शनिवार, 30 दिसंबर 2023

विनय कटियार का इंटरव्यू: सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद कर ऐसे तैयार हुई राम जन्म भूम‍ि की मुक्त‍ि की पृष्ठभूमि


 विनय कटियार जी द्वारा द‍िए एक इंटरव्यू के अनुसार यह आलेख हम आपके समक्ष दे रहे हैं।    

श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन जब शुरू हुआ था, तब न शक्ति थी और न सामर्थ्य। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, जनसंघ सहित अन्य कई संगठन अलग-अलग नामों से समाज के विभिन्न-विभिन्न वर्गों में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना फैलाने की कोशिश जरूर कर रहे थे। पर, यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि यह कोशिश भारतीय सांस्कृतिक चेतना के आधार पर अपने आराध्य के स्थान की मुक्ति के दुनिया के सबसे बड़े सफल आंदोलन का कारण बनेगी। इसका फल न सिर्फ राष्ट्रीय पुनर्जागरण के रूप में, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक फलक पर भी प्रभाव डालने के बड़े कारक के रूप में सामने आएगा।

सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद

कानपुर में 1984 में संघ का शारीरिक शिक्षा वर्ग लगा था। वर्ग हो जाने के बाद प्रचारक के रूप में काम करने वालों के बीच मैं भी बैठा था। तब तक अलग-अलग तरीके से अयोध्या, मथुरा और काशी के मंदिरों को तोड़कर उन स्थानों को मस्जिद का रूप देने की घटनाएं उद्वेलित करने लगी थीं। मैं इन मुद्दों पर बोलता भी रहता था। संकल्प के अतिरिक्त अपने पास कुछ नहीं था। एक कुर्ता-धोती और कंधे पर झोला, जो हमारा कार्यालय भी था और कोष भी।

इसके अलावा यदि पास में था तो सिर्फ आचार्य तुलसीदास की यह पंक्तियां, प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लांघि गए अचरज नाहीं। तमाम उतार-चढ़ाव के बाद उस विश्वास की परिणति आखिरकार 5 अगस्त के रूप में सामने आना सुनिश्चित हो गया।

ऐसे तैयार हुई मुक्ति की पृष्ठभूमि
प्रचारकों की औपचारिक बैठक के बाद वरिष्ठ प्रचारक सरसंघचालक बाला साहब देवरस, प्रो. राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया, बालासाहब भाऊराव देवरस, अशोक सिंहल, मोरोपंत पिंगले, हो.वि. शेषाद्रि जैसे लोग अयोध्या को लेकर चर्चा करने लगे। मैंने अयोध्या के साथ मथुरा व काशी की मुक्ति को लेकर भी चर्चा की। पर, इन वरिष्ठ जनों की राय बनी कि काशी और मथुरा में हमारे मंदिर बने हुए हैं। इसलिए पहले अयोध्या को लेते हैं। चूंकि मुझे ही काम करना था तो मैं सबको प्रणाम करते हुए बाहर निकला।

बाहर प्रो. रज्जू भैया से कहा, मैं तो अयोध्या को बहुत जानता नहीं हूं, तो कैसे काम करना है। रज्जू भैया ने कहा, कुछ नहीं सीधे-सीधे मुक्ति की बात करो। मैं अयोध्या आया, महंत रामचंद्र परमहंस से मिला। वे चूंकि इस मामले में वादी थे। बात की तो नाराजगी से बोले, बच्चा मैं इतने दिन से लड़ाई लड़ रहा हूं, अभी तक तो कुछ हुआ नहीं। तू क्या कर लेगा।

हम लोग लौट आए। अगले दिन फिर गए तो उन्होंने फिर नाराजगी जताई। मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा, आप इतिहास बताइए, सब कुछ होगा। तब उन्होंने कहा, हमारी उम्र तो है नहीं। तुम लोगों को करना है तो करो। हमारा समर्थन और आशीर्वाद है। इसके बाद मैं गोरखपुर जाकर महंत अवेद्यनाथ से मिला। परमहंसजी के हां कहने की बात बताई तो बोले, ठीक है शुरू करो। मेरा पूरा सहयोग है।

