बुधवार, 20 दिसंबर 2017

सुनिए मंत्री जी! गले नहीं उतरने वाले ये बचकाना तर्क

किसी भी उच्‍च पदस्‍थ व्‍यक्‍ति की मन: स्‍थिति को समझने के लिए उसके भाव काफी होते हैं। उच्‍चपदासीन होने का यह मतलब यह नहीं कि पद प्राप्‍त करने वाले व्‍यक्‍ति द्वारा पद पर आसीन होने से पहले जो कुछ पढ़ा हो, वह पद की योग्‍यता के अनुरूप हो ही। किताबें पढ़कर अगर ''उच्‍च'' हुआ जा सकता तो बेचारे कबीर, तुलसी, जायसी, रसखान, पद्माकर, बिहारी जैसे कवि हमारी थाती ना बने होते।

एक वाकया कल हुआ और आज अखबारों की सुर्खियां बन गया ।
कल ऋषिकेश-हरिद्वार के एक आयुर्वेद कॉलेज में अपने संबोधन में केंद्रीय जलसंसाधन राज्‍य मंत्री सत्‍यपाल सिंह( पूर्व आईपीएस) ने गंगाप्रदूषण को लेकर अपनी सोच को जिस तरह पेश किया, वह न केवल उनके नाकारा प्रयासों को दर्शाती है बल्‍कि उन्‍हीं के कहे शब्‍दों से ज्ञात होता है कि ''नमामिगंगे-योजना'' को केंद्रीय मंत्रियों ने किसतरह मज़ाक का विषय बना दिया है।

केंद्र इस योजना के अपार धन की बात करता है मगर गंगा-प्रदूषण पर पहले उमाभारती और अब सत्‍यपालसिंह जैसे मंत्रियों के रहते न यह धन काम आने वाला है और ना ही गंगा का दम घुटने से रोका जा सकता है। उन्‍होंने कहा कि ''गंगा में अस्‍थि विसर्जन और फूल के दोने प्रवाहित करने से, संतों को भी जलसमाधि देने के कारण अधिक प्रदूषण होता है। ऐसा करना किसी भी शास्‍त्र में नहीं लिखा। गंगा में प्रवाहित करने के बजाय अस्थियों को किसी जमीन पर एक स्थान पर इकट्ठा के उसके ऊपर पौधे लगाए जाएं। ताकि आने वाली पीढ़ी उस पौधे में अपने पूर्वजों की छवि देख सकें।''

ये सही है कि पूर्वजों को याद करने का ये बेहतर तरीका हो सकता है मगर अस्‍थिवसर्जन को गंगा प्रदूषण का कारक फिर भी नहीं माना जा सकता।

मुंबई के पुलिस कमिश्‍नर रह चुके मंत्री सत्‍यपाल सिंह के बयान पर आक्रोषित संतों की भांति हम सभी सनातनधर्मी ये भलीभांति जानते हैं कि स्‍कंद पुराण, वायु पुराण, मत्‍स्‍य पुराण, नारद पुराण और विष्‍णु पुराण में गंगा में अस्‍थिविसर्जन और संतों-साधुओं की जलसमाधि का उल्‍लेख है। यूं भी राख हुई अस्‍थियां कितना जलप्रदूषित करेंगी, ये तो कोई बच्‍चा भी बता सकता है।

कौन नहीं जानता कि गंगा समेत सभी नदियां सदैव से ऐसी नहीं थी, सर्वप्रथम अंग्रेजों के शासनकाल में शहरों का सीवेज हमारी नदियों में छोड़े जाने के बाद से इसकी शुरुआत हुई जो अब सीवरेज से होते हुए प्‍लास्‍टिक कचरे और उद्योगों के तेजाबयुक्‍त प्रदूषक तत्वों तक को ढो रही हैं। इसी तेजाब ने गंगा के जलचरों को लगभग खत्‍म ही कर दिया है। इन जलचरों का जीवन ही फूल-दोनों, गंगा में प्रवाहित खाद्यसामिग्री, जलसमाधि प्राप्‍त मृत शरीरों के अवशेषों पर निर्भर हुआ करता था परंतु उद्योगों व सीवरेज के घातक अपशिष्‍ट जलचरों को खत्‍म करता गया और नतीजा यह कि अब नदियां न सदानीरा रहीं और न ही सलिला।

बेशक गंगा और उसकी सहयोगी नदियां सदानीरा रहें इसकी सभी कामना करते हैं मगर जब गंगा मंत्रालय संभाल रहे मंत्री ही ऐसी बचकाना बातें कहेंगे और उसपर जनसहयोग न होने का रोना भी रोएंगे तो आखिर कौन लेगा गंगा को प्रदूषणमुक्‍त करने के जिम्‍मेदारी।

अखाड़ा परिषद सहित संतों और हमारे जैसे आमजन को भी मंत्री की ये बात गले नहीं उतर रही। उन्‍हें संतों ने करारा जवाब देते हुए कहा है कि पहले शास्‍त्र पढ़ें मंत्री जी और जहां तक बात है जलसमाधि की तो हम तो सरकार से पहले ही भूसमाधि हेतु जमीन मांग रहे हैं, अकेले उत्‍तराखंड में ही हजारों उद्योगों का अपशिष्‍ट गंगा में ना बहाने को संतों ने कितनी बार फरियाद की, मगर आज तक उसपर तो कोई विचार भी नहीं हुआ, मंत्री बतायें कि आखिर वे गंगा प्रदूषण पर इन मांगों को क्‍यों नहीं मान रहे। क्‍या सिर्फ अस्‍थिविसर्जन और फूल के दोने ही प्रदूषण फैलाते हैं, मंत्री की दृष्‍टि में इंडस्‍ट्रियल पॉल्‍यूटेंट 
क्‍या हैं। संतों की ही बात करें तो अस्‍थिविसर्जन को पौराणिक व धार्मिक तौर पर ही सही नहीं माना गया बल्‍कि पर्यावरणीय, वैज्ञानिक, सामाजिक और भूमि के उपयोग को लेकर भी यह सर्वोत्‍तम संस्‍कार प्रक्रिया मानी गई है। अच्‍छा खासा वजनी से वजनी व्‍यक्‍ति भी सिमट कर एक लोटे में आ जाता है, क्‍या इससे फैल रहा है प्रदूषण?

फिलहाल तो गंगा-प्रदूषण पर स्‍वयं गंगा की ही हालत ऐसी हो गई है जैसी कि महाभारत के रचयिता वेद व्यास की थी, जो धर्म पालन के संदर्भ में यह कह रहे थे कि मैं अपनी बाहें उठा-उठाकर चिल्लाता हूं लेकिन मेरी कोई सुनता ही नहीं। ऐसा लगता है कि जिस महान संस्कृति को गंगा ने जीवन दिया उसका सबसे विकसित रूप देखने तक गंगा का ही जीवन नहीं बचेगा।

मंत्री सत्‍यपाल सिंह को ज्ञात होना चाहिए कि -
गंगा को ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।
प्रसिद्ध नदीसूक्त में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋग्वेद में ‘गंगय’ शब्द आया है जिसका सम्भवत: अर्थ है ‘गंगा पर वृद्धि करता हुआ।’ 
शतपथ ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण में गंगा एवं यमुना के किनारे पर भरत दौष्यंति की विजयों एवं यज्ञों का उल्लेख हुआ है। 
महाभारत एवं पुराणों में गंगा की महत्ता एवं पवित्रीकरण के विषय में सैकड़ों प्रशस्तिजनक श्लोक हैं। 
स्कन्द पुराण में गंगा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है।

सत्‍यपाल सिंह के बचकाना तर्क और गंगा के प्रति बेहद सतही टिप्‍पणी के बाद गंगा के लिए कवि केदारनाथ अग्रवाल की ''गंगा पर कुछ पंक्‍तियां'' पढ़िए-

आज नदी बिलकुल उदास थी/
सोयी थी अपने पानी में/
उसके दर्पण पर बादल का वस्त्र पड़ा था/
मैंने उसे नहीं जगाया/
दबे पांव घर वापस आया।’

न जाने वह कौन सी नदी थी, जिसकी उदास और सोयी हुई लहरों पर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने इतना सुंदर बिम्ब रचा था। कवि को उस रोज नदी उदास दिखी, उदासी दिल में उतर गई।

-अलकनंदा सिंह

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

चंबल की ये स्‍त्रियां- feminism से आगे की बात हैं

राजनैतिक रूप से लगातार उद्भव-पराभव वाले हमारे देश में कुछ  निर्धारित हॉट टॉपिक्स हैं चर्चाओं के लिए। देश के सभी प्रदेशों में  ''महिलाओं की स्‍थिति'' पर लगातार चर्चा इन हॉटटॉपिक्स में से एक  है। यूं तो फेमिनिस्‍ट इनकी सतत तलाश में जुटे रहते हैं मगर  उनका उद्देश्‍य हो-हल्‍ला-चर्चाएं-डिस्‍कोर्स-कॉफी मीटिंग्‍स से आगे जा ही  नहीं पाता इसीलिए आज भी ऐसी खबरें सुनने को मिल जातीं हैं जो  हमारे प्रगति आख्‍यान के लिए धब्‍बा ही कही जाऐंगी। ये फेमिनिस्‍ट  ग्रामीण भारत की ओर देखना भी नहीं चाहते और सुधार जहां से  होना चाहिए, वही पीछे रह जाता है।

ग्रामीण भारत की कई कुप्रथाएं-बेड़ियां ऐसी हैं जो महिलाओं को  इंसान ही नहीं मानना चाहतीं। इनमें से एक के बारे में शायद  आपने भी सुना होगा कि मध्यप्रदेश के चंबल इलाके में कराहल  अंचल के गांव आमेठ की महिलाएं ''पुरुषों के सामने चप्पल उतार  कर नंगे पैर चलती हैं।''

हालांकि किसानी के तौर पर यह इलाका वहां के लोगों की कर्मठता  बयान करता है। वह बताता है कि किस तरह यहां आदिवासी व  भिलाला जाति के किसानों ने आमेठ, पिपराना, झरन्या, बाड़ी,  चिलवानी सहित आस-पास के इलाकों में कंकड़-पत्थर से पटी पड़त  पड़ी भूमि को उपजाऊ बनाया है, मगर कर्मठता की इस बानगी को  पेश करने वालों ने अपनी महिलाओं की दशा को अनदेखा कर  दिया।

पता चला है कि गांव की कुल आबादी 1200 में से महिलाओं की  संख्‍या लगभग 500 है, परिवार के लिए पानी की व्‍यवस्‍था अब भी  महिलाएं ही संभालती हैं। आपको सूर्योदय से पूर्व ही गांव की  महिलाएं पानी के बर्तनों के साथ डेढ़ किलोमीटर दूर स्‍थित  झरने  की तरफ़ जाती दिख जाऐंगी। डेढ़ किमी जाने-आने का मतलब है  कि दिन के कुल मिलाकर करीब 7-8 घंटे परिवार के लिए पानी के  इंतजाम करने में बिता देना।ये महिलाऐं त्रस्‍त हैं कि उन्‍हें पुरुषों के  सामने आते ही चप्‍पल उतारनी पड़ती हैं और यह कुप्रथा उनके  आत्‍मसम्‍मान को भी चकनाचूर कर रही है।

ज़रा सोचिए कि जो महिला सिर और कमर पर पानी का बर्तन  लादकर आ रही हो, वह किसी पुरुष को सामने देखते ही अपनी  चप्‍पल उतारने लग जाए तो कैसा महसूस होगा। काफी मशक्‍कत के  बाद लाए गए पानी के गिरने की चिंता छोड़कर जब वह झुककर  पैरों से चप्‍पल निकालेगी तो निश्‍चित ही उसके मन में पुरुषों के  प्रति सम्‍मान तो नहीं रह जाएगा।

परिवार के सुख के लिए 'सम्‍मान पाने की इच्‍छा' को पीछे धकेलती  ये महिलाएं बताती हैं कि "सिर पर पानी या घास का बोझ लिए  जब हम गांव में घुसते हैं तो चबूतरे पर बैठे बुज़ुर्गों के सामने से  निकलने के लिए हमें अपनी चप्पलें उतारनी पड़ती हैं, एक हाथ से  चप्पल उतारने और दूसरे हाथ से सामान पकड़ने के कारण कई बार  वह ख़ुद को संभाल नहीं पातीं। अब ऐसा रिवाज सालों से चला आ  रहा है तो हम इसे कैसे बदलें, अगर हम बदलें भी तो सास-ससुर  या देवर, पति कहते हैं कि कैसी बहुएँ आई हैं, बिना लक्षन, बिना  दिमाग़ के, बड़ों की इज़्ज़त नहीं करतीं, चप्पल पहन कर उड़ने चली  हैं।"

