उत्तर प्रदेश की रामपुर लोकसभा सीट आजकल चर्चा में है, एक ओर आजम खान हैं जो अपनी विरोधी प्रत्याशी जयाप्रदा के अंडरवियर का रंग बता रहे हैं तो दूसरी ओर जयाप्रदा हैं जो हमलावर होकर कह रही हैं कि क्या आज़म खान के बहू-बेटी-मां नहीं हैं, क्या वे उनके लिए भी ऐसा ही बोलते हैं। मगर जया जी, बात तो यही है कि मां ने ही यदि संस्कार दिये होते तो आज़म खान बदजुबानी करते ही नहीं। इसलिए चोर से ज्यादा चोर की मां ही दोषी है।
आमलोग इसे राजनीतिक गिरावट के रूप में देख रहे हैं, चुनाव आयोग ने भी आज़म खान पर प्रतिबंध लगा दिया है, कानपुर की मेयर ने आज़म खान के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज़ करा दिया है, महिला आयोग ने भी संज्ञान लिया है...आदि आदि वे प्रक्रिया हैं जो संस्थागत रूप से अपनी-अपनी प्रक्रियात्मक कार्यवाही बढ़ाती रहेंगी।
परंतु...परंतु सवाल तो यह है कि क्या ये सब पहली बार है, क्या आज़म पहले व्यक्ति हैं ऐसा कहने वाले, क्या जयाप्रदा अकेली हैं ऐसा सुनने वाली, सड़क से लेकर घरों तक क्या हममें से अधिकांश ऐसे वाकियातों से रोजबरोज रूबरू नहीं होते। क्या हम नहीं जानते कि पुरुष जब भी स्वयं को कमजोर और कमतर समझता है तो महिला के शरीर और उसकी स्वतंत्रता को ही भिन्न-भिन्न लांक्षनों से शिकार बनाता है। इसीलिए आखिरी हथियार के रूप में सारी गालियों का शब्दांकन महिला के अंगों से चलकर उसी के चरित्र पर जाकर ठहरता है।
ये अलग बात है कि पुरुषों के डॉमिनेट करने के ये अंदाज़ उन्हीं को कठघरे में भी खड़ा करते रहे हैं। दरअसल गालियां उन कुसंस्कारों का आइना होती हैं जो बच्चे की परवरिश, मनोविकार और कमजोरी को ढकने के लिए बचपन में ही पिरो दिए जाते हैं।
हालांकि ये भी दुखद है कि गालियों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की इस अनोखी विधा पर महिलाओं ने भी सरेआम जोर-आजमाइश शुरू कर दी है, बदजुबानी का संक्रामक पक्ष अब उन्हें भी जद में ले रहा है।
अब लड़कियों को भी इस ''गालीगिरी'' में फंसकर लड़कों की भांति मां-बहन की छूछ गाली बकते सुना जा सकता है। स्वतंत्रता का ये विध्वंसक रूप अभी नया है परंतु इसके आफ्टर इफेक्ट्स आने वाली पीढ़ियों के लिए भयावह हो सकते हैं क्योंकि अब चोर की मां ही स्वयं चोर को सही ठहराने चल पड़ी है।
फिलहाल आज़म खान के ज़रिए ही सही, अब इतने ऊंचे मंचों से टपकते ''समाज के कोढ़'' को कार्यवाही की ज़द में लाया तो गया। वरना इससे पहले ऐसे कई उदाहरण हैं जब बड़े-बड़े नेता अपनी ''रसिया प्रवृत्ति'' का सरेआम प्रदर्शन चुके हैं। सैफई महोत्सव की ''उत्सवी रातों'' के बारे में कौन नहीं जानता।
आज़म खान के इसी मंच पर बैठे अखिलेश यादव की जयाप्रदा संबंधी इस लज्जाजनक बयान को लेकर चुप्पी, महिलाओं पर अत्याचारों के बावत महिला पत्रकार से उल्टा प्रश्न करना कि आपके साथ तो नहीं हुई ना छेड़खानी, मुलायम सिंह का बलात्कार पर ये कहना कि लौंडों से गलती हो जाती है, तमाम ऐसे वाकये हैं जिनकी मानसिकता कोई आज़म खान से अलग नहीं है। सोचकर देखिए इनके संपर्क में आने वाली महिलायें किस वीभत्स माहौल में जीती होंगी।
बदजुबानियों का ये युद्ध, हमारे ( पुरुष व महिला दोनों ही के) लिए सबक भी है और सुधरने के लिए चेतावनी भी, जिसे सिर्फ बेहतर संस्कारों से ही सकारात्मकता की ओर मोड़ा जा सकता है ताकि राजनीति ही क्यों बल्कि सड़कों व घरों में भी हम इस आतंक से बचे रह सकें। तो ''चोर की मां'' बनने से पहले हम ''सिर्फ मां'' बनें जिससे कोई आज़म फिर किसी महिला के अंडरवियर का रंग बताने की हिम्मत ना कर सके और ना ही हमारी बेटियां गालियों के दलदल में खुद की स्वतंत्रता ढूंढ़ने पर मजबूर हों।
