सोमवार, 22 अगस्त 2022

डॉक्टर और दवा कंपनियों का नेक्‍सस, रिश्‍वत के हर गुर मार्केटिंग ट्रिक्‍स के नाम पर


 फार्मास्युटिकल कंपनियों और डॉक्टरों का गठजोड़ (Nexus of Pharmaceutical Companies and Doctors) बहुत पुराना है। कंपनियां अपनी महंगी दवाएं लिखने के लिए डॉक्टरों को न केवल मोटी रिश्वत देती हैं, बल्कि उन्हें महंगे उपहार और परिवार सहित विदेश में छुट्टियों तक का भी ऑफर देती हैं। आलीशान होटलों में परिवार सहित पार्टी, कीमती शराब या महंगे मोबाइल फोन देना आम है। दवाओं के प्रमोशन का ये अनैतिक खर्च भी मरीजों को महंगी दवा के तौर पर उठाना पड़ता है। कोई पुख्ता और स्पष्ट कानून न होने की वजह से कंपनियां, दवाईयों को मनचाही कीमतों पर बेचती हैं।

दवा कंपनियों की इस मनमानी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर है। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ (Justice DY Chandrachud) और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना (Justice AS Bopanna) की पीठ इस पर सुनवाई कर रही है। याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया कि डोलो-650 मिलीग्राम टैबलेट (Dolo 650mg Tablet) लिखने के लिए कंपनी ने डॉक्टरों को 1000 करोड़ रुपये के उपहार बांट दिए। याचिका में दवा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को दिए जाने वाले उपहारों का मामला उठाया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से 10 दिन में जवाब मांगा है। इससे दवा कंपनियों की मनमानी पर लगाम लगने की उम्मीद जगी है। अगर ऐसा होता है तो ये देशभर के मरीजों के लिए बड़ी राहत होगी।

इसलिए जेनेरिक दवा नहीं लिखते डॉक्टर

बाजार में महंगी कीमतों पर जो ब्रांडेड दवाइयां बिक रही हैं, वही दवाइयां जेनेरिक मेडिकल स्टोर पर बहुत कम कीमत में उपलब्ध हैं। कई बार डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई लिखने के निर्देश जारी हुए, लेकिन जवादेही तय न होने के कारण प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले अथवा प्राइवेट अस्पतालों के डॉक्टर इसकी अनेदेखी करते हैं। दवा कंपनियों से मिलने वाले मोटे मुनाफे और महंगे उपहारों के लालच में ज्यादातर डॉक्टर जेनेरिक की जगह किसी बड़ी दवा कंपनी की महंगी दवा ही लिखते हैं।

दवा विक्रेता भी इस खेल में हैं शामिल

दवा व्यवसाय से जुड़े लोगों के अनुसार, केमिस्ट भी इस खेल का हिस्सा हैं। अमूमन दवा विक्रेताओं को कंपनियों की तरफ से महंगे उपहार तो नहीं दिए जाते, लेकिन उन्हें इन कंपनियों की दवा बेचने पर मोटा मुनाफा मिलता है। मसलन 20 रुपये की जेनेरिक दवा पर अगर 20 फीसद कमीशन है तो विक्रेता को मात्र चार रुपये का मुनाफा होगा। इसी मार्जिन पर अगर दुकानदार ब्रांडेड दवा बेचे, जिसकी कीमत 200 रुपये है तो उसे 40 रुपये का मुनाफा होगा। कई बार ऐसा भी होता है कि दवा विक्रेता और डॉक्टर आपस में गठजोड़ कर लेते हैं। ऐसे में मरीज को उसी विक्रेता से दवा लेनी पड़ती है। इसमें दवा कंपनी से जो कमीशन/रिश्वत मिलता है, उसमें डॉक्टर और दवा विक्रेता दोनों का हिस्सा होता है।