इन बेड़ियों को तोड़ने की बजाय अधिकांश अधेड़ उम्र के पुरुष इस  रिवाज को अपने 'पुरखों की परंपरा' बताते हैं और इस बात पर ज़ोर  देते हैं कि 'स्‍त्रियों को पुरुषों की इज़्ज़त की ख़ातिर उनके सामने  चप्पल पहन कर नहीं चलना चाहिए। सभी स्‍त्रियां राज़ी-खुशी से  परंपरा निभाती हैं, हम उन पर कोई ज़बरदस्ती नहीं करते। आज  भी हमारे घर की स्‍त्रियां हमें देखकर दूर से ही चप्पल उतार लेती  हैं, कभी रास्ते में मिल जाती हैं तो चप्पल उतार दूर खड़ी हो जाती  हैं।

हकीकतन स्‍त्रियों को गुलामों के बतौर पेश आने वाला यह रिवाज  हर मौसम में एकसा रहता है। इस गांव सहित आसपास के कई  गांवों में ये रिवाज पहले सिर्फ 'निचली' जाति की महिलाओं के लिए  ही था लेकिन जब 'निचली' जाति की महिलाओं में कानाफूसी होने  लगी तो फिर ये 'ऊपरी' जातियों के महिलाओं के लिए भी ज़रूरी  कर दिया गया। और अब हाल ये कि इन गांवों में ज्‍यादार समय  सभी महिलाएं नंगेपांव ही दिखती हैं।

बहरहाल, इन गांवों की नई पीढ़ी की सोच एक उम्‍मीद जगाती है।  तभी तो शहर में नौकरी कर रहे युवा अब प्रश्‍न करने लगे हैं-
जैसे कि "मंदिरों के आगे से जब कोई औरत चप्पल पहन के  निकल जाए तो सारा गांव कहने लगता है कि फलाने की बहू  अपमान कर गई लेकिन गांव के मर्द तो चप्पल-जूते पहनकर ही  मंदिर के चौपाल पर जुआ खेलते रहते हैं, तब क्या भगवान का  अपमान नहीं होता."

कुछ लोग मुझे यह भी कहते मिले कि महिलाओं के प्रति ऐसे  रिवाजों के खिलाफ स्‍वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा, मगर  यह सब इतना आसान नहीं होता जब घर के ही पुरुष महिलाओं पर  इन बंदिशों के हक में हों।

इस कुत्‍सित मानसिकता को दूर करने में शिक्षा, जागरूकता, नई  पीढ़ी में सोच के स्‍तर पर आ रहा बदलाव सहायक हो सकता है  किंतु उसमें समय लगेगा।

रही बात फेमिनिस्‍ट्स द्वारा इस तरह की कुरीतियों पर चर्चाओं की  तो वे कॉफी-हाउसों से बाहर नहीं आने वाले, इसलिए किसी भी  सकारात्‍मक बदलाव की अपेक्षा नई सोच पर टिकी है और अब जब  इस कुरीति पर बात निकली है तो दूर तलक जानी भी चाहिए।
इस क्षेत्र के किसानों को ऐसी कुरीति के विरुद्ध भी उसी शिद्दत से  खड़ा होना होगा जिस शिद्दत से वह कंकड़-पत्‍थर वाली ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए उठ खड़े हुए थे ताकि वह एकसाथ प्रगति और मेहनतकशी की मिसाल बन सकें। पांवों में चप्‍पलों का न होना एक बात है और पुरुषों द्वारा अपनी छाती चौड़ी करने को महिलाओं से चप्‍पलें उतरवा देना दूसरी बात बल्‍कि यूं कहें कि यह तो फेमिनिज्‍म से आगे की बात है तो गलत ना होगा।

और अब चलते चलते ये दो लाइनें इसी जद्दोजहद पर पढ़िए- 

तूने अखबार में उड़ानों का इश्तिहार देकर,
तराशे गए मेरे बाजुओं का सच बेपर्दा कर दिया।
-अलकनंदा सिंह

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

हम पैदाइशी संन्यासी हैं, हमें तो सूतक भी नहीं लगता


हमें न अखाड़ा परिषद से मान्यता की जरूरत है, न उनके सहयोग की। अपने अधिकार व सम्मान की लड़ाई स्वयं लड़ लेंगे, क्योंकि जनता हमारे साथ है। वैसे भी हम पैदाइशी संन्यासी हैं, हमें तो सूतक भी नहीं लगता,ये कहना है किन्‍नर अखाड़े की आचार्य पीठाधीश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी का क्‍योंकि  माघ में होने वाले कुंभ मेले में विवाद से बचने के लिए मेला प्रशासन ने किन्नरों को अभी तक जमीन व सुविधाएं नहीं दी है।

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद व माघ मेला प्रशासन से अखाड़ा के रूप में मान्यता नहीं मिलने से बेफिक्र किन्नर संन्यासी इस बार भी माघ मेला में डेरा जमाने की तैयारी कर रहे हैं। खुद को पैदाइशी संन्यासी बताते हुए उनका कहना है कि हमें किसी से मान्यता की जरूरत नहीं है।
हम सबसे ज्यादा त्याग भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमें प्रयाग में लगने वाले माघ मेले में भजन-पूजन से कोई नहीं रोक सकता। यह बात दीगर है कि अभी तक मेला प्रशासन से उन्हें जमीन व सुविधा नहीं मिली है। प्रशासन का कहना है कि किन्नर अखाड़ा के नाम पर किसी को जमीन व सुविधा नहीं मिलेगी, हां संस्था के नाम पर सब कुछ उपलब्ध होगा।
संगमनगरी इलाहाबाद के संगम तट पर इस बार दो जनवरी से माघ मेला आरंभ हो रहा है। तंबुओं की नगरी में मोक्ष की आस में संत-महात्माओं के साथ लाखों श्रद्धालु रेती में धूनी रमाएंगे। इस बार किन्नर संन्यासी भी डेरा जमाने की तैयारी कर रहे हैं। पहली बार वह यहां अपना शिविर लगाएंगे। किन्नर अखाड़े ने मेला प्रशासन से जमीन व सुविधाएं मांगी हैं। किन्नर अखाड़ा की मांग है कि माघ मेला क्षेत्र में त्रिवेणी मार्ग पर स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के शिविर के पास उसे जमीन व सुविधाएं दी जाएं।
अखाड़े की तरफ से 1500 बाई 1500 वर्ग गज जमीन, सौ तम्बू डबल प्लाई, तीन दर्जन स्विस कॉटेज, 50 नल, 50 शौचालय, 50 सोफा, 200 कुर्सियां एवं सुरक्षा को पुलिस-पीएसी के जवान मांगे हैं। इधर मेला प्रशासन का कहना है कि किन्नर अखाड़ा के नाम पर किसी को सुविधा नहीं दी जाएगी। यह निर्णय अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के विरोध के चलते लेना पड़ा है।
दरअसल, अखाड़ा परिषद ने सिर्फ 13 अखाड़ों को अखाड़े के नाम पर भूमि व सुविधाएं देने की मांग मुख्यमंत्री से की है, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया है। विवाद से बचने के लिए मेला प्रशासन ने किन्नरों को अभी तक जमीन व सुविधाएं नहीं दी है।
इससे बेपरवाह किन्नर अखाड़ा के आचार्य पीठाधीश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी कहते हैं कि हमें न अखाड़ा परिषद से मान्यता की जरूरत है, न उनके सहयोग की। अपने अधिकार व सम्मान की लड़ाई स्वयं लड़ लेंगे, क्योंकि जनता हमारे साथ है। वैसे भी हम पैदाइशी संन्यासी हैं, हमें तो सूतक भी नहीं लगता।
चर्चित एक्टिविस्ट के तौर पर भी ख्यात लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी यह भी कहते हैं कि 13 अखाड़े और उनके संन्यासी हमारे लिए सम्मानीय हैं, हम सबका हृदय से सम्मान करते हैं और आगे भी करेंगे। अखाड़े कुंभ और अद्र्धकुंभ में पेशवाई निकालते हैं जबकि हम देवत्व यात्रा निकालते हैं। उन्होंने कहा कि हम अपनी तुलना किसी अखाड़ा से करते ही नहीं। हम तो जन्मजात उपेक्षित हैं। पहले जन्म देने वालों ने उपेक्षित किया, बाद में समाज ने।
इसके बावजूद हमने सबको आशीर्वाद के सिवाय कुछ नहीं दिया, हमेशा सबका भला चाहा, आगे भी ऐसा ही होगा। उनका कहना है कि किन्नर अखाड़े का लक्ष्य किन्नरों को धार्मिक अधिकार व सम्मान दिलाने के साथ समाज के हर वर्ग के लोगों को धर्म के सही स्वरूप से जोड़ना है।
2016 के माघ मेले में भी किन्नर संन्यासियों के शिविर लगने की चर्चा थी। उचित सुविधा न मिलने पर किन्नर यहां नहीं आए। इस बार किन्नर अखाड़े की पहल पर मेलाधिकारी राजीव राय का कहना है कि किसी नए संगठन को अखाड़े के नाम पर सुविधा नहीं दे सकते।
अखाड़ा सिर्फ 13 हैं, हम किसी 14 वें अखाड़े को जमीन व सुविधा नहीं देंगे। हां, संस्था के नाम पर सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी।

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

हारून भाई को किसने मारा...

वो फैमिली हेयर ड्रेसर थे, दुबई रिटर्न...जी हां...''दुबई रिटर्न'', ये तमगा 90 के दशक में बड़ी बात  हुआ करती थी, वो बताते थे कि वो स्‍वयं तब वहां शेखों के पर्सनल सैलून्‍स में हजामत किया करते  थे।
खुशदिल, मिलनसार और ओवरऑल एक अच्‍छी पर्सनालिटी के मालिक थे हारून भाई। मथुरा में  उनकी दुकान हमेशा शिफ्ट होती रहती, कभी चौराहे के पास किसी नन्‍हीं सी गली में तो कभी  नामालूम वीरानी सी रोड पर। दुकान कहीं भी पहुंच जाए, मगर हारून भाई के ''हुनर'' के मुरीद  उनको तलाश ही लेते थे। उनकी कस्‍टमर लिस्‍ट में एक ओर जहां शहर के अमीरजादे, नवधनाढ्य,  गणमान्‍य नागरिक, फैशनपरस्‍त थे वहीं दूसरी ओर आमजन भी उसी शिद्दत से उन्‍हें आजमाते थे।  एक अजब सा सम्‍मोहन था उनके उंगलियों में जो नन्‍हें बच्‍चों को भी चुपचाप हेयर ड्रेसिंग कराने  को बाध्‍य कर देता।

लगभग एक साल पहले की बात है कि अचानक एक दिन उनके बेटे का फोन आया कि ''मेरे अब्‍बा  और आपके हारून भाई नहीं रहे...''। उनका जाना हमारे लिए किसी अज़ीज की रुखसती जैसा था।  बेटे से तफसील जानी तो पता लगा कि वो डायबिटिक थे, उनका शहर के जाने माने  एंडोक्रायनोलॉजिस्‍ट से इलाज चल रहा था, डॉक्‍टर ने उन्‍हें इतनी हैवी मैडीसिन्‍स दी कि उनका  पैन्‍क्रियाज ही बस्‍ट हो गया, उन्‍हें जो इंजेक्‍शन्‍स इंट्रामस्‍कुलर दिए जाने थे, वो इंट्रावेनस दिए गए,  जिससे उनका दिमाग डेड हो गया, जब शरीर में जहर फैलता देखा तब जाकर डॉक्‍टर ने उन्‍हें  दिल्‍ली के अपोलो अस्‍पताल के लिए रैफर किया, वहां का हाल भी कमोबेश ऐसा ही था, बस बच्‍चों  को सुकून था कि सर्वोच्‍च सुविधा का हॉस्‍पीटल है तो अच्‍छे रिजल्‍ट आऐंगे, परंतु कुछ दिन  वेंटीलेटर पर रखने के बाद उनका मृत शरीर ही हाथ आया।

इस तफसील का लब्‍बोलुआब ये कि अच्‍छे खासे हारून भाई को डायबिटीज ने नहीं, बल्‍कि गलत  और एक की जगह दस दवाओं के हाईडोज ने मारा और इसका जिम्‍मेदार कौन...? ज़ाहिर है वही  जिम्‍मेदार माना जाएगा जिसने दवाइयां दीं...जिसने जानबूझकर उन्‍हें कई दिनों तक अपने यहां  सिर्फ हैवी बिल बनाने के लालच में एडमिट रखा और बिगड़ती तबियत को 'अंडरकंट्रोल' बताता रहा।

