रविवार, 25 अप्रैल 2021

''लाशनऊ और श्मशान पत्रकार‍िता'' वाले इन ग‍िद्ध पत्रकारों से आत्मग्लान‍ि की उम्मीद न करें


 



कोरोना की भयावहता के इस दौर में ज‍िसे हम एकमात्र आशा कह सकते हैं, वह है मानवीयता। क‍िसी को पथभ्रष्ट करने के ल‍िए मानवीयता और अमानवीयता के बीच एक बारीक सी लाइन होती है। और यह पथभ्रष्टता अपने चरम पर तब पहु़ंचती द‍िखाई देती है जब सत्य द‍िखाने का दावा करने वाले पत्रकार ‘चुन चुन कर’ उन तथ्यों को अपनी ल‍िस्ट में रखते हैं जो अराजकता और भय फैला सकें। असत्य और अत‍िवाद का कीड़ा उन्हें कभी लखनऊ को “लाशनऊ” बनाने तो कभी श्मशान में र‍िपोर्ट‍िंग करने तक ग‍िरने पर विवश कर देता है।

दवायें, इलाज, डॉक्टर, ऑक्सीजन की खबरों से जूझते देश के सामने जो संकट है उसे पूरी तरह अपने अंधे स्वार्थवश ये पत्रकार भुनाने में लगे हैं। ”लाशनऊ और श्मशान पत्रकार‍िता” करने वाले ग‍िद्ध पत्रकारों का एजेंडा है क‍ि क‍िसी भी तरह अपनी ना-पसंदीदा सरकारों के ख‍िलाफ यथासंभव कुप्रचार क‍िया जाये।

नकारात्मक पत्रकार‍िता का यह आलम कोरोना से जूझते आमजन को तो छोड़ि‍ए स्वयं पत्रकारों के ल‍िए शर्मनाक स्थ‍ित‍ि पैदा कर चुका है क्योंक‍ि रवीश कुमार ने जहां फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा ”लखनऊ बन गया है लाशनऊ, धर्म का नशा बेचने वाले लोगों को मरता छोड़ गए।” यहां योगी आद‍ित्यनाथ को ”धर्म का नशा बेचने वाले” ल‍िखा गया जबक‍ि जापानी इंसेफेलाइट‍िस जैसी बच्चों की संक्रामक बीमारी का सफाया करने वाले योगी आद‍ित्यनाथ की प्रत‍िबद्धता असंद‍िग्ध है।

दरअसल, हकीकत द‍िखाने का दावा कर ‘लाशनऊ’ ल‍िखने वाले रवीश कुमार हों या ‘श्मशान’ में बैठकर रिपोर्टिंग करने वाली बरखा दत्त, या फ‍िर भोपाल के श्मशान में जलती लाशों के बीच खड़े होकर फ़ोटो खिंचवाने वाले एक अख़बार के संवाददाता…एक जैसा पैटर्न अपनाते हैं। इन सभी का न‍िशाना एक ही राजनैत‍िक पार्टी की सरकार होती है जबक‍ि कोरोना से होने वाली मृत्यु तो ये भेद नहीं कर रही… अन्य उन प्रदेशों में भी मृत्युदर वही है जो उप्र, गुजरात, मध्यप्रदेश में है। कोरोना तो द‍िल्ली, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी है, स्वयं बरखा के प‍िता भी इसकी चपेट में आ गए और बरखा को ऑक्सीजन, वेंटीलेटर बेड की भीख सोशल मीड‍िया के ज़र‍िए द‍िल्ली सरकार से उसी तरह मांगनी पड़ी ज‍िससे उप्र के महामारी पीड़‍ित दो-चार हो रहे हैं। लेकिन इन्‍हें खामियां वहीं नजर आती हैं, जहां ये अपनी गीध दृष्‍टि गढ़ाए बैठे हैं।