ब्रांडेड से अच्छी हैं जेनेरिक दवाएं

जेनेरिक दवाएं बहुत सस्ती हैं और इनकी गुणवत्ता महंगी ब्रांडेड दवाईयों से कहीं अच्छी है। जेनेरिक दवाईयां सस्ती हैं और इस पर कमीशन भी फिक्स है, इसलिए मुनाफा कम होता है। हालांकि सरकारी सब्सिडी से इसकी भरपाई आराम से हो जाती है।

जनऔषधी केंद्रों पर भी ब्रांडेड दवाईयों का खेल

प्रधानमंत्री जनऔषधी परियोजना के तहत चल रही कुछ दवा दुकानों पर भी ब्रांडेड दवाईयों का खेल कुछ अलग अंदाज में चल रहा है। ऐसे दुकानदार जनऔषधी केंद्र का बोर्ड लगाकर मरीजों को आकर्षित करते हैं और जब वह दवा लेने जाते हैं तो उन्हें ब्रांडेड कंपनी की दवा पकड़ा दी जाती है। जैसे किसी जेनेरिक दवा की कीमत तीन रुपये है। ब्रांडेड कंपनी भी वही दवा बना रही है, जिस पर अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) 30 रुपये लिखा है, लेकिन दुकानदार को ये दवा पांच-छह रुपये में कंपनी से मिल रही है। दुकानदार ऐसी दवाओं पर 25 से 50 फीसद की छूट का ऑफर देता है। इसके बावजूद जेनेरिक दवा के मुकाबले इस तरह की ब्रांडेड दवाओं में दुकानदार को काफी ज्यादा मुनाफा मिलता है।

दवा की कीमतें तय करने का ठोस नियम नहीं

केंद्र सरकार का औषध विभाग (Department of Pharmaceuticals) देश में दवाईयों की कीमत निर्धारित करता है। हालांकि, इसे लेकर ठोस नियम नहीं है। दवा कंपनियों निमयों में शिथिलता का फायदा उठाकर मनमानी कीमत वसूलती हैं। औषध विभाग बेसिक दवाईयों की कीमत निर्धारित करती है, जो किसी भी इलाज के लिए जरूरी होती है। फार्मा कंपनियां इन दवाओं में कोई एक-दो अतिरिक्त साल्ट जोड़कर उसे निर्धारित कैटेगरी से बाहर कर लेती है और फिर उसकी मनमानी कीमत वसूलती हैं। भले दवा में मौजूद वो अतिरिक्त साल्ट इलाज के लिए जरूरी हो या न हो। पुख्ता कानून न होने की वजह से दवा कंपनियां खुलेआम मनमानी करती हैं।

बड़े निजी अस्पताल भी इस गठजोड़ का हिस्सा हैं

एक बड़ी कंपनी के चिकित्सा प्रतिनिधि (Medical Representatives) बताते हैं कि जब भी आप किसी बड़े प्राइवेट अस्पताल में जाते हैं, डॉक्टर अमूमन आपको वही दवा लिखेगा, जो उस अस्पताल के मेडिकल स्टोर पर ही मिलेगी। कई बार मरीजों से कहा जाता है कि वह अस्पताल की फार्मेसी से ही दवा लेकर डॉक्टर को दिखा दें, ताकि कोई असमंजस न रहे या कोई और बहाना बनाते हैं। अस्पताल की फार्मेसी उस दवा को बिना किसी छूट के प्रिंट रेट पर बेचती है, जबकि वही दवा किसी अन्य केमिस्ट शॉप में डिस्काउंटेड रेट पर उपलब्ध हो सकती है। ऐसा उस दवा पर मिलने वाले मोटे मुनाफे के लिए किया जाता है। साथ ही पिछले कुछ वर्षों से लगभग सभी प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों का पर्चा (Prescription) स्कैन या कार्बन कॉपी किया जाने लगा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इससे उन मरीजों को फायदा मिलता, जो पर्चा भूल जाते हैं। साथ ही अस्पताल में मरीजों का रिकॉर्ड मौजूद रहता है। लेकिन पर्चे स्कैन करने के पीछे भी एक बड़ा खेल है। दरअसल इन्हीं स्कैन पर्चों के जरिए दवा कंपनियों को दिखाया जाता है उनकी कितनी दवा लिखी गई है।

