आतंकवादियों की पैरवी करने वाली ज़हरीली और बीमार सोच का कोई इलाज नहीं हो सकता । किसी भी संविधान या कानून में सोच की नकारात्मकता को खत्म करने का प्राविधान अभी तक नहीं आया है।
1. प्रिप्लांड मास मर्डर को दंगों से कंपेयर करना
2. प्रो मुस्लिम और एंटी हिंदू को लाइन ऑफ सेक्यूलरिज्म बनाना
3. कश्मीर में अलगाववादियों के लश्कर व आईएस की झंडों को फहराने को देशद्रोह बताने की बजाय सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आपत्ति जताना
4. बहुसंख्यकों की पूरी कौम को अपराधी और अल्पसंख्यकों की पूरी कौम को निर्दोष साबित करने में जुटे रहना
5. बहसों के माध्यम से आतंकवाद की मुखालफत की बजाय आतंकवादियों के मानवाधिकारों की बात को तवज्जो देना
ये कुछ बातें ऐसी हैं जिन्होंने पिछले दिनों से याकूब मेमन की फांसी को लेकर पूरे सिस्टम को ही दोषी बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुस्लिम होने की वजह से याकूब की फांसी को अन्याय साबित करने पर तुले हुए लोग तो ऐसा लगता है कि उसे आतंकवादी ही नहीं मान पा रहे हैं ।
गरीबी, अन्याय की घटनाओं , बेरोजगारी से जूझ रहे युवाओं , किसानों की वाजिब मुश्किलों, से अलग सिर्फ ये ' हिंदू-मुस्लिम ' जैसे हॉट टॉपिक्स की तलाश में रहते हैं। हरसंभव प्रयास यही किया जाता है कि हिंदू को खलनायक और मुस्लिम को नायक साबित किया जा सके। बिल्कुल ऐसे ही जैसे कि सड़क पर एक्सीडेंट भले ही साइकिल वाले की गलती से हुआ हो मगर दोष कार वाले का ही माना जाना निश्चित होता है।
याकूब की फांसी से दंगों की विभीषिका की तुलना अक्लमंदों की ऐसी भीड़ कर रही है जो हर हाल में साबित करना चाहती है कि - 22 साल तक कोर्ट ने झक मारी है, राष्ट्रपति बौराए हुए हैं। याकूब को शहीद बताने वाले यह भी भूल जाते हैं कि एक मुसलमान कलाम भी थे, जिनकी जयजयकार में डेढ़ किलोमीटर तक हिंदू और मुसलमानों ने लाइन लगा रखी थी।
सच में कमाल हैं ये लोग .... इन्हें तो खैर मनानी चाहिए कि ये पाकिस्तान में पैदा नहीं हुए जहां गैर धर्म की बात भी करना गुनाह हो जाता है, पलभर में ईशनिंदा हो जाती है, इन्हें तो ईश्वर का शुक्रिया करना चाहिए कि ये भारत में हैं... आजाद भारतीय... जिसे पूरी आजादी होती है अपना धर्म अपना कर्म और अपना अस्तित्व बनाए रखने की ।
मगर
इस ज़हरीली और बीमार सोच का कोई इलाज नहीं हो सकता । किसी भी संविधान या कानून में सोच की नकारात्मकता को खत्म करने का प्राविधान अभी तक नहीं आया है।
याकूब के लिए दहाड़ मार कर रोने वालों की इस मौजूदा सोच पर सिवाय हैरानी और दुख जताने के और किया क्या जा सकता है ।
इस संबंध में कमाल हैं एनडीटीवी समेत कई चैनल्स पर बहसियाने वाले महानुभाव और उनके एंकर। ये कथित तौर पर बड़े एंकर , इन्हें प्रो मुस्लिम या प्रो पुअर समझने की गलती कभी न करियेगा, ये सिर्फ प्रो क्रिमिनल हैं बस्स.....।
टीवी पर प्राइम टाइम का एक घंटा बरबाद करने वाले , ढेर सारे मेकअप और टचअप्स के साथ एसी रूम्स में बैठने वाले , जो कि पहले से लिखी स्क्रिप्ट के बिना बोल भी नहीं सकते , इस हकीकत को नजरअंदाज करके कि एक अपराधी जो कि प्रिप्लांड मास मर्डर का एक्टिव एजेंट भी था , आखिर साबित क्या करना चाहते हैं कि मानवाधिकार सिर्फ क्रिमिनल्स के होते हैं , उन मरने वालों के क्या कोई मानवाधिकार नहीं जो इनकी हत्यारी करतूत के विक्टिम बने । उनमें औरतें भी थीं, बच्चे भी, हिंदू भी थे , मुस्लिम भी।
अत्यंत दुख और क्षोभ का विषय है कि प्राइम टाइम का मोस्टवांटेड टॉपिक बनाने में कामयाब रहे इलेक्ट्रानिक चैनल्स ने सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति के निर्णय पर उंगली ही नहीं उठाई बल्कि उसे कठघरे में भी खड़ा करने की कोशिश की है।
यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही रहा है कि इसपर दूसरों के आक्रमण से ज्यादा तो अपनों ने ही छलनी किया।
विरोध करना ही है तो देश के टैक्स का जितना हिस्सा याकूब जैसे अपराधियों की परवरिश पर खर्च हो जाता है, उस पर किया जाना चाहिए विरोध, जिससे ना जाने कितने अनाथों व असहायों की जिंदगी संवर सकती है।
क्या प्राइम टाइम वालों ने उन विधवाओं , अनाथ बच्चों , अपंगों को जाकर देखा जो याकूब की दहशतगर्दी की भेंट चढ़ गए।
बहस ही करनी है तो इस पर कीजिए कि आखिर न्याय में देरी को कम करने के लिए क्या क्या उपाय किए जा सकते हैं। बहस इस पर भी होनी चाहिए कि सरकारें इस न्याय व्यवस्था को दुरुस्त करने में ढीली क्यों पड़ रही हैं।
हर हाल में किसी भी अपराधी को हमारे टैक्स पर पालने का रिवाज खत्म होना चाहिए। आतंकवाद से जुड़े फैसलों की समयसीमा निर्धारित की जानी चाहिए।
कम से कम जनता को इस बेवकूफियानी बहस से निजात तो मिलेगी ।
- अलकनंदा सिंह
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