शनिवार, 7 अक्तूबर 2023
गुरु गोबिंद सिंह को क्यों पसंद थी चंडी देवी की कहानी?
गुरु गोबिंद सिंह सिर्फ़ नौ साल के थे जब उनके पिता गुरु तेग बहादुर का कटा हुआ सिर अंतिम संस्कार के लिए आनंदपुर साहब लाया गया था.उनके पिता की शहादत ने जीवन भर उनके नज़रिए को प्रभावित किया.
इतिहास में गुरु गोबिंद सिंह की छवि एक लंबे छरहरे, बेहतरीन कपड़े पहनने वाले और कई तरह के हथियारों से सुसज्जित रहने वाले शख़्स की है.
तस्वीरों में उनके बाएं हाथ पर हमेशा एक सफ़ेद बाज़ और पगड़ी में एक कलगी लगी दिखाई जाती है. 19 साल की उम्र तक उन्होंने अपने-आप को आने वाले समय के लिए तैयार किया.
खुशवंत सिंह अपनी मशहूर किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स’ में लिखते हैं, "इस बीच उनको संस्कृत और फ़ारसी पढ़ाई गई. हिंदी और पंजाबी उन्हें पहले से ही आती थी. उन्होंने घुड़सवारी करना और बंदूक चलाना भी सीखा. उन्होंने चार भाषाओं में कविताएं लिखना शुरू कर दिया. कभी-कभी वो एक ही कविता में चारों भाषाओं का इस्तेमाल करते.”
खुशवंत सिंह ने लिखा है, “उन्होंने हिंदू धर्मशास्त्र की कई कहानियों को अपने शब्दों में लिखा. उनकी पसंदीदा कहानी चंडी देवी की थी जो राक्षसों का विनाश करती थी. उनके बारे में मशहूर था कि उनके तीरों की नोक सोने की बनी होती थी ताकि मरने वाले के परिवार का ख़र्च उसको बेचकर चल सके.”
गुरु गोबिंद सिंह की पहली जीत
गुरु गोबिंद सिंह को पहली चुनौती उनके पड़ोसी पहाड़ी राज्य बिलासपुर के राजा भीम चंद से मिली. भीम चंद को गुरु गोबिंद सिंह का लोगों के बीच लोकप्रिय होना नागवार गुज़रा.
राजा इसलिए भी नाराज़ हो गया था क्योंकि एक बार गुरु ने उन्हें अपना हाथी देने से इंकार कर दिया था. उन्होंने आनंदपुर पर हमला कर दिया जिसमें उनकी हार हुई.
पतवंत सिंह अपनी किताब ‘द सिख्स’ में लिखते हैं, “सिख धर्म में सभी जातियों को समान महत्व दिया गया था लिहाज़ा ऊँची जाति के सामंतवादी सोच रखने वाले लोगों से उनका टकराव लाज़िमी था. पड़ोसी राज्यों के सरदारों को ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थी क्योंकि आने वाले समय में जनतांत्रिक सिख मूल्य उनके सामंतवादी अधिकारों के लिए ख़तरा साबित हो सकते थे.”
सन 1685 में गुरु गोबिंद सिंह ने पड़ोसी सिरमौर राज्य के राजा मेदिनी प्रकाश की मेज़बानी कबूल कर ली. वो वहाँ तीन सालों तक रहे. इसके बाद उन्होंने अपने रहने के लिए यमुना नदी के किनारे एक जगह चुनी जिसका नाम था पंवटा. यहीं उनके सबसे बड़े बेटे अजीत सिंह का जन्म हुआ.
यहां उनको एक बार फिर लड़ाई का सामना करना पड़ा. इस बार भीम चंद और फ़तेह शाह की संयुक्त सेना ने उन पर हमला किया. ये लड़ाई पंवटा से छह मील दूर भंगानी में हुई. इस लड़ाई में भी इन राजाओं की हार हुई और लोगों को पता चल गया कि गोबिंद सिंह कितने ताक़तवर हैं.
