हिंदू आख्यान शास्त्र के अनुसार श्वान को सबसे अशुभ प्राणी माना जाता है इसलिए उसे विवाह मंडपों और अन्य पवित्र जगहों के निकट आने से रोका जाता है। रोता हुआ श्वान दुर्भाग्य का अगुआ होता है। श्वान को देखना भी दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है लेकिन श्वान तो प्यारे, आज्ञाकारी और स्नेहमय प्राणी हैं।
ऋग्वेद के अनुसार भी इंद्र ने खोई हुईं गायों को ढूंढने हेतु श्वानों की माता ‘सरमा’ को भेजा था। इससे उन्होंने स्वीकार किया कि श्वान रक्षा करने में भूमिका निभाते हैं। कथानकों में श्वानों को मृत्यु से जोड़ा जाता है इसलिए सरमा की संतान ‘सरमेय’ यमदेव के साथी होते हैं। उन्हें बंजर भूमि के साथ भी जोड़ा जाता है, न कि सभ्यता के साथ। श्वान शिव के उग्र रूप ‘भैरव’ का वाहन है। श्वान इतना अशुभ माना गया है कि महाभारत में युधिष्ठिर को श्वान के संग स्वर्ग में प्रवेश करने से रोका गया।
आख्यान शास्त्र का कभी शाब्दिक अर्थ नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक अर्थ लिया जाना चाहिए। इन कथाओं और प्रतीकों के माध्यम से हमारे पूर्वजों ने अत्यंत गूढ़ संदेश दिए। चूंकि श्वान अशुभ माने जाते हैं, वे एक अशुभ विचार से जुड़े हैं। यह कौन-सा विचार है? भागवत पुराण में जड़ भरत नामक त्रषि की कहानी है। सब कुछ त्यागने के बावजूद वे एक हिरण से आसक्त हुए और इसलिए मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाए। उन्होंने हिरण बनकर पुनर्जन्म लिया। हिंदू दर्शनशास्त्र का मुख्य सिद्धांत यह है कि आसक्त होने से हम फंस जाते हैं।
अब कल्पना करें कि एक श्वान आपकी ओर आतुरता और स्नेह भरी आंखों से देख रहा है- उसके प्रेममय व्यवहार से आपका हृदय पिघल जाता है। पालतू श्वान हमेशा अपने मालिक से पुष्टि चाहता है। उस पर ध्यान देने पर वह पूंछ हिलाता है और ध्यान न देने पर रोता है। अब श्वानों से घिरे एक संन्यासी की कल्पना करें। जैसे भरत हिरण से आसक्त हुए, वैसे क्या संन्यासी भी इन श्वानों से आसक्त हुए होंगे?
पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पाने के लिए उन्हें आसक्ति की तीव्र इच्छा के पार जाना होगा। श्वान अपने मालिक से अबाध प्रेम करता है और इसलिए श्वान से प्रलोभित होना अप्सराओं से प्रलोभित होने से भी आसान है। सदा चार श्वानों से घिरे दत्तात्रेय तटस्थता के प्रतीक थे। श्वान दत्तात्रेय का पीछा करते थे, लेकिन दत्तात्रेय उन्हें प्रलोभन नहीं देते थे। श्वान क्षेत्रीय प्राणी है इसलिए वह अपने मालिक को भी किसी के साथ नहीं बांटता है। यदि उसे लगा कि उसका क्षेत्र खतरे में है या कोई उसके मालिक के निकट आ रहा है तो वह गुर्राता या भौंकता है।
हमारे पूर्वज जान गए थे कि मनुष्यों में ऐसा व्यवहार अवांछनीय है। मनुष्य भी क्षेत्रीय जीव है। हमारा क्षेत्र चिह्नित करने से हमारी पहचान निर्मित होती है। एक उद्योगपति की पहचान उसके उद्योग हैं; एक नौकरशाह की पहचान उसका पद है; एक राजनीतिज्ञ की पहचान राजनीतिक दल और उसकी सत्ता है। यदि किसी का यह संदर्भ खतरे में रहा तो उसकी आक्रामक प्रतिक्रिया होगी, कुछ वैसे जैसे श्वान की होती है।
हमें लगता है कि अपने क्षेत्र (शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक) से अधिकार चले जाने पर हमारी पहचान भी नष्ट होगी। इससे हम भयभीत होते हैं। जब हमारा क्षेत्र सुदृढ़ बनता है, तब हम श्वान जैसे प्रसन्न होते हैं। जब क्षेत्र खतरे में होता है, तब हम आक्रामक बनते हैं। और जब हमारे क्षेत्र की उपेक्षा होती है, तब हम रूठ जाते हैं। इस व्यवहार की जड़ भय में है। भैरव हमें इस भय से पार जाने में मदद करते हैं। वे हमारी आदिम, क्षेत्रीय सहज-बुद्धि का ठठ्ठा करते हैं। फलस्वरूप हम उनसे आतंकित होते हैं। दिल्ली और वाराणसी के काल भैरव मंदिरों में उन्हें मदिरा अर्पित की जाती है। मदिरा हमारे विवेक को धुंधला बनाती है और हममें यह विकृत समझ आती है कि क्षेत्र के कारण ही पहचान निर्मित होती है। हम भूल जाते हैं कि हम हमारे क्षेत्र के लिए जितना भी लड़ें, एक न एक दिन यमदेव और उनके सरमेय हमें उससे दूर ले जाएंगे।
हमारे भौतिक, मानसिक और भावनात्मक क्षेत्रों के बारे में हम इतने असुरक्षित अनुभव करते हैं कि जीवन के अंतिम क्षणों तक उनके लिए कुछ उस तरह लड़ते हैं, जिस तरह श्वान हड्डी के लिए लड़ता है। और मृत्यु के पश्चात शरीर के श्मशान पहुंचने पर हम पाते हैं कि वहां श्वान पर बैठे भैरव हम पर हंस रहे हैं कि हमने हमारा जीवन व्यर्थ की खोज में गंवा दिया।
- Alaknanda Singh
गूढ़ तत्व
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सादर वंदे