- अलकनंदा सिंह
आमलोग इसे राजनीतिक गिरावट के रूप में देख रहे हैं, चुनाव आयोग ने भी आज़म खान पर प्रतिबंध लगा दिया है, कानपुर की मेयर ने आज़म खान के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज़ करा दिया है, महिला आयोग ने भी संज्ञान लिया है...आदि आदि वे प्रक्रिया हैं जो संस्थागत रूप से अपनी-अपनी प्रक्रियात्मक कार्यवाही बढ़ाती रहेंगी।
परंतु...परंतु सवाल तो यह है कि क्या ये सब पहली बार है, क्या आज़म पहले व्यक्ति हैं ऐसा कहने वाले, क्या जयाप्रदा अकेली हैं ऐसा सुनने वाली, सड़क से लेकर घरों तक क्या हममें से अधिकांश ऐसे वाकियातों से रोजबरोज रूबरू नहीं होते। क्या हम नहीं जानते कि पुरुष जब भी स्वयं को कमजोर और कमतर समझता है तो महिला के शरीर और उसकी स्वतंत्रता को ही भिन्न-भिन्न लांक्षनों से शिकार बनाता है। इसीलिए आखिरी हथियार के रूप में सारी गालियों का शब्दांकन महिला के अंगों से चलकर उसी के चरित्र पर जाकर ठहरता है।
ये अलग बात है कि पुरुषों के डॉमिनेट करने के ये अंदाज़ उन्हीं को कठघरे में भी खड़ा करते रहे हैं। दरअसल गालियां उन कुसंस्कारों का आइना होती हैं जो बच्चे की परवरिश, मनोविकार और कमजोरी को ढकने के लिए बचपन में ही पिरो दिए जाते हैं।
हालांकि ये भी दुखद है कि गालियों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की इस अनोखी विधा पर महिलाओं ने भी सरेआम जोर-आजमाइश शुरू कर दी है, बदजुबानी का संक्रामक पक्ष अब उन्हें भी जद में ले रहा है।
अब लड़कियों को भी इस ''गालीगिरी'' में फंसकर लड़कों की भांति मां-बहन की छूछ गाली बकते सुना जा सकता है। स्वतंत्रता का ये विध्वंसक रूप अभी नया है परंतु इसके आफ्टर इफेक्ट्स आने वाली पीढ़ियों के लिए भयावह हो सकते हैं क्योंकि अब चोर की मां ही स्वयं चोर को सही ठहराने चल पड़ी है।
फिलहाल आज़म खान के ज़रिए ही सही, अब इतने ऊंचे मंचों से टपकते ''समाज के कोढ़'' को कार्यवाही की ज़द में लाया तो गया। वरना इससे पहले ऐसे कई उदाहरण हैं जब बड़े-बड़े नेता अपनी ''रसिया प्रवृत्ति'' का सरेआम प्रदर्शन चुके हैं। सैफई महोत्सव की ''उत्सवी रातों'' के बारे में कौन नहीं जानता।
आज़म खान के इसी मंच पर बैठे अखिलेश यादव की जयाप्रदा संबंधी इस लज्जाजनक बयान को लेकर चुप्पी, महिलाओं पर अत्याचारों के बावत महिला पत्रकार से उल्टा प्रश्न करना कि आपके साथ तो नहीं हुई ना छेड़खानी, मुलायम सिंह का बलात्कार पर ये कहना कि लौंडों से गलती हो जाती है, तमाम ऐसे वाकये हैं जिनकी मानसिकता कोई आज़म खान से अलग नहीं है। सोचकर देखिए इनके संपर्क में आने वाली महिलायें किस वीभत्स माहौल में जीती होंगी।
बदजुबानियों का ये युद्ध, हमारे ( पुरुष व महिला दोनों ही के) लिए सबक भी है और सुधरने के लिए चेतावनी भी, जिसे सिर्फ बेहतर संस्कारों से ही सकारात्मकता की ओर मोड़ा जा सकता है ताकि राजनीति ही क्यों बल्कि सड़कों व घरों में भी हम इस आतंक से बचे रह सकें। तो ''चोर की मां'' बनने से पहले हम ''सिर्फ मां'' बनें जिससे कोई आज़म फिर किसी महिला के अंडरवियर का रंग बताने की हिम्मत ना कर सके और ना ही हमारी बेटियां गालियों के दलदल में खुद की स्वतंत्रता ढूंढ़ने पर मजबूर हों।
- अलकनंदा सिंह