खालसा की स्थापना
सन 1699 की शुरुआत में उन्होंने सभी सिखों को संदेश दिया कि वे बैसाखी के मौके पर आनंदपुर में जमा हों. भीड़ के सामने ही उन्होंने अपनी म्यान से तलवार निकाली और ऐलान किया कि ऐसे पाँच लोग सामने आएं जो धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर सकते हों.
पतवंत सिंह लिखते हैं, “सबसे पहले लाहौर के दयाराम आगे आए. गुरु उनको बगल के एक तंबू में ले गए. उनके बाद हस्तिनापुर के धरमदास, द्वारका के मोहकम चंद, जगन्नाथ के हिम्मत और बीदर के साहिब चंद आगे आए.”
तंबू के बाहर जनता उत्सुकता से उनके बाहर आने का इंतज़ार करती रही, गुरु की तलवार से ख़ून टपकता देख लोगों को लगा कि उन्हें मार दिया गया है.
पतवंत सिंह लिखते हैं, “थोड़ी देर बाद गुरु गोबिंद सिंह इन पाँचों लोगों के साथ बाहर आए. इन पाँचों ने केसरिया रंग के कपड़े और पगड़ी पहनी हुई थी. तब जाकर वहाँ मौजूद लोगों को अहसास हुआ कि गुरु ने उनको मारा नहीं था. वो उनके साहस की परीक्षा ले रहे थे. गुरु ने इन पाँचों लोगों को ‘पंजप्यारे’ का नाम दिया.”
उन्होंने एक कड़ाहे में जल भरकर उसमें शक्कर डाल कर अपनी कृपाण से मिलाया और उन पाँचों लोगों को एक कटोरे में पीने को दिया. ये पाँचों लोग अलग-अलग हिंदू जातियों के थे.
इसका सांकेतिक अर्थ ये था कि इस जल को पीकर वो जाति विहीन खालसा के सदस्य हो गए हैं. उन सबके हिंदू नाम बदलकर उन्हें उपनाम ‘सिंह’ दिया गया.
केश, कंघा, कच्छा, कड़ा और कृपाण
खालसा के लिए पाँच नियम बनाए गए जिनका पहला शब्द ‘क’ से शुरू होता था, इसलिए इन्हें पंचकार कहा गया- केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण.
खुशवंत सिंह लिखते हैं, “उनसे कहा गया कि वो अपने बाल और दाढ़ी न कटवाएँ, उनको एक कंघा रखने की हिदायत दी गई ताकि वो अपने बालों को व्यवस्थित रख सकें. उनको घुटने तक का कपड़ा पहनने के लिए कहा गया जो कि उस ज़माने के सैनिक पहनते थे. उनके लिए दाएं हाथ में लोहे का मोटा कड़ा पहनना अनिवार्य कर दिया गया, और उनको हमेशा अपने साथ एक कृपाण रखने के लिए कहा गया.”
इसके अलावा उनके धूम्रपान करने, तम्बाकू खाने और शराब पीने पर रोक लगा दी गई. उनसे ये भी कहा गया कि वो मुस्लिम महिलाओं का सम्मान करेंगे. अंत में उन्होंने नए तरह के अभिवादन की शुरुआत की, वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरु जी की फ़तह.
औरंगज़ेब के साथ पत्राचार
सन 1701 से 1704 के बीच सिखों और पहाड़ी राजाओं के बीच झड़पें होती रहीं. आखिर बिलासपुर के राजा भीम चंद के बेटे और वारिस अजमेर चंद ने दक्षिण जाकर औरंगज़ेब से मुलाक़ात की और गुरु गोबिंद सिंह को रास्ते से हटाने के लिए मदद माँगी.
औरंगज़ेब ने गुरु को एक पत्र भेजा जिसमें लिखा, “आपका और मेरा धर्म एक ईश्वर में यकीन करता है. हम दोनों के बीच ग़लतफ़हमी क्यों होनी चाहिए? आपके पास मेरी प्रभुसत्ता मानने के अलावा कोई चारा नहीं है जो मुझे अल्लाह ने दी है. अगर आपको कोई शिकायत है तो मेरे पास आइए. मैं आपके साथ एक धार्मिक व्यक्ति की तरह बर्ताव करूँगा. लेकिन मेरी सत्ता को चुनौती मत दें वर्ना मैं खुद हमले का नेतृत्व करूँगा.”