ज़रा बताइये कि मरीजों की जान से खेलने वाले झोलाछाप डॉक्‍टर्स को जब हम गलत ठहराते हैं तो  ये स्‍पेशलिस्‍ट क्‍या कहे जाने चाहिए। बेशर्मी की हद देखिए कि डॉक्‍टर्स की संस्‍था ''इंडियन मेडीकल  एसोसिएशन'' यानि आईएमए इस जानलेवा अपराध को चुप्‍पी साधे देखती रहती है। डॉक्टर्स की  लापरवाही के ऐसे किसी भी मामले पर आईएमए का बोलना तो दूर, बल्‍कि उन्‍हें इस लूट-खसोट की  मौन स्‍वीकृति देती है।

कौन नहीं जानता कि हर नर्सिंग होम के भीतर मेडीकल स्‍टोर रखना नाजायज है, फिर भी रखा  जाता है, या ये कौन नहीं जानता कि पैथोलॉजीकल लैब बाकायदा कमीशन-सेंटर के तौर पर डॉक्‍टर्स  की ''साइड-इनकम'' का ज़रिया होती हैं, कैसे एक ही टेस्‍ट के लिए हर पैथलैब का रिजल्‍ट अलग  अलग होता है।

आईएमए के साथ साथ मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) भी इस बावत आंखें फेरे रहती  है कि जिन मेडीकल प्रैक्‍टिशनर्स को उसने प्रैक्‍टिस के लिए मान्‍यता दी है, वे उसका पालन कर भी  रहे हैं या नहीं। यूं तो स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय भी आंखें मूंदे था, यदि गत दिनों प्रसिद्ध हॉस्‍पीटल फोर्टिस   में डेंगू से बच्‍ची के मर जाने तथा उसके पिता को 18 लाख रुपए का बिल थमा देने जैसा गंभीर  मामला सामने न आता। अस्‍पताल की असंवेदनशीलता तथा लूट को सभी ने सुना होगा कि कैसे  अस्‍पताल के संचालकों द्वारा कई दिन पहले मर चुकी बच्‍ची का शव सिर्फ मोटा बिल बनाने के  लिए उपयोग किया जाता रहा और अंतत: बच्‍ची का निर्जीव शरीर उन्‍हें थमा दिया गया।

ये कोई किस्‍सा नहीं बल्‍कि ऐसी हकीकत है जिसे हर वो परिवार भोगता है जिसका कोई अपना  धरती पर भगवान कहलाने वाले चिकित्‍सकों की शरण में पहुंचने को मजबूर होता है।
फोर्टिस अस्‍पताल की ब्‍लैकमेलिंग के मामले ने वो सारे ज़ख्‍म ताज़ा कर दिए जो हमने हारून भाई  की मौत के बाद जाने थे।

संभवत: इसीलिए आमजन की तो अब यह धारणा हो गई है कि मल्‍टीस्‍पेशलिटी हॉस्‍पीटल, हैल्‍थ  पैकेजेज, भारी-भरकम डिग्रियों से सुसज्‍जित डॉक्‍टर्स के ये सिर्फ आधुनिक कसाईखाने हैं। हालांकि  अपवाद अभी भी शेष हैं, मगर कितने।

अब तो बस ये देखना है कि केंद्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय की ओर से जो राज्‍यों को ''क्‍लीनकल  स्‍टैब्‍लिशमेंट एक्‍ट'' लागू करने को कहा गया है, उसे कितने समय और कितने राज्‍यों द्वारा लागू  किया जाता है क्‍योंकि इस ''क्‍लीनकल स्‍टैब्‍लिशमेंट एक्‍ट'' के तहत अस्‍पतालों को विभिन्‍न सेवाओं  व चिकित्‍सकीय प्रक्रियाओं के लिए तय फीस का ब्‍यौरा देना होगा। यदि ऐसा होता है तो अब भी  समय है कि मेडीकल जगत जनता का भरोसा कायम रख सकता है। हकीकतन तो आज कोई  डॉक्‍टर ऐसा नज़र नहीं आ रहा जो उस शपथ की सार्थकता सिद्ध कर पाने के  लायक भी हो  जिसमें पूरी मानवता की सेवा को सर्वोपरि मानने की बात कही गई थी।

बहरहाल, अफसोस तो इस बात का है कि व्‍यावसायिकता की अंधी दौड़ में पता नहीं कब धरती के  भगवानों ने शैतान का रूप धारण कर लिया और कैसे उनकी पैसे को लेकर हवस इस कदर बढ़ गई  कि उनके लिए इंसानी जान की कोई कीमत ही नहीं रही। अगर कुछ रहा तो केवल इतना कि किस  तरह मरीज के परिजनों की भावनाओं का खून की अंतिम बूंद तक दोहन किया जा सके। 

-अलकनंदा सिंह 

शनिवार, 18 नवंबर 2017

भंसाली जी! इतिहास प्रयोगधर्मी का सेट नहीं हो सकता

हाई बजट, ग्रेट स्‍ट्रैटजी, भव्‍य सेट और टॉप के कलाकारों के साथ अपनी फिल्‍म को 'महान'  बताने के 'आदी' रहे संजय लीला भंसाली ने संभवत: रानी पद्मिनी के जौहर को हल्‍के में ले  लिया। यूं आदतन उन्‍होंने बाजीराव-मस्‍तानी में भी वीरता को दरकिनार कर पेशवा बाजीराव  को भी शराबी और महबूबा मस्‍तानी के प्रेम में डूबा आशिकमिजाज़ शासक ही दिखाया था  मगर इस बार उनकी ये कथित ''अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी'' उन्‍हीं पर भारी पड़ती जा रही  है।

कुछ सेंसर बोर्ड, कुछ सरकार और कुछ जनता के भयवश अभी गनीमत इतनी है कि  ''अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी'' के नाम पर पूरा फिल्‍म जगत बस चौराहों पर नंगा होकर नहीं  नाच सकता अन्‍यथा इसी आज़ादी के चलते फिल्‍मकारों ने क्‍या-क्‍या नहीं दिखाया।

बात अगर फिल्‍म के ऐतिहासिक पक्ष की करें तो मध्‍यकालीन इतिहास में राजपूत अपनी  आन-बान-शान के लिए आपस में ही लड़ते रहे और आक्रांता इसका लाभ उठाते रहे परंतु  अब स्‍थिति वैसी नहीं है इसीलिए फिल्‍म में घूमर करती वीरांगना रानी पद्मिनी को दिखाए  जाने के खिलाफ राजघरानों-राजकुमारियों सहित महिला राजपूत संगठन एकजुट हो रहे हैं।  कुल मिलाकर पूरे मामले का राजनीतिकरण हो चुका है और इसके सहारे जहां करणी सेना  जैसे ''धमकी'' देने वाले संगठन अपना चेहरा चमका रहे हैं वहीं भंसाली भी इस अराजक  स्‍थिति को क्रिएट करने के जिम्‍मेदार हैं क्‍योंकि वो अपना भरोसा खो चुके हैं। चूंकि मामला  इतिहास का था तो कायदे से संजय लीला भंसाली को चित्‍तौड़गढ़ राजघराने की अनुमति  लेनी ही चाहिए थी और इसके चरित्र के साथ प्रयोगों से भी बचना चाहिए था क्‍योंकि यह  ऐसी गाथा है जो बदली नहीं जा सकती। 

फिल्‍म क्षेत्र तो वैसे भी देश-संस्‍कृति की गरिमा से कोसों दूर रहता आया है। ऐसे में  महारानी पद्मिनी के जौहर को पूजने वाले राजपूतों का विरोध कैसे गलत मान लिया जाए  क्‍योंकि प्रोमोज कुछ और ही बयां कर रहे हैं। कला के नाम पर इतिहास से खिलवाड़ कौन  सी ज़िंदा कौम बर्दाश्‍त करेगी भला। फिल्‍म के विरोध का राजपूतों का अभिव्‍यक्‍ति का   तरीका हो सकता है कि किसी वर्ग को नापसंद हो लेकिन उनकी भावनाओं को समझना  चाहिए क्‍योंकि भंसाली की गिनती तो ''बुद्धिजीवियों में की जाती'' है। उन्‍हें और उन जैसे  प्रयोगधर्मी फिल्‍मकारों को ये समझना चाहिए कि ना तो अस्‍मिता मनोरंजन की वस्‍तु होती  है और ना ही इतिहास को भुलाया जा सकता है। फिर ऐसे में अफवाहें भी अपना काम  करती ही हैं।

अभी जबकि सेंसर बोर्ड में भी फिल्‍म पास नहीं हो सकी है तब राजपूत संगठनों द्वारा  ''हिंसात्मक धमकी'' को भी जहां उचित नहीं ठहराया जा सकता वहीं फिल्‍म पद्मावती को  हुबहू दिखाये जाने के लिए फिल्‍म इंडस्‍ट्री के कुछ पैरोकारों द्वारा दबाव डालना भी ठीक  नहीं कहा जा सकता।

बहरहाल, जिस महाकाव्‍य ''पद्मावत'' के बहाने भंसाली खुद को बवाल से दूर करने की  कोशिश में हैं तो उन्‍हें यह समझ लेना चाहिए कि इसके रचयिता जायसी ने भी मर्यादा की  सीमाएं बनाकर रखीं थीं। अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी तो तब भी रही ही होगी। फिर उन्‍होंने  रानी पद्मिनी के चरित्र से छेड़छाड़ क्‍यों नहीं की, और क्‍यों उनके लिए अलाउद्दीन खिलजी  एक मुसलमान की बजाय एक व्‍यभिचारी आक्रांता ही रहा, जिसकी कुत्‍सित दृष्‍टि रानी पर  थी?

मलिक मोहम्मद जायसी इतिहास की एक वीरांगना स्‍त्री के आत्‍मसम्‍मान की रक्षा हेतु  'कर्म' और 'प्रेम' को उच्‍च स्‍तर तक ले जाकर पद्मावत रच सके। किसी बहस में ना पड़ते  हुए जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का सम्मिश्रण किया मगर  900 या 906 हिजरी में जन्‍मे मलिक मुहम्‍मद जायसी ने स्‍वप्‍न में भी नहीं सोचा होगा कि  जिस महाकाव्‍य को वे रच रहे हैं, वो इस तरह वैमनस्‍य का कारण बन जाएगा।

''अभिव्‍यक्‍ति की आज़ादी'' का एक सच यह भी है कि हमारा समाज आज तक बेडरूम के  किस्‍सों को चौराहों पर दिखाना पसंद नहीं करता, फिर ये तो शौर्य की प्रतीक एक रानी की  बात है। अत्‍याधुनिक होने के बावजूद सभ्‍यता-शालीनता-मर्यादा आज भी वांछित है। इसी  मर्यादा के कारण जायसी की अवधी भाषा में कृति ''पद्मावत'' सूफी परम्परा का प्रसिद्ध  ''महाकाव्‍य'' बन गई और भंसाली...की फिल्‍म...एक मज़ाक।

 -अलकनंदा सिंह

शनिवार, 11 नवंबर 2017

खबर आई है कि उनका दम घुट रहा है...