धीरे-धीरे बनने लगा आंदोलन का माहौल
शुरू में बैठकों में बमुश्किल 20-30 लोग आते, पर जरूरत थी किसी ऐसे शख्स की जो लोगों को प्रेरित कर सके। फिर मैं अशोक सिंहल जी से मिला। उन्होंने ही कानपुर में संभाग प्रचारक रहते मुझे प्रचारक बनाया था। सिंहल जी का दौरा शुरू हो गया। सवाल पैदा हुआ मंदिर पर चल रहे कार्यक्रमों को एकजुट करके राममंदिर पर बड़े जनजागरण का। सिंहल जी के बुलावे पर मैं दिल्ली गया। वहां उन्होंने पश्चिम से दिनेश त्यागी को बुला लिया था। वहीं पर पूर्व मंत्री दाऊदयाल खन्ना की हम लोगों से मुलाकात कराई और आगे के आंदोलन की रणनीति बनी।

सिंहल जी और खन्ना जी के एक साथ दौरे तय हुए। राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति बनी। लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में सभा हुई। इसमें मैंने बिना किसी पूर्व घोषणा के तमाम नवयुवकों के हाथ में बजरंग दल की पट्टियां बंधवा दी थी। इसके पहले बजरंग दल को कोई नहीं जानता था। युवाओं को जोड़ने की इस कोशिश को सभी ने सराहा। इसी सभा में प्रदेश के पूर्व डीजीपी श्रीश चंद्र दीक्षित भी विहिप में आ गए। फिर महिलाओं के लिए मैंने दुर्गावाहिनी की स्थापना की।

अशोक सिंहल ने संभाला नेतृत्व
आंदोलन का विस्तार हो चुका था और समर्थन भी खूब मिल रहा था। सिंहल जी ने पूरे आंदोलन की कमान संभाली। महंत परमहंस और महंत अवेद्यनाथ सहित तमाम संत-महात्माओं का आशीर्वाद व सहयोग मिलना शुरू हो गया। वरिष्ठ प्रचारक रज्जू भैया और भाऊराव देवरस की व्यक्तिगत रुचि  तथा संघ के समर्थन से संसाधन की समस्याएं दूर होने लगीं। जनजागरण के तमाम कार्यक्रम करते हुए शिला पूजन का कार्यक्रम तय किया गया। नारा दिया गया-आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्मभूमि का ताला खोलो। शिलापूजन के साथ ही एक और नारा दिया गया, अयोध्या तो झांकी है मथुरा-काशी बाकी है। वीर बहादुर मुख्यमंत्री थे। महंत अवेद्यनाथ ने कई बार उनसे बात की, लेकिन कुछ बात नहीं बनीं। अंतत: न्यायालय के आदेश से ताला खुलते हुए आंदोलन आगे बढ़ा और शिलान्यास भी हो गया।

मुलायम सिंह माफी मांगें
कारसेवा की घोषणा हुई। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोलियां चलवा दीं। राममंदिर आंदोलन के पांच सदी तक चले संघर्ष में लगभग 3.50 लाख लोगों के प्राण गए। आज भी हमारे, आडवाणी जी, जोशी जी, कल्याण सिंह सहित तमाम लोगों पर मुकदमे चल रहे हैं। बजरंग दल पर प्रतिबंध लगा। न्यायाधीश ने बजरंग दल का कार्यालय व कोष पूछा तो मैंने कहा कि मेरा झोला। इसी में सब है। न्यायाधीश मुस्कुराए और अंतत: बजरंग दल प्रतिबंध मुक्त हो गया। इतने बलिदानों के बाद अब रामजी की कृपा से राम मंदिर बनने जा रहा है। पर, मेरा एक आग्रह मुलायम सिंह यादव से जरूर है कि वह भगवान राम के दरबार में आकर माफी मांगने की घोषणा करें, तभी उनका प्रायश्चित होगा। कारण, अब यह सिद्ध हो गया है कि कारसेवक जिस स्थान पर कारसेवा करने जा रहे थे, वह मंदिर ही था।
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बुधवार, 20 दिसंबर 2023

साहित्य अकादमी पुरस्कार 2023 की घोषणा, 24 भारतीय भाषाओं के लेखकों को अवार्ड

नई द‍िल्ली। साहित्य अकादमी ने आज बुधवार को वर्ष 2023 के लिए विभिन्न पुरस्कारों की घोषणा कर दी है. अकादमी ने उपन्यास श्रेणी में हिंदी के लिए संजीव, अंग्रेजी के लिए नीलम शरण गौर और उर्दू के लिए सादिक नवाब सहर समेत 24 भारतीय भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत करने की घोषणा की है.