इसका जवाब देते हुए गुरु गोबिंद सिंह ने लिखा, “दुनिया में सिर्फ़ एक सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके मैं और आप दोनों आश्रित हैं. लेकिन आप इसको नहीं मानते और उन लोगों के प्रति भेदभाव करते हैं, उन्हें नुक़सान पहुंचाने की कोशिश करते हैं जिनका धर्म आपसे अलग है. ईश्वर ने मुझे न्याय बहाल करने के लिए इस दुनिया में भेजा है. हमारे बीच शांति कैसे हो सकती है जब मेरे और आपके रास्ते अलग हैं.”
इसके बाद औरंगज़ेब ने दिल्ली, सरहिंद और लाहौर के अपने गवर्नरों को आदेश दिए कि गुरु पर नियंत्रण करने के लिए अपने सारे सैनिकों को लगा दें.
आदेश में कहा गया कि पहाड़ी राजाओं के सैनिक भी मुगल सेना के साथ लड़ेंगे और गुरु को औरंगज़ेब के सामने पेश करेंगे.
गुरु गोबिंद सिंह ने की लड़ाई की पूरी तैयारी
तय हुआ कि सरहिंद के गवर्नर वज़ीर ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल और पहाड़ी राजाओं की सेना आनंदपुर की तरफ़ कूच करेंगी. ये सुनते ही गुरु गोबिंद सिंह ने भाई मुखिया और भाई परसा को हुकुमनामा जारी कर घुड़सवारों, पैदल सैनिकों और साहसी युवाओं के साथ आनंदपुर पहुंचने के लिए कहा.
कुरुक्षेत्र के मेले और अफ़ग़ानिस्तान से घोड़ों का इंतज़ाम किया गया. सिपहसालारों ने सेना को चाक-चौबंद करने और खासतौर पर नए रंगरूटों को प्रशिक्षण देने, लड़ाई के लिए योजना बनाने में अपनी पूरी ताकत लगा दी.
हर सैनिक ठिकाने में पर्याप्त व्यवस्था की गई ताकि संभावित घेराव से होने वाली मुश्किलों का सामना किया जा सके.
किले के अंदर रह कर लड़ने का फ़ैसला
गुरु ने अपनी सेना को छह भागों में विभाजित किया. पाँच टुकड़ियों को पाँच किलों की रक्षा की ज़िम्मेदारी दी गई और छठी टुकड़ी को रिज़र्व के तौर पर रखा गया.
गुरु गोबिंद सिंह ने आनंदगढ़ की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली. फ़तेहगढ़ की रक्षा की ज़िम्मेदारी उदय सिंह को मिली. मक्खन सिंह को नालागढ़ का कमांडर बनाया गया.
गुरु के सबसे बड़े बेटे अजीत सिंह को केशगढ़ का इंचार्ज बनाया गया जबकि उनके छोटे भाई जुझार को लोहगढ़ की सुरक्षा का भार दिया गया.
अमरदीप दहिया गुरु गोबिंद सिंह की जीवनी ‘फ़ाउंडर ऑफ़ द खालसा’ में लिखते हैं, “गुरु ने अपने सभी जनरलों को बता दिया कि मुग़ल सेना के संख्या में अधिक होने के कारण उनसे खुले में लड़ाई लड़ना अक्लमंदी नहीं होगी. बेहतर रणनीति ये होगी कि हम अपने किलों के अंदर रह कर उनसे लड़ें.”
मुग़ल सेनाओं ने समुद्र की लहरों की तरह गुरु गोबिंद सिंह की सेना पर हमला किया.