सुना है कि धुंध ने दिल्‍ली में डेरा जमा लिया है। ये कैसी धुंध है जो  एक कसमसाती ठंड के आगमन की सूचना लेकर नहीं आती बल्‍कि  एक ज़हर की चादर हमारे अस्‍तित्‍व पर जमा करती चली आती है।

इस धुंध ने आदमी की उस ख्‍वाइश को तिनका-तिनका कर दिया है  जो अपने हर काम और अपनी हर उपलब्‍धि को ''दिल्‍ली'' ले जाने में  लगा रहता है। सचमुच अब दिल्‍ली दूर भले ही ना लगे, मगर दिल्‍ली  से दूर रहने में ही ज्‍यादा भलाई है।

पिछले दो-तीन दिनों से दिल्‍ली पूरे विश्‍व के पटल पर चर्चा का विषय  बनी हुई है। यूं चर्चा का विषय तो स्‍मॉग है जो दिल्‍ली-एनसीआर की  बड़ी आबादी को तिल-तिल करके मार रहा है मगर वजह तो और भी  हैं जो दिल्‍ली को ज़हरीला बना रही हैं जिनमें मुख्‍य है देशभर से आई  आबादी का दिल्‍ली-एनसीआर क्षेत्र में विस्‍फोटक रूप में आकर बसना।  यहां सेर में सवासेर नहीं, बल्‍कि सेर में दस सेर समा रहा है। यानि  सब-कुछ जब कई गुना बढ़ रहा है तो स्‍मॉग कम कैसे हो सकता है।

कुल मिलाकर बात ये है कि सब जानते हैं ये समस्‍या कोई आज की  नहीं है, इसकी जड़ तो उस मूल अवधारणा में छुपी है जो हर  दिल्‍लीवासी (चाहे वह झुग्‍गीवासी ही क्‍यों ना बन गया हो) को  अतिविशिष्‍ट बनाती है। इसी सोच ने दिल्‍ली को नरक बनाकर रख  दिया है। हम सभी ये भी जानते हैं कि इस अतिविशिष्‍टता ने दिल्‍ली  को स्‍मॉग का शहर बनाने के साथ-साथ क्राइम सिटी भी बनाया है।

'सर्वसुख...? सर्वसुलभ...?' की मृगतृष्‍णा ने दिल्‍ली को आज इस  नारकीय स्‍थिति में ला खड़ा किया है कि वह आकर्षित करने की  बजाय सुरसा के मुंह की भांति भयावह नज़र आती है जो अपनी  ज़मीन पर आने वाले हर वाशिंदे को निगलने को आतुर है।

जहां तक बात है स्‍मॉग की, तो स्‍मॉग कोई सिर्फ दिल्‍ली की समस्‍या  नहीं है, इस मौसम में लगभग हर शहर इस समस्‍या से दो-चार होता  है मगर चूंकि नेशनल मीडिया दिल्‍ली में बैठा है और एक एक खबर  पर वो 24 घंटे चीखने की कुव्‍वत रखता है सो स्‍मॉग की ''चपेट'' में  आ जाती है दिल्‍ली, और आननफानन में एनजीटी से लेकर सुप्रीम  कोर्ट तक अतिसक्रिय हो जाते हैं। बाजार में 'एअरप्‍यूरीफायर' और  'मास्‍क' के ब्रांड मॉल्स से लेकर फुटपाथों तक सजा दिए जाते हैं।

हकीकतन दिल्‍ली की हवा में ज़हर की ये समस्‍या पलायन से उपजी  है, समस्‍या हर किसी के दौड़ने और दौड़कर लक्ष्‍य पाने की आपाधापी  से उपजी है, समस्‍या हर किसी के भीतर पैदा हुए बेशुमार लालच से  उपजी है, समस्‍या गांवों के खाली होने से और शहरों में भीड़ के  पहाड़ों से उपजी है, समस्‍या उस सोच से भी उभरी है जो दिल्‍ली वाला  बनने के लिए अपने जीवन, अपने रिश्‍तों, अपने बच्‍चों, अपने सुकून  को दांव पर लगा देती है मगर उसे बदले में हासिल होता है ज़हरीली  सांसों का उपहार।

यूं रस्‍मी तौर पर स्‍मॉग चर्चा में है और अगले कुछ दिनों तक रहने  भी वाली है, इस ज़हरीली धुंध के कारण-निवारण ढूढ़े जाऐंगे, हर बार  की तरह इस बार भी सर्दी के पूर्ण आगमन से पूर्व ये तमाशा चलता  है...चलता रहेगा।

लीजिए इसी हमारी 'धुंध' यानि दिल्‍ली की 'स्‍मॉग' पर मेरा एक शेर -

कोई हमें मारने को आए क्‍यूं भला
हम खुद अपने ताबूतों को नीलाम किए बैठे हैं।

-- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 4 नवंबर 2017

धर्मध्‍वजा पर छाती चौड़ी करने वालों का एक सच यह भी

 आज कर्तिक पूर्णिमा भी है, देव दीपावली भी और गुरू नानक जयंती भी...इस शुभ दिन पर धर्म की सर्वाधिक बातें की जाऐंगी मगर कुछ सच ऐसे हैं जो इन बड़ी बड़ी बातों में दबे रह जाऐंगे।

यूं भी धर्म जब तक किताबों में रहता है तब तक वह बहुत आकर्षित करता है परंतु जब इसी धर्म को निबाहने की बारी आती है तो हम अपने-अपने तरीकों से इससे भाग जाने के रास्‍ते तलाशने लगते हैं।

आज दो खबरों ने दिल कचोटा-
पहली खबर है गिरिराज गोवर्द्धन समेत ब्रज के सभी मंदिरों में भगवान  सर्दी के व्‍यंजन 'सुहाग-सोंठ' खाऐंगे, मेवाओं से लदे-फदे भगवान 'डिजायनर  व विदेशी रजाइयां ओढ़ेंगे' और इसी के ठीक उलट दूसरी खबर एक गौशाला  से आई है कि ब्रज की इस गौशाला में हर रोज लगभग तीन गायें भूख के  कारण बीमार पड़ रही हैं और अपने प्राण त्‍याग रही हैं।

गोवर्द्धन पूजा और गौचारण करके जिस कृष्‍ण ने गौसेवा को सर्वाधिक उच्‍च स्‍थान दिलाया, आज उसी की नगरी की गायें भूख से तड़प कर मर रही हैं, वह भी तब जब उसे भोग सुहाग-सौंठ और मेवाओं का लगाया जा रहा हो।

बहरहाल इन दोनों खबरों से उन अखाड़ेबाजों का सच स्‍वयमेव सामने आ गया है, जो बात-बात पर धर्म की ध्‍वजा लेकर कूद पड़ते हैं।

दरअसल, धर्म के इस बाजार में अशक्‍त व देशी निठल्‍ली गायें अपनी  कीमत नहीं रखतीं। इनकी दुर्दशा को किसी भी तरह भुनाया नहीं जा  सकता। धर्म के इसी 'व्‍यापारिक रूप' के वो सच भी हमारे सामने हैं जो  धर्म को खास लिबास, खास प्रतीक चिन्‍हों और खास जीवनशैली से बांधकर  उन लोगों के सामने परोसते हैं जो इन्‍हें ही धर्म और ईश्‍वर समझ इनके  ''भक्‍त'' हो लेते हैं। ये अलग बात है कि 'आपसदारी के तहत' वो भक्‍त भी  इनके व्‍यापार का ही हिस्‍सा होते हैं।

ब्रज के धार्मिक बाजार का हाल तो यह है कि पिछले डेढ़-दो दशक से हर  गली-कुंजगली में तीन-चार भागवतवक्‍ता उग चुके हैं, छप्‍पन भोगों से  ''पुण्‍य'' कमाया जा रहा है, फूलबंगला व भांति-भांति की रसोइयों के  आयोजनों से धर्म की नगरी में अरबों तक का व्‍यापार रोज हो रहा है।  बची-खुची कसर अब प्रदेश सरकार द्वारा इसे कृष्‍णा सर्किट के तौर पर  विकसित करने के लिएआई अनेक छोटी-बड़ी योजनाओं ने पूरी कर दी है।
बाजार के इस राजनैतिक व धार्मिक कोण की कीमत अब ब्रज की उन  गौशालाओं को चुकानी पड़ रही है जो न तो किसी ''खास भगवत वक्‍ता'' से  अनुदान पाती हैं और ना ही जिनके संरक्षक ''एनआरआई या सेठगण हैं''।

ये एनआरआई, सेठगण और बड़े ओहदेदार भक्‍त किसी बड़े भागवतवक्‍ता  को दान (इनकम टैक्स की 80 जी धारा के तहत तय की गई अनुबंध  राशि) देना ज्‍यादा अच्‍छा समझते हैं, इसके अलावा भक्‍ति-प्रदर्शन के लिए  आए दिन 56 भोगों का आयोजन और ऋतुओं के अनुसार भगवान को  लगाए जाने वाले स्‍पेशल भोगों को स्‍पांसर करना ज्‍यादा फायदे का सौदा  होता है। बजाय इसके कि ये सभी समृद्ध लोग अशक्‍त व मरती हुई गायों  के लिए आगे आऐं।

किसी भी धार्मिक स्‍थान से दूर रहने वालों के लिए उस पवित्र स्‍थान का  महत्‍व ज्‍यादा होता है बनिस्‍बत उनके जो स्‍वयं इन पवित्र स्‍थानों के वाशिंदे  हैं क्‍योंकि जीते जी मक्‍खी कोई नहीं निगल सकता और धर्मस्‍थानों के इन  धार्मिकजनों के कृत्‍यों को कम से कम मैं तो इसी श्रेणी में रखती हूं। 

आएदिन गायों को लेकर अनेक नीति-राजनीति-धर्मनीति तय की जाती हैं  उनका बखान किया जाता है मगर ज़मीनी हकीकत इससे बहुत अलग है।

बेहतर होगा कि सच के इस पक्ष से भी सिर्फ सरकारें ही नहीं, हमको भी  रुबरू होने की आवश्‍यकता है वरना कसीदों का क्‍या है...गाय तो हमारी  माता है ही और मूर्तियों को पूजना हमारी परंपरा...इन जुमलों पर ना जाने  कितने आश्रम फाइवस्‍टार हो गए और ना जाने कितने बाबा अरबपति...।

-अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

दो 31 तारीखों के बीच पूरा जीवन जी लिया अमृता प्रीतम ने

दो 31 तारीखों के बीच पूरा जीवन जी लिया अमृता प्रीतम ने, जी हां, 31 अगस्‍त 1919 को जन्‍मी Amrita Pritam का निधन भी 31 अक्‍तूबर 2005 को हुआ।
पंजाबी की प्रसिद्ध कवियित्री श्रीमती अमृता प्रीतम भारत के वरिष्ठ साहित्यकारों में से एक थीं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, उसकी अपनी शक्ति है अपना सौंदर्य है, अपना तेवर है और वे उसका प्रतिनिधित्व करती हैं।
अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया — कविता, कहानी और निबंध। पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुयीं और देशी विदेशी अनेक भाषाओं में अनूदित भी हुईं। वे १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा द्वारा, १९८८ में बल्गारिया वैप्त्त्सरोव पुरस्कार (अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८१ में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित हुईं।
 उन्‍हें श्रद्धांजलिस्‍वरूप  मैं उन्‍हीं की तीन पंजाबी कविताऐं देना चाहती हूं , जिनका हिन्‍दी अनुवाद भी साथ ही दिया गया है।
1. मेरा पता
अज मैं आपणें घर दा नंबर मिटाइआ है
ते गली दे मत्थे ते लग्गा गली दा नांउं हटाइया है
ते हर सड़क दी दिशा दा नाउं पूंझ दित्ता है
पर जे तुसां मैंनूं ज़रूर लभणा है
तां हर देस दे, हर शहर दी, हर गली दा बूहा ठकोरो
इह इक सराप है, इक वर है
ते जित्थे वी सुतंतर रूह दी झलक पवे
– समझणा उह मेरा घर है।
मेरा पता का हिन्‍दी अनुवाद
मेरा पता
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
– समझना वह मेरा घर है।

