श्री दुर्गा सप्तशती के आठवें अध्याय में देवी दुर्गा रक्तबीज नाम के जिस राक्षस से युद्ध कर रही थीं उसके रक्त की एक-एक बूंद से हर बार नया राक्षस पैदा होने का वर्णन श्लोकों में आता है। उस राक्षस का अंत करने के लिए देवी को अपनी अन्य शक्तियों का आव्हान करना पड़ता है, तब सारी शक्तियां मिलकर रक्तबीज के रक्त की एक- एक बूंद को पृथ्वी पर गिरने से रोकते हुए राक्षस का अंत करती हैं।
अभी तक आधुनिक युग के शोधकर्ताओं व बुद्धिजीवियों द्वारा श्री दुर्गा सप्तशती में वर्णित यह वृत्तांत पुराणों की कपोल कल्पना और अतिशयोक्ति का एक उदाहरण माना जाता रहा है। अब जबकि यह साबित होने जा रहा है कि आधुनिक विज्ञान जहां आज पहुंचा है, भारतीय सभ्यता अपने उस उत्कर्ष को पहले ही प्राप्त कर चुकी थी, तब यह भी जानना आश्चर्य में नहीं डालता कि रक्त की मात्र एक ही बूंद से व्यक्ति का Clone बनाया जा सकता है और तो और उसे म्यूटेशंस के जरिए थोड़े ही समय में कई गुना तक किया जा सकता है, विशाल आकार भी दिया जा सकता है।
हाल ही में मेरठ के छात्र प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी द्वारा तैयार एक शोधपत्र को चीन के अंतर्राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी सम्मेलन के लिए चुना गया है। और यह शोध अमेरिका की इनोवेटिव जर्नल ऑफ मेडीकल साइंस के आगामी अंक में छपने जा रहा है। प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी ने अपने प्रयोग में रक्तबीज को कपोल कल्पना मानने से इंकार करते हुए बताया है कि रक्तबीज कोई चमत्कार नहीं बल्कि अति विकसित विज्ञान का एक उदाहरण था जो सबसे पहला Clone कहा जाता है।
भारतीय पौराणिक कथानकों की सत्यता सिद्ध करते हुए इन शोध छात्रों ने अपने प्रयोग के माध्यम से बायोटेक्नोलॉजिकली दावा किया है कि रक्त एवं शुक्राणुओं के बीच 95 प्रतिशत समानता पाई जाती है। ऐसे में रक्त से भी जीवन की उत्पत्ति संभव है। रक्त और वीर्य के न्यूक्लियस प्रोटीन समान होते हैं। यही प्रोटीन्स डीएनए संजाल के जरिए वंशानुगत गुण-दोषों के साथ बच्चों में स्थानांतरित होते हैं।
किसी व्यक्ति के उभयलिंगी होने पर यह संभावना और बढ़ जाती है कि वह शुक्राणु और अंडाणु बनाने की समान क्षमता रखता है। रक्तबीज का रक्त जब जमीन पर गिरा तो सफेद रक्त कोशिकाओं का न्यूक्लियस उसी के अंडे से फ्यूज कर नया भ्रूण बनाता रहा।
नई क्लोनिंग साइंस पद्धति इसी सिद्धांत पर काम करती है। रक्तबीज के रक्त से तैयार भ्रूण को जमीन से कार्बन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर और ऑक्सीजन समेत तमाम पोषक तत्व मिलते रहे।
जापान में रक्त की एक बूंद से 600 चूहे पैदा करने का कुछ दिनों पहले एक रिकॉर्ड बनाया गया था।
