आज 6 दिसंबर है, राम मंदिर निर्माण के लिए “नींव के पत्थर” बन गोलियों का शिकार हुए उन कारसेवकों को याद करने का दिन भी है आज। बाबरी ढांचे को ढहाने की बरसी और राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाली तिथि के रूप में इतिहास में दर्ज हो गई 6 दिसंबर और इतिहास दर्ज हो गया वह जज्बा भी जिसके चलते मंदिर निर्माण हेतु तमाम कारसेवकों ने अपनी आहुति दे दी।
देश का मेनस्ट्रीम मीडिया इसे सदैव एक आपराधिक घटना के रूप में देखता रहा, वह अपनी रिपोर्ट्स में निष्पक्षता ला ही नहीं पाया। बतौर मीडियापर्सन हमारे लिए ये बेहद दुखदायी और शर्मनाक रहा कि मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा इसे पूरी तरह छिपाया जाता रहा। इस मामले में मीडिया की कोशिश यही रही है कि आम लोगों के सामने कारसेवकों के साथ हुआ अत्याचार सामने न आ पाए।
इतिहास को कितना भी ज़मींदोज़ कर दिया जाये लेकिन वह ममीज की भांति एक ना एक अपने ऊपर पड़ी धूल को गुबार बनाकर उड़ा ही देता है। राम जन्मभूमि आन्दोलन के बारे में भी ठीक ऐसा ही होना चाहिए था। पढ़ने वाला हर व्यक्ति यह उम्मीद करता होगा कि उसे पूरी घटना सिलसिलेवार तरीके से बताई जाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
पत्रकारिता में घटना की निष्पक्षता के लिए आवश्यक है कि अधूरी जानकारी ना दी जाए क्योंकि यह किसी आपराधिक घटना को अंजाम देने से कम नहीं। मीडिया का ये सिंडीकेट अपने पाठकों के प्रति बेइमान रहा इसीलिए लगभग आधी जानकारी ही दबा दी गई।
राम मंदिर निर्माण के लिए “नींव के पत्थर” बने कारसेवकों के जिस नरसंहार की घटना का उल्लेख मैं कर रही हूं, वह सन् 1990 की है जब मुलायम सिंह की सरकार थी, और बाबरी मस्जिद के गुंबद पर झंडा फहराने वाले कारसेवकों को बेहद भयावह, निर्दयी तरीके से गोलियों से छलनी कर दिया गया और इसे मुलायम सिंह द्वारा सही भी ठहराया गया। परंतु बिज़नेस स्टैण्डर्ड, द हिन्दू, द प्रिंट, एनडीटीवी, फर्स्ट पोस्ट, बीबीसी द्वारा राम मंदिर पर आधारित लेखों में हर घटना का सिलसिलेवार वर्णन है परंतु कारसेवकों का ‘नरसंहार’ सिरे से गायब है।
ये देखिए नीचे स्क्रीशॉट हैं उन रिपोर्ट्स के—-
मीडिया ने 2 नवंबर 1990 के दिन हिंदुओं पर हुए भयावह अत्याचार को छुपाने का जो कार्य किया और पत्रकारिता को बदनाम किया, वह अब तक जारी हैं। तमाम मीडिया संस्थानों ने श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के बारे में ख़बरें प्रकाशित की हैं लेकिन इस विवाद के दौरान तत्कालीन उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का कोई ज़िक्र ही नहीं है।
तो बात मेनस्ट्रीम मीडिया की वह मुग़ल शासन से लेकर अभी तक तमाम घटनाओं का उल्लेख सिलसिलेवार तरीके से करते हैं लेकिन साल 1990 के दौरान अयोध्या में कारसेवकों पर चलाई गई गोली की घटना का कोई ज़िक्र ही नहीं करते हैं। बिज़नेस स्टैंडर्ड ने अपनी रिपोर्ट में सितंबर 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी का ज़िक्र किया है। इसके बाद सीधे 2 दिसंबर 1992 के दिन हुई विवादित ढाँचे की घटना का ज़िक्र किया है।
घटनाक्रम के अनुसार 1990 में अयोध्या में कारसेवक इकट्ठा हुए थे, तभी समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने मौके पर ओपन फ़ायर का आदेश दे दिया। कारसेवा समिति के अध्यक्ष जगदगुरु शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती बताते हैं कि 30 अक्टूबर 1990 को लाखों की तादाद में कारसेवक अयोध्या पहुंचे चुके थे। उन्हें सरकार से इस तरह की सख्ती का अनुमान नहीं था। हालांकि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के विवादित स्थल पर ‘पंरिदा भी पर नहीं मार सकेगा’ के बयान के बाद लोगों को अनुमान हो गया था कि हालात ठीक नहीं हैं लेकिन तब तक अयोध्या में इतनी भीड़ जमा हो चुकी थी कि उन्हें काबू में नहीं किया जा सकता था। निश्चित समय पर कारसेवा शुरू हो गई और 2 नवंबर को कारसेवकों ने विवादित स्थल पर ध्वज लगा दिया और उसके बाद पुलिस फायरिंग में कई लोग मारे गए, कारसेवा रद्द कर दी गई।
सरकार ने मरने वालों की असल संख्या छिपाने के लिए हिंदुओं की लाशों का अंतिम संस्कार करने की जगह उन्हें दफ़न करवा दिया था। साल 2016 में मुलायम सिंह ने खुद इस बात को स्वीकार किया था कि उन्हें कारसेवकों पर गोली चलवाने का पछतावा है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें मुस्लिम समुदाय के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना था। इस नरसंहार के दौरान ही बाबरी मस्जिद पर पहली बार भगवा ध्वज फहराने वाले कोलकाता के कोठारी बंधु रामकुमार कोठारी और शरद कोठारी ने अपनी जान गंवाई थी। सरकार के मुताबिक़ वहाँ पर 16 लोगों की मौत हुई थी जबकि असल में संख्या 40 से भी अधिक थी।
यह सब ऐसे ही चलता रहता यदि राम मंदिर निर्माण के लिए राजनैतिक, धार्मिक प्रतिबद्धता कम हो जाती, हालांकि प्रयास तो बहुत हुए परंतु अब राम मंदिर का निर्माण अब मूर्तरूप में हमारे सामने है।
- अलकनंदा सिंंह