2. इक ख़त
मैं – इक परबत्ती ‘ते पई पुस्तक।
शाइद साध–बचन हाँ, जां भजन माला हाँ,
जां कामसूत्र दा इक कांड,
जो कुझ आसण ‘ते गुप्त रोगां दे टोटके,
पर जापदा – मैं इन्हां विचों कुझ वी नहीं।
(कुझ हुंदी तां ज़रूर कोई पढ़दा)
ते जापदा इक क्रांतिकारीआं दी सभा होई सी
ते सभा विच जो मत्ता पास होईआ सी
मैं उसे दी इक हथ–लिखत कापी हाँ।
ते फेर उत्तों पुलिस दा छापा
ते कुझ पास होईआ सी, कदे लागू न होईआ
सिर्फ़ ‘कारवाई’ खातर सांभ के रखिआ गिआ।
ते हुण सिर्फ़ कुझ चिड़िआं अउदीआं
चुझ विच तीले लिअउंदीआं
ते मेरे बदन उत्ते बैठ के
उह दूसरी पीढ़ी दा फिकर करदीआं।
(दूसरी पीढ़ी दा फिकर किन्ना हसीन फिकर है!)
पर किसे उपराले लई चिड़िआं दे खम्ब हुंदे हन
ते किसे मते दा कोई खम्ब नहीं हुंदा।
(जां किसे मते दी कोई दूसरो पीढ़ी नहीं हुंदी?)
हिन्‍दी अनुवाद
एक ख़त
मैं – एक आले में पड़ी पुस्तक।
शायद संत–वचन हूँ, या भजन–माला हूँ,
या काम–सूत्र का एक कांड,
या कुछ आसन, और गुप्त रोगों के टोटके
पर लगता है मैं इन में से कुछ भी नहीं।
(कुछ होती तो ज़रूर कोई पढ़ता)
और लगता – कि क्रांतिकारियों की सभा हुई थीं
और सभा में जो प्रस्ताव रखा गया
मैं उसी की एक प्रतिलिपि हूँ
और फिर पुलिस का छापा
और जो पास हुआ कभी लागू न हुआ
सिर्फ़ कार्रवाई की ख़ातिर संभाल कर रखा गया।
और अब सिर्फ़ कुछ चिड़ियाँ आती हैं
चोंच में कुछ तिनके लाती हैं
और मेरे बदन पर बैठ कर
वे दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र करती हैं
(दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र कितनी हसीन फ़िक्र है!)
पर किसी भी यत्न के लिए चिड़ियों के पंख होते हैं,
पर किसी प्रस्ताव का कोई पंख नहीं होता।
(या किसी प्रस्ताव की कोई दूसरी पीढ़ी नहीं होती?)
3. तू नहीं आया
चेतर ने पासा मोड़िया, रंगां दे मेले वास्ते
फुल्लां ने रेशम जोड़िया – तू नहीं आया
होईआं दुपहिरां लम्बीआं, दाखां नू लाली छोह गई
दाती ने कणकां चुम्मीआं – तू नहीं आया
बद्दलां दी दुनीआं छा गई, धरती ने बुक्कां जोड़ के
अंबर दी रहिमत पी लई – तू नहीं आया
रुकखां ने जादू कर लिआ, जंग्गल नू छोहंदी पौण दे
होंठों ‘च शहद भर गिआ – तू नहीं आया
रूत्तां ने जादू छोहणीआं, चन्नां ने पाईआं आण के
रातां दे मत्थे दौणीआं – तू नहीं आया
अज फेर तारे कह गए, उमरां दे महिलीं अजे वी
हुसनां दे दीवे बल रहे – तू नहीं आया
किरणां दा झुरमुट आखदा, रातां दी गूढ़ी नींद चों
हाले वी चानण जागदा – तू नहीं आया
हिन्‍दी अनुवाद
तू नहीं आया
चैत ने करवट ली, रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा – तू नहीं आया
दोपहरें लंबी हो गईं, दाख़ों को लाली छू गई
दरांती ने गेहूँ की वालियाँ चूम लीं – तू नहीं आया
बादलों की दुनिया छा गई, धरती ने दोनों हाथ बढ़ा कर
आसमान की रहमत पी ली – तू नहीं आया
पेड़ों ने जादू कर दिया, जंगल से आई हवा के
होंठों में शहद भर गया – तू नहीं आया
ऋतु ने एक टोना कर दिया, चाँद ने आकर
रात के माथे झूमर लटका दिया – तू नहीं आया
आज तारों ने फिर कहा, उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दिये जल रहे हैं – तू नहीं आया
किरणों का झुरमुट कहता है, रातों की गहरी नींद से
रोशनी अब भी जागती है – तू नहीं आया।
प्रस्‍तुति : अलकनंदा सिंह

बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

समय के दो पाट: कहां ये और कहां वो

समय के दो पाटों में से एक पाट पर हैं शास्‍त्रीय संगीत की पुरोधा गिरिजा देवी की प्रस्‍तुतियां और दूसरे पाट  पर हैं ढिंचक पूजा जैसी रैपर की अतुकबंदी वाली रैपर-शो'ज (जिसे प्रस्‍तुति नहीं कहा जा सकता)।

समय बदला है, नई पीढ़ी हमारे सामने नए नए प्रयोग कर रही है, अच्‍छे भी और वाहियात भी, परंतु अभी वह  संगीत-सरगम की पहली शर्त भी पूरी नहीं कर पा रही। पहली शर्त होती है कि इन प्रयोगों में मन को क्‍या  भाता है, मन किसे याद रख पाता है, किसे सुनकर बार बार दोहराने-गुनगुनाने-झूमते चले जाने का जी चाहता  है...। ये शर्त पूरी होते ही कसौटी होती है किसी कला के जनजन तक पहुंचकर प्रसिद्धि पाने की। और जब  जनजन तक पहुंचेगी तभी तो सदियों तक याद रखी जाएगी।

मेरे विचार से किसी गीत के अच्छा होने के लिए अच्छी कविता के साथ अच्छे गायन का संगम होना  आवश्यक है। मुझे संगीत की समझ बस इतनी है कि जो मेरे मन को अच्छा लगे वही अच्छा संगीत है।
इसलिए किसी भी अच्छे संगीत की पहचान यदि कान से की जाए दिमाग से नहीं, तो ज्‍यादा सही होगा।  संभवत आनंद का सृजन ही हर कला का मूल उद्देश्य भी है इसीलिए ठुमरी जैसे लोकशास्त्रीय गायन को  सुनने-सुनाने का अपना एक अलग आनंद है।
  आप भी सुनिए गिरिजा देवी की गाई ठुमरी- इस लिंक पर



बहरहाल, ठुमरी की रानी पद्मविभूषण गिरिजा देवी के देहांत की खबर के बाद से ही उनकी ठुमरियां एक एक  कर चले ही जा रही हैं दिमाग में...बाबुल मोरा नैहर छूटा जाए..., ऐहि ठइयां मोतिया हेराय गइलै रामा...।
दशकों पहले गाई गई ये ठुमरी आजतक उसी खनक के साथ हमारी जुबान से कभी भी रस घोल देती है, चाहे  रसोई में होऊं या आफिस में, ठुमरी तो है ही ऐसी चीज। ठुमरी हो और गिरिजा देवी का मनदर्शन ना हो ऐसा  कैसे हो सकता है भला।

अब बात करती हूं समय के दूसरे पाट पर चल रहे उस संगीत की जिसको सुनना जितना कष्‍टप्रद होता है,  उसे समझना बूते के बाहर, संगीत के नाम पर कुछ बेहूदी बातों को (जिसमें नशे की व अश्‍लीलता की बातें  समाहित होती हैं) हमें सुनाया जाता है।
नीचे ढिंचक पूजा के गाए का लिंक दे रही हूं-

https://www.youtube.com/watch?v=frw6uu3nonQ

लिबास के नाम पर गायिका एक कान में बाली, रंगबिरंगे बालों के  साथ, कभी कभी तो ये बाल सिर पर एक ही तरफ होते हैं और दूसरी ओर से साफ किए गए होते हैं। उदाहरण  के तौर पर बता दूं, शायद आप भी जानते होंगे कि कलर्स चैनल पर चल रहा है बिग बॉस 11, इस रिएलिटी  शो में एक प्रतिभागी का नाम है ढिंचक पूजा, जी हां, ढिंचक... लड़की पूजा, यानि ऐसी गायिका जो अपनी  बातों को ढुलकते हुए हमें सुनाती है जिसे संगीत कहा जाता है (आप भी यदि इसे किसी एंगल से संगीत कह  सकें तो)। ढिंचक पूजा के गाने को कोई भी दोहरा नहीं सकता क्‍योंकि वह गायन तो होता ही नहीं इसीलिए वह  शायद बिगबॉस के बाद किसी को याद भी नहीं रहेगी।

समय के इस दूसरे पाट पर खड़े 'ढिंचक पूजा' के संगीत को सुनकर मुझे अपनी उस विरासत के लिए दुख  होता है जो कभी तानसेनों को जन्‍म दिया करती थी, जहां राग ईश्‍वर होते थे। जो गायक के स्‍वर से निकलते  ही आनंद बिखेर देते थे। संगीत के एक अचल स्‍तंभ की भांति खड़ी रहने वाली गिरिजा देवी भी संगीत की इस  बाजारूपन और निम्‍नतर होते जाने से बेहद व्‍यथित थीं। निश्‍चित ही रैप- जैज़ संगीत हो सकता है मगर मन  को सुकून तो भारतीय संगीत से ही मिलता है चाहे वह लोकसंगीत हो या शास्‍त्रीय। ये मैं नहीं, अब तो पश्‍चिमी सभ्‍यता भी भारतीय संगीत की दीवानी हो चुकी है।

समय के इन दोनों पाटों को कृपया पुरातन और आधुनिक के चश्‍मे से ना देखिएगा, वरना संगीत का असली  रस नहीं पहचान पाऐंगे। संभवत: यही कारण है कि पहले पाट की गिरिजा देवी कालजयी हो जाती हैं और  ढिंचक पूजा...क्षणभंगुर।

जो भी हो, बहुत याद आऐंगी ठुमरी की महारानी गिरिजा देवी और जनजन की 'अप्‍पा जी'

- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

इस दीपावली बाहर का प्रकाश भीतर भी जाना चाहिए

दीपावली के महापर्व पर आज लिखने को बहुत कुछ है मगर मैं शब्‍दों से खाली हूं और इसीलिए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के आलोक पर्व का सहारा लिया।

आलोक पर्व में ज्योतिर्मयी देवी लक्ष्मी पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि लोग कहे-सुने जाते हैं कि अंधकार महाबलवान है। उससे जूझने का संकल्‍प मूढ़ दर्शन मात्र है, तो क्‍या यह संकल्‍प शक्‍ति का पराभव है। मनुष्‍यता की अवमानना है। दीवाली कहती है कि अंधकार से जूझने का संकल्‍प ही यथार्थ है। अंधकार की सैकड़ों परतें हैं। उससे जूझना ही मनुष्‍यत्‍व है। जूझने का संकल्‍प ही महादेवता है। उसी को प्रत्‍यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्‍मी पूजा कहते हैं।

आज से दीपोत्‍सव का पंचदिवसीय पर्व आरंभ हो चुका है। घरों पर लटकती रंगबिरंगी झालरें, टेराकोटा दीपकों की नई-नई लुभावनी डिजाइन्‍स और रंगोली की वृहद परिकल्‍पनाएं हमारी कलाओं को उभारती हुई इन पांच दिनों तक साकार रूप में हमारे सामने होंगी। इन कलाओं में हम अपनी सोच को सजायेंगे। दीपावली से जुड़ी कथाविस्‍तारों से अलग हम दीपावली के ध्‍येय की ओर शायद ही ध्‍यान दे पायें कि आखिर इसे प्रकाश से भरपूर उल्‍लास के संग मनाने की परंपरा क्‍योंकर स्‍थापित की गई होगी।

हमारा हर पर्व मन से मन की यात्रा के उद्देश्‍य के साथ मनाया जाता था मगर आपाधापी में ऊपरी सजावट का बोझ बढ़ाते गए और हम पर्वों का मुख्‍य उद्देश्‍य तिरोहित करते गए। यह भूलते गए कि दीपावली मन के अंधेरों को हटाकर रोशनी की ओर प्रस्‍थान का नाम है।

आजकल विचारकों की भीड़ लगी हुई है जो विचारों, इच्‍छाओं, राजनैतिक विश्‍लेषणों, धार्मिक-सामाजिक उन्‍मादों से लबालब चल रहे हमारे देश में हर विषय पर अपनी राय रख रहे हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि साक्षात् वेद हमारे समक्ष अपना ज्ञान उड़ेले जा रहे हैं और हम मूढ़मति-अज्ञानी करबद्ध उनका मुंह ताक रहे हैं। इन्‍हीं ”ज्ञान के भंडारों” ने अपने उपदेशों में सदैव त्‍याग की बात तो की, मगर भोग को नकारते रहे।
ऐसा कैसे हो सकता है कि आप सिर्फ मीठा ही खाते रहें। बिना तीखे के मीठा भी बेस्‍वाद होगा। अगर यही होता तो ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ की बात ही नहीं होती अर्थात् भोग भी त्याग के साथ होना चाहिए। लगातार एक संतुलन की बात है यह। दीपावली के आरंभ दिवस ‘धनतेरस’ का भी तो यही संदेश है कि एक दीया लक्ष्‍मी जी का, दूसरा धन्‍वातरि का, और तीसरा यम के लिए। धन, स्‍वास्‍थ्‍य जीवन के लिए आवयश्‍क है तो मृत्‍यु से अभय रखने को यम से प्रार्थना भी आवश्‍यक है। और यह संदेश पूरे पांच दिन तक अलग-अलग तरीकों से जन मानस में फैलाने की व्‍यवस्‍था का नाम है दीपावली क्‍योंकि संतुलन के साथ प्रकाश का महत्‍व और बढ़ जाता है।

अब इस दीपावली पर मन से मन की यात्रा करके तो देखें, हमारी सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है और हम भीतर अंधेरे में पड़े हैं, यह ऊर्जा भीतर की तरफ लौटे तो यही ऊर्जा प्रकाश बनेगी, यह ऊर्जा ही प्रकाश है।