आपात स्थ‍ित‍ि पर भी अपना एजेंडा चलाने वाले ये पत्रकार दावा करते हैं कि भगवा धारण करने वाला मुख्यमंत्री विज्ञान से वास्ता नहीं रख सकता जबकि योगी आदित्यनाथ स्वयं विज्ञान के ही स्नातक हैं और गण‍ित में गोल्ड मेडेल‍िस्ट। इन्हीं योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश जीडीपी की रैंकिंग में देश का दूसरा राज्य बना। केवल धर्म के लिए काम करने वाला कोई मुख्यमंत्री अपने प्रदेश के लिए ये काम कर सकता है क्‍या?

ये पत्रकार और कोई नहीं बल्क‍ि कविता कृष्णन जैसे फेक न्यूज़ स्प्रैडर्स के फ्रंटलाइन वर्कर हैं जो ”ऑक्सीजन की कमी” जैसी खबरों से अराजकता और कालाबाजारी की राह तैयार कर रहे हैं। कविता कृष्णन समेत कई अन्य सोशल मीडिया यूजर्स ने दिल्ली एम्स में ऑक्सीजन की कमी के चलते इमरजेंसी वार्ड के बंद होने की फेक न्यूज़ फैलाई। इतना ही नहीं, इनकी ज़मात की ही पर्यावरण एक्टिविस्ट लिसिप्रिया कँगुजम ने भी यही फेक न्यूज़ ट्वीट की लेकिन बाद में उसे डिलीट कर दिया। ये एक पैटर्न है इन ग‍िद्धों का, जो महामारी से जूझते देश के हौसले को चीर देना चाहते हैं।

कभी स्वयं द्वारा खींची गई मरणासन्न सूडानी बच्चे और उसे ताकते बैठे ग‍िद्ध की तस्वीर पर ‘पुल‍ित्जर पुरस्कार 1994’ पाने वाले न्यूयॉर्क टाइम्स के फोटो पत्रकार केव‍िन कार्टर को अपने कृत्य पर इतनी ग्लान‍ि हुई क‍ि उन्होंने आत्महत्या कर ली परंतु इन ग‍िद्ध पत्रकारों से क्या हम कोई ”आत्मग्लान‍ि” की उम्मीद कर सकते हैं… नहीं। परंतु हमें शर्म‍िंदगी और अफसोस है क‍ि हम इन जैसे कथ‍ित पत्रकारों को ढो रहे हैं… बमुश्क‍िल अपनी साख बचाते हुए कोश‍िश कर रहे हैं क‍ि पत्रकार‍िता बची रहे।

– अलकनंदा स‍िंह 

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

राम की शक्‍ति पूजा और स्‍वशक्‍ति जागरण


 चैत्र नवरात्रि की विदाई व रामनवमी का त्‍यौहार हो और ”राम की शक्‍ति पूजा” की बात ना हो, तो चर्चा कुछ अधूरी ही लगती है।

शक्‍तिपूजा अर्थात् नकारात्‍मकता से लड़ने को स्‍वशक्‍ति का जागरण। और इसी स्‍वशक्‍ति जागरण पर पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने रचा था 312 पंक्तियों का छंद काव्‍य ” राम की शक्‍तिपूजा”। यह स्‍वशक्‍ति के जागरण का ही प्रभाव था कि मर्यादा पुरुषोत्‍तम श्रीराम ने शक्‍तिपूजा के समय एक कमलपुष्‍प कम पड़ने पर अपने नेत्र को अर्पण करने का साहस किया।
और इस तरह अधर्म पर धर्म की विजय को शक्‍ति आराधना के लिए एक कमल पुष्‍प की कमी पूरी करने को अपने नेत्र देने हेतु तत्‍पर हुआ पुरुष महानायकत्‍व का सर्वोत्‍कृष्‍ट उदाहरण बन गया। अपने नेत्र देवी को समर्पित करने के लिए तूणीर उठा लिया था, सहर्ष समर्पण की ये मिसाल ही श्रीराम को भगवान और महानायक बनाती है। वो महानायक जो सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के लिए प्रतिपल जुटा रहा, इसीलिए तो आज भी श्रीराम जनजन के हैं, संभवत: इसीलिए वे भगवान हैं।

