10 साल पुराने 19 साल की एक युवती से बलात्कार और उसकी हत्या वाला छावला रेप एंड मर्डर केस में सुप्रीम कोर्ट ने 7 नवंबर 2022 को फैसला सुनाते हुए तीनों आरोपियों को रेप और मर्डर के आरोप से बरी कर दिया। ज़ाहिर है कि लोग तो गुस्से में आने ही थे। आखिर इतने जघन्य अपराध के मामले में कोई दोषी क्यों नहीं पाया गया, सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ कहा है, उससे पता चलता है कि इस केस की पूरी जांच में ही गलतियां हुईं और फिर सुनवाई में भी यही हाल रहा।
आइए देखते हैं कि छावला रेप एंड मर्डर केस क्या है?
9 फरवरी साल 2012, युवती अपने ऑफिस से लौट रही थी। कुतुब विहार इलाके से तीन लोगों ने उसे किडनैप कर लिया। शिकायत होने पर पश्चिम दिल्ली के छावला पुलिस स्टेशन में अपहरण का मामला दर्ज किया गया। 13 फरवरी को पुलिस ने तीन आरोपियों को अरेस्ट किया। उनकी कार जब्त की। युवती का क्षत-विक्षत शव हरियाणा में रेवाड़ी जिले के रोढाई गांव के एक खेत में मिला, ऐसा पुलिस ने बताया था।
छावला रेप मामले में ट्रायल कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में क्या हुआ?
26 मई 2012 को निचली अदालत ने तीनों आरोपियों के खिलाफ किडनैपिंग, रेप, मर्डर और दूसरे अपराधों में आरोप तय किए। करीब दो साल बाद 13 फरवरी को कोर्ट ने तीनों आरोपियों को रेप और मर्डर का दोषी करार दिया। उसी साल 19 फरवरी को सुनाए गए फैसले में अदालत ने कहा था कि दोषियों पर कोई रहम नहीं की जा सकती, लिहाजा फांसी की सजा सुनाई जा रही है।
इस फैसले के खिलाफ दोषियों ने अपील की, लेकिन हाई कोर्ट ने उसी साल अगस्त में अपने फैसले में कहा कि निचली अदालत से सुनाई गई फांसी की सजा सही है। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में आया। पूरी सुनवाई के बाद 7 नवंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस यू यू ललित, जस्टिस रवींद्र भट और जस्टिस बेला त्रिवेदी की बेंच ने आरोपियों को बरी कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने उठाए जो सवाल
कोर्ट ने कहा कि किसी भी जांच अधिकारी ने आरोपियों की टेस्ट-आइडेंटिफिकेशन परेड नहीं कराई। लिहाजा आरोपियों की शिनाख्त ठीक तरीके से तय नहीं हो सकी।
कोर्ट ने कहा कि पुलिस ने इंडिका कार 13 फरवरी 2012 को जब्त की और कहा कि इसी कार में पीड़िता को किडनैप किया गया था, लेकिन किसी भी गवाह ने इस कार का रजिस्ट्रेशन नंबर नहीं देखा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बीट कॉन्सटेबल्स से पूछताछ और जिरह नहीं की गई, जिससे ‘आरोपियों की गिरफ्तारी की पूरी कहानी शक के दायरे में आ गई।’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन हालात में आरोपियों को अरेस्ट किया गया और कार को जब्त किया गया, उससे ‘अभियोजन पक्ष की ओर से पेश की गई स्टोरी पर गहरे शक पैदा होते हैं।’ कोर्ट ने कहा कि इस बात का सबूत भी साफ नहीं है कि जिस जगह पर पीड़िता का शव मिलने की बात बताई गई, वहां सबसे पहले कौन पहुंचा था।
पुलिस ने कहा था कि पीड़िता का शव रेवाड़ी जिले के गांव के एक खेत में तीन दिनों तक पड़ा रहा। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शव के सड़ने के कोई संकेत नहीं मिले थे और इस बात की गुंजाइश बेहद कम है कि तीन दिनों तक खेत में खुले पड़े रहने पर भी शव को कोई न देखे।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष का पूरा केस ‘परिस्थितियों से जुड़े सबूत’ पर टिका था। जो सबूत पेश किए गए, उनको ‘परिस्थितियों से मिलाकर’ देखने पर साबित होता है कि अभियोजन पक्ष आरोपियों का दोष साबित करने में नाकाम रहा। ‘दोष सिद्ध करने के लिए जिन परिस्थितियों का हवाला दिया जाता है, उनसे एक कंप्लीट चेन बननी चाहिए। ऐसी चेन जिससे इस नतीजे पर पहुंचने में कोई शंका न रह जाए कि अपराध आरोपियों ने ही किया था, किसी और ने नहीं। परिस्थितियों से जुड़े सबूत इस तरह कंप्लीट होने चाहिए कि आरोपियों के दोषी होने के सिवा और किसी हाइपोथेसिस की बात ही न हो पाए।’
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों और पीड़िता की डीएनए प्रोफाइलिंग और मैचिग के लिए सैंपल कलेक्शन, स्टोरेज और उसकी जांच के बारे में भी सवाल उठाए। आरोपियों और पीड़िता के सभी सैंपल जांच एजेंसी ने 14 फरवरी और 16 फरवरी 2012 को लिए थे। ये सैंपल जांच के लिए 27 फरवरी 2012 को लैबोरेटरी भेजे गए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कलेक्शन से लेकर लैबोरेटरी में भेजे जाने के बीच सैंपल ‘पुलिस स्टेशन के मालखाना में पड़े रहे। ऐसे हालात में नमूनों से छेड़छाड़ की आशंका को भी खारिज नहीं किया जा सकता। न तो ट्रायल कोर्ट और न ही हाई कोर्ट ने इस बात की जांच की थी कि डीएनए रिपोर्ट्स के नतीजों का आधार क्या था। न ही उन्होंने यह देखा कि जांच करने वाले एक्सपर्ट ने सही तरीका अपनाया या नहीं। ऐसा कोई सबूत सामने नहीं था, लिहाजा डीएनए प्रोफाइलिंग से जुड़ी सारी रिपोर्ट संदेह के दायरे में आ गईं, खासतौर से यह देखते हुए कि जांच के लिए भेजे गए नमूनों का कलेक्शन और उनको सील करने की प्रक्रिया भी शक के दायरे में है।’