मैक्स आर्थर मौकॉलिफ़ अपनी किताब ‘द सिख रिलीजन’ में लिखते हैं, “पाँचों किलों से सिख तोपचियों ने उस इलाके को अपना निशाना बनाया जहाँ बहुत अधिक संख्या में मुग़ल सैनिक मौजूद थे. मुगल सैनिक खुले में लड़ रहे थे इसलिए सिख सैनिकों के मुक़ाबले उनका अधिक नुकसान हुआ. इसे देखते ही उदय सिंह और दया सिंह के नेतृत्व में सिख सैनिक किले से बाहर निकल आए और मुगल सैनिकों पर टूट पड़े. मुगलों के दो सिपहसालार वज़ीर ख़ाँ और ज़बरदस्त ख़ाँ ये देखकर दंग रह गए कि किस तरह उनकी फ़ौज़ से कहीं छोटी फ़ौज उनका इतना नुक़सान कर रही है.”
गुरु गोबिंद सिंह का किला घिरा
पहले दिन की लड़ाई की समाप्ति पर किलों की दीवारों के बाहर करीब 900 मुग़ल सैनिकों के शव पड़े हुए थे. अगले दिन गुरु गोबिंद सिंह ख़ुद लड़ाई में शामिल हो गए.
अमरदीप दहिया लिखते हैं, “गुरु अपने मशहूर घोड़े पर सवार थे. उनके घोड़े की ज़ीन सुनहरे तारों से कढ़ी हुई थी. उनका धनुष चमकीले हरे रंग से रंगा हुआ था और उनके साफ़े पर जवाहरातों से जड़ी कलगी सुबह के सूरज में चमक रही थी. गुरु के लड़ाई में भाग लेने से प्रेरित होकर उनके सैनिक भी आगे जाकर मुग़लों से टक्कर ले रहे थे. राजा अजमेर चंद ने लड़ते हुए गुरु को पहचान लिया . तब वज़ीर ख़ाँ और ज़बरदस्त ख़ाँ ने वहीं ऐलान किया कि जो भी गुरु पर वार करेगा उसे बड़ा ईनाम दिया जाएगा.”
दूसरे दिन की लड़ाई की समाप्ति पर किले में दाखिल होने से पहले गुरु और उनके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई थी. इसमें सैकड़ों घोड़े और मुगल सैनिक मारे गए थे. राजाओं और मुग़ल सैनिकों के बीच हुई बैठक में दोनों ने एक दूसरे पर पूरी ताकत से न लड़ने का आरोप लगाया.
मुग़लों को लग गया कि सिख सैनिकों को हराने का एकमात्र उपाय है कि उनके किलों की घेराबंदी कर उनको बाहरी दुनिया से पूरी तरह काट दिया जाए ताकि अनाज न पहुंचने के कारण भूख से परेशान होकर वो मुग़लों की अधीनता मान लें.
तय किया गया कि अब गुरु गोबिंद सिंह के सैनिकों पर हमला नहीं किया जाएगा बल्कि उनके किलों को चारों तरफ़ से घेर लिया जाएगा. उन्होंने ये भी सुनिश्चित किया कि वो सिख सैनिकों के हथियारों की पहुंच से बाहर रहें.
किले में अनाज समाप्त हुआ
किलों में इतना अनाज मौजूद था कि कुछ दिनों तक इस घेराबंदी का कोई असर नहीं दिखा. इस तरह दिन महीनों में बदलते गए लेकिन मुग़लों ने घेराबंदी में कोई ढील नहीं दी.
मुग़ल सिपहसालारों को अपने सैनिकों को समझाना पड़ा कि वो धीरज रखें. वो दिन दूर नहीं जब सिखों की आपूर्ति समाप्त हो जाएगी और उन्हें हथियार डालने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. धीरे-धीरे किलों की रसद समाप्त होने लगी और सिखों को लगने लगा कि कुछ दिनों बाद उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं रहेगा.
कमांडरों की बैठक में तय हुआ कि सिख सैनिकों का एक जत्था बाहर जाकर मुग़ल सैनिकों के घेरे को तोड़ेगा और जितना अनाज ला सकता है अंदर लाएगा.
उसी रात बाहर जाने का पहला प्रयास किया गया. मुग़ल सैनिकों को इसकी उम्मीद नहीं था. सिख सैनिक घेराबंदी तोड़ने में सफल हो गए और काफ़ी सारा अनाज किले के अंदर ले आए.
