची से लेकर बूढ़ी
औरत तक को यौन हिंसक छोड़ नहीं रहे तब ... यदि किसी
मूढ़ व्यक्ति से भी पूछा जाये कि समाज में यौन हिंसा के
बढ़ते प्रकोप का क्या कारण्ा है तो वह अन्य कारणों को गिनाने
से पहले इसके लिए फिल्मों में बढ़ती अश्लीलता को ही
मुख्यत: दोषी बतायेगा।
उस पर भी कमाल यह कि जो सरकार महिला सुरक्षा पर एक
मुकम्मल बिल नहीं ला पाई, उसी का एक मंत्रालय इस तरह
की कथित बेबाकी दिखा रहा है। जो सैंसर बोर्ड औपचारिकतावश ही सही, अभी तक फिल्मों में लम्बे किसिंग सीन, न्यूडिटी और सरकार के खिलाफ विद्रोह पैदा करने वाले वीडियोज पर कैंची चला देता था। अब वही बोर्ड मिनिस्ट्री की हां में हां मिलाते हुये कह रहा है कि "बदलते समय के साथ हमें फ्रेश अप्रोच को अपनाना चाहिए। हमारा मकसद है सैंसर लॉ के पुराने नियमों को जल्द बदलना।"
ज़ाहिर है समाज के टूटते रिश्तों व आपसी विश्वास के लिए
इस फिल्म फेस्टीवल ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है
कि अपने नाम की तरह ''कट और अनकट'' के दोराहे पर खड़े
होकर सिर्फ और सिर्फ समाज की तबाही देखी जा सकती है
और कुछ नहीं ।
गौरतलब है कि 1952 में ड्राफ्ट हुआ और 1983 में संशोधित
हुए सेंसर बोर्ड के कानून के तहत सेक्स का चित्रण, न्यूडिटी
या सोशल अनरेस्ट और हिंसा को फिल्मों से बाहर रखा जा
सकता है। हो सकता है इसके आफ्टर इफेक्ट्स अभी दिखाई न
दें मगर जल्दी ही वो भी सबके सामने होंगे।
- अलकनंदा सिंह