मुझे नहीं मालूम… मेरा लेख पढ़ने वालों में से कितने लोग सरकारी पदों पर रहे होंगे और कितने अब भी सरकार को अपनी ”सेवाएं” दे रहे होंगे परंतु मुझे इतना अवश्य मालूम है कि सरकारी सेवाएं देने वाले अधिकांश सज्जन कॉमनसेंस का बेहद अनकॉमनली इस्तेमाल करते हैं। सरकारी ओहदेदारों की बात इसलिए कर रही हूं कि आमजन के मुकाबले उनसे ‘कॉमनसेंस’ के इस्तेमाल की अपेक्षा अधिक की जाती है क्योंकि समाज और सरकार दोनों ही उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपते हैं परंतु अपने अनकॉमन-सेंस के चलते अधिकारों का दुरुपयोग इसी बिरादरी के एक व्यक्ति ने उस स्तर तक पहुंचा दिया है जिसके बारे में लिखते हुए भी मुझे बहुत कोफ्त हो रही है।
आज दो तीन खबरें ऐसी पढ़ीं कि जहां कानूनन काम करने, सरकारी योजनाओं के मुताबिक विकास कराने और फिर उस विकास से आमजन को सुविधाएं उपलब्ध कराने का अधिकार रखने वाले इन ‘सज्जनों’ की सोच पर तरस आता है, कि क्या हम सभ्यता के उस कंगलेपन तक पहुंच चुके हैं जहां से ये ‘काठ के उल्लू’ हमें अपनी उंगलियों पर नचाने के लिए ही सरकार से इतना वेतन पाते हैं। क्या सचमुच हम भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, जहां एक अदद सरकारी नौकरी से ‘निश्चित भविष्य’ पाने की आशा अब जुगुप्सा में बदल चुकी है, जहां राजा बनने की चाह ‘सरकारी नौकरी’ ही नहीं दिलवाती बल्कि कॉमनसेंस को परे रख कर उन्हें अपना चाबुक चलाने की भी छूट देती है।
चलिए वो खबरें भी बता ही दूं जिसने मुझे इतना कटु सोचने पर बाध्य किया
तो पहली खबर ये है उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के जिलाधिकारी नवनीत चहल की, जिन्होंने डेढ़ साल का कार्यकाल यहां बीत जाने पर अब जाकर विकास कार्यों की समीक्षा की और पाया कि गोवर्धन में 50 करोड़ रुपये के ड्रेनेज सिस्टम प्रोजेक्ट में जिस 25 किमी तक नाले का निर्माण किया जाना था, वह पिछले 5 सालों में सिर्फ 15 किमी तक ही बना है। जैसा कि हर बार होता है, उन्होंने खानापूरी करते हुए जल निगम के अधिकारियों को डांटा, जलनिगम के अधिकारी ने अधीनस्थों को, उन्होंने 15 किमी नाले की रिपोर्ट थमा कर प्रोसीडिंग आगे सरका दी …और बस हो गया काम। क्या डीएम ये बता सकते हैं कि पिछले डेढ़ साल में उन्होंने इतने बड़े प्रोजेक्ट की खबर क्यों नहीं ली, और ऐसे कितने ही प्रोजेक्ट हैं जिनकी फाइलें अभी भी बस सरकाई जा रही हैं।
दूसरी खबर एक यूपी पुलिस से जुड़ी है, जिसकी कारस्तानी सुनकर आप भी अपना माथा पीट लेंगे। दरअसल, यूपी के जिला कन्नौज की कोतवाली छिबरामऊ का है। यहां एक युवती की शिकायत पर एक युवक के खिलाफ सिर्फ इसलिए केस दर्ज कर लिया क्योंकि उस युवती ने सपने में देखा था कि वह युवक उससे छेड़खानी कर रहा है। अनकॉमनसेंस की ऐसी पराकाष्ठा…देखी है कहीं आपने। आखिर ऐसा क्यों ?
तीसरी खबर है जिला अस्पताल मथुरा के सीएमएस की। मथुरा नगरी में बंदरों का आतंक किसी से छुपा नहीं है, लेकिन यहां के सरकारी अस्पताल में रैबीज के इंजेक्शन ही नहीं हैं, और जब मंकीपॉक्स की खबर फैली तब जाकर इंजेक्शन्स के लिए सरकारी ऑर्डर भेजा। इतना ही नहीं, जिले के अस्पतालों में सफाई, दवाइयों के स्टॉक, एक्सपायरी दवाओं को फेंकने, मरीजों के लिए पानी तक की सुविधा के लिए मंत्रियों को इनकी क्लास लेनी पड़ती है। आखिर ऐसा क्यों?
चौथी खबर जुड़ी है मथुरा नगर निगम के ईओ अनुनय झा से, जो शहर में नए नए वेंडिंग जोन का फीता काटकर स्वयं तो अखबारों के पन्नों पर आ जाते हैं परंतु दोचार दिन में ही वेंडिंग जोन गायब हो जाते हैं और ढकेल वाले फिर से वहीं सड़क किनारे खड़े दिखाई देते हैं। यहां भी कॉमनसेंस की ही समस्या है, जब वेंडिंग जोन ग्राहकों की पहुंच से दूर बनाए जाएंगे, तो भला दुकानदार क्योंकर इस व्यवस्था को स्वीकार करेंगे।
उक्त संदर्भ तो कुछ उदाहरणभर हैं कॉमनसेंस की धज्जियां उड़ाने के, जिसकी अपेक्षा कम से कम डीएम और नगरनिगम के ईओ जैसे आईएएस अधिकारियों से तो की ही जा सकती है। बहरहाल, यदि आप में से कोई सरकारी कर्मचारी या अधिकारी हैं तो वह अपने काम को लेकर इसका मनन अवश्य करें कि आखिर क्यों हमें ”ऊपर से” ऑर्डर लेने की इतनी आदत पड़ गई है…आखिर क्यों सरकार के ताबेदारों में कॉमनसेंस नदारद हो गया है…। कॉमनसेंस का अभाव जो मुझे दिख रहा है, क्या वो आपको भी महसूस होता है।
- अलकनंदा सिंंह