निराला की पंक्‍तियों के अनुसार-

“यह है उपाय”, कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”

शक्‍ति की आराधना और महानायकत्‍व की स्‍थापना दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसके लिए आज का दिन हम सनातनधर्मियों के लिए विशेष महत्‍व रखता है। जहां हम अपनी आंतरिक शक्‍तियों को जगाकर महानायकत्‍व की यात्रा की ओर कदम बढ़ाते हैं।

इस यात्रा में जो कुछ ”किंतु-परंतु” हैं भी तो वे हमारे स्‍वजागरण के बाद ही पूरे हो सकते हैं। निश्‍चित ही ना तो ये समय त्रेता युग के श्री राम का है और ना ही तूणीर उठाकर संकल्‍प सिद्धि का परंतु छोटे छोटे कदमों से ही लंबी यात्रा पूरी की जा सकती है, तो क्‍यों ना वैचारिक स्‍वतंत्रता, समाज व राष्‍ट्र को श्रेष्‍ठ, संपन्‍न व सुरक्षित बनाने के कुछ संकल्‍प स्‍वयं से किए जायें जिसमें व्‍यक्‍तिगत स्‍वतंत्रता तो हो परंतु उच्‍छृंखलता ना हो, अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी हो परंतु देश व व्‍यक्‍ति की अस्‍मिता से खिलवाड़ ना हो।

निश्‍चितत: समाज की प्रथम इकाई अर्थात् स्‍वयं हम और हमारे विकास के लिए भी "स्‍वशक्‍ति का जागरण" अब समय की अनिवार्यता है क्‍योंकि स्‍वशक्‍ति को जाग्रत किये बिना हम वंचित कहलायेंगे और वंचित बने रहना, दयनीय दिखते या दिखाते रहना रुग्‍णता है, और रुग्‍णता ना तो व्‍यक्‍ति को शक्‍तिवान बनाती है ना ही समाज को

हालांकि स्‍वशक्‍ति जागरण की इस यात्रा को कुछ अतिक्रमणों से भी गुजरना पड़ है जिसमें रात रात भर आवाजों के सारे डेसीबल तोड़ती देवीजागरण थे तो ”लाउडस्‍पीकर का शक्‍तिजागरण” होता था परंतु व्‍यक्‍तियों की सारी शक्‍ति इन आवाजों की भयंकरता से जूझते ही बीत जाती है। 

फ‍िलहाल तो कोरोना ने सारे कायदे कानून होम आइसोलेट कर द‍िए हैं परंतु ''पूजा के नाम पर शोर मचाते उपकरण और द‍िखावा करने वाले भक्त'' बहुत ज्यादा द‍िनों तक अपनी आदतों को संभाल नहीं पायेंगे।  न‍िश्च‍ित जान‍िए क‍ि उन्हें स्वशक्त‍ि से कोई लेना देना नहीं...रहेगा। 

बहरहाल समाज में मूल्‍यों की स्‍थापना के लिए महानायक अथवा महानायिका कहीं अलग से उतर कर नहीं आते, यह तो आमजन के बीच से ही निकलते हैं। शक्‍ति की आराधना के बाद भगवान राम की भांति ही सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए कार्य करना ही आज के इस पर्व का अभीष्‍ट होना चाहिए।