इसके बाद के बाहर निकलने के प्रयास कामयाब नहीं हो पाए. मुग़ल सैनिक सावधान हो गए और उनके बाहर निकलने के प्रयासों को सफलता नहीं मिली.
सुरक्षित निकलने का प्रस्ताव
कुछ दिनों बाद किलों के अंदर भुखमरी की नौबत आ गई. उस समय संगत के कुछ सदस्यों ने इस कष्ट से बचने के लिए किले से बाहर निकलने का फ़ैसला किया. गुरु ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की.
मुग़लों ने भी जब देखा कि बाहर निकलने वाले लोगों में अधिकतर महिलाएं, बच्चे और अधेड़ शख़्स थे तो उन्होंने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की ताकि और सिख किले को छोड़कर बाहर आने के लिए प्रेरित हों.
अजमेर चंद ने गोबिंद सिंह को एक पत्र लिखकर प्रस्ताव भेजा. पत्र में कहा गया कि अगर गुरु गोबिंद सिंह अपने साथियों को साथ आनंदपुर से निकल जाते हैं तो उन्हे जहाँ वो चाहें जाने की अनुमति होगी और वो अपने साथ बिना रोक-टोक अपना सामान ले जा सकेंगे.
गुरु को इस प्रस्ताव में दाल में कुछ काला नज़र आया लेकिन उनकी माँ माता गुजरी ने उन्हें मनाया कि ऐसा कर वो कई लोगों की जान बचा सकते हैं.
बेकार सामान बाहर भेजा गया
गुरु ने कहा कि इससे पहले कि 'मैं इस प्रस्ताव को स्वीकार करूँ, मैं मुग़लों और राजाओं की नेकनियती की परीक्षा लेना चाहता हूँ.'
उन्होंने मुग़लों को संदेश भिजवाया कि वो और उसके साथी आनंदपुर से बाहर निकलने के लिए तैयार हैं बशर्ते उनके मूल्यवान सामान को बैलगाड़ियों के काफ़िले में पहले बाहर भेजा जाए.
मुग़लों ने तुरंत संदेश भेजा कि वो इसके लिए तैयार हैं. उन्होंने कहा कि अगर ज़रूरत हो तो हम आपको बैलगाड़ियाँ भी भेजने के लिए तैयार हैं.
अमरदीप दहिया लिखते हैं, “गुरु ने आनंदपुर के लोगों से अपना सारा बेकार सामान जमा करने के लिए कहा. थोड़ी देर में वहाँ पुराने जूतों, फटे पुराने कपड़ों, टूटे बर्तनों और जानवरों की हड्डियों का ढेर लग गया. इन सबको कीमती थैलों में डाल कर बैलगाड़ियों पर लादा गया. हर बैलगाड़ी पर मशाल जलाई गई ताकि लोगों का ध्यान उस पर लदे सामान पर जा सके.”
बैलगाड़ियों का काफ़िला अँधेरी रात में किले से निकला. जैसे ही वो मुग़ल सेना की पहुंच के भीतर गए, उन सारे थैलों को लूट लिया गया. रातभर उन पर पहरा बैठा कर रखा गया. सुबह जब उनको खोला गया तो मुग़ल सैनिक ये देखकर दंग रह गए कि उन थैलों में कूड़ा-करकट भरा हुआ था.
इस तरह गुरु गोबिंद सिंह ने राजाओं और मुग़ल सैनिकों के इरादों का भंडा फोड़ दिया.
गुरु के जत्थे पर धोखे से हमला
मुग़लों और पहाड़ के राजाओं ने उनसे किए गए वादे का पालन नहीं किया. अंतत: गुरु गोबिंद सिंह को आनंदपुर छोड़ना पड़ा. सिखों का जो पहला जत्था निकला, उसमें महिलाएं, बच्चे, गुरु की माँ और चार बेटे भी शामिल थे.
वे जब एक छोटी नदी सरसा के किनारे पहुंचे, उन पर मुगल सैनिकों ने हमला बोल दिया. इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह के सबसे सक्षम कमांडर उदय सिंह मारे गए. लेकिन उन्होंने तब तक मुग़लों का रास्ता रोक कर रखा जब तक गुरु गोबिंद सिंह वहां से सुरक्षित नहीं निकल गए.