बायोटेक्नोलॉजी का यह प्रयोग क्लोनिंग में काफी समय ये उपयोग होता रहा है मगर भारतीय शोधकर्ताओं का यह पहला उत्साहजनक प्रयास है जो हमारी ही सभ्यता और विज्ञान से हमें पुन: परिचित करवा रहा है। प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी का यह प्रयास सनातन (हिंदू) धर्म के उस कथन की पुष्टि करता है जिसमें धर्म और विज्ञान को एक ही सिक्के के दो पहलू बताया गया है।
दुर्गा सप्तशती या अन्य पौराणिक उदाहरणों से असहज होने वालों के लिए यह पचा पाना असंभव है कि ऋिषि दधीचि की वज्र जैसी हड्डियां हों या उनसे वज्रास्त्र बनाने के लिए उनका त्याग, राक्षसों का आसमान की ओर उड़ना और युद्ध करते हुए जमीन पर आना, रावण के एक मस्तिष्क का दस सिरों की भांति द्रुत गति से काम लेना, पुष्पक विमान, सीता का भूमि से उपजना, एक ही भ्रूण के सौ हिस्से होकर कौरवों के रूप में हमारे सामने आना, बिना शारीरिक संपर्क के ही कुंती के पांच पुत्र और उभयलिंगी व्यक्ति होना या ऋिषियों के शरीर से किसी बच्चे का जन्म या फिर कृष्ण जन्म के समय योगमाया का भ्रूण प्रत्यारोपण जैसी घटनायें सिर्फ कहानियांभर नहीं हैं।
यह उस समय में आनुवांशिकी विज्ञान का चरमोत्कर्ष था जिसमें बाकायदा स्टेम सेल्स, वीर्य, रक्त, मज्जा, हारमोन्स, आईवीएफ तकनीक, म्यूटेशंस और हाइब्रिड तकनीक का बेहतरीन उपयोग था।
किसी भी सभ्यता के चरमोत्कर्ष के बाद उसे प्रकृति के नियमानुसार नीचे आना ही होता है और यही नीयति हमारी इस पौराणिक सभ्यता की भी रही, नतीजा यह है कि आज हजारों साल बाद यदि कोई कहता है कि कभी हमारी सभ्यता इतनी विकसित थी तो यकायक विश्वास नहीं होता और ज्यादातर लोग इसे अंधविश्वास की अतिवादिता कहकर स्वयं अपने ही धर्म को संशय से देखने लगते हैं। वे तभी विश्वास करते हैं जब क्लोनिंग व म्यूटेशंस का उदाहरण एक्स मैन और हल्क जैसी हॉलीवुड फिल्में पेश करती हैं ।
- अलकनंदा सिंह
अभी तक आधुनिक युग के शोधकर्ताओं व बुद्धिजीवियों द्वारा श्री दुर्गा सप्तशती में वर्णित यह वृत्तांत पुराणों की कपोल कल्पना और अतिशयोक्ति का एक उदाहरण माना जाता रहा है। अब जबकि यह साबित होने जा रहा है कि आधुनिक विज्ञान जहां आज पहुंचा है, भारतीय सभ्यता अपने उस उत्कर्ष को पहले ही प्राप्त कर चुकी थी, तब यह भी जानना आश्चर्य में नहीं डालता कि रक्त की मात्र एक ही बूंद से व्यक्ति का Clone बनाया जा सकता है और तो और उसे म्यूटेशंस के जरिए थोड़े ही समय में कई गुना तक किया जा सकता है, विशाल आकार भी दिया जा सकता है।
हाल ही में मेरठ के छात्र प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी द्वारा तैयार एक शोधपत्र को चीन के अंतर्राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी सम्मेलन के लिए चुना गया है। और यह शोध अमेरिका की इनोवेटिव जर्नल ऑफ मेडीकल साइंस के आगामी अंक में छपने जा रहा है। प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी ने अपने प्रयोग में रक्तबीज को कपोल कल्पना मानने से इंकार करते हुए बताया है कि रक्तबीज कोई चमत्कार नहीं बल्कि अति विकसित विज्ञान का एक उदाहरण था जो सबसे पहला Clone कहा जाता है।