सरकार की जानकारी में है पूरा मामला

8 जनवरी 2019 को कर्नाटक के कांग्रेसी सांसद केसी रामामूर्ति (KC Ramamurthy) ने राज्यसभा में ये मुद्दा उठाया था। उन्होंने सरकार से ऐसी कंपनियों की जानकारी मांगी थी जो डॉक्टरों को रिश्वत देती हैं और ये भी पूछा था कि इन कंपनियों अथवा डॉक्टरों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई। इस पर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने बताया था, 'डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्युटिकल्स' (The Department of Pharmaceuticals - DoP) को दवा कंपनियों के खिलाफ इस तरह की कुछ शिकायतें प्राप्त हुई हैं। जिस पर जांच जारी है। साफ है कि दवा कंपनियों की इस मनमानी और अनैतिक व्यापार से सरकार भी वाकिफ है।

आरटीआई में कंपनियों का नाम तो मिला, लेकिन कार्रवाई की जानकारी नहीं

डाउन टू अर्थ संस्था ने इस मुद्दे पर 23 जनवरी 2019 को डीओपी (DoP) में आरटीआई लगा 2015 से अनैतिक व्यापार करने वाली दवा कंपनियों की सूची और उनके खिलाफ हुई कार्रवाई का ब्यौरा मांगा। 14 फरवरी 2019 को जवाब में 20 कंपनियों का नाम तो बताया गया, लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई की कोई जानकारी नहीं दी गई। ये शिकायतें वर्ष 2016 की थीं। आरटीआई में डॉक्टरों का नाम नहीं था। संस्था ने इसके बाद भी कई स्तर पर आरटीआई व अपील दाखिल की, लेकिन उसे कंपनियों व डॉक्टरों के खिलाफ की गई कार्रवाई से संबंधित कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। 15 मई 2019 को संस्था ने अपनी वेबसाइट पर एक लेख प्रकाशित करते हुए दवा कंपनियों और डॉक्टरों के इस गठजोड़ को सामने लाने का प्रयास किया। लेख के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में कई लोगों ने पुख्ता साक्ष्यों संग डीओपी में शिकायत दर्ज कराई है। बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
- Legend News

रविवार, 7 अगस्त 2022

कलात्मकता व अश्लीलता में फर्क पर क्या कहता है कानून?


 पिछले दिनों जबसे एक्टर रणवीर सिंह की न्यूड फोटो सामने आई। उसके बाद से यह सवाल उठ रहा है कि क्या ऐसी फोटो खिंचवाना और उसे शेयर करना अपराध है? 