- अलकनंदा स‍िंंह 

रविवार, 4 अप्रैल 2021

नंदनंदन दास (Stephen Knapp) की पुस्तक और #FreeTemples की राह


 क‍िसी भी समृद्ध सभ्यता को तहस-नहस करना हो तो उसका नैत‍िक पतन करते चलो, उसकी आस्था के केंद्रों को म‍िटाते चलो, सभ्यता स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। सद‍ियों से यही क‍िया जाता रहा है हमारे समृद्ध सभ्यता केंद्रों अर्थात् हमारे मंद‍िरों के साथ, ज‍िनकी स्थापत्य-कला और वैज्ञान‍िकता आज भी शोध का व‍िषय बनी हुई है। भारत की सभ्यता और इसकी सनातन शक्त‍ि को तोड़ने के ल‍िए पहले व‍िदेशी आक्रांताओं द्वारा प्रहार दर प्रहार क‍िये गये और जो शेष रहा, उसे ‘द हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट-1951’ के बहाने अब तक क‍िया जा रहा है।

संभवत: अब इसील‍िए ईशा फाउंडेशन के सद्गुरू जग्गी वासुदेव ने #FreeTemples जैसे अभ‍ियान चलाए हुए हैं ज‍िसे अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती का पूर्ण समर्थन भी है ताक‍ि मंद‍िरों को ‘सरकारी चंगुल’ से छुड़ाया जा सके। #FreeTemples के पीछे मूल कारण है मंद‍िरों से प्राप्त धन केे जरिए बड़े पैमाने पर धर्मांतरण और हजारों मंद‍िरों को धराशायी कर उनकी चल-अचल संपत्त‍ि का गैरकानूनी गत‍िव‍िध‍ियों में उपयोग।

मंद‍िरों पर सरकारी आध‍िपत्य के बारे में एक खोजी र‍िपोर्ट पढ़नी हो तो इस्कॉन (ISKCON)  के अनुयायी व वैद‍िक इत‍िहास के लेखक नंदनंदन दास (स्टीफन नैप) की ‘क्राइम अगेंस्ट इंडिया एंड द नीड टू प्रोटेक्ट एनसिएंट वैदिक ट्रेडिशन’ को पढ़ा जाना चाह‍िए ताक‍ि हमें ज्ञात हो सके क‍ि द हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट-1951 क्यों बना, इसके नि‍ह‍ितार्थ क‍िसे लाभ देते रहे और इस एक कानून ने मंद‍िरों की दुर्दशा के ल‍िए क्या-क्या नहीं क‍िया।

लेखक नंदनंदन दास (स्टीफन नैप) की क‍िताब में इसका भी उल्लेख है कि किसी भी धर्मनिष्ठ राजा ने मंदिरों के निर्माण के बाद उन पर आधिपत्य स्थापित नहीं किया। बहुत से राजाओं ने तो अपने नाम तक के शिलालेख नहीं लिखवाए। यहाँ तक कि उन्होंने बहुत सी ज़मीनें, हीरे-जवाहरात एवं सोना इत्यादि भी मन्दिरों को दान स्वरूप दिया। उन्होंने सुगमतापूर्वक इनका संचालन मन्दिर प्राधिकरण को सौंप दिया। शताब्दियों पूर्व धर्मनिष्ठ राजाओं द्वारा सैंकड़ों मन्दिरों का निर्माण उनके द्वारा और जनमानस द्वारा इकट्ठी की गई दानस्वरूप धनराशि से किया गया। यह धनराशि लोक कल्याण के लिए भी प्रयोग की जाती थी।
परंतु ‘द हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट-1951’ के इस कानून के जरिये राज्यों को अधिकार दे दिया गया कि बिना कोई कारण बताए वे किसी भी मंदिर को सरकार के अधीन कर सकते हैं। और यही हुआ भी, ज‍िसका उदाहरण आंध्रप्रदेश का है जहां इसी कानून के नाम पर में 43000 मन्दिरों का अधिग्रहण किया गया ज‍िनसे प्राप्त राजस्व का 18% ही मन्दिरों के रखरखाव के लिए दिया गया, शेष 82% उन गैरह‍िंदू बनाने के धर्मांतरण पर लुटा द‍िए गए, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी उपलब्ध हैं। अकेले त‍िरुपत‍ि बाला जी मंदिर से ही प्रतिवर्ष 3100 करोड़ रुपये इकट्ठे होते हैं जिसका 85% सरकारी खजाने में जाता है और इसका उपयोग सरकार कहां करती है, कोई ह‍िसाब नहीं द‍िया जाता, इस मंदिर के बेशकीमती रत्न ब्रिटेन के बाजारों में बिकते पाए जा चुके हैं और तो और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी ने तिरुपति की सात पहाड़ियों में से पांच को सरकार को देने का आदेश दिया था। इन पहाड़ियों पर चर्च का निर्माण किया जाना था, अब इन्हीं का बेटा जगन रेड्डी 10 मन्दिरों को ध्वस्त कर गोल्फ़ मैदान को बना रहा है और बड़े पैमाने पर ह‍िंदुओं का धर्मांतरण कर उन्हें ईसाई बना रहा है।