विजेता के नाम की घोषणा साहित्य अकादमी के सचिव डॉ. के श्रीनिवासराव ने नई दिल्ली के मंडी हाउस स्थित रवींद्र भवन में साहित्य अकादमी मुख्यालय में की. पिछली साल हिंदी भाषम में यह पुरस्कार तुमड़ी के शब्द (कविता-संग्रह) के लिए बद्री नारायण को मिला था, जबकि उर्दू में अनीस अशफाक और अंग्रेजी में अनुराधा रॉय को दिया गया था.

क्यों दिया जाता है साहित्य अकादमी पुरस्कार?
साहित्य अकादमी पुरस्कार साहित्य और भाषा के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए दिया जाता है. इससे भारत की समृद्ध और विविध साहित्यिक विरासत को बढ़ावा और संरक्षण मिलता है. साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता को एक लाख रुपये राशि का नकद पुरस्कार दिया जाता है.

24 भाषाओं के लिए दिया जाता है पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में  शामिल 24 भाषाओं को दिया जाता है. इसमें उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी के अलावा असमिया, बंगाली, डोगरी , कन्नड़, मराठी और मलयालम जैसे क्षेत्रीय भाषाएं शामिल हैं.

कब हुई थी साहित्य अकादमी की स्थापना?
भारतीय भाषाओं के साहित्य और साहित्यकारों को बढ़ावा देने के लिए 1954 में साहित्य अकादमी की स्थापना की गई थी.  इसके पहले अध्यक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे. वहीं, राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, अबुल कलाम आजाद,, जाकिर हुसैन, उमाशंकर जोशी, महादेवी वर्मा, और रामधारी सिंह दिनकर इसकी पहली काउंसिल के सदस्य थे.

साहित्य अकादमी पुरस्कार का मकसद भारत की समृद्ध और विविध साहित्यिक विरासत को बढ़ावा देना और उसको संरक्षित रखना है. भारत के बाहर भारतीय साहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए अकादेमी दुनिया के विभिन्न देशों के साथ साहित्यिक विनिमय कार्यक्रमों का आयोजन भी करती है.
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रविवार, 17 दिसंबर 2023

आगम शास्त्र की विषय वस्‍तु यही है कि पत्थर को ईश्वर कैसे बनाया जाये, इसका आध्यात्मिकता से क्या है संबंध


 


आगम शास्त्र हमें मन्दिरों की संरचना से लेकर योजना, वास्तुकला तथा पूजा की विधि के बारे में सब कुछ बताते हैं ।  मंदिर बनाने के इस प्राचीन भारतीय विज्ञान के बारे में आज हम आपको बताते हैं, एक ऐसा विज्ञान जिसके जरिये आप पत्थर जैसी स्थूल वस्तु को एक सूक्ष्म ऊर्जा में रूपांतरित कर सकते हैं।

आगम शास्त्र का आध्यात्मिकता से संबंध

आगम शास्त्र कुछ खास तरह के स्थानों के निर्माण का विज्ञान है। बुनियादी रूप में यह अपवित्र को पवित्र में बदलने का विज्ञान है। समय के साथ इसमें काफी-कुछ निरर्थक जोड़ दिया गया लेकिन इसकी विषय वस्‍तु यही है कि पत्थर को ईश्वर कैसे बनाया जाये।

यह एक अत्यंत गूढ़ विज्ञान है लेकिन लोगों ने अपनी-अपनी सोच के अनुसार इसका अकसर गलत अर्थ निकाल लिया या फिर और बढ़ा-चढ़ा कर बखान किया। समय के साथ यह इतना अधिक होता गया कि आज आगम शास्त्र एक बेतुकी और हास्यास्पद प्रक्रिया बन कर रह गया है। कोई काम किसी खास तरीके से ही क्यों किया जा रहा है यह जाने बिना लोग बेवकूफी भरे काम कर रहे हैं। लेकिन सही ढंग से किये जाने पर यह एक ऐसी टेक्नालॉजी है जिसके जरिये आप पत्थर जैसी स्थूल वस्तु को एक सूक्ष्म ऊर्जा में रूपांतरित कर सकते हैं, जिसको हम ईश्वर कहते हैं।