सवाल इसलिए उठा क्योंकि एक्टर के खिलाफ केस दर्ज हुआ है। जानते हैं कि इस मामले में कानून क्या कहता है और कलात्मकता व अश्लीलता में क्या फर्क है? 
एक्टर रणवीर सिंह ने न्यूड फोटोशूट करवाया और फोटो सोशल मीडिया अकाउंट से शेयर कीं। इसके बाद मुंबई में रणवीर सिंह के खिलाफ एक शख्स ने शिकायत की और एक्टर के खिलाफ केस दर्ज कर लिया गया। 
ऐसी तस्वीरों से बच्चों पर निगेटिव असर पड़ेगा
शिकायती का कहना था कि भारत सांस्कृतिक विरासत वाला देश है और ऐसी तस्वीरों से बच्चों पर निगेटिव असर पड़ेगा। बताया जाता है कि रणवीर सिंह ने किसी विदेशी मैगजीन के लिए यह फोटोशूट करवाया है। शिकायत के आधार पर पुलिस ने आईपीसी की धारा-292, 293 व आईटी एक्ट की धारा 67 ए के तहत केस दर्ज किया है। 
अश्लीलता के मामले में क्या है कानून
कानूनी जानकारों के मुताबिक आईपीसी में और आईटी एक्ट में अश्लीलता करने या फैलाने वालों के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज कर केस चलाने का प्रावधान है। आईपीसी की धारा-292, 293, 294 के अलावा आईटी एक्ट -67 व 67ए के तहत केस दर्ज हो सकता है। एडवोकेट मनीष भदौरिया ने कहा कि आईपीसी की धारा-292 के तहत प्रावधान है कि अगर कोई शख्स किसी तरह की अश्लील सामग्री, किताब आदि बेचता है या बांटता है तो ऐसे मामले में दोषी पाए जाने पर पहली बार में 5 साल तक कैद हो सकती है। 
आईपीसी की धारा-293 के तहत प्रावधान है कि अगर कोई शख्स 20 साल से कम उम्र के शख्स को अश्लील सामग्री या किताब देता या बेचता है तो 3 साल तक कैद हो सकती है। दूसरी बार दोषी पाए जाने पर 7 साल तक कैद और दो हजार रुपये तक जुर्माना भी हो सकता है। 
आईपीसी की धारा-294 के तहत प्रावधान है कि अगर कोई शख्स पब्लिक प्लेस पर अश्लील हरकत करता है या अश्लील गाने गाता है या अश्लील भाषा का इस्तेमाल करता है तो दोषी पाए जाने पर 3 महीने तक कैद की सजा हो सकती है। 
आईटी एक्ट में क्या है प्रावधान
सोशल मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से अगर कोई शख्स अश्लील कंटेंट को सर्कुलेट करता है या उसे प्रकाशित या प्रसारित करता है तो आईटी एक्ट के तहत मुकद्दमा होगा। मौजूदा मामले में भी सोशल मीडिया के जरिये कंटेंट सर्कुलेट किया गया है, ऐसे में आईटी एक्ट की धारा-67 व 67 ए लगती है। आईपीसी की धारा-67 में कहा गया है कि अगर कोई शख्स अश्लील मैटेरियल (वासना वाले या कामुमता आदि वाले कंटेंट) इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से प्रसारित करता है तो वह अपराध है। पहली बार दोषी पाए जाने पर 3 साल कैद और 5 लाख रु. तक जुर्माना, दूसरी बार दोषी पाए जाने पर 5 साल तक कैद और 10 लाख तक जुर्माना देना पड़ सकता है। आईटी एक्ट -67 ए के मुताबिक कोई भी कंटेट जो सेक्शुअलिटी की हरकत को दर्शाता हो और उसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से प्रसारित या प्रकाशित किया जाता है तो दोषी शख्स को सजा हो सकती है। पहली बार में 5 साल कैद और 10 लाख रु. तक जुर्माना और दूसरी बार दोषी करार दिया गया तो 7 साल तक कैद व जुर्माना हो सकता है। यह मामला गैर जमानती अपराध है। 
अश्लीलता और कलात्मकता में क्या फर्क है?
कला और अश्लीलता के पैमाने समय और समाज के अनुसार बदलते रहते हैं। आईपीसी कानून में अश्लीलता क्या है और क्या कलात्मकता है इसे सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में समझाया है। एडवोकेट विराग गुप्ता बताते हैं कि कलात्मकता के साथ उसकी पृष्ठभूमि होती है जबकि अश्लीलता विशुद्ध बाजारु होती है। अश्लीलता शब्द व्यापक है और उस दायरे में सब-कुछ आ जाता है। कौन-सा कंटेट कलात्मकता वाला श्रृंगारिक मैटेरियल है और कहां कामोत्तेजक भाव है, अदालत केस दर केस इसे देखती है।

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

विवाह और गर्भ के नाम पर ब्‍लैकमेलिंग का नया धंधा


 










