कोरोना की भयावहता के इस दौर में जिसे हम एकमात्र आशा कह सकते हैं, वह है मानवीयता। किसी को पथभ्रष्ट करने के लिए मानवीयता और अमानवीयता के बीच एक बारीक सी लाइन होती है। और यह पथभ्रष्टता अपने चरम पर तब पहु़ंचती दिखाई देती है जब सत्य दिखाने का दावा करने वाले पत्रकार ‘चुन चुन कर’ उन तथ्यों को अपनी लिस्ट में रखते हैं जो अराजकता और भय फैला सकें। असत्य और अतिवाद का कीड़ा उन्हें कभी लखनऊ को “लाशनऊ” बनाने तो कभी श्मशान में रिपोर्टिंग करने तक गिरने पर विवश कर देता है।
दवायें, इलाज, डॉक्टर, ऑक्सीजन की खबरों से जूझते देश के सामने जो संकट है उसे पूरी तरह अपने अंधे स्वार्थवश ये पत्रकार भुनाने में लगे हैं। ”लाशनऊ और श्मशान पत्रकारिता” करने वाले गिद्ध पत्रकारों का एजेंडा है कि किसी भी तरह अपनी ना-पसंदीदा सरकारों के खिलाफ यथासंभव कुप्रचार किया जाये।
नकारात्मक पत्रकारिता का यह आलम कोरोना से जूझते आमजन को तो छोड़िए स्वयं पत्रकारों के लिए शर्मनाक स्थिति पैदा कर चुका है क्योंकि रवीश कुमार ने जहां फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा ”लखनऊ बन गया है लाशनऊ, धर्म का नशा बेचने वाले लोगों को मरता छोड़ गए।” यहां योगी आदित्यनाथ को ”धर्म का नशा बेचने वाले” लिखा गया जबकि जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बच्चों की संक्रामक बीमारी का सफाया करने वाले योगी आदित्यनाथ की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है।
दरअसल, हकीकत दिखाने का दावा कर ‘लाशनऊ’ लिखने वाले रवीश कुमार हों या ‘श्मशान’ में बैठकर रिपोर्टिंग करने वाली बरखा दत्त, या फिर भोपाल के श्मशान में जलती लाशों के बीच खड़े होकर फ़ोटो खिंचवाने वाले एक अख़बार के संवाददाता…एक जैसा पैटर्न अपनाते हैं। इन सभी का निशाना एक ही राजनैतिक पार्टी की सरकार होती है जबकि कोरोना से होने वाली मृत्यु तो ये भेद नहीं कर रही… अन्य उन प्रदेशों में भी मृत्युदर वही है जो उप्र, गुजरात, मध्यप्रदेश में है। कोरोना तो दिल्ली, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी है, स्वयं बरखा के पिता भी इसकी चपेट में आ गए और बरखा को ऑक्सीजन, वेंटीलेटर बेड की भीख सोशल मीडिया के ज़रिए दिल्ली सरकार से उसी तरह मांगनी पड़ी जिससे उप्र के महामारी पीड़ित दो-चार हो रहे हैं। लेकिन इन्हें खामियां वहीं नजर आती हैं, जहां ये अपनी गीध दृष्टि गढ़ाए बैठे हैं।
आपात स्थिति पर भी अपना एजेंडा चलाने वाले ये पत्रकार दावा करते हैं कि भगवा धारण करने वाला मुख्यमंत्री विज्ञान से वास्ता नहीं रख सकता जबकि योगी आदित्यनाथ स्वयं विज्ञान के ही स्नातक हैं और गणित में गोल्ड मेडेलिस्ट। इन्हीं योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश जीडीपी की रैंकिंग में देश का दूसरा राज्य बना। केवल धर्म के लिए काम करने वाला कोई मुख्यमंत्री अपने प्रदेश के लिए ये काम कर सकता है क्या?
ये पत्रकार और कोई नहीं बल्कि कविता कृष्णन जैसे फेक न्यूज़ स्प्रैडर्स के फ्रंटलाइन वर्कर हैं जो ”ऑक्सीजन की कमी” जैसी खबरों से अराजकता और कालाबाजारी की राह तैयार कर रहे हैं। कविता कृष्णन समेत कई अन्य सोशल मीडिया यूजर्स ने दिल्ली एम्स में ऑक्सीजन की कमी के चलते इमरजेंसी वार्ड के बंद होने की फेक न्यूज़ फैलाई। इतना ही नहीं, इनकी ज़मात की ही पर्यावरण एक्टिविस्ट लिसिप्रिया कँगुजम ने भी यही फेक न्यूज़ ट्वीट की लेकिन बाद में उसे डिलीट कर दिया। ये एक पैटर्न है इन गिद्धों का, जो महामारी से जूझते देश के हौसले को चीर देना चाहते हैं।
कभी स्वयं द्वारा खींची गई मरणासन्न सूडानी बच्चे और उसे ताकते बैठे गिद्ध की तस्वीर पर ‘पुलित्जर पुरस्कार 1994’ पाने वाले न्यूयॉर्क टाइम्स के फोटो पत्रकार केविन कार्टर को अपने कृत्य पर इतनी ग्लानि हुई कि उन्होंने आत्महत्या कर ली परंतु इन गिद्ध पत्रकारों से क्या हम कोई ”आत्मग्लानि” की उम्मीद कर सकते हैं… नहीं। परंतु हमें शर्मिंदगी और अफसोस है कि हम इन जैसे कथित पत्रकारों को ढो रहे हैं… बमुश्किल अपनी साख बचाते हुए कोशिश कर रहे हैं कि पत्रकारिता बची रहे।
– अलकनंदा सिंह