घरों को सजाकर इसका उद्देश्‍य पूरा नहीं होगा। इस दीपावली पर बस इतना करना होगा कि हमारा जो सारा प्रकाश बाहर पड़ रहा है- पेड़-पौधों-लोगों पर उसे अपने भीतर ही ठहराना होगा ताकि हम सबको देखने से पहले स्‍वयं को देखें और अपने प्रति अंधे न बनें क्‍योंकि सबको देखने से क्या होगा? जिसने अपने को न देखा, उसने कुछ भी न देखा।

हमें मनुष्‍यता की अवमानना नहीं करनी है क्‍योंकि सैकड़ों परतों वाले अंधकार से जूझने का संकल्‍प यथार्थ में बदलना है। हमारा जूझारूपन ही हमारे संकल्‍प का देवता है जिसे साधकर वास्‍तविक लक्ष्‍मी पूजा करनी होगी। तभी होगी शुभ दीपावली।

- Alaknanda singh

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

शोषण की नई भाषा गढ़ता 'फंसाने' का चलन और बच्‍चियां

Photo Courtsy: Google
कल अंतर्राष्‍ट्रीय बालिका दिवस पर बेटियों के लिए बहुत कुछ सुना,  देखा और पढ़ा भी। सभी कुछ बेहद भावनात्‍मक था। कल इसी बालिका  दिवस पर बच्‍चियों को सुप्रीम कोर्ट ने भी बड़ी सौगात दे दी।

सुप्रीम कोर्ट ने बालविवाह जैसी कुरीतियों पर प्रहार करते हुए ऐतिहासिक  निर्णय दिया कि अब नाबालिग पत्‍नी से संबंध बनाने को 'रेप' माना  जाएगा और इसमें पॉक्‍सो एक्‍ट के तहत कार्यवाही होगी।
आदेश का सबसे महत्‍वपूर्ण पहलू यह है कि उक्‍त निर्णय देश के सभी  धर्मों, संप्रदायों और वर्गों पर समान रूप से लागू होगा। कोर्ट ने इसके  साथ ही रेप के प्रावधान आईपीसी की धारा 375 के 'अपवाद'-2 में जो  उम्र का उल्‍लेख '15 से कम नहीं' दिया गया है, को हटाकर '18 से कम  नहीं' कर दिया। इस 'अपवाद-2' में 15 वर्ष की उम्र वाली लड़की के साथ  विवाह के उपरांत यौन संबंध बनाने को 'रेप नहीं' माना गया था।

ज़ाहिर है ये 'अपवाद-2' ही उन लोगों के लिए हथियार था जो बालविवाह  को संपन्‍न कराते थे। बाल विवाह निवारण कानून की धारा 13 से प्राप्‍त  आंकड़े बताते हैं कि हर अक्षय तृतीया पर हमारे देश में हजारों बाल  विवाह होते हैं, जिसके बाद कम उम्र की दुल्‍हनें यानि बच्‍चियों को  यौनदासी बनने पर विवश किया जाता है।
हम सभी जानते हैं कि दंड के बिना कोई भी कुरीति से जूझना आसान  नहीं होता है क्‍योंकि यह समाज में घुन की तरह समाई हुई है।  ऐसे में  यह ऐतिहासिक फैसला इससे निपटने के लिए बड़ा हथियार साबित  होगा। बच्‍चियों के हक में इसके दूरगामी परिणाम भी अच्‍छे होंगे। हम  जानते हैं कि पति-पत्‍नी के बीच 'बराबरी के अलावा जीवन व व्‍यक्‍तिगत  आजादी का अधिकार' देने वाले कानून भी हैं मगर विवाहित नाबालिगों  के साथ ज्‍यादती भी तो कम नहीं हैं।

बच्‍चियों के शारीरिक व मानसिक विकास की धज्‍जियां उड़ाई जाती रही  हैं, और यह सिर्फ इसलिए होता रहा क्‍योंकि सरकारें विवाहोपरांत संबंध  को परिभाषित करते हुए रेप की धारा में 'अपवाद-2' को जोड़कर  बालविवाह बंद करने का फौरी ढकोसला करती रहीं और बच्‍चियां इनकी  भेंट चढ़ती रहीं। इतना ही नहीं, यौन संबंध बनाने को सहमति की उम्र  भी 15 से बढ़ाकर 18 तब की गई, जब निर्भया केस हुआ।   

इंडिपेंडेंट थॉट नामक संगठन की याचिका पर दिए गए इस ऐतिहासिक   फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्‍यवस्‍था दी है कि 18 वर्ष से कम उम्र की  पत्‍नी के साथ सेक्‍स 'रेप' ही होगा और लड़की की शिकायत पर पुलिस  रेप का केस दर्ज कर सकती है।

कोर्ट के आदेश की आखिरी लाइन ''लड़की की शिकायत मिलने पर  पुलिस रेप का केस दर्ज कर सकती है'' बस यही आखिरी लाइन कोर्ट के  फैसले की इस नई व्‍यवस्‍था के दुरुपयोग की पूरी-पूरी संभावना पैदा  करती है। मेरी आशंका उस आपराधिक मानसिकता को लेकर है जो हर  कानून को मानने से पहले उसके दुरुपयोग के बारे में पहले ही अपने  आंकड़े बैठा लेती है।

दहेजविरोधी कानून, बलात्‍कार विरोधी कानून, पॉक्‍सो, यौन शोषण की  धाराएं किस कदर मजाक का विषय बन गए हैं, इसके उदाहरण हर रोज  बढ़ते जा रहे हैं। अनेक निरपराध परिवार जेल में सिर्फ इन कानूनों के  दुरुपयोग की सजा भुगत रहे हैं। अब महिला-पुरुष के बीच स्‍वाभाविक  संबंध भी आशंकाओं से घिरते जा रहे हैं। इन सभी कानूनों को अब  महिलाऐं भी ब्‍लैकमेलिंग के लिए खूब प्रयोग करने लगी हैं।

कार्यस्‍थल पर महिला कर्मचारी हों या घरों में काम करने वाली मेड, मन  मुताबिक शादी न होने पर 'बहू' द्वारा दहेज मांगने का आरोप लगाने का  चलन हो या अपनी बच्‍ची या बच्‍चे को आगे कर पॉक्‍सो के तहत  'फंसाने' का चलन। इन सबका दुरुपयोग जमकर हो रहा है मगर इन  सामाजिक-उच्‍छृंखलताओं और बदले की भावनाओं का तोड़ तो तब तक  नहीं हो सकता जब तक कि समाज के भीतर से आवाज न उठे।

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इतना तो अवश्‍य होगा कि समाज  की बेहतरी और 'सच में पीड़ित' बच्‍चियों के लिए लड़ने वालों को हौसला  मिल जाएगा।

इन्‍हीं विषयों पर मैं कुछ इस तरह सोचती हूं कि-

रोज नए प्रतिमान गढ़े
रोज नया सूरज देखा
पर अब भी राहु की छाया का
भय अंतस मन से नहीं गया,
लिंगभेद का ये दानव,
अपने संग लेकर आया है-
कुछ नए राहुओं की छाया,
कुछ नई जमातें शोषण की,
कि सीख रही हैं स्‍त्रियां भी-
अब नई भाषाएं शोषण की।

-अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

बतर्ज़ अताउल मुस्‍तफा...हाईकोर्ट ने दिखाया आईना

क्‍यों उनकी राष्‍ट्रभक्‍ति वीडियोग्राफी की मोहताज है

यदि खुशहाल जीवन जीने के लिए प्रेम, कर्तव्‍य और मौलिक  अधिकारों में से किसी एक का चुनाव करने को कहा जाए तो आप  किसे चुनेंगे।
जहां तक मेरा ख्‍याल है, जीवन को सही और संतोषपूर्वक जीने के  लिए इन सभी की आवश्‍यकता होती है परंतु जब आप ये सोच लेते  हैं कि ''जो आप सोच रहे हैं वह ही आखिरी सत्‍य है'' तो फिर  किसी अन्‍य का समझाना भी कोई मायने नहीं रखता।

राष्‍ट्र के प्रति प्रेम, कर्तव्‍य और राष्‍ट्र को 'राष्‍ट्र' बनाए रखने के  लिए प्राप्‍त मौलिक अधिकारों के नाम पर आजकल जो 'खेल' होने  लगा है और राष्‍ट्र की एकता के लिए जायज हर बात को  राजनैतिक चश्‍मे से देखा जाने लगा है, उसके मद्देनजर यह जरूरी  हो गया है कि राष्‍ट्र के प्रति जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए।

कल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्‍वपूर्ण फैसले में कहा है कि  संविधान का सहारा सिर्फ अधिकारों का ढिंढोरा पीटने के लिए नहीं  लिया जाना चाहिए, कर्तव्‍यों को भी समझना चाहिए। राष्‍ट्रगान और  राष्ट्रध्‍वज का सम्‍मान करना प्रत्‍येक नागरिक का कर्तव्‍य है,  इसलिए राष्‍ट्रगान गाना और राष्‍ट्रध्‍वज फहराना, सभी शिक्षण  संस्‍थाओं व अन्‍य संस्‍थानों के लिए अनिवार्य है।

यह बातें चीफ जस्‍टिस डी. बी. भोंसले व जस्‍टिस यशवंत वर्मा की  खंडपीठ ने मऊ के अताउल मुस्‍तफा की उस याचिका को खारिज  करते हुए कहीं जिसमें प्रदेश सरकार के 3 अगस्‍त 2017 व 6  सितंबर 2017 के उस शासनादेश को चुनौती दी गई थी जिसमें  प्रदेशभर के मदरसों में अनिवार्य रूप से राष्‍ट्रगान करने की बात  लिखी थी। अताउल मुस्‍तफा ने इस साशनादेश को रद्द करने की  मांग की थी और इसे ''देशभक्‍ति थोपना'' बताया था। मुस्‍तफा ने  तो याचिका में यहां तक कह दिया कि यदि इसे अनिवार्य किया  जाता है तो यह उनकी धार्मिक आस्‍था और विश्‍वास के विरुद्ध है। 

याचिकाकर्ता अताउल मुस्‍तफा और इसकी जैसी सोच रखने वालों ने  क्‍या कभी ये भी सोचा है कि आखिर प्रदेश सरकार को मदरसों के  लिए ही ऐसा आदेश देने की जरूरत क्‍यों पड़ी, और इससे भी  ज्‍यादा शर्म की बात ये कि राष्‍ट्रगान व राष्‍ट्रध्‍वज के लिए 'सर्कुलर'  जारी करना पड़ा। जो कार्य स्‍वभावत: किये जाने चाहिए उसके लिए  सरकार को 'कहना' क्‍यों पड़ा? 