देश आजादी का अमृत महोत्‍सव मना रहा है। चारों ओर समाज के विभिन्‍न तबकों के सशक्‍तीकरण की बात हो रही है, ऐसे में महिला सशक्‍तीकरण की बात ना हो, ऐसा हो नहीं सकता। हालांकि इस सशक्‍तीकरण की बात करते करते हम कर्तव्‍यों को किस बेदर्दी से तिलांजलि देते जा रहे हैं, इसके कुछ उदाहरण जो मेरे सामने आए उन्‍होंने मुझे व्‍यथित कर दिया... कि क्‍या सच में हमने इसी आधुनिकता और सभ्‍य समाज को सुसंस्‍कृत बनाने के लिए महिलाओं के अधिकारों की बात कर कर के उन्‍हें सशक्‍त बनाने का बीड़ा उठाया था। 

ये वो उदाहरण हैं जो समाज में महिलाओं को ''बेचारी'' के टैग से तो बाहर निकाल रहे हैं परंतु साथ ही साथ अपराधी भी बना रहे हैं, एक ऐसा अपराधी जो समाज को हिलाकर रख दे। 

जो मां शब्‍द को ही अपमानित कर दे, जो रिश्‍तों को इस तरह घायल करे कि फिर कोई पुरुष किसी महिला पर, मां पर, बेटी और बहू पर विश्‍वास ही ना कर सके। इतना ही नहीं तमाम मानसिक विकारों को जन्‍म दे दे। 

अभी तक आपने ऐसी दुल्‍हनों के बारे में सुना होगा जो शादी कर ठगी करती रहीं, परंतु ऐसी विवाहिताओं के बारे में नहीं सुना होगा जो अपनी प्रेगनेंसी को ही ठगने का हथियार बना लें। इसके अलावा ऐसे भी केस हैं जिनमें तलाक के बहाने पुरुषों से अच्‍छा खासा धन ऐंठा गया। ये तो विवाह के बाद आने वाले मामले हैं, जबकि विवाह से पहले भी लड़कियां फेक रेप, सेक्‍सुअल एक्‍सटॉर्शन, शादी के बहाने रेप जैसे ब्‍लैकमेलिंग के ऐसे हथकंडे अपनाने लगी हैं जिनसे सिर्फ और सिर्फ आम महिलाओं को ही नुकसान उठाना पड़ेगा।

आधुनिकता और सशक्‍तीकरण के नाम पर जिस तरह समाज की सांस को ही घोट देने का कुचक्र रचा जा चुका है, उसने हमारे बीच से ही कुपुत्रियों, कुमाताओं और पत्‍नी होने का बाजार सजाए बैठी महिलाओं के कुत्‍सित प्रयासों द्वारा अपराध की एक पूरी दुनिया बना दी गई है।  
चलिए अब सुनाती हूं वे मामले जिन्‍होंने मुझे ये सब लिखने को बाध्‍य किया।  

एक महिला वकील द्वारा दिए तथ्‍यों के बाद इन मामलों को आपके समक्ष ला रही हूं।   


केस नं. एक- 
दो साल की शादी के बाद जब महिला गर्भवती हुई तो इसके तुरंत बाद उसके माता-पिता ने पति यानि दामाद पर दबाव डाला कि वह अपनी सारी प्रॉपर्टी गर्भवती पत्‍नी के नाम कर दे , शर्त ये थी ऐसा ना करने पर वह उस बच्‍चे को पैदा नहीं करेगी। परंतु ऐसा हो ना सका, अबॉर्शन कराने की धमकी ने पति के कान खड़े कर दिए और उसने अपनी प्रॉपर्टी पत्‍नी के नाम नहीं की। नतीजतन महिला ने अबॉर्शन करा दिया। साथ ही माता पिता के साथ जाकर उस पति के खिलाफ दहेज के लिए उत्‍पीड़न और घरेलू हिंसा की धाराओं में केस दर्ज करा दिया। अब पति अपनी नौकरी, माता पिता की देखभाल के साथ साथ कोर्ट की तारीखें अटेंड कर रहा है।   