भारतीय पौराणिक कथानकों की सत्यता सिद्ध करते हुए इन शोध छात्रों ने अपने प्रयोग के माध्यम से बायोटेक्नोलॉजिकली दावा किया है कि रक्त एवं शुक्राणुओं के बीच 95 प्रतिशत समानता पाई जाती है। ऐसे में रक्त से भी जीवन की उत्पत्ति संभव है। रक्त और वीर्य के न्यूक्लियस प्रोटीन समान होते हैं। यही प्रोटीन्स डीएनए संजाल के जरिए वंशानुगत गुण-दोषों के साथ बच्चों में स्थानांतरित होते हैं।
किसी व्यक्ति के उभयलिंगी होने पर यह संभावना और बढ़ जाती है कि वह शुक्राणु और अंडाणु बनाने की समान क्षमता रखता है। रक्तबीज का रक्त जब जमीन पर गिरा तो सफेद रक्त कोशिकाओं का न्यूक्लियस उसी के अंडे से फ्यूज कर नया भ्रूण बनाता रहा।
नई क्लोनिंग साइंस पद्धति इसी सिद्धांत पर काम करती है। रक्तबीज के रक्त से तैयार भ्रूण को जमीन से कार्बन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर और ऑक्सीजन समेत तमाम पोषक तत्व मिलते रहे।
जापान में रक्त की एक बूंद से 600 चूहे पैदा करने का कुछ दिनों पहले एक रिकॉर्ड बनाया गया था।
बायोटेक्नोलॉजी का यह प्रयोग क्लोनिंग में काफी समय ये उपयोग होता रहा है मगर भारतीय शोधकर्ताओं का यह पहला उत्साहजनक प्रयास है जो हमारी ही सभ्यता और विज्ञान से हमें पुन: परिचित करवा रहा है। प्रियांक भारती और गरिमा त्यागी का यह प्रयास सनातन (हिंदू) धर्म के उस कथन की पुष्टि करता है जिसमें धर्म और विज्ञान को एक ही सिक्के के दो पहलू बताया गया है।
दुर्गा सप्तशती या अन्य पौराणिक उदाहरणों से असहज होने वालों के लिए यह पचा पाना असंभव है कि ऋिषि दधीचि की वज्र जैसी हड्डियां हों या उनसे वज्रास्त्र बनाने के लिए उनका त्याग, राक्षसों का आसमान की ओर उड़ना और युद्ध करते हुए जमीन पर आना, रावण के एक मस्तिष्क का दस सिरों की भांति द्रुत गति से काम लेना, पुष्पक विमान, सीता का भूमि से उपजना, एक ही भ्रूण के सौ हिस्से होकर कौरवों के रूप में हमारे सामने आना, बिना शारीरिक संपर्क के ही कुंती के पांच पुत्र और उभयलिंगी व्यक्ति होना या ऋिषियों के शरीर से किसी बच्चे का जन्म या फिर कृष्ण जन्म के समय योगमाया का भ्रूण प्रत्यारोपण जैसी घटनायें सिर्फ कहानियांभर नहीं हैं।
यह उस समय में आनुवांशिकी विज्ञान का चरमोत्कर्ष था जिसमें बाकायदा स्टेम सेल्स, वीर्य, रक्त, मज्जा, हारमोन्स, आईवीएफ तकनीक, म्यूटेशंस और हाइब्रिड तकनीक का बेहतरीन उपयोग था।
किसी भी सभ्यता के चरमोत्कर्ष के बाद उसे प्रकृति के नियमानुसार नीचे आना ही होता है और यही नीयति हमारी इस पौराणिक सभ्यता की भी रही, नतीजा यह है कि आज हजारों साल बाद यदि कोई कहता है कि कभी हमारी सभ्यता इतनी विकसित थी तो यकायक विश्वास नहीं होता और ज्यादातर लोग इसे अंधविश्वास की अतिवादिता कहकर स्वयं अपने ही धर्म को संशय से देखने लगते हैं। वे तभी विश्वास करते हैं जब क्लोनिंग व म्यूटेशंस का उदाहरण एक्स मैन और हल्क जैसी हॉलीवुड फिल्में पेश करती हैं ।
- अलकनंदा सिंह