समझ में नहीं आता कि भाजपा सरकारों के हर कदम को  कट्टरवादी लोग मुस्‍लिम' विरोधी ही क्‍यों समझते हैं, क्‍या एक  राष्‍ट्र-एकभावना से काम नहीं किया जा सकता। क्‍या मुस्‍लिम इस  देश में मेहमान हैं। मीडिया में भी इन्‍हें ही 'संप्रदाय विशेष' क्‍यों कहा जाता  है। क्‍यों अधिकांश मुस्‍लिम, संविधान प्रदत्त अधिकारों की बात तो  करते हैं किंतु राष्‍ट्र के प्रति अपने कर्तव्‍य को नहीं समझते।  अल्‍पसंख्‍यकों में एक मुस्‍लिम वर्ग ही ऐसा है जो राजनीति से  लेकर नीतिगत फैसलों तक तथा राष्‍ट्र की सुरक्षा से लेकर शांति  कायम रखने के प्रयासों तक में टांग अड़ाता है और स्‍वयं को  दबा-कुचला तथा ''बेचारा'' साबित करने में लगा रहता है।

जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की और उसके बाद उत्‍तर प्रदेश में योगी  आदित्‍यनाथ की सरकार बनी है तभी से अचानक लोगों को मौलिक  अधिकार, धार्मिक अधिकार, ''खाने-पीने'' का अधिकार, देश की  अस्‍मिता को गरियाने का अधिकार, धार्मिक भावना के नाम पर  अराजकता का अधिकार याद आने लगा है। अचानक उन्‍हें लगा कि  ''अरे, ये भी तो मुद्दे हैं जिन पर सरकार को घेरा जा सकता है,  और सीधे सरकार न घिर सके तो कोर्ट के ज़रिए उसे और उसके  निर्णयों को चुनौती दी जा सकती है''। कर्तव्‍यों को ताक पर रखकर  अधिकारों की इस मुहिम को चलाने वाले इन तत्‍वों को संभवत: ये  पता नहीं था कि उनकी हर बात बूमरैंग की भांति उन पर ही भारी  पड़ने वाली है।

हाईकोर्ट ने मुस्‍तफा की याचिका खारिज करते हुए प्रदेश के  मुख्‍यसचिव को इस आशय का निर्देश भी दिया है कि सभी  मदरसों-शिक्षण संस्‍थाओं में राष्‍ट्रगान और राष्‍ट्रध्‍वज संबंधी दिए  गए राज्‍य सरकार के आदेश-निर्देशों का पालन करायें।

कितने कमाल की बात है कि राष्ट्रगान गाने के विरुद्ध कोर्ट में  याचिका लगायी जाती है और बात बात पर कैंडल मार्च निकालने वाले सभी बुद्धिजीवी खामोश रहते हैं।

पहले राष्‍ट्रगीत वन्दे मातरम्, अब राष्ट्रगान और फिर तिरंगा  फहराने पर आपत्‍ति, आखिर कट्टरवादियों की ये मुहिम कहां जाकर  ठहरेगी अथवा ये हर मुद्दे पर कोर्ट के आदेश-निर्देशों को ही मानने  के लिए बाध्‍य होंगे।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत यह अधिकारों का मजाक उड़ाना तो है  ही, साथ ही लाखों मुकद्दमों की सुनवाई के बोझ से दबी  न्‍यायपालिका के समय का दुरुपयोग करना भी है।
बहरहाल यह सोच ही शर्मनाक और आत्‍मघाती है लिहाजा इस पर  पाबंदी लगानी चाहिए वरना आज तक प्रचलित यह ''जुमला'' कि  हर मुसलमान बेशक आतंकवादी नहीं होता किंतु हर आतंकवादी,  मुसलमान ही क्‍यों होता है, आगे चलकर कड़वा सच न बन जाए।  राष्‍ट्र के प्रति सम्‍मान का भाव न रखने की ऐसी सोच ही कहीं  मुसलमानों को ऐसे रास्‍ते पर तो नहीं ले जा रही जहां उसका  खामियाजा पूरी कौम को भुगतना पड़ जाए और उनकी राष्‍ट्रभक्‍ति  पर हमेशा के लिए सवालिया निशान लग जाए। म्‍यांमार के  रोहिंग्‍या मुसलमानों का दर-दर भटकना इस स्‍थिति के आंकलन  करने का मौका दे रहा है,बशर्ते कट्टरवादी इसे समझने को तैयार  हों। म्‍यांमार उन्‍हें नागरिकता देने को तैयार नहीं है और बांग्‍लादेश  तथा चीन जैसे मुल्‍क उन्‍हें शरण देने से परहेज कर रहे हैं। और  तो और इस्‍लाम के नाम पर भारत से अलग हुआ पाकिस्‍तान भी  उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखता।   
बेहतर हो कि मुस्‍लिम खुद को राष्‍ट्र के जिम्‍मेदार नागरिक की तरह पेश करें और कठमुल्‍लों  एवं वोट के सौदागरों का मोहरा बनने की बजाय विचार करें कि  उनके क्रिया-कलाप शक के दायरे में क्‍यों आते जा रहे हैं।  जिस  दिन वह इस दिशा में विचार करने लगेंगे, उस दिन उन्‍हें यह भी  समझ में आ जाएगा कि किसी सरकार को क्‍यों मदरसों के अंदर  राष्‍ट्रगान के लिए आदेश देना पड़ता है और क्‍यों उनकी राष्‍ट्रभक्‍ति  वीडियोग्राफी की मोहताज है। 
- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

संस्‍कारों की खोज CCTV से

आज नवरात्रि की अष्‍टमी तिथि है, शक्‍ति के आगमन का ये त्‍यौहार कुछ घंटों में समापन  की ओर बढ़ चलेगा परंतु इन नवदुर्गाओं में बहुत कुछ ऐसा घट चुका है जो हमें अपने  छीजते मूल्‍यों की ओर मुड़कर देखने को विवश करता है कि आखिर चूक कहां हुई है। साथ  ही यह भी कि जहां चूक हुई वहां से अब आगे क्‍या-क्‍या और कैसे-कैसे सुधारा जा सकता  है।

शक्‍ति के आठ रूपों को मूर्तिरूप में पूजकर, नारियल और चुनरी ओढ़ाने के बाद भी यदि  अपने भीतर बैठे कलुष को हम तिरोहित नहीं कर पाते, तो शक्‍ति की आराधना एक रस्‍म  से ज्‍यादा और कुछ नहीं। और ये रस्‍म ही है जो तब भी निबाही गई थी जब निर्भया कांड  हुआ और ये रस्‍म पिछले हफ्ते भी निबाही गई जब बीएचयू की छात्राओं ने बाकायदा  अश्‍लील हरकतों की शिकायत यूनीवर्सिटी के वीसी से की।

मैं यहां वो शिकायती-पत्र दिखा रही हूं जो छात्राओं ने दिया।
शिकायती-पत्र जो छात्राओं ने दिया

हालांकि प्रदेश सरकार और  वीसी को इसमें भी राजनीति दिख रही थी। फिलहाल घटनाक्रम बता रहे हैं कि मुख्‍यमंत्री  योगी ने आश्‍वासन दिया है कि छात्रों पर लगे केस वापस लिए जाऐंगे, यूनीवर्सिटी में  प्रशासनिक उठापटक जारी है, वीसी हटा दिए गए हैं, चीफ प्रॉक्‍टर बदल दिए गए, कल से  सीआरपीएफ भी हटा ली गई, एबीवीपी का धरना खत्‍म हो गया, छात्र-छात्राओं का  आवागमन शुरू हो गया।

सब कुछ ढर्रे पर वापस मगर इतना सब होने के बाद हमें भी सोचना होगा कि आखिर  सरेआम छेड़खानी की ये घटनाऐं जो एक पूरे के पूरे विश्‍वविद्यालय की आन बान शान के  लिए खतरा बन गईं, यकायक तो नहीं उपजी होंगी ना। बात वहीं फिर हमारी उस चूक पर  ही आ जाती है, जो संस्‍कारों से जुड़ी है।
 
महिलाओं के खिलाफ छेड़खानी पहले भी होती थी मगर पिछले दो-ढाई दशकों में इसने  महामारी का रूप ले लिया है और अब तो इस महामारी ने वीभत्‍स रुख अख्‍तियार कर  लिया है। इतना वीभत्‍स कि ये बच्‍चियों के साथ साथ बच्‍चों और किशोरों को भी अपनी  गिरफ्त में ले रही है। धर्मविशेष- जाति विशेष- वर्गविशेष- लिंगविशेष के खांचे में भले ही  हम इसे बांट दें मगर ये है खालिस संस्‍कार का संकट ही। और ये संकट समाज में  संक्रामक हो चुका है, अब लड़का भी अगर लड़के से हंसकर बात करता है तो शक होने लगता है। अविश्‍वास का ये माहौल कभी कभी बेहद असहनीय और टूटन भरा होता है।

निश्‍चित ही आज भी हम ये निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि बुरी तरह छीजते अपने मूल्‍यों  को संभालें या आधुनिकता के तमगे को। इसी आधुनिकता के नाम पर अगर  ''संस्‍कारविहीन'' होना एक फैशन की तरह न बनाया गया होता, आज हमें अपने संस्‍कारों  की खोज सीसीटीवी के बहाने न करनी पड़ती।

यक्षप्रश्‍न अब भी वहीं मौजूद है कि सीसीटीवी आखिर कहां कहां लगाई जाए और इसके  होने का भय कितनी रक्षा कर पाएगा। स्‍कूल, कॉलेज, सार्वजनिक स्‍थानों के साथ साथ क्‍या  ये घरों में भी शोषण को रोक पाएगा। वह भी तब जबकि हमारे धर्माचार्य भी इसमें लिप्‍त  हों, घर के बड़े लिप्‍त हों।

आज रेयान इंटरनेशनल हो या बीएचयू की छेड़खानी का मामला, चंद रोज पहले गैंगरेप की  पीड़िता द्वारा यू-टर्न लेकर पुलिस में दर्ज रिपोर्ट को ''गुस्‍से में किया जाना'' बताना हो या  बाबाओं (साधु-संत नहीं) के एक वर्ग का बलात्‍कारी साबित होते जाना हो, ये सब उदाहरण  हमारे अधकचरे ज्ञान, अधकचरी सभ्‍यता, अधकचरी आधुनिकता के फलितार्थ ही तो हैं।

उदाहरण तो बहुत हैं इन मूल्‍यों और संस्‍कारों की धज्‍जियां उड़ाए जाने के मगर सभी को  एक कॉलम में लिखना संभव भी कहां, परंतु इतना अवश्‍य है कि इस माहौल को लेकर जो  घबराहट मैं महसूस कर रही हूं, निश्‍चित ही आप भी करते होंगे।

उक्‍त घटनाओं के बाद सीसीटीवी को बतौर सुबूत पेश किया जा रहा है मगर यह सीसीटीवी  वाला सुबूत संस्‍कारों के छीजन के पीछे की मानसिकता , अपराध करने वाले की  पारिवारिक पृष्‍ठभूमि और ''अपराध का आदतन'' होने की वजह नहीं बता सकता। सीसीटीवी  सुबूत हो सकते हैं मगर इनमें वो ताकत नहीं जो मां-बहन की गालियों से शुरू हुआ  संस्‍कारों के मौजूदा क्षरण को रोक सकें, ये भावनायें नहीं बता सकते, विनम्रता और दूसरों  की इज्‍जत करना नहीं सिखा सकते, वह तो ''घर'' ही सिखा सकता है।

छेड़खानी की हर घटना पर राजनीति के बुलबुले हमारी नजरों से समस्‍या को ओझल करने  का प्रयत्‍न करते हैं तभी तो बीएचयू का सिंहद्वार हो या जेएनयू का हॉस्‍टल, रेयॉन  इंटरनेशनल हो या गाजियाबाद की नन्‍हीं बच्‍ची का मामला सभी में नेतागिरी हुई, सरकारों  के विरोध में बवाल हुआ मगर इन राजनैतिक बुलबुलों में भी घरों से जो संस्‍कार ओझल  हुए हैं,उस ओर कोई बात नहीं कर रहा। ज़ाहिर है कि नौदेवी अब भी हमारी उस अंतरात्‍मा  को नहीं जगा पाई है जो शक्‍तिपूजा के नाम पर घंट-घड़ियाल लेकर हर घर पर दस्‍तक  देती है कि जागो अब भी वक्‍त है...बहुत कुछ सुधारा जा सकता है।
 
-अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

हे देवि! अब मृजया रक्ष्यते को लेकर हमारी शर्मिंदगी भी स्‍वीकार करें

durga-puja-sindur-khela-painting-by-ananta-mandal
अतिवाद कोई भी हो, वह सदैव संबंधित विषय की उत्‍सुकता को नष्‍ट कर देता है। अति  की घृणा, प्रमाद, सुंदरता, वैमनस्‍य, भोजन, भूख, जिस तरह जीवन को प्रभावित करती  हैं और स्‍वाभाविक प्रेम, त्‍याग, कर्तव्‍य को खा जाती हैं उसी प्रकार आजकल ''अति  धार्मिकता'' अपने कुछ ऐसे ही दुष्‍प्रभावों को हमारे सामने ला रही है। जो धर्म से जुड़ी  उत्‍सवधर्मिता कभी हमारी खासियत हुआ करती थी और अपने ही रंग में देश के हर  वर्ग को तथा हर क्षेत्र को रंगकर उत्‍साह भरती थी, आज वही अतिवाद की शिकार हो  गई है।

इसी ''अति धार्मिकता'' ने जहां धर्म को तमाम फर्जी बाबाओं के हवाले किया,  वहीं सोशल मीडिया और बाजारों में लाकर 'धर्म के उपभोक्‍तावाद' का प्रचार किया।

इस सारी जद्दोजहद के बीच इन उत्‍सवों को मनाने का जो मुख्‍य मकसद था, वह  तिरोहित हो गया। कभी जीवन पद्धति में तन-मन की स्‍वच्‍छता को निर्धारित करने  वाला हमारा धर्म ही बाजार और फाइवस्‍टार सुविधाओं वाले आश्रमों के जरिए समाज की  कमजोरी बन गया।