पतवंत सिंह लिखते हैं, “इस लड़ाई में कई लोग मारे गए और कई लोग नदी के किनारे पहुंचने पर अपनों से बिछुड़ गए. इनमें शामिल थे गुरु गोबिंद सिंह की माँ और उनके दो छोटे बेटे ज़ोरावर सिंह और फ़तह सिंह.”
गुरु गोबिंद सिंह के अपने सैनिकों की संख्या 500 से घट कर सिर्फ़ 40 रह गई. वो इन सैनिकों और अपने दो बेटों के साथ चमकौर पहुंचने में सफल हो गए. मुग़ल सैनिक अभी भी उनके पीछे पड़े हुए थे.
यहाँ हुई लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह के 40 सैनिकों ने अपने से संख्या में कहीं अधिक मुग़ल सैनिकों का बहादुरी से सामना किया. लेकिन इस लड़ाई में उनके दो बचे हुए बेटे अजीत सिंह और जुझार सिंह और ‘पंजप्यारे’ में शामिल मोहकम सिंह और हिम्मत सिंह मारे गए.
चमकौर से बच निकलने के बाद गुरु अपने साथियों से बिछुड़ गए और मच्छीवाड़ा जंगलों में बिल्कुल अकेले हो गए. लेकिन कुछ देर बाद उनके तीन बिछड़े साथी उनसे आ मिले. ये चारों कुछ स्थानीय सिखों की मदद से किसी तरह उस स्थान से निकल पाने में कामयाब रहे.
आख़िर में वो जटपुरा गाँव पहुंचे जहाँ उस इलाके के मुस्लिम सरदार राय काल्हा ने उनका स्वागत किया.
गुरु गोबिंद सिंह के दो छोटे बेटों की भी मौत
यहीं पर गोबिंद सिंह को अपने दो छोटे बेटों ज़ोरावर सिंह और फ़तह सिंह के मारे जाने की ख़बर मिली.
सिख दस्तावेज़ों के अनुसार उनके नौकर ने उनकी मुख़बरी कर दी थी. सरहिंद के गवर्नर वज़ीर ख़ाँ ने उनको मारने का आदेश दिया.
पतवंत सिंह लिखते हैं, “वज़ीर ख़ाँ ने गुरु गोबिंद सिंह के दोनों बेटों से कहा कि अगर वो इस्लाम धर्म क़बूल कर लें तो उनकी जान बख्शी जा सकती है. उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया. तब वज़ीर ख़ाँ ने उन्हें ज़िंदा दीवार में चिनवा देने का आदेश दिया. तब उनकी उम्र आठ साल और छह साल थी.”
जब उनका सिर और कंधा चिनने से रह गया तब उनसे एक बार फिर धर्म बदलने के बारे में पूछा गया. इस बार भी इनकार करने के बाद उन्हें दीवार से निकाल कर वज़ीर ख़ाँ के सामने पेश किया गया.
वज़ीर ख़ाँ ने उन्हें तलवार से मारे जाने का आदेश दे दिया. उनकी मौत की खबर सुनते ही साहबज़ादों की दादी माता गुजरी ने सदमे से दम तोड़ दिया.
औरंगज़ेब के बेटे की मदद की
नाभा में रहते हुए गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगज़ेब को फ़ारसी में एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने धोखे से हमला किए जाने के लिए औरंगज़ेब को दोषी ठहराया.
जब औरंगज़ेब को अहमदनगर में गुरु गोबिंद सिंह का लिखा पत्र मिला तो उसने अपने दो अफ़सरों को लाहौर के डिप्टी-गवर्नर मुनीम ख़ाँ के पास भेजकर कहलवाया कि वो गुरु गोबिंद सिंह के साथ समझौता कर लें.
एक समय ऐसा भी आया कि गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगज़ेब से मिलने का फ़ैसला किया. लेकिन वो अभी राजपूताना ही पहुंचे थे कि उन्हें औरंगज़ेब की मौत का समाचार मिला.