केस नं. दो-  

महिला वकील केस नं. एक को लेकर हतप्रभ थीं कि एक अन्‍य मामले में एक और महिला ने ऐसी ही कहानी के साथ उनसे संपर्क किया। उस महिला ने बताया कि उसके भाई की पत्नी ने शर्त रखी है कि जब वह अपने माता-पिता को छोड़ देगा, संपत्ति उसके नाम पर स्थानांतरित कर देगा और उसकी तलाकशुदा बहन का नाम वसीयत से हटा दिया जाएगा, उसके बाद ही वह उसके बच्चे को जन्म देगी। इनकी भी शादी को मात्र डेढ़ साल ही हुए हैं। उनका भाई इकलौता है और एकमात्र कमाने वाला। माता पिता वृद्धावस्‍था पेंशन तो ले रहे हैं परंतु शारीरिक रूप से असहाय है, ऐसे में घर का हाल क्‍या होगा, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। 


केस नं. तीन-

इस मामले में पत्नी दिल की मरीज है लेकिन फिर भी वह अपने नाम पर पति की संपत्ति चाहती है। पत्‍नी के माता -पिता बेटी की देखभाल के नाम पर उसके साथ ही रहते हैं, और हरसंभव दबाव बनाए हुए हैं, अन्‍यथा की स्‍थिति में तलाक और पत्‍नी की देखभाल में लापरवाही के लिए केस करने की धमकी दे रहे हैं। 


केस नं. 4- 

महिला ने पति से लगभग दो दशक बाद सिर्फ इसलिए तलाक मांगा है क्‍योंकि पति उसे उसकी मर्जी के अनुसार अन्‍य व्‍यक्‍तियों के साथ संबंध रखने को मना करता है। इसमें भी महिला का साथ उसके मायके वाले दे रहे हैं, हालांकि सच वो भी जानते हैं परंतु जानते बूझते हुए आत्‍मघात करने वालों को कोई भला कैसे रोक सकता है।  

उक्‍त सभी केसों में जहांतक बात वकील की है तो वकील तो केस लड़ेगी ही, परंतु वो भी अधिक दुखी इस बात से थी कि ये आधुनिक व युवा महिलाओं द्वारा पति और उसके घरवालों पर इस तरह के मानसिक अत्‍याचार में उनके अपने माता-पिता ही सहभागी बन रहे हैं।  वे एक-एक करके तभी जागेंगे जब उनका कोई अपनों का कोई इस जाल में फंस जाएगा और उनके परिवारों को तकलीफ होने लगेगी। मुझे लगता है कि यह अगले 15-20 वर्षों में काफी हद तक तय हो जाएगा, मगर ये तय है कि हमारी पूरी की पूरी एक पीढ़ी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। 

कोरोनाकाल में हमने अच्‍छी तरह देखा था 'परिवार' नामक संस्‍था की ताकत को परंतु उक्‍त केस इसे हर हाल में खाई में ही डालेंगे। 

आम बोलचाल की भाषा में ऐसे पीड़क लोगों को गोल्ड डिगर्स कहा जाता है जो मात्र पैसे के लिए सारे रिश्‍तों का बाजार लगाकर मोलभाव करते हैं। ये हमारी कल्पना से भी परे की बात है। कम से कम उस समाज में तो है ही जो अभी तक महिला को सम्‍मान देता आया है, उसके अधिकारों के लिए लड़ता आया है।  स्‍थिति और बदतर हो इससे पहले ही दहेज व शोषण विरोधी कानूनों की एक बार फिर समीक्षा होनी चाहिए ताकि न्‍याय उस पक्ष को भी मिले जिसपर अभी तक शोषक होने का टैग लगा हुआ है और वो इसी टैग का खामियाजा भुगत भी रहा है और महिला-पुरुष के बीच परिवार बनाने वाले तमाम विश्‍वासों होते देखने की एक बड़ी कीमत चुका रहा है। 

-अलकनंदा सिंह