जिन धार्मिक उत्‍सवों को मनाने का सर्वोपरि उद्देश्‍य स्‍वच्‍छता हुआ करता था, उसके  लिए आज देशभर में प्रधानमंत्री को चीख-चीखकर कहना पड़ रहा है कि स्‍वच्‍छता को  संकल्‍प बनाएं। ये हमारे लिए बेहद शर्म की बात है कि आज स्‍वच्‍छता सिखानी पड़ रही  है, कचरे के ढेरों पर बैठकर हम देवी-देवताओं की (बाजार के अनुसार) आराधना तो कर  रहे हैं परंतु स्‍वच्‍छता का संकल्‍प नहीं लेते।

इस ओढ़ी हुई ''अति धार्मिकता'' के कारण ही हर त्‍यौहार को मनाने की बाध्‍यता ने तन  और मन दोनों की स्‍वच्‍छता पीछे डाल दी तथा धार्मिक उपदेशों-प्रवचनों-परंपराओं-रूढ़ियों  के मुलम्‍मे आज के इन धार्मिक आयोजनों की हकीकत बन गए।
 
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी कल से एक बार फिर शारदीय नवरात्र की स्थापना हो  चुकी है। बाजारवाद के कारण ही सभी को धन, धान्य, सुख, समृद्धि और संतुष्टि से  परिपूर्ण जीवन की कामनाओं वाले स्‍लोगन से सजे संदेश इनबॉक्‍स को भरने लगे हैं।  कब श्रावण माह की गहमागहमी के बाद श्रीकृण जन्‍माष्‍टमी के बाद गणपति की  स्‍थापना-विसर्जन, श्राद्ध पक्ष और अब नवरात्रि का विजयदशमी तक चलने वाला दस  दिवसीय उत्‍सव आ गया, पता ही नहीं चला। मगर इस बीच जो सबसे ज्‍यादा प्रभावित  रही, वह है स्‍वच्‍छता जबकि उपर्युक्‍त सभी उत्‍सवों में स्‍वच्‍छता प्रधान है।

कोई भी पूजा मन, वचन और कर्म की शुद्धि व स्‍वच्‍छता के बिना पूरी नहीं होती,  शारदीय नवरात्र देवी के आगमन का पर्व है। देवी उसी घर में वास करती है, जहां  आंतरिक और बाह्य शुद्धि हो। वह कहती भी है कि मृजया रक्ष्यते (स्‍वच्‍छता से रूप की  रक्षा होती है), स्‍वच्‍छता धर्म है इसीलिए यही पूजा में सर्वोपरि भी है। शरीर, वस्त्र,  पूजास्‍थल, आसन, वातावरण शुद्ध हो, कहीं गंदगी ना हो। यहां तक कि पूजा का प्रारंभ  ही इस मंत्र से होता है -''ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्‍थां गतोsपिवा।

इसके अलावा  देवीशास्‍त्र में 8 प्रकार की शुद्धियां बताई गई हैं- द्रव्‍य (धनादि की स्‍वच्‍छता अर्थात्  भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो), काया (शरीरिक स्‍वच्‍छता), क्षेत्र (निवास या कार्यक्षेत्र के आसपास  स्‍वच्‍छता), समय (बुरे विचार का त्‍याग अर्थात् वैचारिक स्‍वच्‍छता), आसन (जहां बैठें  उस स्‍थान की स्‍वच्‍छता), विनय (वाणी में कठोरता ना हो), मन (बुद्धि की स्‍वच्‍छता)  और वचन (अपशब्‍दों का इस्‍तेमाल ना करें)। इन सभी स्‍वच्‍छताओं के लिए अलग  अलग मंत्र भी हैं इसलिए आपने देखा होगा कि पूजा से पहले तीन बार आचमन, न्‍यास,  आसन, पृथ्‍वी, दीप, दिशाओं आदि को स्‍वच्‍छ कर देवी का आह्वान किया जाता है।

विडंबना देखिए कि देवी का इतने जोर शोर से आह्वान, बाजारों में चुनरी-नारियल के  ढेर, मंदिरों में लगी लंबी-लंबी लाइनें ''देवी आराधना'' के उस मूलतत्‍व को ही भुला चुकी  हैं जो देवी (स्‍वच्‍छता की ओर) के हर मंत्र में निहित किया गया है। बाजार आधारित इस समय में पूरे नौ दिनों के इस उत्‍सव को लेकर जिस उत्‍साह के दिखावे की हमसे अपेक्षा की जाती है, उसे हम बखूबी पूरा कर रहे हैं। हमारे स्‍मार्टफोन इसके गवाह हैं मगर देवी आराधना की पहली शर्त को हम मानने से इंकार करते हैं, जिसका उदाहरण हैं हमारे आसपास आज भी लगे गंदगी के ढेर।

यह ''अति धार्मिकता'' का प्रकोप ही है कि देवी की मृजया रक्ष्यते की सीख को ध्‍वस्‍त करते हुए बिना कोई शर्मिंदगी दिखाए हम जोर जोर से लाउडस्‍पीकरों व घंटे-घड़ियालों के साथ उच्‍चारित करते जा रहे हैं- या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्‍मीरूपेण संस्‍थिता...नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमो नम: .... साथ ही शुभकामनाओं के साथ इस मंत्र का मैसेज फॉरवर्ड भी करते जा रहे हैं... कुछ सेल्‍फियों के साथ और इस अति ने कुछ इसी तरह स्‍वच्‍छता को तिरोहित कर दिया है सो हे देवि अब हमारी शर्मिंदगी भी स्‍वीकार करें।

-अलकनंदा सिंह


सोमवार, 18 सितंबर 2017

एक ट्वीट ने मृणाल पांडे की कलई खोल दी

जब बड़े ओहदे पर रह चुकी नामचीन हस्‍ती मात्र अपनी खुन्‍नस निकालने को मर्यादा के सबसे निचले स्‍तर पर उतर आए और गली कूचों में इस्‍तेमाल की जाने वाली गरियाऊ भाषा को अपना हथियार बना ले तो क्‍या कहा जाए ऐसे व्‍यक्‍ति को।
दैनिक हिन्‍दुस्‍तान की प्रधान संपादक रह चुकीं मृणाल पांडे ने अपनी नकारात्‍मकता को अब चरम पर ले जाते हुए प्रधानमंत्री को उनके जन्‍मदिन पर ही कटु ट्वीट करके यह बता दिया है कि कभी किसी संस्‍थान के उच्‍च पद पर बैठ जाने से जरूरी नहीं कि वह व्‍यक्‍ति बुद्धिमान भी हो जाए।
मैंने पहले भी मृणाल पांडे की नकारात्‍मकता पर लिखा है और आज फिर उन्‍होंने मुझे ही नहीं, पूरे पत्रकार जगत को मौका दे दिया कि अब इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए कि ”किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्‍यक्‍ति को किस हद तक गरियाया जा सकता है”।


दरअसल, कल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन 17 सिंतबर पर वरिष्ठ पत्रकार, प्रसार भारती की पूर्व चेयरपर्सन और साहित्यकार मृणाल पांडे ने भी एक ट्वीट किया जिसमें मृणाल पांडे ने लिखा- #JumlaJayanti पर आनंदित, पुलकित, रोमांचित वैशाखनंदन.’ साथ में ये चित्र भी पोस्‍ट किया।
पीएम मोदी पर मृणाल पांडे का ये ट्वीट तब आया है, जब नरेन्द्र मोदी अपना 67वां जन्मदिन मना रहे हैं। मृणाल पांडे के ट्वीट पर लोगों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और उनके इस ट्वीट को प्रधानमंत्री और स्‍वयं मृणाल पांडे की अपनी गरिमा के खिलाफ बताया। हद तो तब हो गई कि मृणाल पांडे ने कई लोगों जवाब देते हुए कहा कि वो अपने विचार पर कायम हैं।
इस ट्वीट ने पत्रकार जगत को भी भौचक्के में डाल दिया। तमाम पत्रकारों को समझ नहीं आ रहा कि इस पर रिएक्‍ट कैसे करें।
उनके इस ट्वीट की रवीश कुमार, अजीत अंजुम सहित तमाम पत्रकारों ने भी निंदा की और कहा है कि वो इतनी बड़ी हस्ती हैं तो उन्हें सोशल मीडिया पर मर्यादित भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। किसी के भी जन्मदिन के मौके पर पहले बधाई देने की उदारता होनी चाहिए, फिर किसी और मौक़े पर मज़ाक का अधिकार तो है ही। मृणाल रुक सकती थीं। कहीं तो मानदंड बचा रहना चाहिए. थोड़ा रुक जाने में कोई बुराई नहीं है. एक दिन नहीं बोलेंगे, उसी वक्त नहीं टोकेंगे तो नुक़सान नहीं हो जाएगा.”
पत्रकार अजीत अंजुम ने सोशल मीडिया पर लिखा, “मृणाल जी, आपने ये क्या कर दिया ? पीएम मोदी का जन्मदिन था. देश -दुनिया में उनके समर्थक/चाहने वाले/नेता/कार्यकर्ता/जनता/मंत्री/सासंद/विधायक जश्न मना रहे थे. उन्हें अपने-अपने ढंग से शुभकामनाएँ दे रहे थे. ये उन सबका हक़ है जो पीएम मोदी को मानते-चाहते हैं. ट्विटर पर जन्मदिन की बधाई मैंने भी दी. ममता बनर्जी और राहुल गांधी से लेकर तमाम विरोधी नेताओं ने भी दी. आप न देना चाहतीं तो न देतीं, ये आपका हक़ है. भारत का संविधान आपको पीएम का जन्मदिन मनाने या शुभकामनाएँ देने के लिए बाध्य नहीं करता. आप जश्न के ऐसे माहौल से नाख़ुश हों, ये भी आपका हक़ है लेकिन पीएम या उनके जन्मदिन पर जश्न मनाने वाले उनके समर्थकों के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल करें, ये क़तई ठीक नहीं.”
आश्‍चर्य होता है कि अपनी उम्र के उत्‍तरार्द्ध में आकर ”भाषा के बूते” ही साहित्‍य में अमिट छाप छोड़ने वाली कथाकार शिवानी की पुत्री मृणाल ही उस ”भाषा की मर्यादा” को तार-तार कर रही हैं। मृणाल पांडे उनकी जैविक पुत्री अवश्‍य हैं परंतु बौद्धिक पुत्री नहीं हो सकतीं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारी भाषा शैली और व्यवहार से हमारे चरित्र का बोध होता है इसलिए दैनिक जीवन में अपनी भाषा के उपयोग को लेकर हमें सजग रहना चाहिए, फिर सोशल मीडिया के किसी प्‍लेटफॉर्म पर तो और भी सतर्कता बरतनी चाहिए, परंतु मृणाल ऐसा न कर सकीं। इसे यथार्थवाद या मज़ाक भी तो नहीं कहा जा सकता।
प्रधानमंत्री के पद पर बैठे एक व्यक्ति के लिए खुद को हिन्दुस्तान की प्रथम महिला संपादक होने का तमगा देने वाली महोदया की ऐसी भाषा और अभिव्यक्ति पर सिर्फ अफ़सोस के और कुछ नहीं किया जा सकता। परंतु वरिष्‍ठ पत्रकारों द्वारा इसको ”अनुचित” कहना, अच्‍छा लगा वरना इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया (चूंकि प्रिंट मीडिया की प्रतिक्रिया त्‍वरित नहीं होती ) अपनी बिरादरी के माननीयों के शब्‍दों को दाएं-बाएं करने में माहिर है। जहां तक मुझे लग रहा है कि गौरीलंकेश की हत्‍या के बाद ये सुखद परिवर्तन आया है। अब ये परिवर्तन स्‍थायी है या नहीं, कहा नहीं जा सकता।
आमतौर पर कहा जाता है कि अब कोई 60 की उम्र होने पर ही नहीं सठियाता, वह अपनी सोच से सठियाता है। जिन्‍होंने मृणाल पांडे के साथ काम किया है, वे अच्‍छी तरह जानते हैं कि भारी भरकम शब्‍दों को उन्‍होंने किस तरह ढोया है, अब वो थक चुकी हैं और थकान में नकारात्‍मकता आ ही जाती है, ट्विटर पर ये अपनी मानसिक थकान उतार रही हैं। इस एक ट्वीट ने मृणाल पांडे को कहां से कहां पहुंचा दिया, सारी कलई उतर गई है उनकी।
मृणाल पांडे की सोच पर इब्न-ए-इंशा का ये शेर बिल्‍कुल मुफीद बैठता है-
”शायर भी जो मीठी बानी बोल के मन को हरते हैं
बंजारे…जो ऊँचे दामों जी के सौदे करते हैं।”
-अलकनंदा सिंह