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि औरंगज़ेब की मौत के बाद हुई उत्तराधिकार की लड़ाई में उसके पुत्र शहज़ादा मुअज़्ज़म ने अपने भाइयों के ख़िलाफ़ लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह की मदद माँगी.
गुरु ने कुलदीपक सिंह के नेतृत्व में मुअज़्ज़म के भाई आज़म से लड़ने के लिए सिख लड़ाकों का एक जत्था भेजा. जून, 1707 में आगरा के पास जजाऊ में हुई लड़ाई में आज़म मारा गया और मुअज़्ज़म मुगलों की गद्दी पर बैठा. गद्दी पर बैठने के बाद मुअज्ज़म ने अपना नाम बदल कर बादशाह बहादुर शाह रख लिया.
जब वो अपने दूसरे भाई कामबख़्श के विद्रोह को दबाने दक्षिण गया, तब गुरु और उनके कुछ साथियों ने भी दक्षिण का रुख़ किया.
गुरु गोबिंद सिंह की हत्या
अपने जीवन के अंतिम पड़ाव मे गुरु गोबिंद सिंह गोदावरी नदी के किनारे बसे शहर नांदेड़ में थे. उनके सुरक्षाकर्मियों को आदेश थे कि उनसे मिलने आने वाले किसी व्यक्ति को रोका न जाए.
खुशवंत सिंह लिखते हैं- “20 सितंबर 1708 की शाम जब वो प्रार्थना के बाद अपने बिस्तर पर आराम कर रहे थे, दो युवा पठानों अताउल्ला ख़ाँ और जमशेद ख़ाँ ने उनके तंबू मे प्रवेश किया. गुरु को अकेला पाकर दोनों ने उनके पेट पर छुरे से वार किया. उन दोनों को वज़ीर ख़ाँ ने भेजा था. गुरु को मारने के उद्देश्य का कभी पता नहीं चल पाया क्योंकि दिल के पास छुरा भोंके जाने के बावजूद गुरु गोबिंद सिंह ने एक हत्यारे को तो वहीं मार डाला. दूसरे हत्यारे को भी उनके साथियों ने ज़िंदा नहीं छोड़ा.”
गुरु के ज़ख़्म पर उनके एक साथी अमर सिंह ने टाँके लगाए लेकिन कुछ दिनों बाद उनके टाँके खुल गए. जब बादशाह बहादुर शाह को गोबिंद सिंह पर हमले की ख़बर मिली तो उन्होंने अपने इटालियन चिकित्सक निकोलाओ मनूची को उपचार के लिए भेजा.
लेकिन 6 अक्तूबर आते-आते गुरु को लग गया कि उनका अंत निकट है. उन्होंने अपने अनुयायियों की सभा बुलाकर ऐलान किया कि उनके बाद कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा और सारे सिख गुरु ग्रंथ साहब को गुरु मानेंगे.
सर्बप्रीत सिंह अपनी किताब ‘द स्टोरी ऑफ़ द सिख्स’ में लिखते हैं, “गुरु ने दमदमा साहब में तैयार किए गुरु ग्रंथ साहब को खोलने के लिए कहा. उन्होंने उनके सामने सिर झुकाया और पाँच पैसे और एक नारियल प्रसाद के तौर पर रखे. उन्होंने चार बार गुरुग्रंथ साहब का चक्कर लगाया और फिर उनके सम्मान में अपना सिर ज़मीन पर झुका दिया.”
वहीं पर उन्होंने घोषणा की, “आज्ञा भई अकाल की, तभी चलाया पंथ, सब सिखन को हुकम है गुरु मान्यो ग्रंथ.”
7 अक्तूबर 1708 को आधी रात के बाद गुरु गोबिंद सिंह ने सिर्फ़ 42 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
Compiled: Legend News
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जानकारी पूर्ण आलेख |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जोशी जी
हटाएंप्रेतिर करती है गुरुओं की गाथा ... उनका बलिदान भूलने लायक नहीं ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नासवा जी
हटाएंसुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हरीश जी
हटाएंप्रेतिर करती गाथा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी
हटाएंबेहतरीन लेख।
जवाब देंहटाएंनमन 🌻🙏
धन्यवाद शिवम पांडेय जी
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