भारत में बहुत सारे मंदिर हैं। मंदिर कभी भी केवल प्रार्थना के स्थान नहीं रहे, वे हमेशा से ऊर्जा के केंद्र रहे हैं। आपसे यह कभी नहीं कहा गया कि मंदिर जा कर पूजा-अर्चना करें, यह कभी नहीं कहा गया कि ईश्वर के आगे सिर झुकाकर उनसे कुछ याचना करें। आपसे यह कहा गया कि जब भी आप किसी मंदिर में जायें तो वहां कुछ समय के लिए  बैठें जरूर। पर आजकल लोग पल भर को बैठे नहीं कि उठ कर चल देते हैं। बैठने का मतलब यह नहीं है। मकसद यह है कि आप वहां बैठ कर ऊर्जा ग्रहण करें, अपने भीतर समेट लें, क्योंकि यह पूजा-अर्चना का स्थान नहीं है। यह वह स्थान नहीं है जहां आप यकीन करें कि कुछ अनहोनी घट जाएगी या जहां किसी व्यक्ति की अगुवाई में आप दूसरों के साथ मिल कर प्रार्थना करेंगे। यह केवल एक ऊर्जा-केंद्र है जहां आप कई स्तरों पर ऊर्जा प्राप्त कर सकेंगे। चूंकि आप खुद कई तरह की ऊर्जाओं का एक जटिल संगम हैं इसलिए हर तरह के लोगों को ध्यान मे रखते हुए कई तरह के मंदिरों का एक जटिल समूह बनाया गया। एक व्यक्ति की कई तरह की जरूरतें होती हैं जिसे देखते हुए तरह-तरह के मंदिर बनाए गये।

उदाहरण के लिए केदारनाथ एक बहुत शक्तिशाली स्थान है, इस स्थान की ऊर्जा काफी आध्यात्मिक तरह की है परंतु केदारनाथ के रास्ते में तंत्र-मंत्र की विद्या से संबंधित भी एक मंदिर है,  किसी ने यहां पर एक छोटा मगर बहुत शक्तिशाली स्थान  बनाया है। यदि किसी व्यक्ति को तंत्र-विद्या के ऊपर काम करना है तो वे इस छोटे-से मंदिर में जाते हैं क्योंकि यहां का वातावरण केदार मंदिर की अपेक्षा ऐसे काम के लिए अधिक सटीक होता है।

आपको आध्यात्मिकता और तंत्र-विद्या के अंतर को समझना होगा। तंत्र-मंत्र एक तरह से एक टेक्नॉलॉजी है, भौतिक ऊर्जाओं के साथ काम करने की टेक्नॉलॉजी। 
आगम शास्त्र एक गूढ़ और जटिल टेक्नॉलॉजी है, जो इसी दायरे की है लेकिन बहुत चमत्कारिक है। हालांक‍ि आध्यात्मिकता की प्रक्रिया इस दायरे की नहीं है। यह वह नहीं है जो आप करते हैं, यह वह है जो आप हो जाते हैं। यह आपके अस्तित्व के वर्तमान अवस्था का परम अवस्था की तरफ बढ़ जाना है। 

आगम में आपकी अवस्था नहीं बदलती है, यह आपके वर्तमान अस्तित्व के बारे में ही आपको एक बेहतर जानकारी देता है। आगम शास्‍त्र महज टेक्नॉलॉजी है। आध्यात्मिकता टेक्नॉलॉजी नहीं है। आध्यात्मिकता का अर्थ अपनी चारदीवारियों के पार जाना है। आध्यात्मिकता वह नहीं है जिसको नियंत्रण में ले कर आप कुछ करते हैं,  यह वह है जो आप स्वयं हो जाते हैं। यह बहुत अलग है।

- अलकनंदा स‍िंंह