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की मदद के लिए नियुक्त की गईं वकील सोनिया माथुर ने डीएनए रिपोर्ट पर सवाल उठाए थे। माथुर का कहना था कि नमूनों की कलेक्शन प्रक्रिया शक के घेरे में है। उनका कहना था कि फोरेंसिक एविडेंस न तो वैज्ञानिक और न ही कानूनी रूप से साबित होता है, लिहाजा इसे आरोपियों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने एमिकस क्यूरी सोनिया माथुर की इस राय से इत्तिफाक जताया।
पुलिस ने जो इंडिका कार जब्त की थी, उसकी सीट कवर पर मिले खून के धब्बों और सीमेन को जांच के लिए CFSL भेजा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने ब्लडस्टेन और सीमेन को जांच के लिए भेजे जाने के ब्योरे को भरोसे लायक नहीं माना। कोर्ट ने कहा कि इस बात का कोई साफ सबूत नहीं है कि जब्त किए जाने के बाद से जांच के लिए CFSL भेजे जाने तक कार किसके पास थी। यह भी साफ नहीं था कि इस दौरान कार को सील किया गया था या नहीं।
अभियोजन पक्ष ने कहा था कि पीड़िता के शव से आरोपी का बाल मिला था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह दावा विश्वास करने लायक नहीं दिखता। कोर्ट ने कहा कि दावा किया जा रहा है कि बाल पीड़िता के शव से मिला, लेकिन वह शव खेत में करीब तीन दिन और तीन रात तक खुले में पड़ा था।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत में हुई सुनवाई के बारे में भी काफी कुछ कहा। आइए देखते हुए कोर्ट ने क्या कहा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने सचाई तक पहुंचने के प्रयास नहीं किए। बेंच ने कहा कि ट्रायल के दौरान ‘कई बड़ी गलतियां’ हुई थीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इंडियन एविडेंस एक्ट का सेक्शन 165 जज के सवाल पूछने के अधिकार से जुड़ा है और यह सेक्शन ट्रायल कोर्ट को इस बात का ‘असीमित अधिकार’ देता है कि वह सच तक पहुंचने के लिए सुनवाई के किसी भी चरण में गवाहों से कोई भी सवाल पूछ सकता है। बेंच ने कहा, ‘कई फैसलों में यह बात कही जा चुकी है कि जज से चुपचाप अंपायरिंग करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। इसके बजाय यह उम्मीद की जाती है कि जज ट्रायल में सक्रियता दिखाएंगे और सही नतीजे पर पहुंचने के लिए गवाहों से सवाल करेंगे।’
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों की गिरफ्तारी से लेकर सैंपल कलेक्शन सहित पूरी जांच प्रक्रिया में गलतियां पाईं। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत में हुए ट्रायल पर भी सवाल उठाए। आखिर में इस साल 7 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने तीनों आरोपियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि गवाहों से ठीक से जिरह नहीं की गई थी और आरोपियों को निष्पक्ष सुनवाई के उनके अधिकार से वंचित रखा गया।
कुलमिलाकर देश में कानून का राज स्थापित करने का सपना हमें बहुत दूर दिखाई देता है क्योंकि न्याय की आस को धूमिल करने की उतनी ही दोषी हैं जितनी कि पुलिस कार्यवाही। है ना कमाल की बात आरोपियों को बचने का हरसंभव प्रयास करती दिखती ये संस्थाऐं पूरे सिस्टम का मखौल उड़ा रही हैं और हम अब भी चुप हैं।
Compiled: Legend News
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जवाब देंहटाएंजब सुप्रीम कोर्ट यह मानता है कि ट्रायल कोर्ट व पुलिस विभाग, दोनों ने दोषपूर्ण कार्यवाही की है, जिससे अपराधियों को छूटने में मदद मिली, तो दोषपूर्ण जांच के लिए दोनों संस्थाओं को दण्डित करने की कार्यवाही क्यों नहीं की गई? क्या मात्र इस टिप्पणी से न्याय-प्रक्रिया पूरी हो जाती है। जान कर या अनजाने में अपराधियों को मदद तो पहुँचाई ही गई है। इस तरह तो हर अपराध के अनुसन्धान में जान-बूझ कर गफलत की जा कर अपनी रोटी सेंकना इन संस्थाओं के लिए आसान हो जायेगा। उफ्फ़, स्थिति निहायत ही दयनीय है
जवाब देंहटाएंहृदयेश जी आपने सही कहा, न्यायपालिका में कॉमनसेंस को धता तो कब की बता दी गई है..जहां तक बात जांचकर्ताओं को दंडित करने की हैं तो उसके लिए भी इन्हें सुबूत की आड़ चाहिए जबतक कि इनके अपने स्वार्थ नहीं टकराते तबतक ये किसी जांचकर्ता को ढिलाई बरतने के लिए दंडित नहीं करते
हटाएंसहमति के लिए धन्यवाद महोदया!
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जवाब देंहटाएंजरूर
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