इसी तरह कर्नाटक में 2 लाख मन्दिरों से एकत्र 79 करोड़ रुपये में से केवल 7 करोड़ मंद‍िर रखरखाव को म‍िले शेष 72 करोड़ में से 59 करोड़ मदरसों व 13 करोड़ चर्च को दिए गए। साफ पता चलता है कि हिंदुओं की धनराशि का उपयोग उन धर्मों के लिए किया जाता है जो धर्मान्तरण को बढ़ावा देते हैं। इन सभी मंदिरों के दान में भ्रष्टाचार का स्तर यह है कि कर्नाटक में लगभग 50 हजार मंदिर रख-रखाव के अभाव में बंद हो गए हैं।

सरकारी ट्रस्टों के अधीन मंदिर की दुर्दशा का एकमात्र कारण मंदिरों के अंदर गैर धार्मिक, राजनीतिक व्यक्तियों का ट्रस्टी के रूप में सरकारों द्वारा मनोनयन भी है। इससे हिंदू संस्कृति को क्षति पहुंच रही है।

बहरहाल अप्रैल 2019 में दक्षिण भारत के एक मंदिर के प्रबंधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में यह निर्णय दिया गया कि मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारा प्रबंधन किसी ‘सेक्युलर सरकार’ का काम नहीं है। यह उस आस्थावान समाज का काम है, जो अपने पूजास्थलों के प्रति श्रद्धा रखता है और दानस्वरूप धन खर्च करता है। वही समाज अपने पूजास्थलों का संरक्षण एवं प्रबंधन करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था क‍ि भले ही 128 संप्रदायों वाले सनातन हिंदू समाज की पूजा पद्धतियां भिन्न हों परंतु इन सभी में संस्कार तो वैदि‍क ही हैं। संतों के विभिन्न संगठनों से संवाद कर हिंदू मंदिरों के प्रबंधन व्यवस्था को सुदृढ़ किए जाने की ज़रूरत है।

साढ़े नौ लाख मंदिर अभी भी हमारे हैं ज‍िनमें साढ़े चार लाख मंद‍िरों पर विभिन्न राज्य सरकारों का कब्ज़ा है। उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश ही आज #FreeTemples जैसे अभ‍ियानों का संबल बना है।

देश की आजादी से पूर्व मंद‍िरों के धन को लूटने के ल‍िए जो साज‍िश अंग्रेजों ने कानून ‘मद्रास हिंदू टेंपल एक्ट 1843’ बनाकर रची, और जवाहरलाल नेहरू ने उसी को ‘1951’ में अपना जामा पहना द‍िया ताक‍ि सेक्यूलर‍िज्म के नाम पर इन्हें तहस-नहस क‍िया जा सके। मंद‍िर मुक्त‍ि की राह में अब उस कानून को समाप्त क‍िया जाने का वक्त आ गया है

- अलकनंदा स‍िंंह